मुक्तिबोध के 50वें स्मृतिदिवस के अवसर पर उनका प्रसिद्ध लेख
नौजवान का रास्ता
पहाड़ों को तोड़कर, चट्टानी दीवारों को काटकर, कगारों को ढहाकर, गूँजकर और गुँजाकर, पहाड़ी क्षेत्र की धड़कन बनकर, जो आगे बढ़ रहा है उसी को अपनी भाषा में झरना कहते हैं। यही झरना ज़रा दूर चलने पर पहाड़ी नदी बन जाता है। इस नदी के जलनार्द की खोज करने पर पता चलता है वहाँ एक प्रपात है, धुआँधार है, जलधूम है।
अन्वेषक निकलते हैं। रिसर्च के विद्यार्थी निकलते हैं, इंजीनियर्स निकलते हैं। उस स्थान की खोज करते हैं। प्रपात तक रास्ता बनाते हैं, उस पहाड़ी नदी की शक्तिशाली धारा की ताक़त को बिजली की ताक़त में रूपान्तरित करने के लिए एक बिजलीघर बनाया जाता है। वैज्ञानिक अनुसन्धानकर्ता, कार्यकर्ता, कारीगर, कर्मचारी और कलाकार और मज़दूर सभी इकट्ठा हो जाते हैं। दूरवर्ती क्षेत्रों में सस्ती बिजली के ज़रिये सिंचाई होती है, कारख़ाने चलते हैं, और देश की धन-धान्य समृद्धि बढ़ती जाती है। कवि और उपन्यासकार बिजलीघर के श्रमशील जीवन के चित्र उभारते हैं, उन्हें गाते हैं। पिछड़ा हुआ मुल्क उन्नति के इतिहास के मार्ग पर दनदनाता हुआ आगे बढ़ जाता है।
अगर नौजवानी की ताक़त को, ज्ञान और बुद्धि तथा कर्म निश्चय की बिजली में रूपान्तरित करते हुए, देश-निर्माण यानी मानव-निर्माण की ऊँची-से-ऊँची मंज़िल तक पहुँचाया जा सकता है, बंजर परती ज़िन्दगी में इश्क़ और इन्क़लाब की रूहानियत की फसल खड़ी की जा सकती है।
ज़िन्दगी बड़ी ही ख़ूबसूरत चीज़ है, वह जीने के लिए है, मरने के लिए नहीं। अच्छे आदमी क्यों दुख भोगें – इतने नेक आदमी और इतने अभागे! दुनिया में बुरे आदमियों की संख्या नगण्य है, अच्छे आदमियों के सबब ज़िन्दगी बहुत ही ख़ूबसूरत चीज़ है, वह जीने के लिए है, मरने के लिए नहीं।
लेकिन नौजवानों के दिलोदिमाग़ की ताक़त को बिजली में रूपान्तरित करते हुए, देश-निर्माण और मानव-निर्माण में लगाने के लिए, जिस बिजलीघर की ज़रूरत होती है, वह हिन्दुस्तान में नदारद है। अब देश की उन्नति हो तो कहाँ से हो और कैसे हो। जिस देश में नौजवान मारे-मारे फिरते हैं, बेकार रहते हैं, भूखों मरते हैं (बौद्धिक और हार्दिक विकास के लक्ष्य ही जहाँ गुम हैं) तो उस देश के नौजवान अगर अपनी ख़ाली जेब और भूख की यन्त्रणाओं को, अपने दुर्भाग्यों को, चवन्नी-छाप एक्ट्रेसों की सूरत देखकर दो मिनट के लिए भुलाना चाहता हो, तो उस नौजवान की तृषित आँखों को लोग भले ही ग़लत समझें, हम उनके बारे में किसी ग़लतफ़हमी में नहीं हैं, क्योंकि हमारा नौजवान बेहद सच्चा है। और बेहद अच्छा है। उसमें बड़ी आग है और बहुत मिठास है। वह दुनिया को उलट सकता है और उलटकर फिर पलट सकता है। लेकिन उसके दिलोदिमाग़ की ताक़त को मानवी बिजली में रूपान्तरित करने वाला बिजलीघर कहाँ है? वह तो नदारद है। इसलिए अगर हमारे नौजवान में कुछ दोष है, कुछ खामियाँ हैं तो अपराध उसका नहीं है। क्योंकि हमारा नौजवान बहुत सच्चा है और बेहद अच्छा है।
नौजवानी के गीत बहुत लोगों ने गाये हैं। हुस्नोइश्क़ और इन्क़लाब का क़ाबा नौजवानी ही समझी गयी है। लेकिन जिन तकलीफ़ों में से नौजवान गुज़रता है, उनके बारे में क़लम चलाने का साहस थोड़े ही लोगों ने किया है। यथार्थ कुछ और है, और काल्पनिक लोक कुछ और। माना कि साधारण रूप से नौजवान अपने बाप के घर रहता है, बड़ों की छत्रछाया में पलता है। और दुनिया से लोहा लेने का जोश और उमंग उसमें भले ही रहे, उनके पास अनुभव न होने के कारण उसे पग-पग ठोकर खाना पड़ता है।
