वर्तमान संकट और जनता के आन्दोलनः क्या पूँजीवाद- विरोध पर्याप्त है?

संपादकीय

अब बार-बार यह कहने की ज़रूरत नहीं है कि पूरा पूँजीवादी विश्व 1930 के दशक की महामन्दी के बाद सबसे भयंकर और लम्बी मन्दी का साक्षी बन रहा है। 2006 के अन्त में अमेरिका में सबप्राइम ऋण संकट के रूप में शुरू हुए आर्थिक संकट ने सम्प्रभु ऋण संकट का रूप धारण कर पूँजीवाद को प्रताड़ित करना जारी रखा है। यूनान और इटली में हालिया सत्ता परिवर्तन और यूरोज़ोन पर मण्डरा रहे ख़तरे के बादल इस मन्दी की गम्भीरता को ही दर्शाते हैं। अपने पाँचवे वर्ष में प्रवेश कर रही मन्दी ने पिछले 9 दशकों में सर्वोच्च बेरोज़गारी दर, निवेश में गिरावट, अर्थव्यवस्थाओं के आकार में कमी को पैदा किया है और यह प्रक्रिया आने वाले समय में और भी विकराल रूप लेने वाली है। वित्तीय पूँजी के विशालकाय संस्थानों और बैंकों द्वारा सट्टेबाज़ी और वित्तीय बाज़ार में ऊल-जुलूल प्रथाओं को लागू करने के फलस्वरूप पैदा हुए संकट ने जल्द ही दिखला दिया था कि यह महज़ वित्तीय संकट नहीं है; यह वित्तीय पूँजी की इजारेदारी के दौर में पैदा हुए आर्थिक संकट की विशिष्ट अभिव्यक्ति था। यह सच है कि वैश्विक वित्तीय तन्त्र में एकीकरण का स्तर विकसित देशों के मुकाबले कम होने और “कल्याणकारी” पब्लिक सेक्टर पूँजीवाद के (हालाँकि काफ़ी कमज़ोर हो चुके) ढाँचे की मौजूदगी के कारण भारत जैसे कुछ देशों में इस मन्दी का असर उतना विकराल नहीं है जितना कि अमेरिका, यूरोप और जापान में है। चीन भी समाजवाद के अन्दरूनी तौर पर पतन के बाद अस्तित्व में आयी एक विशेष किस्म की पूँजीवादी संरचना के कारण इस मन्दी के प्रकोप का विकसित देशों की तुलना में कम शिकार हुआ। इस बात को इन देशों का शासक वर्ग काफ़ी प्रचारित कर रहा है और जी-20 जैसे सम्मेलनों में विकसित देशों के पूँजीवादी नेताओं को अपनी इस “उपलब्धि” की बाबत प्रवचन भी दे रहा है, जैसा कि मनमोहन सिंह अभी-अभी करके आये हैं। लेकिन मौजूदा संकट के इन देशों में तुलनात्मक रूप से कम प्रभाव का कारण वैश्विक वित्तीय तन्त्र में कम एकीकरण और पब्लिक सेक्टर ढाँचे व पूँजीवादी “कल्याणवाद” की एक हद तक उत्तरजीविता है, जो कि नवउदारवाद और भूमण्डलीकरण की नीतियों के परिणामस्वरूप तेज़ी से ख़त्म हो रहा है। इसलिए भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया के और व्यापक होने के साथ ही यह अधिक से अधिक असम्भव होता जाएगा।

वैश्विक मन्दी के दबाव में सभी साम्राज्यवादी गुटों और समूहों के बीच की अन्तर-साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा भी तेज़ हो गयी है। इस प्रतिस्पर्द्धा में तेल व प्राकृतिक गैस संसाधनों का केन्द्रीय महत्व है, क्योंकि आधुनिक पूँजीवाद काफ़ी हद तक अपने संचय के लिए इस पर निर्भर है; चाहे प्रत्यक्ष उपभोग के रूप में  हो या उस अप्रत्यक्ष उपभोग के लिए जो कि पेट्रो उत्पादों की मध्यस्थता के बिना सम्भव नहीं है। चूँकि ऊर्जा का प्रश्न पूँजीवाद के लिए आज केन्द्रीय प्रश्न है, और चूँकि ऊर्जा का प्रमुख स्रोत आज पेट्रोलियम उत्पाद हैं, इसलिए इसके लिए होने वाली अन्तर-साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा और साम्राज्यवादी लूट का प्रमुख थियेटर पश्चिम एशिया बन जाता है। जैसा कि लेनिन ने कहा था, राजनीति अर्थशास्त्र की ही सर्वाधिक सान्द्र अभिव्यक्ति होता है। आज के संकटग्रस्त पूँजीवाद का यह अर्थशास्त्र जिस रूप में राजनीति में रूपान्तरित होकर पश्चिम एशिया में प्रकट हो रहा है वह हमारे सामने है: अरब जनउभार। आज जो अरब जनउभार हमारे सामने है उसके चार प्रमुख कारण हैं। पहला कारण है साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद के खि़लाफ़ अरब जनता की पुरानी नफ़रत। तेल संसाधनों की खोज के बाद से ही पश्चिम एशिया साम्राज्यवादी लूट, युद्ध और प्रतिस्पर्द्धा का केन्द्र बना रहा है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका के विश्व पूँजीवाद का सरदार बनने के साथ ही यह प्रक्रिया और अधिक भयंकर हो गयी और तब से अब तक अधिक से अधिक भयंकर होती गयी है। आज के अरब जनउभार का एक पहलू साम्राज्यवाद के खि़लाफ़ यह विस्फोटक गुस्सा भी है। दूसरा कारण है, फिलिस्तीन का प्रश्न जो अलग से चर्चा की माँग करता है। फिलिस्तीन का सवाल पूरी अरब जनता के लिए अहम है जिसे उपनिवेशवाद ने कई देशों में बाँट दिया था। वास्तव में पूरे पश्चिम एशिया में स्वाभाविक रूप से दो राज्यों की ही ज़मीन है: एक अरब राज्य और दूसरा यहूदी राज्य। अमेरिकी साम्राज्यवाद के समर्थन के दम पर इज़रायल द्वारा दशकों से अरब में जारी घृणास्पद नरसंहार और अमानवीयता ने अरब जनता के सब्र का प्याला भर दिया है। मौजूदा अरब जनउभार में एक पहलू यह भी था। तीसरा पहलू है अरब देशों में पतित राष्ट्रीय बुर्जुआ वर्ग के शासकों की तानाशाही, सर्वसत्तावाद और दमन-उत्पीड़न। ग़ौरतलब है कि मिस्र के नासर के साथ अस्तित्व में आया सर्वअरब राष्ट्रवाद जो एक दौर में साम्राज्यवाद के खि़लाफ़ रैडिकल अवस्थिति अपनाता रहा था, आज पूरी तरह भ्रष्ट और पतित होकर साम्राज्यवाद से शर्मनाक समझौते कर रहा है। उसके चरित्र में कुछ भी ‘राष्ट्रीय’ या जनपक्षधर नहीं रह गया है और वह जनता के सभी जनवादी अधिकारों को छीनकर उन्हें निरंकुश तानाशाही के तले दबाकर शासन करने में यकीन करता है। और अरब के शाहों की सत्ताओं के बारे में तो कहना ही क्या! वे तो खुले तौर पर साम्राज्यवाद के टट्टुओं के रूप में काम करते हैं। और आखि़री कारण, जिसने इन सभी कारणों को और बढ़ा दिया, वह है मौजूदा वैश्विक पूँजीवादी संकट। यही वे कारण हैं जिन्होंने मौजूदा अरब जनउभार को जन्म दिया।

