भारतीय राज्यसत्ता का निरंकुश एवं जनविरोधी चरित्र पूँजीवादी संकट का लक्षण है

गजेन्द्र

हर राज्य का एक वर्ग चरित्र होता है। मौजूदा राज्य एक पूँजीवादी राज्य व्यवस्था है। यह देश के कारपोरेट घरानों, मालिकों, ठेकेदारों, नेताओं-नौकरशाहों और खुशहाल उच्च मध्य वर्ग की सेवा करता है। पूँजीवादी व्यवस्था आज विश्व के पैमाने पर एक ऐसे ढाँचागत संकट का शिकार है जो तमाम हकीमों और मुनीमों के नुस्खों के बावजूद जाने का नाम नहीं ले रहा है। वास्तव में पूँजीवादी व्यवस्था आज साम्राज्यवादी भूमण्डलीकरण की जिस मंज़िल में है, उसमें पूँजीवाद इस संकट से मुक्ति पा ही नहीं सकता। यह संकट अपने आपको अतिउत्पादन के संकट के रूप में पेश कर रहा है। अतिउत्पादन के संकट से निपटने के लिए ही 1950 के दशक से पूँजीवाद ने अधिक से अधिक सट्टेबाज़ होती वित्तीय पूँजी और वित्तीय बाज़ार का सहारा लिया था। लेकिन आज वित्तीय बाज़ार स्वयं “अतिउत्पादन” के संकट का शिकार है। और इस संकट से निकलने का अब पूँजीवाद के पास कोई रास्ता नहीं है। इस संकट के जवाब में जनता के आन्दोलन विश्व भर में बढ़ रहे हैं और इससे भयाक्रान्त पूँजीवादी शासक वर्ग एक ओर अपनी सत्ता के दमन तन्त्र को अधिक से अधिक चाक-चौबन्द कर रहा है और दूसरी तरफ़ इसने बोतल से फ़ासीवाद के जिन्न को तमाम देशों में बाहर निकाल दिया है। हमारे देश में भी कारपोरेट घरानों और मीडिया ने जिस कदर मोदी जैसे अज्ञानी और इतिहास-दृष्टि से रिक्त बर्बर फासीवादी को समर्थन दिया है, उसकी लहर को पैदा किया है, वही इसी बात की गवाही दे रहा है कि फिलहाल पूँजीवाद को उदार बुर्जुआ सत्ता की नहीं बल्कि एक बर्बर, नग्न दमनकारी फ़ासीवादी सत्ता की ज़रूरत है, जो बढ़ते मज़दूर आन्दोलन, छात्र आन्दोलन को उसी “निर्णायकता” के साथ कुचले जिसके कारण कारपोरेट मीडिया मोदी को “निर्णायक नेता” कहता है। फ़ासीवाद पूँजीवादी व्यवस्था के संकट में सामाजिक आन्दोलन के रूप में उभर कर सत्ता में आता है। यह कोई सैन्य तानाशाही नहीं होता। यह टुटपुँजिया वर्गों और साथ ही मज़दूर वर्ग के एक हिस्से के राजनीतिक अज्ञान के बूते सत्ता में आता है, अक्सर संसदीय रास्तों से। हालाँकि भारतीय राज्य व्यवस्था अभी क्लासिकीय अर्थों में फ़ासीवादी नहीं है परन्तु यह निरंकुश और जनविरोधी है और बढ़ते संकट के साथ उसका यह चरित्र लगातार बढ़ रहा है। मतलब यह कि मौजूदा पूँजीवादी संकट के बढ़ने पर उभरते जन उभार को संभालने के लिए यह हथियारों से लैस है। आज समय-समय पर यह अपने “डण्डे’ का उपयोग भी कर रही है। कल्याणकारी नीतियों और संसदीय व्यवस्था के परदे के पीछे खंज़रों से लैस हत्यारी व्यवस्था का दमन बदस्तूर जारी है। फ़ासीवाद बस इन परदों को हटा देता है और निरंकुशता को सामाजिक औचित्य प्रदान करता है, हालाँकि यह औचित्य प्रतिपादन कल्पनाओं और मिथकों पर ज़्यादा निर्भर करता है। जो उदारवादी लोग फासीवादी उभार को रोकने के लिए भारतीय लोकतन्त्र और संविधान में आस्था जमाये बैठे हैं, उन्हें याद कर लेना चाहिए कि भारतीय बुर्जुआ लोकतन्त्र और संविधान न तो 1992 में फासीवादी लहर को रोक पाया था, न 1998 में और न ही 2002 में।