यह बात न भूलनी चाहिए कि वर्तमान स्थिति में जबकि पारिवारिक चिन्ताओं का वातावरण घर में ख़ूब घना हो जाता है, और क़ायम रहता है, हमारा साधारण नौजवान उन्नति की ओर अग्रसर नहीं हो सकता। नौजवानी में ज़िन्दगी को पंख फूटते हैं। लेकिन ठीक उसी समय घर का चिन्ताग्रस्त वातावारण उसके मन पर छा जाता है। एक ओर उमंग और जोश लहरें मारता है, तो दूसरी ओर, ठीक उसके विपरीत, नौजवान के हृदय में चिन्ता और घर की उलझनें पुराने अभिशाप की छायाएँ-सी चक्कर लगाती हैं।
पुराने शहीदों का नाम लेकर, भगतसिंह और सुभाष बोस की कीर्ति-कथा सुनाकर, गदर पार्टी और अनुशीलन दल की यशोगाथा सुनाकर, नौजवान के दिल में देशभक्ति और प्रेरणा तो ज़रूर भरी जा सकती है, लेकिन उन कथाओं के ज़रिये उसकी अपनी उलझनों को दूर नहीं किया जा सकता है। हर पीढ़ी के अपने नये अनुभव होते हैं, इस प्रकार नये, कि जो न पुरानी पीढ़ी के थे और न आगामी पीढ़ी के होंगे। फलतः नसीहतों की झाँझ बजाकर नौजवान की समस्या को हल नहीं किया जा सकता। सहानुभूति और मानवीय अनुभवमूलक ज्ञान की आवश्यकता अगर कहीं सबसे ज़्यादा पड़ती है, तो वह नौजवान के दिल को समझने में। नौजवान में श्रद्धा का जो आवेग होता है, हृदय की जो तेज़ निगाहें होती हैं, उन पर जिन्हें आप ज़िन्दगी के तज़ुर्बात कहते है। (यानी सांसारिक दृष्टि) उसकी धूलभरी परतें नहीं छायी रहतीं। फलतः, नौजवान यदा-कदा आपको, अपने अनुभव के कारण, मूरख प्रतीत हो सकता है। लेकिन यही उसकी अच्छाई है। जो नौजवान 19-20-21 साल में ही बूढ़ों की खूसट सांसारिक आँखों से ही दुनिया को देखने लगता है, समझ लीजिये कि उसमें साहस की प्रवृत्ति, नये अनुभव प्राप्त करने की जिज्ञासा और क्षमता, तथा जीवन के नव-नवीन उन्मेष का नितान्त अभाव है। ऐसा नौजवान नायब, तहसीलदार या आई.ए.एस. हो सकता है, लेकिन वह देश के किस काम का।
वर्तमान स्थिति यह है कि नौजवानों के गीत गाने से दिल भले ही हलका हो जाये, दिमाग़ साफ़ नहीं हो पाता, रास्ता नहीं मिल पाता। नौजवानों की कठिनाइयों का एक विशेष स्वरूप होता है। सिर्फ़ यह कह देने से कि ‘बढ़े चलो बहादुरो, रवाँ-दवाँ बढ़े चलो’ कुछ नहीं होता, हर नौजवान को अपना रास्ता तय करना होता है। और वह उस रास्ते के मोड़ और गड्ढों के बारे में जानकारी चाहता है, लेकिन हमारे छायावादी इन्द्रधनुषी काव्य की नौजवानी बादलों में ही ले जाती है, ज़मीन पर फैला हुआ रास्ता नहीं बतलाती।
नौजवान का रास्ता! कितना कठिन प्रश्न है यह! हमारे उपन्यासों ने कभी इस प्रश्न पर प्रकाश नहीं डाला!! हमारे साहित्य ने कभी तत्सम्बन्धित मार्गदर्शन नहीं किया। हमारे बड़े-बूढ़े, हमारे आदरणीय बुज़ुर्ग, नौजवान के सामने ‘नौकरी करो, पैसा लाओ’ का नारा बुलन्द करते हैं। और नौजवान भी यह चाहता है कि उसकी पारिवारिक प्रतिष्ठा को चार चाँद लगें। लेकिन बेचारा! लेकिन, उसका सच्चा दिशा-दर्शन किसने किया है! किसमें वह ताक़त है कि जो उसके जोश, उत्साह और उमंगों का भार अपने हृदय में झेल सके, उसके आदर्शवादी प्रेम और त्यागभरी श्रद्धा के समस्त अभिप्रायों को समझ सके! उन्हें अपने में रख सके! बहुत कम ऐसे लोग होते हैं, जनाब, जिनमें यह ताक़त, यह फौलादी सीना है। उम्र बढ़ने के साथ ही आदमी समझौते को बुद्धिमानी और प्रतिभा का नाम देता हैं लेकिन नौजवान मूलभूत प्रश्न उठाता है! और उसके जवाब!