हम देख सकते हैं कि 2006 से शुरू हुई मन्दी के बाद जहाँ अरब में जनता अपने देशों के निरंकुश तानाशाहों और साम्राज्यवाद के खि़लाफ़ उठ खड़ी हुई (ग़ौर करें कि लीबिया इस जनउभार का हिस्सा उसी समय से नहीं रह गया था जब विद्रोहियों ने नाटो के हस्तक्षेप को स्वीकार कर लिया), वहीं विकसित देशों में भी मन्दी के कारण पैदा हुई बेरोज़गारी, ग़रीबी, छँटनी, बेघरी आदि ने जनता को सड़कों पर उतार दिया। आज जो ‘वॉल स्ट्रीट पर कब्ज़ा करो’ आन्दोलन अमेरिका में चल रहा है और जो अन्य ‘कब्ज़ा करो आन्दोलन’ दुनिया के कई अन्य विकसित देशों के बड़े शहरों में शुरू हुआ है वह पूँजीवाद-जनित बेरोज़गारी, असुरक्षा, अनिश्चितता, बैंकों को जनता की कीमत पर बचाये जाने, सट्टेबाज़ों को बचाये जाने, कारपोरेट इजारेदार पूँजीवाद की मुनाफ़ाखोरी के खि़लाफ़ इन देशों की जनता का स्वतःस्फूर्त उभार है। अगर हम अमेरिका की ही स्थिति पर निगाह डालें तो यह साफ़ हो जाता है कि 1930 के दशक की महामन्दी के बाद अमेरिकी अर्थव्यवस्था सबसे जर्जर अवस्था में है। इस समय अमेरिका में आधिकारिक बेरोज़गारी दर करीब 9.1 प्रतिशत है। लेकिन कई इलाकों जैसे कि हार्टफोर्ड में बेरोज़गारी की दर 33 प्रतिशत तक पहुँच चुकी है। यानी, काम करने योग्य हर 3 में से 1 व्यक्ति बेरोज़गार है। दो दशक पहले अमेरिकी समाज में ऊपर के 1 प्रतिशत धनी लोगों के पास कुल संसाधनों का करीब 10 प्रतिशत था, लेकिन अब यह आँकड़ा 23 प्रतिशत हो चुका है। ऊपर की 5 प्रतिशत आबादी कुल वित्तीय सम्पदा के 75 प्रतिशत पर नियन्त्रण रखती है। बेघरों की आबादी अमेरिका में रिकार्ड-तोड़ रफ्तार से बढ़ रही है। लेकिन इन सभी चीज़ों के बावजूद बैंकों और विशालकाय कारपोरेशनों के सी.ई.ओ. पैसा पीटना जारी रखे हुए हैं, क्योंकि जब-जब कैसीनो अर्थव्यवस्था के जुए में वे तबाह हो जाते हैं, तब-तब उन्हें बचाने के लिए सरकार बेलआउट पैकेज लेकर आ जाती है। जहाँ अमेरिका भयंकर मन्दी का सामना कर रहा है, वहीं यूरोप की कहानी भी कोई अलग नहीं है। यूरोप में मन्दी से निपटने के लिए विशालकाय बेलआउट पैकेज दिये गये। लेकिन यहाँ कि सरकारें बैंकों को बचाने के चलते कंगाल हो गयीं। नतीजतन, “किफ़ायत” की मुहिमें चलायीं गयीं, जिनका अर्थ था शिक्षा, चिकित्सा, स्वास्थ्य, रोज़गार, पेंशन, सामाजिक सुरक्षा आदि की कल्याणकारी योजनाओं में से राज्य का हाथ पीछे खींचना। कारण बताया गया बजट घाटा। लेकिन वास्तव में यह बजट घाटा बैंकों और वित्तीय संस्थानों को बचाने के कारण पैदा हुआ था, जो कि अपने ही लालच के भँवर में फँसकर डूब रहे थे। यूनान और इटली में तो इसके कारण जो राजनीतिक उथल-पुथल हुई उसने सरकारों को ही गिरा दिया है। लेकिन इससे भी कोई विशेष बदलाव नहीं होने वाला। कारण यह है कि इस मन्दी से निपटने के लिए पूँजीवाद के पास जो एकमात्र रास्ता है वह और भी ज़्यादा भयंकर मन्दी की ओर ले जाता है और इसलिए नयी सरकारें भी थोड़ा हेर-फेर से वही नीतियाँ जारी रखने को मजबूर हैं। बाज़ार में मन्दी के कारण खत्म होती तरलता को कम करने के लिए और ज़्यादा मुद्रा झोंकी जाती है; लेकिन वास्तविक अर्थव्यवस्था में नहीं बल्कि सट्टेबाज़ी और जुएबाज़ी में जो कि अगले चक्र में असमाधेयता का संकट और भी भयंकर रूप में पेश करता है। हर बार जनता को इसकी कीमत अपने रोज़गार, घर, सुरक्षा, शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधाओं को गँवाकर अदा करनी होती है, और हर बार पहले से ज़्यादा भयंकर रूप में। अब पश्चिमी विकसित देशों की जनता के लिए यह बोझ एक तरह से उस सीमा को पार कर गया है, जिसे हम संवेदनशीलता की सीमा कह सकते हैं। और यही कारण है कि आज स्वर्ग के अपने राज्य में भी उथल-पुथल मची हुई है।

