‘आह्वान ’ का प्रथम पाठक सम्मेलन सफलतापूर्वक सम्पन्न

‘मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान ’ ने पिछले 17-18 सितम्बर को लखनऊ शहर में स्थित जवाहर लाल नेहरू राष्ट्रीय युवा केन्द्र में अपने प्रथम पाठक सम्मेलन का आयोजन किया। गौरतलब है कि एक पाक्षिक अख़बार के रूप में ‘आह्वान ’ ने अपनी यात्रा की शुरुआत आज से दो दशक पहले की थी। 1990 के दशक के अन्तिम वर्ष ‘आह्वान ’ एक त्रैमासिक पत्रिका के रूप में प्रकाशित होने लगी। पिछले करीब दो वर्षों से यह ‘मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान ’ के रूप में द्वैमासिक पत्रिका के रूप में प्रकाशित हो रही है। इस पाठक सम्मेलन का लक्ष्य इस बात की पड़ताल करना था कि  ‘आह्वान ’ अपने कार्यभार को किस रूप में पूरा कर सका है और आगे इसके लिए पाठकों के साथ मिलकर कौन-से कदम उठाने की ज़रूरत है।

पाठक सम्मेलन में नागपुर से आये प्रसिद्ध शिल्पकार और वरिष्ठ पत्रकार गोपाल नायडु, ठाणे (महाराष्ट्र) के ‘विस्थापन विरोधी अभियान’ से जुड़े साथी शिरीष मेढ़ी, पंजाब से आये ‘ललकार’ पत्रिका के सम्पादक लखविन्दर, उत्तराखण्ड से आये वरिष्ठ कवि और संस्कृतिकर्मी कपिलेश भोज, साथी शम्भुनाथ पाण्डे ‘शैलेय’, ‘मज़दूर एकता लहर’ दिल्ली से आये साथी धर्मेन्द्र, पटना से आये साथी देबाशीष, ‘जनचेतना मंच’, गया से आये साथी डी- के- यादव के अलावा लखनऊ से वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना, वरिष्ठ बुद्धिजीवी शकील सिद्दीकी और प्रसिद्ध कवयित्री व राजनीतिक कार्यकर्ता कात्यायनी ने शिरक़त की। इसके अतिरिक्त, दिल्ली, मुम्बई, और लखनऊ के विश्वविद्यालय छात्रों समेत करीब 80 लोगों ने इस कार्यक्रम में भागीदारी की।

सम्मेलन की शुरुआत आह्वान  टीम से जुड़ी शिवानी के स्वागत वक्तव्य से हुई। देश के विभिन्न इलाके से आये साथियों का अभिवादन करते हुए शिवानी ने इस आयोजन के उद्देश्यों के बारे में एक संक्षिप्त चर्चा की। इसके उपरान्त विहान सांस्कृतिक टोली के साथियों ने गीतों की प्रस्तुति की और फिर प्रथम सत्र की शुरुआत हुई।