खुद भारतीय राज्य व्यवस्था की पूरी बनावट और बुनावट ही ऐसी है जो तमाम नियमों, कानूनों एवं सिद्धान्तों का नकली चोंगा पहनकर निरंकुश, तानाशाह और गै़र-जनवादी तरीके से काम करती है। यह फ़ासीवादी विचारधारा और समाज के फासीवादीकरण की प्रणाली के लिए अनुकूल ज़मीन देती है। राज्यसत्ता समय आने पर अपने अस्तित्व को बचाने के लिए इसका इस्तेमाल भी करती है। अपनी बात को स्पष्ट करने के लिये हम भारतीय राज्य और उसके कुकृत्यों पर संक्षेप में अपनी बात कहेंगे। सबसे पहले नज़र भारत के संविधान पर डाल लेते हैं।

भारत का संविधान और कानून व्यवस्था

भारत जिसे दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जाता है उसके संविधान और कानून व्यवस्था के अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है कि वास्तव में भारतीय राज्यसत्ता का चरित्र निरंकुश, तानाशाह एवं जनविरोधी है। भारतीय राजसत्ता के असली चरित्र को समझाने के लिए पिछले 67 साल की आज़ादी के दौरान इसके द्वारा देश की जनता पर किये गए कारनामों की चर्चा करते हैं। सबसे पहली और महत्वपूर्ण बात यह है कि 1947 में इस देश की जनता को जो आज़ादी मिली वह एक समझौते के तहत मिली और इसने एक ऐसा पूँजीवादी जनवाद स्थापित किया जिसमें जनवाद नाममात्र का था। जनता के लिए इसका निरंकुश चरित्र आज़ादी के तुरन्त बाद तेलंगाना किसान विद्रोह के खूनी दमन और मज़दूर आन्दोलन पर लाठियाँ-गोलियाँ बरसाने के साथ ही साफ़ हो गया। इस आज़ादी का अर्थ और महत्व देश के पूँजीपतियों और कुलकों के लिए था। औपनिवेशिक सत्ता की तरह उन्हें भी देश के मज़दूरों, किसानों और आम मेहनतकश आबादी का उसी कदर दमन करने की आवश्यकता थी जिस कदर अंग्रेज़ साम्राज्यवादियों को थी। इसीलिये उन्होंने राज्यसत्ता के पूरे ढाँचे को ज्यों-का-त्यों स्वीकारा या अपना लिया जिसकी बनावट-बुनावट अंग्रेज़ों के द्वारा इस देश की जनता का शोषण करने के लिए तैयार की गयी थी। इस बौने और विकलांग पूँजीवादी जनवाद ने एक तरफ तो जनता को कुछ सीमित जनवादी अधिकार दिए वहीं दूसरी तरफ उन्हें छीनने के पूरे प्रावधान बनाये रखे। इस पूँजीवादी जनवाद को स्थापित करने के लिए जिस संविधान को बुनियाद के रूप में स्वीकारा गया वास्तव में उसके निर्माण की पूरी प्रक्रिया ही गै़र-जनवादी थी। राजसत्ता के निरंकुश, तानाशाह और गै़र-जनवादी चरित्र को बनाए रखने के लिए संविधान को ग़ैर-जनवादी तरीके से ही बनाया जा सकता था। संविधान निर्माण के लिए बनायी गयी संविधान सभा का चुनाव देश की ऊपर की 13 फीसदी आबादी के निर्वाचक मण्डल ने किया था। संविधान सभा का निर्माण सार्विक मताधिकार के आधार पर देश की जनता ने नहीं किया था। इस संविधान सभा ने मुख्यतः साम्राज्यवादियों द्वारा 1935 में बनाए गए ‘गवर्नमेण्ट आफ इण्डिया एक्ट’ को थोड़ा-बहुत विस्तार देकर तथा कुशलता व चतुराई के साथ अमेरिका व अन्य यूरोपीय देशों के बुर्जुआ संविधानों से कुछ लोकरंजक धाराएँ-उपधाराएँ, शब्दावली और लफ़्फ़ाज़ियाँ उधार लेकर भारतीय संविधान बनाया था। भारतीय संविधान की संरचना ही ऐसी है कि बुर्जुआ राज्यसत्ता सहज तरीके से सीमित जनवादी बुर्जुआ सत्ता से नग्न तानाशाही में तब्दील हो सकती है। भूलना नहीं चाहिए कि देश में आपातकाल पूर्ण रूप से संवैधानिक तरीके से आया था।

