जन्मदिन (28 सितम्बर के अवसर पर)
भगतसिंह की स्मृति के निहितार्थ
सम्पादकीय
एक बार फ़िर
गुमनाम मंसूबों की शिनाख़्त करते हुए
कुछ गुमशुदा साहसिक योजनाओं के पते ढूँढ़ते हुए
जहाँ रोटियों पर माँओं के दूध से
अदृश्य अक्षरों में लिखे
पत्र भेजे जाने वाले हैं, खेतों-कारख़ानों में
दिहाड़ी पर खटने वाले पच्चीस करोड़ मज़दूरों,
बीस करोड़ युवा बेकारों,
उजड़े बेघरों और गिरफ़्तार आधे आसमान
की ओर से
उन्हें एक दर्पण, नीले पानी की एक स्वच्छ झील,
एक आग लगा जंगल और धरती के बेचैन गर्भ से
ऊनने को आतुर लावे की पुकार चाहिए।
गंतव्य तक पहुँचकर
अदृश्य अक्षर चमक उठेंगे लाल टहकदार
और तय है कि
लोग एक बार फ़िर इंसानियत की रूह में
हरकत पैदा करने के बारे में सोचने लगेंगे।
(शशि प्रकाश, ‘नई सदी में भगतसिंह की स्मृति’ से)
शोषक-शासक जमातों के बुद्धिजीवियों, राजनीतिक प्रतिनिधियों की हमेशा ही यह कोशिश होती है कि वे जनता के महान नायकों और शहीदों की स्मृतियों को मूर्तियों-मालाओं के ज़रिए घिसे हुए सिक्कों में तब्दील कर दें। तथा अनुष्ठानों की चमक-दमक और शोर में उनके महान विचारों को दृष्टिओझल कर दें। क्रान्तिकारी विरासत को यदि वे विस्मृति के अँधेरे में नहीं धकेल पाते तो क्रान्तिकारियों को देवमूर्तियों में बदलकर उनके विचारों को जनता तक पहुँचने से रोकने का हर सम्भव प्रयास करते हैं। महान विचारक क्रान्तिकारी भगतसिंह और उनके साथियों के साथ यही होता रहा है। सत्ताधर्मी इतिहासकार और बुद्धिजीवी लोकमानस में महान वीर नायक के रूप में अंकित भगतसिंह की छवि को किसी भी तरह से मिटा नहीं सकते थे। इसलिए उनकी कोशिश हमेशा से यह रही है कि उनकी वीरता और गौरवशाली शहादत की तो वन्दना की जाये, लेकिन उनके विचारों के आलोक को जनता तक नहीं पहुँचने दिया जाये।
यह इतिहास के साथ एक छल है, जो शासक वर्ग हमेशा से करता आया है। इतिहास की एकमात्र प्रासंगिकता यही हो सकती है कि वह इतिहास-निर्माण के लिए जनता को प्रेरित-प्रबोधित करे। अतीत की स्मृतियाँ भविष्य-स्वप्नों को और अधिक उद्भासित करती हैं और फ़िर उन्हें साकार करने वाली मुक्ति-परियोजनाएँ गढ़ने और क्रियान्वित करने के लिए जन समुदाय को प्रेरणा और ऊर्जा देती हैं। यदि ऐसा न हो तो इतिहास मात्र निर्जीव तथ्यों का मुर्दाघर होता है और स्मृतियाँ केवल और केवल अतीतजीवी बनाने का ही काम करती हैं। यही वह चीज़ है, जिससे आज इस देश के मुक्तिकामी युवाओं को बचना है। भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव को महज इसलिए याद करने की कोई ज़रूरत नहीं है कि उनकी शहादत का पचहत्तरवाँ वर्ष शुरू हो चुका है और अगले ही वर्ष भगतसिंह के जन्म के सौवें वर्ष की शुरुआत हो जायेगी। निस्संदेह उनकी वीरतापूर्ण कुर्बानी को देश की जनता कभी भुला नहीं सकती, लेकिन यह समय उन विचारों को एक बार फ़िर से याद करने का और उन संकल्पों के पुनरुज्जीवन का है जो मात्र तेईस-चौबीस वर्ष की उम्र पाये उन क्रान्तिकारियों के जीवन और शहादत के प्रेरक-स्रोत थे। यह समय इस सच्चाई को याद करने का और उससे जन-जन को अवगत कराने का है कि भगतसिंह और ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसियेशन’ के