पत्रकार और साहित्यिक, कवि और राजनीतिक, अपने अस्तित्व को निर्णयकारी समझते हैं – मानो कि दुनिया पर वे निर्णय देने जा रहे हों। अपनी काल्पनिक अदालत में फ़ैसले देते रहना एक बात है। सही-सही रास्ता बताना – और जिसको रास्ता बताया जा रहा है, उसके सहचरत्व को स्वीकार करना – एक दूसरी बात है। इस लेख का लेखक एक मामूली आदमी है। अपनी बीती हुई जवानी से सिर्फ़ उसने सबक सीखे हैं – उस नौजवानी के तकाजे़ उसके सामने आज भी ज़िन्दा हैं। उनके सवालात आज भी उसको पुकारते हैं – फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि घुटने फोड़ने वाली ठोकरें आज उसे पहले सलाम करती हैं, फिर पेंच लड़ाती हैं। तो ऐसे मामूली आदमी के पास इतनी बड़ी हिमाकत नहीं है कि वह नयी पीढ़ी के नौजवानों (जिनके अपने नये तज़ुर्बात है) (को) सीख दे सके।
लेकिन इतना कहकर बात ख़त्म हो सकती है, मामला ख़त्म नहीं होता। सवाल का जवाब कभी-कभी सवाल से दिया जाता है। इसलिए हम कुछ ऐसे सवालों का सिलसिला अपनायेंगे, जिनसे हम हिन्दुस्तान की जनता के अपने तकाजों को समझ सकें, इसलिए कि हमारा नौजवान भारतीय जनता का ही एक अंग है।
परिवार समाज की इकाई है, चाहे वह रूसी समाज हो या चीनी, हिन्दुस्तानी हो अथवा ब्रिटिश। अगर हमारे परिवार में असन्तोष, विक्षोभ, अन्याय, भूख और दरिद्रता होगी तो निश्चय ही उनका असर नौजवान की मनोदशाओं और प्रवृत्तियों पर होगा। हमारे नौजवानों में जो आज छिछली रोमानी प्रवृत्ति, घुमक्कड़पन, ग़ैरज़िम्मेदाराना बर्ताव, ख़ास तरह का फक्कड़पन, पलायनशीलता, आदि दुर्गुण उत्पन्न होते हैं, तो इन प्रवृत्तियों का मूल हमारे परिवार में छाये व्यापक असन्तोष में निहित है।
किन्तु बहुत-से विचारक, स्वयं नौजवान भी, इन प्रवृत्तियों का मूल कारण मानसिक बतलाते हैं, या सोचते हैं, सो ग़लत है।
अगर नौजवान को सही रास्ता मिलता जाये, अपनी उन्नति और विकास के नये-नये क्षेत्र मिलते जायें, और उसको हमेशा यह प्रतीत होता जाये कि उसकी अपनी उन्नति का कार्य सामाजिक उन्नति का कार्य है, अथवा, दूसरे शब्दों में, सामाजिक क्षेत्र में उसके अपने जीविका-सम्बन्धी कर्तव्य का कार्य सामान्यतः और विशेषतः सामाजिक कर्तव्य भी है, कि जिसके न करने से जनता की हानि होगी, और जिसको सुचारू रूप से करने से जनता का कल्याण और सामाजिक विकास होगा; अगर उसे हमेशा यह प्रतीत होता जाये कि सामाजिक ढाँचे के अन्तर्गत उसकी उपेक्षा नहीं की जा रही है, नहीं की जा सकती है – तो निश्चय ही वह दुगुने रूप से अपना कार्य करेगा और अपनी नौजवान मांसल भुजाओं और चौड़ी छाती की ताक़त से बंजर को उपजाऊ बना देगा।
लखनऊ विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के आचार्य डाक्टर डी.