पहले सत्र में कात्यायनी ने ‘लघु पत्रिकाएँ और भारत का राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन’ विषय पर अपना वक्तव्य रखा। जैसा कि कात्यायनी ने स्वयं ही कहा, यह विषय एक गहन और विस्तृत चर्चा की माँग करता है, इसलिए उपलब्ध समय के भीतर कुछ महत्वपूर्ण नुक्तों पर ही चर्चा की जा सकती है। अपनी बात की शुरुआत करते हुए उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन के दौरान निकलने वाली ढेरों लघु पत्रिकाओं से आज न सिर्फ भारत की आम आबादी अपरिचित है, बल्कि मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों का भी एक बड़ा हिस्सा इनके बारे में बहुत कम जानता है। यही कारण है कि अच्छी-ख़ासी संख्या में प्रकाशित होने के बावजूद इन्हें इतिहास-लेखन की स्रोत-सामग्री के रूप में नहीं इस्तेमाल किया गया। अयोध्या सिंह, राम विलास शर्मा, डा- ब्रह्मानन्द, विश्वमित्र उपाध्याय जैसे कुछ नामों को छोड़ दिया जाय, तो न केवल इतिहास की स्रोत सामग्री के रूप में इन पत्रिकाओं का बेहद कम उपयोग हुआ बल्कि राष्ट्रीय आन्दोलन पर मार्क्सवादी दृष्टि से लिखी गयी पुस्तकों तक में इनकी भूमिका का उल्लेख तक नहीं होता, या होता भी है तो निहायत की चलताऊ ढंग से। अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने बताया कि 19वीं सदी के नवें दशक में बालकृष्ण भट्ट के सम्पादन में प्रकाशित होने वाली ‘हिन्दी प्रदीप’ सही अर्थों में राष्ट्रीय चेतना की मुखर अभिव्यक्ति करती हुई हिन्दी की पहली पत्रिका थी। इस यशस्वी परम्परा को बीसवीं सदी में ‘सरस्वती’, ‘अभ्युदय’, ‘प्रताप’, ‘मर्यादा’, ‘विक्रम’, ‘माधुरी’ आदि जैसी पत्रिकाओं ने आगे बढ़ाया। बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में कलकत्ता, बनारस, इलाहाबाद, लखनऊ, कानपुर, पटना, नागपुर, इन्दौर, दिल्ली से लेकर गोरखपुर, मुजफ्रफरपुर, खण्डवा जैसी छोटी-छोटी जगहों से प्रकाशित होने वाली इन पत्र-पत्रिकाओं में से यदि केवल महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं का चुनाव किया जाये तो उनकी संख्या 100 के आस-पास होगी। माखन लाल चतुर्वेदी, गणेशशंकर विद्यार्थी, राधामोहन गोकुलजी, राहुल सांकृत्यायन की एक पूरी पीढ़ी ने क्रान्तिकारी पत्रकारिता कर्म को अपने जीवन लक्ष्य के तौर पर स्वीकार किया और सच्चे मायनों में जनता के सांस्कृतिक-बौद्धिक सेनापति की भूमिका अदा की। आज की स्थितियों से अगर उस दौर की तुलना की जाये तो जहाँ आज बड़ी-बड़ी पत्रिकाएँ भी 2-3 हज़ार की प्रसार संख्या नहीं पार कर पातीं, वहीं ‘प्रताप’ 14 से 16 हज़ार की संख्या में प्रकाशित होता था। कात्यायनी के अनुसार, इसका एक बड़ा कारण यह था कि उस दौर में ज़्यादातर इन पत्रिकाओं के प्रकाशक, सम्पादक, या लेखक लाभ या यश की कामना से प्रेरित होकर नहीं, बल्कि जनता के लिए लिखने-पढ़ने का काम करते थे। ये लोग स्वयं राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रति प्रतिबद्धता रखने वाले लोग थे। राष्ट्रीय आन्दोलन में इन लघु पत्र-पत्रिकाओं की महती भूमिका रही क्योंकि जो मध्यवर्ग उस समय राष्ट्रीय चेतना से लैस होकर औपनिवेशिक गुलामी के खि़लाफ संघर्ष में नेतृत्व दे रहा था उसमें राष्ट्रीय चेतना भरने का काम ये पत्रिकाएँ प्रभावी तरीके से कर रही थीं। आज के समय में जब देश की जनता आज़ाद होने के बावजूद देशी-विदेशी पूँजी के शोषण का शिकार है, तो एक बार नये सिरे से एक नये किस्म की परिवर्तनकामी चेतना उनमें पैदा किये जाने की ज़रूरत है। इसके लिए क्रान्तिकारी विचारों से लैस लघु पत्रिकाओं समेत एक पूरे वैकल्पिक मीडिया की ज़रूरत है, जो आज एक तरह से अनुपस्थित है। इसका एक कारण भारतीय मध्यवर्ग के एक खाते-पीते हिस्से का सत्ता का अवलम्ब बन जाना भी है। मध्यवर्ग के अन्य हिस्से भी प्रभावी कारपोरेट मीडिया द्वारा दी जारी मानसिक नशे की खुराक में मदहोश है। ऐसे में, मध्यवर्ग और आम मेहनतकश जनता के क्रान्तिकारी युवाओं को यह जिम्मेदारी अपने कन्धों पर लेनी होगी, ताकि नये सिरे से परिवर्तन की मुहिम को बौद्धिक और राजनीतिक जीवन मिल सके। इस सत्र की अध्यक्षता गोपाल नायडु और शिरीष मेढ़ी ने की। कात्यायनी के मुख्य वक्तव्य के बाद वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना ने 1960 के दशक की अपनी लघु पत्रिका ‘आरम्भ’ के अनुभव पाठकों से साझा किये और बताया कि प्रगतिशील विचारों के साथ एक लघु पत्रिका का प्रकाशन किन चुनौतियों को अपने साथ लेकर आता है।