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अंग्रेज़ों द्वारा बनायी गयी भारतीय दण्ड संहिता और दण्ड प्रक्रिया संहिता से लेकर पूरी न्यायपालिका वही है जिसके द्वारा आज़ादी के लिए लड़ रही इस देश की जनता को कड़े से कड़े दण्ड दिए गए। आज़ादी के बाद से बुर्जुआ वर्ग इसका इस्तेमाल जनता के खिलाफ़ इसी रूप में करता आ रहा है। संसदीय प्रणाली के दिखाने के दाँत लगाकर और पूँजीवादी जनवाद बहाल कर खाने के दाँतों को दरअसल और मज़बूत और धारदार बना दिया गया है। सेना और पुलिस के पूरे तन्त्र एवं नौकरशाही के नागपाश को पहले से अधिक व्यापक बना दिया है। इसके चलते संविधान में दिए गए सीमित अधिकार भी निरर्थक साबित हुए हैं। लेकिन दमन और शोषण की पूरी चाक-चौबन्द व्यवस्था को भारतीय बुर्जुआ वर्ग लातिनी अमेरिका की सैन्य जुण्टाओं की तरह नहीं चलाता बल्कि उसे लोकतन्त्र के ढोंग के साथ चलाता है। यही कारण है कि जनता के अच्छे-ख़ासे हिस्से में इस जनतन्त्र को लेकर अभी भी विभ्रम मौजूद है। लेकिन अगर पिछले 67 वर्ष में इस पूँजीवादी राज्यसत्ता का बर्ताव देखें तो यह समझते देर नहीं लगती है कि इस “जनतन्त्र” में “जन” कहीं नहीं है, बस तन्त्र ही तन्त्र है। पिछले 67 वर्षों में देश के आम मज़दूरों और ग़रीब किसानों का जितना खून बहाया गया है, उतना अंग्रेज़ों ने 200 वर्षों में नहीं बहाया था।

सत्ता का दमनचक्र

भारतीय पूँजीपति वर्ग द्वारा जनता के दमन की कहानी आज़ादी से एक वर्ष पूर्व यानी वर्ष 1946 में ही शुरू हो जाती है जब भारतीय नौसैनिकों ने अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ़ विद्रोह का झण्डा बुलन्द किया था और बम्बई के कपड़ा मजदूर एवं गोदी मजदूर उनके साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर खड़े हो गए थे। लेकिन जब ब्रिटिश सत्ता इस विद्रोह को कुचलने के लिए बम्बई की सड़कों को नौसैनिकों और मज़दूरों के ख़ून से लाल कर रही थी उस समय कांग्रेस के नेहरू, पटेल आदि जैसे नेताओं से लेकर मुस्लिम लीग के नेताओं तक ने एक स्वर में इस विद्रोह की निन्दा की थी और ब्रिटिश सत्ता का पक्ष लिया था। आज़ादी की लड़ाई में यहाँ के बुर्जुआ राष्ट्रवादी नेताओं ने कभी भी ऐसे जनविद्रोहों का समर्थन नहीं किया जिन्होंने जुझारू तरीके से अंग्रेज़ हुकूमत को ललकारा। उन्हें डर था कि किसी भी रूप से रैडिकल तरीके से आने वाली आज़ादी में पूँजीपति वर्ग का शासन हमेशा डाँवाडोल रहेगा। इसीलिए कांग्रेस और मुस्लिम लीग के नेताओं ने हमेशा ‘दबाव और समझौते’ की रणनीति का इस्तेमाल किया।

आज़ादी मिलने के बाद नेहरू ने तेलंगाना के लोगों के साथ जो किया उसे इस देश की जनता कभी नहीं भुला सकती। तेलंगाना के किसान अपने हक़ एवं अधिकारों के लिए लड़ रहे थे। उन अधिकारों के लिए लड़ रहे थे जिनकी पूर्ति स्वयं लोकतांत्रिक सरकार द्वारा की जानी चाहिए थी। लेकिन नेहरू ने तेलंगाना के किसानों की आवाज़ को कुचलने के लिए सेना भेजकर ऐसा ऐतिहासिक दमन चक्र चलाया जिसकी आज भी मिसाल नहीं मिलती। 1967 में नक्सलबाड़ी में उठा किसान विद्रोह एक जनविद्रोह था जो कि चारू मजूमदार की आतंकवादी कार्यदिशा के कारण सही क्रान्तिकारी जनदिशा पर नहीं चल सका। लेकिन उसका दमन भी भारतीय राज्यसत्ता ने जिस बर्बरता के साथ किया, वह इसके जनविरोधी चरित्र का उदाहरण है। 1974 की ऐतिहासिक रेल हड़ताल को राज्यसत्ता ने बर्बरतापूर्वक कुचल दिया।