उनके साथी देश को केवल बर्तानवी गुलामी की बेड़ियों से ही मुक्त नहीं करना चाहते थे, बल्कि वे विदेशी पूँजी के साथ ही देश पूँजीपतियों की लूट का भी ख़ात्मा करना चाहते थे। शासक वर्गों की दृष्टि से लिखी गयी इतिहास की जो पुस्तकें हमें पढ़ाई जाती हैं, वे हमें यह कत्तई नहीं बतातीं कि भगतसिंह का सपना भारत में समाजवाद की स्थापना का सपना था और उनका मानना था कि बहुसँख्यक मेहनतकश और आम जनता की वास्तविक मुक्ति केवल समाजवाद के अन्तर्गत, केवल सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व के अन्तर्गत, ही सम्भव हो सकती है।
फ़ाँसी से तीन दिन पहले भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव ने फ़ाँसी के बजाये गोली से उड़ाने जाने की माँग करते हुए पंजाब के गवर्नर को लिखे गये अपने पत्र में लिखा थाः ”…हम यह कहना चाहते हैं कि युद्ध छिड़ा हुआ है और यह युद्ध तब तक चलता रहेगा, जब तक कि शक्तिशाली व्यक्ति भारतीय जनता और श्रमिकों की आय के साधनों पर अपना एकाधिकार जमाये रखेंगे। चाहे ऐसे व्यक्ति अंग्रेज़ पूँजीपति, अंग्रेज़ शासक अथवा सर्वथा भारतीय ही हों। उन्होंने आपस में मिलकर एक लूट जारी कर रखी है। यदि शुद्ध भारतीय पूँजीपतियों के द्वारा ही निर्धनों का ख़ून चूसा जा रहा हो तब भी इस स्थिति में कोई अन्तर नहीं पड़ता। यदि आपकी सरकार कुछ नेताओं या भारतीय समाज के कुछ मुखियाओं पर प्रभाव जमाने में सफ़ल हो जाये, कुछ सुविधाएँ मिल जायें या समझौते हो जायें, उससे भी स्थिति नहीं बदल सकती।“ अपने इसी पत्र में उन्होंने आगे लिखा थाः “..आप जिस परिस्थिति को चाहें चुन लें, परन्तु यह युद्ध चलता रहेगा। इसमें छोटी-छोटी बातों पर ध्यान नहीं दिया जायेगा। बहुत सम्भव है कि यह युद्ध भयानक रूप धारण कर ले। यह उस समय तक समाप्त नहीं होगा जब तक कि समाज का वर्तमान ढाँचा समाप्त नहीं हो जाता, प्रत्येक व्यवस्था में परिवर्तन या क्रान्ति नहीं हो जाती और सृष्टि में एक नवीन युग का सूत्रपात नहीं हो जाता। निकट भविष्य में युद्ध अन्तिम रूप में लड़ा जायेगा और तब यह निर्णायक युद्ध होगा। साम्राज्यवाद एवं पूँजीवाद कुछ समय के मेहमान हैं। यही वह युद्ध है जिसमें हमने प्रत्यक्ष रूप में भाग लिया है।“
सिर्फ़ इस पत्र में ही नहीं, जेल से लिखे गये अपने कई पत्रों, लेखों और कोर्ट में दिये गये बयानों में भगतसिंह ने यह स्पष्ट किया था कि वह और उनके साथी मात्र औपनिवेशिक दासता से मुक्ति के लिए नहीं लड़ रहे थे, बल्कि उनकी लड़ाई हर किस्म के पूँजीवादी शोषण के ख़िलाफ़ और एक न्यायपूर्ण, समतामूलक सामाजिक व्यवस्था की स्थापना के लिए जारी दीर्घकालिक महासमर की एक कड़ी थी। हमारे लिए भगतसिंह को याद करने का मतलब सिर्फ़ उनकी वीरता और कुर्बानी को ही नहीं बल्कि उनके लक्ष्य और विचारों को याद करना होना चाहिए। भगतसिंह और उनके साथियों की शहादत का पचहत्तरवाँ वर्ष उनके सपनों और संकल्पों की याददिहानी का वर्ष है और आँखों में घूरते इस नंगे-जलते यथार्थ से टकराने का वर्ष है कि वह लड़ाई अभी भी अपनी लक्ष्यसिद्धि तक नहीं पहुँच सकी है जिसे भगतसिंह और उनके साथियों ने अपने समय में आगे बढ़ाया था।