विकसित देशों में ‘कब्ज़ा करो’ आन्दोलन और अरब विश्व में अरब जनउभार, ये दोनों ही अलग-अलग कारणों से पैदा हुए अलग किस्म के जनउभार हैं, लेकिन ये दोनों ही एक ही तथ्य की ओर इशारा करते हैं। ये जनउभार सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के रूप में पूँजीवाद की असफलता को दिखला रहे हैं। इन्होंने पूँजीवाद की वैधता को कठघरे में खड़ा कर दिया है। अगर अभी हम विकल्प के सवाल को एक तरफ़ रख दें, तो इतना तो ज़रूर कहा जा सकता है कि इन आन्दोलनों ने उन दावों को एक बार फिर से और सबसे प्रभावी और व्यावहारिक तौर पर खोखला साबित कर दिया है कि पूँजीवाद के अलावा दुनिया का पास और कोई विकल्प नहीं है; कि पूँजीवाद ही सबसे नैसर्गिक और विकसित व्यवस्था है जो मानव स्वभाव के अनुरूप है; कि उदार बुर्जुआ जनवाद ही वह उच्चतम राजनीतिक व्यवस्था है जिस तक मानवता पहुँच सकती है; और यह कि पूँजीवाद की “विजय” (?) ने विचारधारा, इतिहास, कविता, सबका अन्त कर दिया है और उदार पूँजीवादी व्यक्ति (इण्डिविजुअल) आखि़री मनुष्य है! अब इन दावों पर हँसने का भी मन नहीं करता क्योंकि हँसना भी उसपर कुछ ध्यान देने के समान है। इतिहास ने ‘इतिहास के अन्त’ की सभी घोषणाओं को इतिहास की कचरा-पेटी के हवाले कर दिया है। इन जनउभारों ने दिखला दिया है कि दुनिया की जनता ऐसी बर्बर, अमानवीय, घृणित और अराजक व्यवस्था को कभी स्वीकार नहीं कर सकती है जो उसे पिछले 200 वर्षों से भी अधिक समय से भूख, ग़रीबी, बेरोज़गारी, युद्ध, पर्यावरणीय विनाश, असुरक्षा, अनिश्चितता और तबाही के अलावा कुछ भी नहीं दे सकी है। पूँजीवाद की सभी प्रगतिशील सम्भावनाएँ रिक्त हो चुकी हैं और ये जनउभार दिखला रहे हैं कि इस मानवद्रोही व्यवस्था से दुनिया की जनता ऊब चुकी है।