आपातकाल की विशेष चर्चा करना आवश्यक है। आपातकाल के दौरान भारतीय राज्यसत्ता का निरंकुश, तानाशाह एवं जनविरोधी चरित्र बिलकुल नंगे रूप में सामने आ गया। यह समय बेलछी, बेलाडीला, पन्तनगर, नारायणपुर, शेरपुर, अरबल, डाला, स्वदेशी काटन मिल, कानपुर से लेकर मुजफ्ऱफ़रनगर और बबराला काडों तक राज्यसत्ता द्वारा किये गए नरसंहारों का गवाह है, जब जनता के जनवादी अधिकारों को ताक पर रखकर नंगे तौर पर जनता का दमन किया गया। आज जब पूँजीवादी आर्थिक और राजनीतिक संकट चरम पर पहुँच रहा है तो एक बार फिर से आपातकाल जैसी स्थिति पैदा की जा रही है। लेकिन इस बार यह आपातकाल अघोषित तौर पर आ रहा है। टाडा, पोटा, यूएपीए, मकोका जैसे कानून बनाकर हर प्रकार के जनवादी अधिकारों को कभी भी निरस्त करने के इन्तज़ामात किये जा चुके हैं। संकट के इस दौर में मज़दूरों और आम मेहनतकश आबादी के लिए कांग्रेस और भाजपा के शासन में कोई फर्क नहीं रह गया है। निश्चित रूप से भाजपा की सरकार इन्हीं नीतियों को ज़्यादा तानाशाहाना तरीके से लागू कर सकती है और इसीलिए आज देश के पूँजीपति मोदी को नायक बना कर पेश करने में और उसे हर समस्या का समाधान बताने में लगे हुए हैं।

संघ जो हमेशा जनता के सामने “राष्ट्र प्रेम” और “देश-भक्ति” की बात करता है उसका पूरा ढाँचा और कार्यनीति तानाशाही-भरी और जनविरोधी है। न तो संघ में कोई आन्तरिक जनवाद है और न ही यह बाहर किसी भी किस्म के जनवाद की हिमायत करता है। देश प्रेम का राग अलापने वाले और रंग पोतकर शहीद बनने वाले संघियों को याद दिलाना चाहिए कि उनमें से कितने लोग आपातकाल के दौरान माफ़ीनामे लिखकर जेलों से बाहर आये थे। तत्कालीन सरसंघचालक बालासाहब देवरस ने जेल से रिहाई और आर.एस.एस. से प्रतिबन्ध हटाने की शर्त पर बीस सूत्री कार्यक्रम पर समर्थन देने के लिए इन्दिरा गाँधी को पत्र लिखा था।  वैसे भाजपा जैसे पार्टी से किसी भी किस्म की निरन्तरता की उम्मीद करना व्यर्थ है लेकिन फिर भी इनके घृणित अवसरवाद को नंगा करने के लिए यह बताना ज़रूरी है कि आपातकाल के कई चर्चित चेहरे जैसे मेनका गाँधी, ममता बनर्जी और जगमोहन आदि भाजपा-नीत एन-डी-ए- सरकार में शामिल थे। अपने आप को “देश-प्रेमी”, “राष्ट्र-प्रेमी”, “संस्कृति-रक्षक”, “नारी-रक्षक” एवं “गौ-रक्षक” कहने वाले संघियों की पूरी विचारधारा में कुछ भी भारतीय नहीं है। इनकी पूरी विचाराधारा, संगठन और संस्कृति जर्मनी के नात्सियों और इटली के फ़ासीवादियों से उधार ली गयी है।

भारतीय राज्यसत्ता के दमनकारी चरित्र पर बात करते हुए कश्मीर एवं उत्तरपूर्वी राज्यों की भी चर्चा जरूरी है जहाँ की जनता के साथ आज़ादी की शुरुआत से ही धोखा किया गया। तब से आज तक वहां की जनता पर अत्याचारों का पहाड़ टूट रहा है। क्रूरता के साथ उनके अधिकारों का दमन किया जा रहा है। यहाँ की जनता के लिए नागरिक आज़ादी और लोकतांत्रिक अधिकारों का कोई मतलब नहीं है। देश के इन इलाकों में विदेशी शक्तियों के सक्रिय होने और विध्वंसक कार्यवाहियों का हौवा दिखाकर अरसे से ‘डिस्टर्बड एरिया एक्ट’ और ‘आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट’ (1958, 1972) जैसे कानूनों के तहत एक तरह का बर्बर सेना-पुलिस राज्य कायम कर रखा है। यहाँ  संवैधानिक अधिकारों का कोई मतलब नहीं है। यहाँ हज़ारों लोग सेना और पुलिस द्वारा मारे जा चुके हैं। यहाँ भारतीय राज्यसत्ता अपने भीषणतम बर्बरता और नग्नतम दमन के साथ शासन करती है।