पी. मुखर्जी ने, रूस से लौटकर अपनी एक मुलाक़ात में यह बताया कि उस देश के नौजवान को अपना पेशा चुनने में कोई तकलीफ़ नहीं होती। साधारण रूप से अपनी आयु के 16-17वें साल में ही वह अपना जीवन-कार्य निश्चित कर चुकता है। बीस-बाईस तक आते-आते वह अपने कार्य में इतना कुशल हो जाता है कि साधारण रूप से उसके जिम्मे ऊँचे-ऊँचे कार्य कर दिये जाते हैं। जो लोग बुज़ुर्ग हो जाते हैं वे सिर्फ़ ‘चेकअप (जाँच) करते रहते हैं कि कार्य की तादाद और गुण कहीं कम तो नहीं हुआ है, और चूँकि पंचवर्षीय योजना के अन्तर्गत, हर वर्ष की और हर तीन माह की योजना बनती रहती है (और साधारणतः योजना में बतलाये कार्य की तादाद से ज़्यादा काम करने का हौसला हरेक रखता है) इसलिए हर योजना में पिछली योजना से ज़्यादा काम रहता है और इस निश्चित किये गये ज़्यादा काम से ज़्यादा काम करने का हौसला नौजवान पूरा कर पाता है या नहीं और अगर नहीं कर पाता है तो उसकी कौन-सी दिक़्क़तें हैं, कौन-सी कठिनाइयाँ हैं, उसकी पूर्ति के लिए उन्हें कौन-सी सुविधा की ज़रूरत है – यह देखने का कार्य अनुभवी बुजुर्गों, विशेषज्ञों और अन्य प्रतिभाशाली लोगों का होता है, जो ख़ुद दुगुने ज़ोर से काम करते रहते हैं कि वे नौजवानों के सामने अपना उदाहरण रख सकें।
हिन्दुस्तान जैसे देश में – जहाँ अनन्य भूमि है, रत्नगर्भा धरित्री है, और उर्वर वसुन्धरा है, निरभ्र आकाश है, भव्य गम्भीर मेघराज है, और उत्तरस्थ हिमालय नगाधिराज है, विद्युत-शक्ति जल-शक्ति भूमि-शक्ति है – उस देश में अगर नौजवान के छातीर की हड्डियाँ निकल आयें, चप्पल की कीलें पैर में लगातार छेद कर रही हों, चेहरे के बाल बढ़े हुए हों, और अगर वह एक पैसे की दो बीड़ी पीता हुआ किसी लड़की के मुखड़े को देख सिनेमा का एकाध फोश गाना गुनगुना उठता हो, तो उसके दिल की कभी भभकती हुई तो कभी फफकती हुई तमन्नाओं के ज्वार को देख हमें गुस्सा नहीं आता। उस पर गुस्सा करने वालों पर गुस्सा आता है। बल्कि उन शक्तियों की कमर तोड़ने की इच्छा होती है, उन काली ताक़तों को हमेशा के लिए जमीन में गाड़ देने के लिए भुजा ऊँची उठ जाती है, जिन्होंने मनुष्यता के रत्नों, इन नौजवानों, को इस तरह पीस डाला है।
हमारे साधारण ग़रीब मध्यम-वर्गीय नौजवान – जो पढ़ा-लिखा है – को भी अपना पेशा चुनने में बहुत बड़ी दिक़्क़तों का सामना करना पड़ता है। साधारण रूप से पेशा उसके मनोनुकूल होता ही नहीं, पेशे में उसकी उन्नति भी नहीं होती! किसी से पूछिए, ‘आपका क्या हाल है?’ जवाब मिलता है, ‘बस घिसट रहे हैं!’ और फिर वही फीकी मुद्रा!
इसका मतलब यह नहीं कि ज़िन्दगी हँसती नहीं। नहीं – वह अपने रोने में हँस पड़ती है। ठीक वैसे ही जैसे बरसती बदली में से चमचमाता सूरज निकल पड़ता हो! वह तो रूह है जो खिलखिला उठती है! और सिर्फ़ इसी रूहानी ताक़त से अनेक बाधाओं के बावजूद, ज़िन्दगी चलती जाती है। अगर इस रूहानी ताक़त को डायनमो समझा जाये तो यह कहा जा सकता है कि ठेले के चारों चक्के गायब हैं और सिर्फ़ डायनमो चल रहा है। साफ है कि डायनमो चक्कों की सहायता के बिना अकारथ है, बेमानी है।
जो समाज और जो राज्य नौजवानों को सतत उन्नतिशील पेशा नहीं दे सकता, वह राज्य और वह समाज टिक नहीं सकता। इतिहास के विशाल हाथ इस वक्त उसकी क़ब्र खोदने के लिए बड़ा भारी गड्ढा तैयार कर रहे हैं।
ठीक यह दशा शिक्षा की भी है। महँगी शिक्षा का मतलब ही यह है कि ग़रीब अशिक्षित रहे। साधारण मध्य-वर्गीय शिक्षित रहें, किन्तु ऊँची शिक्षा प्राप्त न करें ओर विशेषज्ञ न हों। सिर्फ़ ऊँचे घरानों के लोग ही सिद्धहस्त विशेषज्ञता प्राप्त करें, जिसके लिए वे ब्रिटेन जायें, अमेरिका जायें!