लेकिन सवाल यह है कि क्या मौजूदा पूँजीवाद-विरोधी आन्दोलन कोई विकल्प दे सकने, क्रान्ति की ओर जा सकने और महज़ सत्ता-परिवर्तन नहीं बल्कि व्यवस्था-परिवर्तन में परिणत होने की सम्भावना रखते हैं? इन्होंने पूँजीवाद के वैधता के दावे पर तो चोट की है, लेकिन क्या ये पूँजीवाद का विकल्प दे सकते हैं? इन सवालों का जवाब देने के पहले ही दुनिया भर में अब तक पराजय-बोध के शिकार तमाम क्रान्तिकारी संगठन, चिन्तक और बुद्धिजीवी जो लम्बे अरसे से छायी हुई मुर्दा शान्ति और पूँजीवाद के जुझारू विरोध की अनुपस्थिति से हताश-निराश थे, हर्षोन्माद में डूब गये हैं। कुछ मार्क्सवादी चिन्तकों ने तो यह सिद्धान्त ही दे डाला है, या, कम्युनिस्ट पार्टियों और समाजवादी शिविर के पतन के कारण निराश होकर पहले से ही यह सिद्धान्त दे रखा था कि अब जो क्रान्तियाँ होंगी उसमें पार्टियों और नेतृत्व की कोई भूमिका नहीं होगी, बल्कि यह जनता द्वारा स्वयं स्वतःस्फूर्त तरीके से अंजाम दे दी जायेंगी। एण्टोनियो नेग्री और माइकल हार्ट जैसे नव-“मार्क्सवादी” चिन्तक, एलेन बेदियू जैसे “उत्तर-माओवादी” (पता नहीं इसका क्या मतलब होता है!) विचारक अब इस सोच को त्याग चुके हैं कि सर्वहारा वर्ग के हिरावल के नेतृत्व में कोई क्रान्ति होगी; वे यह भी नहीं मानते कि सर्वहारा वर्ग मानव इतिहास का सबसे क्रान्तिकारी वर्ग है जो कि अपनी मुक्ति के साथ अपने आप को ख़त्म करेगा और पूरी मानवता को मुक्त करेगा; इन “मुक्त” चिन्तकों का विचार है कि अब हिरावल (संगठन) जैसी किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं है; इनका यह भी मानना है कि अब सर्वहारा वर्ग की जगह अब आम तौर पर “जनता” ले लेगी और पूँजीपति वर्ग की जगह वे शासक वर्ग शब्द पसन्द करते हैं; बेदियू एक उत्तर-मार्क्सवादी कम्युनिज़्म की बात करते हुए इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि कम्युनिज़्म का “विचार” आदिम काल से मौजूद है और सभी क्रान्तियाँ इसी विचार की यात्रा में अलग-अलग पड़ाव थे; बेदियू यह भी दावा करते हैं कि अब पार्टी और राज्य का दौर बीत चुका है और हम एक ऐसे युग में प्रवेश कर चुके हैं जिसमें पार्टी और राज्य जैसी श्रेणियाँ अप्रासंगिक हो चुकी हैं; ये सारी श्रेणियाँ मार्क्सवादी कम्युनिज़्म का उत्पाद थीं और अब वर्ग विश्लेषण पर आधारित मार्क्सवादी कम्युनिज़्म की जगह शुद्धतम रूप में कम्युनिज़्म के सनातन विचार ने ले ली है। ऐसे धुरीहीन चिन्तकों ने अरब जनउभार के शुरू होने पर भी ऐसी घोषणाएँ करनी शुरू कर दी थीं कि उनका पार्टी-रहित, नेतृत्व-रहित, मार्क्सवादोत्तर कम्युनिस्ट क्रान्ति का सिद्धान्त सही सिद्ध हो रहा है। लेकिन जल्द ही अरब जनउभार किसी क्रान्ति में तब्दील होने की बजाय अधिकांश जगहों पर सेना और इस्लामिक कट्टरपन्थियों के गठजोड़ के शासन के रूप में परिणत हो गया, और बाकी जगहों पर पूँजीपति वर्ग की किसी एक व्यक्ति की अगुवाई में चलने वाली निरंकुश व्यक्तिगत तानाशाही की जगह उदार संसदीय जनतन्त्र के रूप में पूँजीपति वर्ग की वर्चस्वकारी तानाशाही ने ले ली। एण्टोनियो हार्ट और माइकल नेग्री ने तो समय से पहले ही हर्षोन्मत्त होकर अखबारों में अपने सिद्धान्त की पुष्टि की घोषणाएँ भी कर दीं। लेकिन अरब जनउभार के कुछ समय बीतने के साथ ही ऐसे सारे चिन्तक कोने-अंतरे ढूँढ़ते नज़र आ रहे हैं। और इस समय ‘वॉल स्ट्रीट कब्ज़ा करो!’ आन्दोलन की शुरुआत के साथ इन चिन्तकों ने फिर एक बार अपने-अपने बिलों में से निकलकर यह एलान कर दिया है कि उनके सिद्धान्त सही साबित हो रहे हैं, और एक बार फिर वह मंजिल आ रही है जब उन्हें अपने ही शब्दों को साबुत निगलना पड़ेगा।

लेकिन इन नववाम के प्रवर्तकों को ख़ारिज करने के साथ हमें एक सही वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर खड़े होकर इन सभी आन्दोलनों की नियति की सन्तुलित व्याख्या करनी होगी। पूँजीवादी व्यवस्था को कठघरे में खड़ा करने के बावजूद ये आन्दोलन क्यों बहुत उम्मीद नहीं पैदा करते, इसके वैज्ञानिक कारणों की व्याख्या करनी होगी। इन आन्दोलनों की समस्याएँ और सीमाएँ क्या हैं, इसे समझना होगा।

मौजूदा ‘वॉल स्ट्रीट कब्ज़ा करो’ आन्दोलन की शुरुआत एक उपभोक्तावाद-विरोधी संगठन ऐडबस्टर द्वारा इण्टरनेट पर किये गये आह्नान से हुई। आपको याद होगा अरब जनउभार की शुरुआत में भी नये सूचना माध्यमों का काफ़ी उपयोग किया गया था। अमेरिका में यह आन्दोलन न्यूयॉर्क के जुकोटी पार्क में प्रदर्शन से शुरू हुआ था। तब किसी ने सोचा भी नहीं था कि यह इतने अधिक लोगों को आकर्षित करेगा। लेकिन समाज में विभिन्न तबकों के लोग अपनी-अपनी शिकायतों के साथ इस आन्दोलन के साथ जुड़ने लगे। अलग-अलग तबके काफ़ी लम्बे समय बाद अपनी अलग-अलग माँगों को लेकर एक साथ सड़कों पर उतर रहे थे। इसके पहले अमेरिका समेत तमाम पश्चिमी विकसित देशों में जो छिटपुट आन्दोलन पिछले दो-तीन दशकों के दौरान हुए थे, वे अधिकांशतः किसी एक मुद्दे पर केन्द्रित थे। मिसाल के तौर पर, शिक्षा के सवाल पर, आवास के सवाल पर, पुलिस दमन के सवाल पर कई बार आन्दोलन हुए हैं। लेकिन इस बार समाज के विभिन्न तबकों के लोग अपनी-अपनी शिकायतों के साथ और अपने-अपने कारणों से एक साथ सड़कों पर आये। विजय प्रसाद जैसे टिप्पणीकार इस परिघटना को सकारात्मक मानते हैं और मानते हैं कि इसी कारण से इस आन्दोलन के बीच से फिलहाल कई टुकड़ों में बँटा हुआ वाम किसी एकीकृत कार्यक्रम के साथ उभरकर आगे आयेगा। लेकिन इस प्रेक्षण के साथ कई समस्याएँ हैं। कोई कम्युनिस्ट नेतृत्व तभी सामने आ सकता है जब न सिर्फ उसके पास एक एकीकृत माँगपत्रक हो, बल्कि उसके पास एक सुनिश्चित विचारधारात्मक अवस्थिति, एक कार्यक्रम की सोच, रणनीतिक और आम रणकौशलात्मक समझदारी हो और साथ ही एक सूझबूझ वाला नेतृत्व हो। लेकिन मौजूदा समय में माँगें जैविक तौर पर एक माँगपत्रक का हिस्सा नहीं बन रही हैं और ऐसे किसी भी भावी माँगपत्रक की माँगों के पीछे कोई एक सुसंगत विचारधारात्मक अवस्थिति मौजूद होने की गुंजाइश कम ही नज़र आ रही है। कारण यह है कि अलग-अलग तबके जो आर्थिक संकट के परिणामों से तंग आकर सड़कों पर अपनी माँगों को लेकर उतरे हैं, उनकी माँगें एक योगात्मक (एग्रीगेटिव) ढाँचे में सामने आ रही हैं। इसलिए ये जितनी जल्दी साथ आ रही हैं, शासक वर्गों द्वारा उनमें से कुछ को भी पूरा किये जाने या आंशिक रूप से पूरा किये जाने के साथ उतनी ही जल्दी बिखर भी सकती हैं।