दूसरे सत्र में पंजाबी छात्रों-युवाओं की पत्रिका ‘ललकार’ के सम्पादक लखविन्दर ने पंजाब में लघु पत्रिका के आन्दोलन और जनान्दोलनों से उसके जुड़ाव को लेकर अपनी बात रखी। लखविन्दर ने बताया कि पंजाब में भी परिवर्तनकामी विचारों वाली लघु पत्रिकाओं का इतिहास पुराना है और राष्ट्रीय आन्दोलन के दौर में ही ‘किरती’ और ‘मतवाला’ जैसी पत्रिकाओं से यह इतिहास शुरू हो जाता है। उसके बाद से लघु पत्रिकाओं ने पंजाब के जनान्दोलनों में लगातार अपनी भूमिका निभाई। इन पत्रिकाओं में भगतसिंह और सुखदेव जैसे क्रान्तिकारियों ने लेखन किया और क्रान्तिकारी पत्रकारिता की मिसाल कायम की। आज़ादी के बाद भी वामपन्थी आन्दोलन से जुड़ी पत्रिकाओं ने जनता के मुद्दों पर क्रान्तिकारी दृष्टिकोण के साथ लिखना जारी रखा।

तीसरे सत्र में नौजवान भारत सभा, दिल्ली से आये प्रेमप्रकाश ने अपना पर्चा पेश किया जो इस विषय पर था: ‘भ्रष्टाचार: पूँजीवाद की आचार संहिता।’ प्रेमप्रकाश ने अपना वक्तव्य रखते हुए बतालाया कि मौजूदा दशक का उत्तरार्द्ध भारतीय पूँजीवाद के लिए बहुत अच्छा नहीं बीता है। लगातार घोटालों ने इसे पूरी तरह नंगा कर दिया है। ऐसे में पूँजीवाद की बची-खुची विश्वस्नीयता भी ख़तरे में पड़ गयी है। अण्णा हज़ारे का आन्दोलन ऐसे में व्यवस्था का सवाल नहीं खड़ा करता है। पूँजीवाद को कठघरे में खड़ा किये बिना भ्रष्टाचार दूर करने का सपना देखना एक सन्त पूँजीवाद का सपना देखना है। ऐसा पूँजीवाद कभी यथार्थ नहीं बन सकता है। पूँजीवाद अपनी नैसर्गिक गति से भ्रष्टाचार को पैदा करता है। मुनाफे की हवस कभी भी नियमों के दायरे में बँधकर नहीं रह सकती। जो व्यवस्था ही मुनाफे की हवस पर टिकी हो, वह अलग से कोई भी कानून बनाकर भ्रष्टाचार नहीं दूर कर सकती। ऐसे में, नयी आज़ादी की लड़ाई के तौर पर प्रचारित अण्णा का धर्म युद्ध वास्तव में व्यवस्था के ही विभ्रमों को बढ़ाता है और जनता के गुस्से को व्यवस्था के वर्चस्व द्वारा समेट लिये जाने में मदद करता है। इसके अलावा इस पर्चे में अण्णा हज़ारे की राजनीति और विचारधारा पर भी विस्तार से चर्चा की गयी और बताया गया कि उनकी पूरी सोच प्रगतिशील नहीं बल्कि पुनरुत्थानवादी और नायकवादी है। ऐसी सोच के फासीवाद द्वारा उपयोग कर लिये जाने की पूरी सम्भावना है। वस्तुगत तौर पर, इस राजनीति को अन्त में फासीवाद की ही सेवा करनी है।