यह देखी-मानी बात है कि साधारण मध्यवर्गीय और अन्य ग़रीब वर्ग में ईमानदार और प्रतिभाशाली, जिज्ञासु और कार्योत्सुक, दुर्दमनीय और त्याग के लिए आकुल नौजवानों की कमी नहीं है, जिनकी मेधा, जिनकी प्रतिभा, जिनकी सूक्ष्म-दृष्टि, जिनका धीरज, और जिनकी गम्भीरता किसी सर्वोच्च देश के नौजवानों से बराबरी का मुकाबला कर सकती है। यहाँ हम बक नहीं रहे हैं। बहैसियत एक तजुर्बेकार और जानकार आदमी के हम यह मान्यता आपके सामने रख रहे हैं।
फिर क्या कारण है कि हमारे इन नौजवानों को अच्छी तालीम नहीं मिल पाती? क्या इन पंक्तियों का लेखक और उनका पाठक (दोनों) कुछ हद तक इस बात के दोषी नहीं हैं कि उन्होंने अब तालीम की माँग का नारा बुलन्द नहीं किया?
साक्षरता-प्रसार, समाज-शिक्षा, तालीम का स्थान नहीं ले सकते। तालीम के अन्तर्गत अपने पेशे का सिर्फ़ ज्ञान ही नहीं आता, वरन दुनिया के सभी मुख्य-विषयों की अच्छी-ख़ासी जानकारी भी सम्मिलित है। आज जिस प्रकार की शिक्षा हमारे नौजवानों को दी जा रही है, वह एक तो महँगी है, और दूसरे, सिर्फ़ उसी वर्ग के नौजवानों के लिए है जो शासक वर्ग के समर्थक या समर्थकों के समर्थक धनी अथवा उच्च मध्यम-वर्गीय परिवारों में से आते हैं।
श्री राजगोपालचारी मध्यम-वर्ग के सम्बन्ध में लिखते हुए यह कहते हैं कि इस वर्ग में साहस का अभाव है, वह बाबूगीरी पसन्द करता है। वे सलाह देते हैं कि जिन पेशों को नीचा समझा जाता हे, वे वस्तुतः वैसे हैं नहीं। पेशा नीचा या ऊँचा नहीं होता। मध्यम-वर्ग को चाहिए कि वे नीचे पेशों को भी स्वीकार करें।
नसीहत और बेमाँगी सलाह देने वाले कांग्रेसी उस्तादों को यह मालूम नहीं कि अगर मध्यम-वर्गीय लोग बाबूगीरी ही करते हैं तो इसका बहुत कुछ कारण पुश्तैनी है। चमार का लड़का चमार, बनिये का बनिया, और क्लर्क का लड़का क्लर्क, अपने पेशे के संस्कारों को लेकर आगे आता है। ये संस्कार उसकी कार्यक्षमता में सहायक होते हैं। और अगर उसका पुश्तैनी पेशा छुड़ा ही देना है तो क्या उसे नयी तालीम की ज़रूरत नहीं है?
और फिर, बाबूगीरी छोड़कर अगर वह चमारी का धन्धा करने लगे तो क्या चमारों पर आफत न आयेगी? अगर वे खेती करने लगें तो क्या भूमि पर जीविका चलानेवालों की लातादाद संख्या में बढ़ती न होगी? लेकिन राजगोपालचारी को तो नसीहत देना है, समस्या को सुलझाना थोड़े ही है!