स्पष्ट है कि मौजूदा ‘कब्ज़ा करो’ आन्दोलन के पास कोई सुपरिभाषित लक्ष्य या उद्देश्य नहीं है। इसके पास कोई सदस्यता का औपचारिक ढाँचा नहीं है जो इसे एक हद तक स्थायित्व प्रदान करे। और न ही इसका कोई साफ़ तौर पर दिखलायी देने वाला नेतृत्व है। वास्तव में, अभी अमेरिका और दुनिया के कई विकसित देशों के बड़े शहरों में जो हो रहा है वह वित्तीय इजारेदार पूँजीवादी भूमण्डलीकरण के इस दौर में नवउदारवाद की नग्नतम नीतियों के फलस्वरूप पैदा हुई मन्दी, बेरोज़गारी, तबाही, बरबादी के खि़लाफ़ जनता के गुस्से का स्वतःस्फूर्त विस्फोट है। अलग-अलग सामाजिक वर्ग अपने-अपने कारणों से सड़कों पर हैं। ये कारण आर्थिक भी हैं, और राजनीतिक भी। लेकिन उनकी माँगें एक योगात्मक समुच्चय में प्रकट हो रही हैं, किसी निश्चित उद्देश्य की प्राप्ति के लिए बने कार्यक्रम से बँधे माँगपत्रक के रूप में नहीं। इन प्रदर्शनों में विभिन्न प्रकार के राजनीतिक समूह हिस्सा ले रहे हैं जिनमें मार्क्सवादी-लेनिनवादी समूहों से लेकर अराजकतावादी, ईसाई समाजवादी, कल्याणकारी राज्य के समर्थक, चॉम्स्कीपन्थी, त्रत्स्कीपन्थी, स्वयंसेवी संगठन, आदि तक शामिल हैं। यह पूँजीवाद-विरोधी नारे लगा रहे हैं, लेकिन यह कोई नहीं बता रहा है कि यदि वे वॉल स्ट्रीट के हितों से संचालित होने वाली पूँजीवादी व्यवस्था को नकार रहे हैं तो विकल्प क्या पेश कर रहे हैं? अक्सर वे सिर्फ पूँजीवाद की नहीं बल्कि वित्तीय पूँजी की तानाशाही की बात करते हैं। सिर्फ पूँजी की तानाशाही क्यों नहीं? सिर्फ बैंकों की तानाशाही का विरोध क्यों? कहीं यह ‘कारपोरेट वेलफेयर स्टेट’ (जोसेफ़ स्टिग्लिट्ज़ के शब्दों में) से ‘पब्लिक वेलफेयर स्टेट’ की तरफ वापस लौटने की चाहत की अभिव्यक्ति तो नहीं? कहीं यह केनेडी के ‘स्वर्णिम युग’ की ओर लौटने की आकांक्षा तो नहीं? क्योंकि अगर आप पूँजीवादी व्यवस्था के ही विकल्प की बात नहीं करते तो आपका अन्तर्निहित अर्थ “कल्याणकारी” पूँजीवाद की ओर वापसी का नारा देना होगा। उनके कुछ नारों से भी यह बात स्पष्ट होती है। जैसे कि ‘मेन स्ट्रीट को बचाओ, वॉल स्ट्रीट को नहीं’; ‘99 प्रतिशत को बचाओ, 1 प्रतिशत को नहीं’, आदि। अब सोचने की बात यह है कि यह बचाने की गुहार किससे लगायी जा रही है? निश्चित रूप से राज्य से। पहले राज्य सक्रिय तौर पर जनता के पिछड़े हुए हिस्सों के हितों की रक्षा के लिए हस्तक्षेप करता था। यह बहुत बड़ा मिथ है कि राज्य नवउदारवाद के इस दौर में अहस्तक्षेपकारी हो गया है। वास्तव में राज्य पहले हमेशा से ज़्यादा हस्तक्षेप कर रहा है। लेकिन यह हस्तक्षेप वह जनता के ग़रीब, कमज़ोर और पिछड़े हिस्से को भोजन, आवास, रोज़गार और सामाजिक सुरक्षा देने के लिए नहीं बल्कि मन्दी से कराह रहे कारपोरेशनों को बचाने की ख़ातिर बेलआउट पैकेज देने के लिए कर रहा है। यानी कि यहाँ यह माँग की जा रही है कि राज्य जनता के पक्ष में हस्तक्षेप करे और उनके हितों की हिफ़ाज़त करे, या कम से कम थोड़ा ख़्याल रखे, न कि कारपोरेशनों के एजेण्ट के तौर पर काम करे। लेकिन पूँजीवादी व्यवस्था यानी कि निजी मालिकाने व निजी मुनाप़फ़े और निजी पूँजी संचय के बूते चलने वाली पूरी पूँजीवादी व्यवस्था को एक सुविचारित, व्यवस्थित और सैद्धान्तिक तौर पर कठघरे में नहीं खड़ा किया गया। जिस चीज़ पर हमला बोला जा रहा है वह महज़ उस पूँजीवादी व्यवस्था के लक्षण हैं जिनके कारण तंग आकर लोग सड़कों पर उतरे हैं। इसलिए इन प्रदर्शनों का कोई सकारात्मक प्रस्ताव नहीं है। यह पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा जनता पर थोप दी गयी तबाहियों के एक हद पार कर जाने के बाद जनता का हताश होकर सड़कों पर उतरना है। आप बेरोज़गारी, ग़रीबी, भुखमरी, बेघरी, शिक्षा और स्वास्थ्य के अधिकार के सवाल पर सड़कों पर उतरते हैं। लेकिन ये सभी समस्याएँ जिस व्यवस्था के कारण पैदा हो रही हैं, आप उस व्यवस्था का कोई विकल्प नहीं पेश करते। आप पहले पूरे के पूरे राजनीतिक-आर्थिक तन्त्र को दीवालिया बताते हैं, आप पूरे राजनीतिक वर्ग को भ्रष्ट बताते हैं (जो कि सच है!); लेकिन अन्त में आप उस पूरी व्यवस्था और शासक वर्ग को उखाड़ फेंकने का आह्नान नहीं कर रहे हैं और न ही उसका कोई कारगर कार्यक्रम पेश कर रहे हैं; आप जो कर रहे हैं वह अन्त में एक माँग ही है! और किनसे? उन्हीं से जिन्हें आपने भ्रष्ट और दीवालिया घोषित कर दिया है! ‘वॉल स्ट्रीट को न बचाकर मेन स्ट्रीट को बचायें’ तब तक एक भ्रामक नारा है जब तक कि उस पूरी व्यवस्था को कठघरे में न खड़ा किया जाये जो मेन स्ट्रीट के ऊपर वॉल स्ट्रीट की तानाशाही और वरीयता पर आधारित है। इसलिए मौजूदा व्यवस्था के बने रहते वॉल स्ट्रीट को बचाना एकमात्र विकल्प है और उसके बिना मेन स्ट्रीट को भी कोई राहत नहीं मिलती। निजी मालिकाने और निजी संचय की व्यवस्था में आप निजी मालिकाने और निजी संचय को तो बचायेंगे ही! आपके पास और विकल्प भी क्या है? आज का संकट निजी संचय को ही ख़तरनाक हदों तक नीचे लेता गया है और उसे बचाने के लिए ही बेलआउट व स्टिम्युलस पैकेज दिये गये, जिनका विरोध इन आन्दोलनों में हो रहा है। लेकिन यह महज़ टुकड़ों-टुकड़ों में उन अलग-अलग लक्षणों पर नाराज़गी प्रकट करना है जिनसे जनता के अलग-अलग हिस्से परेशानहाल हैं। इसलिए बिना पूँजीवादी व्यवस्था का विरोध किये महज़ उसके वित्तीय इजारेदारी के दौर में पैदा होने वाले अलग-अलग लक्षणों का विरोध करना या तो किसी यूटोपिया में जीने के समान है या फिर पूँजीवाद के “कल्याणकारी” दौर में लौट जाने की हवाई माँग करना है, जो कि पूँजीवाद की ऐसी अच्छी सेहत की माँग करता है, जो अब कभी नहीं आने वाली, भले ही वह किसी अर्थपूर्ण प्रतिरोध और क्रान्ति के अभाव में टिका रहे।