जनता के इंसाफ़पसन्द और बहादुर बेटों के लिए भगतसिंह को याद करने का बस यही एक मतलब हो सकता है और बस यही एक तरीका हो सकता है कि वे आज के समय में साम्राज्यवाद-पूँजीवाद के विरुद्ध संघर्ष को नयी परिस्थितियों के मद्देनज़र नये ढंग से और नये सिरे से संगठित करें, नयी क्रान्ति के सन्देश को कल-कारख़ानों और गाँवों की झोपड़ियों तक लेकर जायें (जैसा कि फ़ाँसी की कोठरी से भगतसिंह ने नौजवानों को भेजे गये अपने सन्देश में कहा था) तथा पूँजीवाद की नयी रणनीतियों और नयी घातों को समझकर इसके विरुद्ध लम्बे और निर्णायक लड़ाई के लिए व्यूह-रचना करें। भगतसिंह को याद करने का एकमात्र तरीका बस यही हो सकता है कि उनके ही सन्देश को अमल में लाते हुए जड़ता और निष्क्रियता की परिस्थिति को बदलने के लिए ”क्रान्ति की स्पिरिट ताज़ा की जाये, ताकि इंसानियत की रूह में हरकृत पैदा हो।“
”कई बार हमें विचारों को कोई नाम देना होता है
या कोई संकेत-चिन्ह
और हम माँगते हैं इतिहास से ऐसा ही कोई नाम
और उसे लोगों तक
विचार के रूप में लेकर जाते हैं।“
(शशि प्रकाश, ‘नई सदी में भगतसिंह की स्मृति’ से)
भारत की व्यापक जनता के दिलों में एक वीर बलिदानी देशभक्त क्रान्तिकारी के रूप में भगतसिंह की अमिट छवि अंकित है लेकिन जिस बुनियादी सच्चाई को हुकूमती जमातों और उनके कलमघसीट इतिहासकारों ने हमेशा ही दृष्टिओझल करने की कोशिश की है और जिससे देश के अधिकांश शिक्षित नौजवान तक भलीभाँति परिचित नहीं हैं, वह यह है कि वह एक प्रचण्ड प्रतिभाशाली और अद्भुत अध्ययनशील विचारक थे। प्रायः उनकी छवि एक क्रान्तिकारी आतंकवादी की ही बनी हुई है जो व्यक्तिगत शौर्य, बलिदान और बमों पिस्तौलों के जरिए ही क्रान्ति को अंजाम दे देना चाहता है, जबकि सच्चाई यह है कि भगतसिंह जेल जाने के पहले ही इतिहास और दर्शन का गहन अध्ययन करते हुए इस नतीजे़ पर पहुँचने लगे थे कि क्रान्तिकारी आतंकवाद के बजाय व्यापक मेहनतकश जनता को जागृत, गोलबन्द और संगठित करके ही क्रान्ति को सम्भव बनाया जा सकता है। उनकी यह दृढ़ धारणा थी कि क्रान्ति बलात् सत्ता परिवर्तन के रूप में ही सम्भव हो सकती है, लेकिन अध्ययन ने उन्हें इस ऐतिहासिक रूप से सिद्ध निष्कर्ष तक पहुँचाया कि ऐसा जन क्रान्ति के द्वारा ही किया जा सकता है और आतंकवादी कार्रवाइयों की बजाय प्रचार एवं आन्दोलनों के द्वारा जनता को संगठित करने से ही उस मुकाम तक पहुँचा जा सकता है। जेल के दिनों में गहन अध्ययन ने उन्हें वैज्ञानिक समाजवाद के उसूलों का कायल बना दिया था। निरीश्वरवादी तो वह पहले से ही थे, अब उनकी भौतिकवादी जीवन-दृष्टि और अधिक पुख़्ता हो चुकी थी। फ़ाँसी के ठीक पहले के उनके सर्वाधिक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ ‘क्रान्तिकारी कार्यक्रम का मसविदा’ (2 फ़रवरी, 1931) में उन्होंने गुप्त ढाँचे वाली और पेशेवर क्रान्तिकारियों (यानी पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं) के कोर ग्रुप वाली एक क्रान्तिकारी पार्टी के निर्माण की योजना पेश की थी, जिसके नेतृत्व में मज़दूरों, किसानों छात्रों-युवाओं के व्यापक जनसंगठन व्यापक जनान्दोलन संगठित करते हुए शासक वर्गों से राज्यसत्ता छीनने की दिशा में आगे