ध्यान रहे कि सिर्फ़ पेशा चुनने में और उसमें कार्य-कुशलता प्राप्त करने में हमारे नौजवान की सारी ताक़त ख़र्च हो जाती है। वह जल्दी ही बुड्ढा हो जाता है। चिन्ता-व्यथा उसके भाग्य में लिखी हुई जैसी लगती है। वह ऊपर से चाहे जितना हँसता रहे, उदासी घेरे रहती है।
किन्तु केवल उदासी ही उसको नहीं घेरती। हमारा नौजवान अब यह पूरे तौर से समझ चुका है कि जब तक वर्तमान शासक-वर्ग और उनकी कार्य-नीति, शोषण परम्परा और उसका दमन-चक्र चलता रहेगा, तब तक उद्धार नहीं। वह यह भी समझ चुका है कि जनता के सम्पूर्ण उद्धार के बग़ैर उसका उद्धार भी असम्भव है।
लेकिन ज़माने-भर को गाली देने से, मात्र सामाजिक आलोचना से, व्यक्ति अपने को बुद्धिमान भले ही घोषित कर सके, वह अपने निज के सामाजिक और पारिवारिक, व्यक्तिगत तथा नितान्त आत्मपरक, कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों से कभी भी बरी नहीं हो सकता।
आजकल केवल अपनी परिस्थिति और अन्यायपूर्ण शोषण-व्यवस्था तथा शासन की शिथिलता, भ्रष्टाचार, आदि-आदि को गाली देकर, अपने कमज़ोर अहं के चारों ओर रक्षा-पाँति खड़ी कर ली जाती है। किन्तु यह स्पष्ट है कि इन रक्षा पाँतियों के अन्दर रहकर कमज़ोर अहं सुदृढ़ नहीं हो सकता। अहं से मेरा मतलब सिर्फ़ अपनी निजता की सत्ता से है। जिस प्रकार सिर्फ़ प्रस्ताव पास करके जनता का उद्धार नहीं हो सकता (ऐसी जनता जिसक हम स्वयं एक अंग है), उसी तरह सिर्फ़ गाली देने से, केवल बढ़-बढ़कर बोलने से, जनता-विरोधी शक्तियों की रक्षा-पाँतियाँ कभी नहीं टूटतीं। अतएव यह एकदम ज़रूरी है कि हम जनता के प्रति अपने सामूहिक और व्यक्तिगत उत्तरदायित्वों के निर्वाह की तरफ लगातार क़दम बढ़ायें।
लेकिन, अपने लक्ष्य की ओर सही तरीक़े से हम अपने क़दम तब तक नहीं बढ़ा सकते, जब तक कि हम अपने स्वयं के मन, वचन और कार्य की सही-सही आलोचना न कर सकें। अतएव, शोषण-व्यवस्था की निन्दा तथा प्रतिक्रियावादियों के विरुद्ध आलोचना करने के साथ-ही-साथ, हमारा यह आदि कर्तव्य हो जाता है कि हम आत्म-आलोचना के हथियार से ख़ुद पर नश्तर लगाकर, वे सब कमज़ोरियाँ दूर करें जो हमारे उत्तरदायित्व की पूर्ति के मार्ग में बाधक हो रही हैं, या बाधक बन सकती हैं। इस मामूली सच्चाई को हम जितनी गहराई से समझेंगे, उतनी ही बड़ी ऊँचाई पर हम बढ़ सकेंगे। ग़लतियाँ सभी करते हैं, लेकिन बुद्धिमान वह है जो अपनी ग़लतियों को शीघ्र सुधार ले, और अपने तजुर्बो से लगातार सीखता जाये। ध्यान रहे कि यह काम कहने में जितना आसान है, उतना ही करने में मुश्किल (इस लेख का लेखक इस बात को ख़ुद पहचानता है)।
इन बातों को दृष्टि में रखकर अगर हम अपने नौजवानों से कुछ निजी बातें करें तो अप्रासंगिक न होगा।
यह सन्देह से परे है कि हमारा साधारण नौजवान आत्म-आलोचना के कठिन अस्त्र को ठीक तरह न प्रयोग करना जानता है, न इतनी चेतन दृष्टि ही रखता है कि वह हर समय जागरूक रह सके। कुछ ऐसे नवयुवक भी होते हैं, जो आत्मभर्त्सना के आवेश में आकर अपने ख़ुद के बारे में न मालूम क्या-क्या सोच लेते हैं। आत्म-भर्त्सना कभी-कभी सही भी होती है, किन्तु अपने अन्दर प्रवृत्ति रूप में उसकी उपस्थिति, आत्मविश्वास को सुरंग लगा देती है, और, फलतः व्यक्तित्व को अन्दर से खोखला कर देती है। हम ऐसी आत्म-आलोचना के मार्ग की बात नहीं कर रहे हैं। आत्म-आलोचना का मार्ग इसलिए अपनाया जाता है कि भुजाओं में ताक़त पैदा हो, मस्तिष्क में अधिक तेज़ उत्पन हो, जिससे कि जनता के प्रति अपने अनिवार्य उत्तरदायित्वों की राह में आने वाले रोड़ों की मार की वेदना हमारे हृदय और मस्तिष्क पर हावी न हो। जिन नौजवानों के सामने, किसी न किसी सन्दर्भ से, किसी न किसी प्रकार, किन्हीं न किन्हीं अंशों में, जनता का यह लक्ष्य नहीं है, उनकी तो यहाँ बात ही नहीं हो रही है।