occupy wall street

वास्तव में, अगर कोई पूँजीवाद-विरोधी आन्दोलन सत्ता पलटने में सफल भी हो जाता है (जैसा कि ट्यूनीशिया और मिस्र में हुआ और जैसा कि विकसित पश्चिमी विश्व में होने की उम्मीद नगण्य है) तो असली सवाल यह है कि सत्ता के पलटने के अगले दिन क्या होता है? और यह सवाल इस बात से जुड़ा है कि यह पूरा परिवर्तन किसी विचारधारात्मक रूप से प्रेरित, एक अनुभवी नेतृत्व और संगठन से लैस आन्दोलन के परिणामस्वरूप हुआ है या नहीं। अगर जनता स्वतःस्फूर्त ढंग से सड़कों पर उतरकर सत्ता को असम्भाव्यता के बिन्दु तक पहुँचा देती है और उसके बाद की स्थिति में एक सुविचारित वैकल्पिक ढाँचा निर्मित करने के लिए कोई क्रान्तिकारी राजनीतिक नेतृत्व और संगठन मौजूद नहीं है तो इस ख़ाली जगह को कोई न कोई प्रतिक्रियावादी ताकत या ताकतें भरेंगी, जो अन्ततः रूप के धरातल पर कुछ चीज़ों का बदलाव करेगी ताकि जनता के स्वतःस्फूर्त गुस्से के विस्फोट को सोखा जा सके और तात्कालिक तौर पर व्यवस्था की वैधता को सुरक्षित किया जा सके, लेकिन ऐसी कोई भी ताकत या ताकतें वास्तव में पूरी पूँजीवादी व्यवस्था की ही उत्तरजीविता को सुनिश्चित करेगी। मिस्र और ट्यूनीशिया के उदाहरण को देखें। मिस्र में तहरीर चौक से शुरू हुए आन्दोलन ने अन्ततः हुस्नी मुबारक को अपदस्थ कर दिया। लेकिन उसके बाद पैदा हुए राजनीतिक निर्वात को सेना और इस्लामिक कट्टरपन्थियों के गठजोड़ ने भरा। चुनाव के बाद भी जो सत्ता वहाँ आयेगी वह वास्तव में पूँजीवादी सत्ता ही होगी, जिसकी आर्थिक नीतियों में कोई फ़र्क नहीं होगा। हाँ, यह ज़रूर होगा कि वह सत्ता पूँजीपति वर्ग की तानाशाही को किसी एक निरंकुश तानाशाह के नग्न दमनकारी शासन के रूप में नहीं स्थापित करेगी, बल्कि अधिक वर्चस्वकारी पूँजीवादी संसदीय जनतन्त्र के जरिये पूँजीपति वर्ग की तानाशाही के रूप में लागू करेगी। ट्यूनीशिया में यह प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। इन दोनों ही देशों में मज़दूरों का आन्दोलन अभी भी जारी है क्योंकि मज़दूर वर्ग को यह अहसास होना शुरू हो गया है कि हालिया परिवर्तनों ने उसे काफ़ी कुछ नहीं दिया है। उसे अपनी मुक्ति के लिए संगठित तौर पर लड़ना होगा। लेकिन राजनीतिक नेतृत्व और संगठन का अभाव उनकी राह का सबसे बड़ा रोड़ा बना हुआ है।