इस पर्चे की प्रस्तुति के साथ पहले दिन का समापन हुआ।

अगले दिन पहले सत्र में ‘क्रान्तिकारी परिवर्तन की परियोजना और वैकल्पिक मीडिया आन्दोलन के कार्यभार’ विषय पर ‘मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं के आह्वान ’ के सम्पादक अभिनव ने अपना वक्तव्य रखा। अपने लम्बे वक्तव्य की शुरुआत अभिनव ने इस बात से की कि वैकल्पिक मीडिया के कार्यभार निर्धारित करने से पहले हमें यह समझना होगा कि बुर्जुआ मास मीडिया क्या करता है। उन्होंने बताया कि बुर्जुआ मास मीडिया का काम वास्तव में जनता को एक व्याख्यात्मक फ्रेमवर्क देना होता है। किसी भी परिघटना को किस नज़रिये से देखा जाये यह बुर्जुआ मास मीडिया जनता को सिखलाता है। इस रूप में वह यथास्थिति के पक्ष में जनता के बीच राय का निर्माण करता है। तमाम अन्तरविरोधों को स्वीकारते हुए भी किसी रैडिकल परिवर्तन के पक्ष में वह चेतना नहीं तैयार होने देता, या कम-से-कम इसका पूरा प्रयास करता है। इस सन्दर्भ में उन्होंने फ्रैंकफर्ट स्कूल के अडोर्नो और होर्कहाइमर और अल्थूसर समेत कई नव-मार्क्सवादी विचारकों के विचारों का आलोचनात्मक विवेचन करते हुए बताया कि आपस में विरोधी होते हुए भी ये दोनों ही व्यवस्था की विचारधारात्मक और सांस्कृतिक मशीनरी की ताकत को इस हद तक बढ़ाकर दिखलाते हैं, कि जनता का अभिकरण (एजेंसी) ही समाप्त-प्राय हो जाती है। विचारधारात्मक राज्य उपकरण ही अकेले जनता की चेतना का निर्माण नहीं करते; जनता के जीवन की स्थितियाँ सबसे पहले और निर्णायक तौर पर जनता की चेतना का निर्माण करती हैं। ऐसे में, जनता अपने शोषण और उत्पीड़न के खि़लाफ अपने अनुभवों से चेतना से लैस होती है। निश्चित तौर पर, ऐसी चेतना के आधार पर वह स्वयंस्फूर्त आन्दोलन ही कर सकती है, क्रान्ति नहीं। इस प्रतिरोध की चेतना को क्रान्तिकारी प्रचार के जरिये एक व्यवस्थित रूप दिया जा सकता है। यहीं पर वैकल्पिक मीडिया के कार्यभार आते हैं। वैकल्पिक मीडिया का कार्यभार है, जनता को ऐसा व्याख्यात्मक ढाँचा मुहैया कराना जिससे वह राज्य के विचारधारात्मक उपकरणों द्वारा दी जा रही परिभाषाओं और व्याख्याओं को ख़ारिज कर सके। निश्चित तौर पर, पैमाने और परिमाण के मामले में वैकल्पिक मीडिया कभी पूँजीवादी मीडिया की बराबरी नहीं कर सकता है। लेकिन इसकी कोई ज़रूरत भी नहीं है। क्रान्तिकारी वैकल्पिक मीडिया अगर ऐसे अग्रिम तत्वों की एक कतार भी तैयार करती है जो अपने सक्रिय राजनीतिक प्रचार से बुर्जुआ मीडिया के प्रचार द्वारा फैलायी गयी धुँध की छँटाई-सफ़ाई करें और जनता के बीच मौजूद स्वयंस्फूर्त परिवर्तन की चेतना को व्यवस्थित और वैज्ञानिक रूप दें, तो भी वैकल्पिक मीडिया का कार्यभार पूरा हो जाता है। ‘आह्वान ’ के अनुभव से अभिनव ने यह स्पष्ट किया कि ‘आह्वान ’ इन्हीं कोशिशों में लगा है। वैकल्पिक मीडिया के सामने आने वाली संसाधन की चुनौतियों पर भी अभिनव ने बात रखी और बताया कि वैकल्पिक मीडिया का कोई भी जरिया जनता के संसाधन से ही खड़ा होना चाहिए। कारपोरेट घरानों, एन-जी-ओ-, सरकार, आदि जैसे स्रोतों के बूते जनता का क्रान्तिकारी वैकल्पिक मीडिया नहीं खड़ा हो सकता। इस सत्र की अध्यक्षता कात्यायनी और कपिलेश भोज ने की।