हमारे नौजवानों में कौन-कौन सी कमज़ोरियाँ हैं, इसको गिनाना और उनका विश्लेषण करना सरल नहीं है। ज़रूरी यह है कि इस विषय पर प्रकाश डालने के लिए कुछ ख़ास तरीक़े अपनाये जायें। यदि यह न करें तो कई बातें हैं जो छूट भी सकती हैं, जिन्हें हम छोड़ना न चाहेंगे। अतएव, पहले तो हम सरसरी तौर पर, उन बातों को कहते जायेंगे जो जहाँ-जहाँ जैसी-जैसी दिखायी देती हैं। इसके बाद हम कमज़ोरियों को विविध क्षेत्रों – जैसे पारिवारिक, व्यक्तिगत, सामाजिक आदि – में विभाजित कर अपने तईं यह सोच लेंगे कि शेष कमज़ोरियों के विश्लेषण का काम हमारे नौजवान दोस्तों का है। (आत्म-आलोचना के बारे में ऊपर जो लिखा चुका है या अन्य सम्बन्धित विषयों पर लिखा जायेगा, वह निश्चय ही सीमा में बद्ध है। कमज़ोरियों के रूप परिस्थिति के अनुसार दिखायी देते हैं। चूँकि परिस्थितियाँ अनन्त हैं, इसलिए कमजोरियों के रूप भी अनन्त हैं। कमज़ोरियों की मर्दुमशुमारी का काम हमारा हर्गिज नहीं)।
हमारे नौजवान दोस्त, जो थोड़ा आगे बढ़े हुए हैं और एक विशेष क्षेत्र में मुख्तसर असर रखते हैं, उनके सम्बन्ध में पहले चर्चा कर लेंगे। साधारण रूप से हमें कमज़ोरियों के क्षेत्र में तीन प्रकार के लोग यहाँ दिखायी देंगे। एक वे जो अपनी बातचीत के द्वारा, भाषण कला के द्वारा, लिखाई के ज़रिये, किसी न किसी प्रकार से असर क़ायम करते हैं; किसी न किसी रूप से, कहीं न कहीं, किसी विशेष स्तर पर, या साधारण रूप से, अहंकारी होते हैं। निश्चय ही, इस अहंकार का जनता के लक्ष्यों से असामंजस्य है। अहंकार से कुछ लोगों में रंग भले ही पैदा हो, उसके द्वारा दिलोदिमाग़ के दरवाजे बन्द हो जाते हैं। अहंकार से सूक्ष्य और स्थूल प्रकार की बेईमानी, बददयानती, अवसरवादिता, दादागिरी, रंगदारी, वाचालता, ढीली जवान, निन्दा प्रचार, असावधानता और जिज्ञासा का सर्वनाश, आदि दोष उत्पन्न होते हैं। एक जुर्म से दूसरा जुर्म पैदा होता है। व्यक्तित्व में हृास शुरू होता है। जिस प्रकार विकास की मंज़िलें होती हैं, उसी प्रकार हृास की प्रक्रिया की भी अधोगामी सीढ़ियों का विस्तार होता है। अहंकारी व्यक्ति की बुद्धि की ख़ूबी यह है कि सच में कितनी झूठ मिलायी जाये कि जिससे वह प्रभावकारी हो सके और रंग जमा सके। वह जानता है। इन्हीं बुद्धिमान अहंकारियों में से हजारों नौजवान लीडरी के क्षेत्र में आते हैं – वह लीडरी फिर चाहे जिस क्षेत्र की हो। देखा सिर्फ़ इतना जाता है कि ख़ुद टोटे में न रहें। इस बचाव को ख़्याल में रखते हुए, फिर सभी गुण – जैसे, हार्दिकता, मार्मिकता, सूक्ष्मता, सत्योद्घाटन, सत्यवचन, ऊपरी तौर की मेहनत, आदि बातें सामने की जाती हैं कि जिससे लोग उनकी अच्छाइयों (जिसको वे मानवता कहेंगे) को देख सकें। प्रभाव जम चुकने के उपरान्त, और अगर मुँहफट हुए तो प्रारम्भ से ही, दूसरों की निन्दा पान में लौंग जैसी काम करती है।
दूसरे प्रकार के नौजवान वे होते हैं, जिन्हें व्यक्तिगत आकर्षण और प्रभाव सबसे ज़्यादा अच्छे लगते हैं, भले ही उस आकर्षण और उस प्रभाव का सिद्धान्त से अथवा समस्याओं से कोई सम्बन्ध हो या न हो। ऐसे नौजवान अपने व्यक्तित्व का न सफलतापूर्वक विकास कर सकते हैं, न ही उन समस्याओं का ठीक तरह विचार कर सकते हैं जो उनके और उन्हीं सरीखे दूसरों के मन को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उद्वेलित करती रहती हैं। स्वयं ईमानदार होते हुए भी, आकर्षण और प्रभाव के वशीभूत होकर, वे अन्ततः अपनी मौलिक शक्तियों का न (तो स्वयं) उपयोग कर पाते हैं, न उनका सामाजिक उपयोग हो पाता है। एक प्रकार का अनुगामित्व, अथवा अपने ही में बन्द रहने की प्रवृत्ति, तथा जिज्ञासा का अभाव, आदि विशेष कमजोरियाँ इस वर्ग में निहित रहती हैं।