यह संकट इसलिए भी ज़्यादा विकराल है कि किसी राजनीतिक नेतृत्व और संगठन की अनुपस्थिति यहाँ संयोग से होने वाली दुर्घटना के रूप में ही नहीं मौजूद है। उस सूरत में हम इसे राजनीतिक चेतना का अभाव मानते और राजनीतिकरण की निरन्तरतापूर्ण प्रक्रिया को चलाकर इसे दूर करने के लिए हम कुछ कर सकते थे। लेकिन हम इन आन्दोलनों में संगठन, विचारधारा और नेतृत्व के प्रति एक सचेतन दुराव और एलर्जी का रोग देख सकते हैं। ‘कब्ज़ा करो’ आन्दोलन के भीतर भी ऐसी राजनीतिक ताकतें प्रमुखता के साथ मौजूद थीं जो किसी भी प्रकार के संगठित राजनीतिक नेतृत्व की अनुपस्थिति का जश्न मना रही थीं। जो कुछ चल रहा है उसे कइयों ने ‘नेतृत्वविहीन क्रान्ति’ की संज्ञा दे डाली। लेकिन यह नाम ही अपने आप में ग़लत और अन्तरविरोधी है। जो कुछ हो रहा है वह नेतृत्वहीन है और इसीलिए वह क्रान्ति नहीं है। वास्तव में जो हो रहा है उसे एक आन्दोलन कहना भी उचित नहीं होगा, बल्कि उसका चरित्र एक स्वतःस्फूर्त उभार का ज़्यादा है। आन्दोलन में भी विचार और संगठन का पहलू आ जाता है। लेकिन अभी जो कुछ चल रहा है, उसमें ऐसा कुछ नज़र नहीं आ रहा है। इन प्रदर्शनों में नोम चॉम्स्की, स्लावोज जिज़ेक, नेओमी क्लाइन आदि जैसे तमाम अराजकतावादी, नवमार्क्सवादी और रैडिकल बुद्धिजीवियों ने भाषण दिये। लेकिन इन सबके बावजूद इस पूरे उभार का असंगठित और अव्यवस्थित चरित्र और नेतृत्व और संगठन के प्रति एक सचेतन एलर्जी इसे कोई भी विकल्प पेश नहीं करने देगा। वह विकल्प विकसित पूँजीवादी देशों में तुरन्त लागू हो पाता या नहीं, यह एक दीगर सवाल है। लेकिन कोई भी क्रान्तिकारी राजनीतिक आन्दोलन पूँजीवाद को सैद्धान्तिक, विचारधारात्मक और राजनीतिक तौर पर कठघरे में खड़ा करेगा, महज़ उसके लक्षणों को नहीं और इस समय यह भी नहीं हो रहा है। इससे साफ़ तौर इस उभार की एक गम्भीर सीमा का पता चलता है। बिना सिर के कोई मनुष्य नहीं होता और बिना सेनापति के कोई सेना नहीं लड़ सकती।

संक्षेप में हम कह सकते हैं कि ये सभी आन्दोलन पूँजीवाद की अजरता-अमरता के विक्षिप्त दावों को तो वस्तुगत तौर पर रद्द करते हैं, लेकिन ये पूँजीवाद का कोई विकल्प नहीं पेश करते। ये पूँजीवाद के लक्षणों के स्वतःस्फूर्त विरोध पर जाकर ख़त्म हो जाते हैं, जो निश्चित तौर पर आज बहुत बड़ा रूप अख्तियार कर चुका है। लेकिन यह पूँजीवाद-विरोध पर्याप्त नहीं हैं। बिना किसी सुपरिभाषित और सुविचारित लक्ष्य या उद्देश्य के; बिना किसी संगठन के; बिना किसी स्पष्ट विचारधारा के; बिना किसी अनुभवी नेतृत्व के, मौजूदा पूँजीवाद-विरोधी आन्दोलन असली प्रश्न तक पहुँच ही नहीं सकते। कि पूँजीवाद अजर-अमर नहीं है, यह पहले भी साबित हो चुका था। अब इसे फिर से साबित करने की कोई ज़रूरत नहीं है। आज ज़रूरत है कि हम विकल्प का एक कारगर मॉडल पेश करें और उसे लागू करने की कूव्वत रखने वाला एक नेतृत्व और संगठन खड़ा करें। इसके बिना बार-बार पूँजीवाद असम्भाव्यता के बिन्दु तक पहुँचेगा, लेकिन राजनीतिक निर्वात का लाभ उठाकर और कुछ माँगों को आंशिक तौर पर पूरा करके अपने आपको पुनर्संगठित कर लेगा, जैसा कि मिस्र और ट्यूनीशिया में हो रहा है। हमें ग़ैर-पार्टीवाद, विराजनीतिकरण और स्वतःस्फूर्तता के अनालोचनात्मक रूप से जश्न मनाये जाने की प्रवृत्ति के खि़लाफ़ संघर्ष करना होगा। नये सिरे से एक क्रान्तिकारी पार्टी का निर्माण आज इन सभी देशों में सबसे बुनियादी और ज़रूरी कार्यभार है। जब तक एक ऐसी पार्टी नहीं खड़ी होगी तब तक क्रान्तिकारी परिस्थितियाँ तैयार होती रहेंगी और गुज़र जाती रहेंगी। और हर बार क्रान्ति की घड़ी के बीत जाने की जनता को भारी कीमत चुकानी पड़ती है। जब मौजूदा पूँजीवाद-विरोधी आन्दोलन के नारों की गूँज शान्त होगी, तो नये सिरे से निराशा पसरेगी। जनता बार-बार हताश होकर सड़कों पर उतरेगी। लेकिन विचारधारा, संगठन और नेतृत्व के अभाव में स्थिति फिर से वही बन जायेगी। इसलिए इस बात को समझना आज बेहद ज़रूरी है कि 20वीं सदी की क्रान्तियों के बाद क्रान्तिकारी पार्टियों द्वारा हुई कुछ ग़लतियों, और बाद में नामधारी समाजवाद के अन्तर्गत एक सामाजिक फासीवादी पार्टी की तानाशाही के अनुभवों से निराश होकर और प्रतिक्रिया में आकर पार्टी की पूरी अवधारणा का ही परित्याग कर देना जनता के क्रान्तिकारी आन्दोलन के लिए बेहद आत्मघाती सिद्ध होगा। यही तो साम्राज्यवाद चाहता है कि उसे चुनौती देने वाली ताकत बिना संगठन, दृष्टि और नेतृत्व के अन्धी गुफा में भटकती रहे। जब तक हिरावल नहीं होगा वह ऐसी किसी भी चुनौती का सामना कर सकता है और यही समकालीन घटनाक्रम से भी साबित हो रहा है।