दूसरे सत्र में ‘साइण्टिस्ट्स फॉर सोसायटी’ के सनी व प्रशान्त द्वारा लिखित पर्चे की प्रस्तुति सनी ने की। इस पर्चे का विषय था ‘आधुनिक भौतिकी और भौतिकवाद के लिए संकट’। सनी ने अपनी बात रखते हुए बताया कि 20वीं सदी की शुरुआत में क्वाण्टम थियरी और सापेक्षता सिद्धान्त के पैदा होने के बाद से भौतिकी में एक संकट की बात की गयी है। इस संकट के हल्ले के पीछे का कारण यह न समझ पाना है कि विज्ञान में हर स्तर या धरातल पर अलग नियमों का समुच्चय काम करता है। हर विज्ञान का अपनी एक विषय-वस्तु होती है। प्राकृतिक विज्ञान में सूक्ष्म विश्व के उद्घाटन से हर चीज़ उस हद तक सुनिश्चित या निर्धारण योग्य नहीं रह गयी जितनी की न्यूटन के ज़माने में थी। इसके कारण कुछ लोग इस नतीजे पर पहुँचे कि अगर वस्तु जगत का कोई भी हिस्सा आज के समय पूर्णतः नहीं जाना जा सकता तो फिर वस्तुगत यथार्थ ही अज्ञेय है। कुछ वैज्ञानिक यहीं से काण्टीय अज्ञेयवाद के रास्ते पर चले गये। वहीं दूसरी तरफ एक दूसरा स्कूल भी था जो हर चीज़ का पूर्ण निर्धारण करने की जिद लिये बैठा था। वास्तव में, ये दोनों ही दो ग़ैर-द्वन्द्वात्मक छोर थे और अगर कोई वैज्ञानिक इस बात को नहीं समझता कि वस्तुगत विश्व के बारे में हमारा ज्ञान निर्धारण और अनिर्धारण के बीच के द्वन्द्व के विकसित होते हुए और गहरे धरातल जाने के साथ ही आगे बढ़ता है। अगर इस द्वन्द्व को न समझा जाये तो वैज्ञानिक के तौर पर आप या तो नियतत्ववाद के गड्ढे में जाकर गिरेंगे या फिर अज्ञेयवाद की खाई में। इसी लिए एक वैज्ञानिक को पहले से ही द्वन्द्वात्मक पद्धति और भौतिकवादी विश्व दृष्टिकोण से लैस होना ज़रूरी है। आगे पर्चे में हिग्स बुसॉन को लेकर मचाये गये हल्ले पर भी कुछ सप़फ़ाई की। सनी ने बताया कि हिग्स बुसॉन के मिल जाने से ईश्वर की पुष्टि नहीं होती और न ही भौतिकवाद के लिए कोई संकट पैदा होता है। भौतिकवाद के लिए यह सवाल कभी अहम रहा ही नही कि पदार्थ पैदा हुआ या नहीं। यदि पदार्थ पैदा हुआ भी हो तो भी भौतिकवाद सुरक्षित है। भौतिकवाद का सवाल यह नहीं कि पदार्थ कभी पैदा हुआ या नहीं। उसका सवाल यह है कि पदार्थ पहले जन्मा या चेतना। इसके बारे में विज्ञान अपनी जगह खड़ा है और भौतिकवाद को पुष्ट कर रहा है। इसके बाद सनी ने विस्तार से ब्रह्माण्ड के उत्पत्ति और विकास सम्बन्धी विभिन्न अवधारणाओं पर भी चर्चा की। इस सत्र की अध्यक्षता पटना से आये विज्ञान के शिक्षक देबाशीष और शिरीष मेढ़ी ने की।

तीसरे सत्र में सांस्कृतिक कार्यक्रम रखे गये थे। इसकी शुरुआत वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना ने अपने माउथ ऑर्गन वादन से की। नरेश सक्सेना ने पुराने हिन्दी फिल्म गीतों के धुनों के वादन से सभी श्रोताओं को मन्त्रमुग्ध कर दिया। इसके बाद दिल्ली से आये युवा संस्कृतिकर्मी और नाटककार आशुतोष ने दो एकल नाट्यों की प्रस्तुति और कविता पाठ किया जिसे दर्शकों ने काफी सराहा। अन्त में सांस्कृतिक टोली ‘विहान’ ने कुछ क्रान्तिकारी गीतों की प्रस्तुति की।

आखि़री सत्र ‘रूबरू’ में पाठक समुदाय ने आह्वान  के सम्पादक मण्डल से अपने सुझाव और आलोचनाएँ साझा कीं। पाठकों की माँग थी कि पुस्तक चर्चा का स्तम्भ फिर से शुरू किया जाये और इसे बिना किसी कारण या सूचना के बन्द नहीं किया जाना चाहिए था। उत्तराखण्ड से आये साथी कपिलेश भोज ने वहाँ के पूरे पाठक समूह की राय और सुझावों से सम्पादक मण्डल को अवगत कराया। इस सत्र की समाप्ति के बाद पाठक सम्मेलन का औपचारिक समापन कर दिया गया।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, सितम्‍बर-अक्‍टूबर 2011

 

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