तीसरी श्रेणी के नौजवानों की प्रकृति ही अलग है। सजी हुई बैठक-कमरे की गन्ध, उनके मन में काम करती हुई, उन्हें ऐसे कार्यों की तरफ ही ले जाती है, जिससे जातीय सामाजिक भद्रता, आदि प्रतिष्ठित (रेस्पैक्टेबिल) वर्ग की कामनाओं की पूर्ति हो सके। उनके लिए अच्छी-ख़ासी बड़ी सी नौकरी, सुघड़-सुन्दर बीवी, कोच, किताबों की एक ख़ूबसूरत आलमारी, एक ट्रे चाय, सुघर चम्मच, दीवार पर सुरुचिपूर्ण तस्वीरें, आदि सर्वाधिक प्रधान हैं। उनका अहंकार सिर्फ़ एक ही बात में तृप्त हो जाता है कि अगर कोई प्रतिष्ठित साहित्यिक, महत्त्वपूर्ण नेता, बैठकबाज उम्दा धनी व्यक्ति, यानी ऐसे भद्रजन (उनके घर आये), जिनके आने से उनकी स्वयं की भद्रता और नगर में अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा को चार चाँद लग सकें। ऐसे नौजवान हमारे ख़्याल से जनता के दुश्मन न होते हुए भी दुश्मन जैसे ही हैं। उनमें वे सभी दुर्गुण रहते हैं, जो उनके वर्ग में पाये जाते हैं – जैसे, फर्स्ट क्लास एम.ए. करना हो तो परीक्षकों पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से दबाव डालने के लिए समाज के ऊँचे वर्ग के प्रतिष्ठित लोगों से दोस्ती। खानदान का गर्व, परिवार की प्रतिष्ठा, इनके लिए सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण होती है।
नौजवान मौलिक होता है। उसके हृदय में स्वाभाविक रूप से प्रकृति की मौलिक शक्तियाँ काम करती रहती हैं। किन्तु जब हम उसे अपनी शक्तियों को फालतू की बकवास, व्यर्थ का फक्कड़पन, निस्सार बातें, ग़ैरिज़म्मेवाराना बर्ताव, आदि करते देखते हैं, तो लगता है कि क्या इसे नौजवान कहा जा सकता है।
नौजवानी का कौन-सा चित्र हमारे सामने रहना चाहिए?
तर्कसंगत शुद्ध विचार-सरणि और जिज्ञासा, तथ्यों को पहचानने, उनको संगठित कर उनके निष्कर्ष निकालने की शक्ति;
उज्ज्वल आदर्शवाद; बेईमानी, दुमुँही बातें, उत्तरदायित्व- हीनता, कामचोरी, मौखिक आदर्शवाद, घमण्ड, अहंकार आदि का अभाव;
ज्ञान के सामने, सत्य के सामने, हार्दिकता और मार्मिकता के सामने, प्रेम और त्याग के सामने, निरन्तर नम्रता और विनय;
मानव के सतत संघर्षमय विकास में आस्था; बुराइयों, बाधाओं, व्यवधानों, जनता के शत्रुओं पर मनुष्य की स्वाभाविक प्रकृतिजन्य शुद्ध हृदय में विश्वास;
जनता के उद्धार में श्रद्धा, उनके संघर्षों की सफलता में आध्यात्मिक विश्वास, जनता की सृजनशील ऐतिहासिक शक्तियों की विजय का स्वप्न;
अपने अनुभवों से, दूसरों के तज़ुर्बों से, हमेशा सीखते रहने का जागरूक प्रयास और बेखटके और बेशरमाये अपनी ग़लतियों को सबसे सामने स्वीकार करने की नम्र महानता; दूसरों की ग़लतियों और दुर्गुणों के – बशर्ते कि वे बहुत हानिकारक न हों – सहानुभूतिपूर्ण, ईमानदार विश्लेषण का उदारतापूर्ण उत्तरदायित्व, साहसपूर्ण और निश्चयात्मक क़दम बढ़ाने की योग्यता; तथा व्यक्तिगत जीवन का संगठन आदि-आदि ऐसी हैं जिन्हें और भी बढ़ाया जा सकता है: (आगे का हिस्सा अनुपलब्ध)
(‘नया ख़ून’, 1952, में प्रकाशित)
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्त 2014
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This is inspiring article. Thoughts of Muktibodh are orginal and meaninful. The youth have to decide their way themselves. Career advancement with social responsibility is the key. Righly pointed that family is basic unit of society.