बढ़ें। क्रान्ति के बाद वे समस्त शोषक वर्गों पर सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व स्थापित करने की बात कर रहे थे। भगतसिंह और उनके साथियों को अपने वैचारिक चिन्तन को अमली जामा पहनाने का अवसर नहीं मिला। लेकिन उनका वैचारिक चिन्तन आज भी क्षितिज पर जलती मशाल की तरह भारत के नौजवानों के लिए प्रेरणा का एक अक्षय स्रोत है और एक कुतुबनुमा की तरह आज भी राह दिखाता है। यही कारण है कि भगतसिंह और उनके साथियों का जो भी लेखन आज उपलब्ध है (जेल जीवन के दौरान लिखी गयी भगतसिंह की चार कृतियाँ रहस्यमय ढँग से ग़ायब हो गयीं, सिर्फ़ कुछ लेख, पत्र और एक जेल नोटबुक ही आज उपलब्ध हैं)। उन्हें न तो आम लोगों तक पहुँचाया जाता है और न ही इतिहास के पाठ्यक्रमों में पढ़ाया जाता है। भगतसिंह देशी शासक वर्गों के लिए भी उतने ही ख़तरनाक हैं जितना कि वे बर्तानवी उपनिवेशवादियों के लिए थे।
पूँजीपतियों के भाड़े के टट्टू कलमघसीट और रुग्ण मानस बुद्धिविलासी लाख कहते रहें कि पूँजीवाद ही मानव इतिहास का आखिरी मुकाम है, कि ‘इतिहास का अंत’ आ गया, कि समतामूलक समाज का सपना कभी साकार नहीं हो सकता, कि समाजवाद की पराजय अंतिम है; लेकिन मानव मुक्ति की हज़ारों वर्ष लम्बी यात्रा तबतक जारी रहेगी जबतक कि मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण का अंत नहीं हो जाता। अतीत में भी क्रान्तियाँ अन्तिम विजय के पहले एकाधिक बार पराजयों- विपर्ययों का सामना करती रही हैं। यही इतिहास का नियम है जो पूँजीवाद विरोधी क्रान्तियों के साथ भी घटित हो रहा है। आज भी जनता के ऐसे बहादुर बेटों की कमी नहीं है जो भगतसिंह की इस इतिहास-दृष्टि को सही मानते हैं और जिनका दृढ़ विश्वास है कि यह शताब्दी साम्राज्यवाद और पूँजीवाद के विरुद्ध फ़ैसलाकुन युद्ध की सदी है। यही बहादुर छात्र-नौजवान भगतसिंह और उनके साथियों की क्रान्तिकारी विरासत के सच्चे उत्तराधिकारी हैं। ऐसे ही युवाओं का यह दायित्व है कि वे भगतसिंह के विचारों को पूरे देश में फ़ैलायें, एक नयी क्रान्ति की प्रक्रिया में पहले स्वयं संगठित हों, गाँव-गाँव और शहर-शहर में अपने क्रान्तिकारी संगठन बनायें और फ़िर क्रान्ति का सन्देश मेहनतकश जनता तक पहुँचायें, उन्हें भाँति-भाँति के चुनावी मदारियों और दुअन्नी-चवन्नी की लड़ाई लड़ने वाले नकली मज़दूर नेताओं के भ्रमजाल से छुटकारा दिलायें तथा संगठित होकर फ़ैसलाकुन संघर्ष में उतरने के लिए तैयार करें।
भगतसिंह की शहादत की पचहत्तरवी वर्षगाँठ से लेकर जन्म-शताब्दी तक के तीन वर्षों का समय इस नयी शुरुआत के लिए क्या सर्वाधिक उपयुक्त समय नहीं है? यह भविष्य की पुकार सुनने का समय है। यह अतीत के गौरवशाली संघर्षों को एक बार फ़िर आगे बढ़ाने के लिए संकल्प लेने का समय है। निराशा और गतिरोध की कठिनतम घड़ी में ही नयी शुरुआत होती है और इतिहास नये डग भरने को उद्यत होता है।
नये संकल्प लें फ़िर से, नये नारे गढ़ें फ़िर से
उठो संग्रामियो जागो,
नयी शुरुआत करने का समय फ़िर आ रहा है।
कि जीवन को चटख़-गुलनार
करने का समय फ़िर आ रहा है।
आह्वान कैम्पस टाइम्स, जुलाई-सितम्बर 2005
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