ऐसा कोई भी सांगठनिक और राजनीतिक विकल्प तैयार करने के लिए आज दुनिया भर में कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों को अपने कठमुल्लावाद और हठधर्मिता को छोड़कर अपने-अपने देशों का नये सिरे से रचनात्मक मार्क्सवादी विश्लेषण करना होगा; उसे अतीत की क्रान्तियों और महान नेतृत्वों से सीखना ज़रूर होगा, लेकिन अतीतग्रस्त हुए बिना और विज्ञान को अपने समय के यथार्थ पर रचनात्मक रूप से लागू करने के विवेक को खोये बिना। आज अपने कठमुल्लावाद और अतीतग्रस्तता के कारण और साथ ही विचारधारात्मक-राजनीतिक समझदारी के अभाव के चलते दुनिया भर में कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी विकल्प का कोई कारगर ढाँचा पेश कर पाने में असफल हो रहे हैं। जब तक इन कमियों को दूर नहीं किया जाता तब तक एक सच्चे क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट नेतृत्व का संगठित हो पाना मुश्किल है। और जब तक ऐसा नहीं होता तब तक जनता तो अपनी बदहाली और तबाही से परेशानहाल होकर बार-बार स्वतःस्फूर्त तरीके से सड़कों पर उतरती ही रहेगी, क्योंकि पूँजीवाद उसे और कुछ दे भी नहीं सकता है। लेकिन हर ऐसे उभार का हश्र वही होगा जो कि समकालीन पूँजीवाद-विरोधी स्वतःस्फूर्त उभारों का हो रहा है।

यहाँ चलते-चलते एक मज़ाकिया परिघटना का जिक्र करना भी ज़रूरी है। ‘वॉल स्ट्रीट कब्ज़ा करो’ की तर्ज पर उन तमाम संकटग्रस्त विकसित पूँजीवादी देशों के शहरों में भी ‘कब्ज़ा करो’ आन्दोलन शुरू हुआ। लेकिन भारत में ऐसे किसी स्वतःस्फूर्त जनउभार की अनुपस्थिति के बावजूद कुछ साइबर “वाम” क्रान्तिकारियों ने ‘दिल्ली कब्ज़ा करो’, ‘कोलकाता कब्ज़ा करो’ और ‘दलाल स्ट्रीट कब्ज़ा करो’ जैसे अभियान छेड़ दिये हैं। जैसा कि आप उम्मीद कर सकते हैं, नतीजा शर्मनाक और मज़ाकिया है! यह देखकर अजीब लगता है कि हम न सिर्फ उपभोक्तावाद, बाज़ारवाद, व्यक्तिवादी रुग्णता और अन्य पूँजीवादी सनकों के मामले में पश्चिमी विकसित पूँजीवादी देशों की नकल करते हैं, बल्कि इन सनकों के प्रतिरोध के मामले में भी हम नकलची साबित हो रहे हैं! यह अपना मज़ाक उड़वाने जैसा है और यही कहा जा सकता है कि ऐसे साइबर अभियानों को बन्द कर देना ही वामपन्थ के सम्मान के लिए सबसे अच्छा होगा!

अन्त में हम बस इतना ही कह सकते हैं कि बेहतर होगा कि हम अपनी ऊर्जा एक क्रान्तिकारी पार्टी के नये सिरे से निर्माण में झोंक दें। आने वाला समय पूँजीवाद के लिए और भी ज़्यादा भयंकर मन्दी और उथल-पुथल से भरा होगा। उसके पास और कोई रास्ता भी नहीं है। वह अपनी जड़ता की ताकत से टिका हुआ है। आज जितना खोखला और कमज़ोर वह कभी नहीं था। बिना किसी राजनीतिक रूप से सचेत और संगठित क्रान्तिकारी मज़दूर आन्दोलन और नेतृत्व के अभाव के कारण वह अपनी उत्तरजीविता को बरकरार रखने में कामयाब हो रहा है। इस प्रक्रिया में वह युद्धों की विभीषिकाएँ मानवता पर थोप रहा है, पर्यावरण को तबाह करते हुए अस्तित्व का प्रश्न खड़ा कर रहा है, और दुनिया के 80 फ़ीसदी लोगों की जिन्दगी को एक जीते-जागते नर्क में तब्दील कर रहा है। इससे निजात पाने का सवाल आज हमारे अस्तित्व का प्रश्न बनता जा रहा है। मौजूदा पूँजीवाद-विरोधी आन्दोलनों द्वारा चुप्पी का टूटना एक सकारात्मक और स्वागत-योग्य परिवर्तन है। लेकिन साथ ही यह भी समझना होगा कि यह पूँजीवाद-विरोध अव्याख्येय रूप से अपर्याप्त है। आज की ज़रूरत है कि हम एक क्रान्तिकारी नेतृत्व को संगठित करने की ओर आगे बढ़ें।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, सितम्‍बर-अक्‍टूबर 2011

 

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