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आज देश के कई अन्य इलाकों में ऐसी ही स्थिति विद्यमान है। क्योंकि पूँजीवादी संकट बढ़ने के साथ साथ देश के अन्य क्षेत्रों में भी बेरोज़गारी, भुखमरी, महँगाई एवं अन्य समस्याओं के चलते मेहनतकश अवाम के भीतर विद्रोह की चिंगारी भड़कने लगी है। और इन्हीं विद्रोहों को कुचलने के लिए राज्यसत्ता पहले से मौजूद अनेक काले कानूनों को लागू करके और नए नए काले क़ानून बनाकर इन क्षेत्रों की जनता पर क्रूरता एवं बर्बरता के साथ सेना-पुलिस राज्य कायम कर रही है। इनमें आन्ध्र प्रदेश, उड़ीसा और छत्तीसगढ़ के इलाके प्रमुख हैं। प्रिवेंटिव डिटेंशन एक्ट (1950), डिफेन्स आफ इण्डिया एक्ट (1962), मीसा (1931), आर्म्ड फ़ोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट (1958, 1972) आन्ध्र प्रदेश सप्रेशन आफ डिस्टरबेंसेज़ एक्ट, नेशनल सिक्योरिटी एक्ट (1980), एसेंशियल सर्विसेज मेंटेनेंस एक्ट (1980), टाडा (1984), पोटा (2002) समय समय पर लगाए गए कुछ ऐसे ही काले कानूनों की सूची है जिनके लागू होने पर संविधान-प्रदत्त अधिकारों का कोई मतलब नहीं रह जाता। राज्यसत्ता का सेना और पुलिस तंत्र पूरी नंगई के साथ जनता का दमन करता है। कोबरा, आपरेशन ग्रीन हण्ट, एवं सलवा जुडूम जैसे अभियान राज्य सत्ता की क्रूरता के परिचायक हैं जो राज्यसत्ता के निरंकुश, तानाशाह एवं जन-विरोधी चरित्र को खोलकर सामने रख देते हैं।

साम्प्रदायिक फासीवाद संकटग्रस्त पूँजीवाद की ज़रूरत है

आज भारत में साम्प्रदायिक फासीवाद का उभार कोई आकस्मिक परिघटना नहीं है। साम्प्रदायिक फासीवादियों पर भारतीय राज्यसत्ता ने कभी भी उनके अपराधों और कुकृत्यों के तमाम गवाहों और सबूतों के बावजूद प्रतिबन्ध नहीं लगाया और कभी लगाया भी तो बस कुछ समय के लिए, जब पूँजीवाद के लिए ज़रूरी था। आज़ादी के बाद से ही संघ गिरोह हिन्दुत्ववादी गुण्डा वाहिनियाँ बना रहा है, उन्हें सशस्त्र प्रशिक्षण दे रहा है, आतंकवादी घटनाओं को अंजाम दे रहा है, कानून को ताक पर रख कर मज़दूर व नागरिक अधिकारों पर हमला कर रहा है, धार्मिक नरसंहार करा रहा है लेकिन फिर भी संघ गिरोह पर प्रतिबन्ध नहीं लगाया जाता है। गुजरात के दंगों में बजरंग दल, विश्व हिन्दू परिषद् जैसे संघी गुण्डा गिरोहों की सलंग्नता तहलका के स्टिंग ऑपरेशन से साफ़ ज़ाहिर हो गयी थी। लेकिन फिर भी उस पर कोई प्रतिबन्ध नहीं लगाया गया। क्यों? क्योंकि इन ताक़तों की ज़रूरत भारत के पूँजीपति वर्ग को हमेशा रहती है। चाहे ये ताक़तें सत्ता में रहें या न रहें, पूँजीपति वर्ग को भाड़े के आतंकवादी गिरोहों की ज़रूरत जनता को डराकर रखने और अनुशासित करने के लिए होती है। इसीलिए तमाम गवाहों के बावजूद संघी गिरोह के गुण्डे और हत्यारे खुल्लमखुल्ला घूमते हैं। और जब पूरी आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था संकट के चरम पर पहुँचती है तो इन फासीवादी ताकतों के संसदीय चेहरे, यानी कि भाजपा, को सत्ता सौंपने में भी पूँजीपति वर्ग को गुरेज़ नहीं होता। यही कारण है कि आज नरेन्द्र मोदी जैसा साम्प्रदायिक फासीवादी कारपोरेट जगत और उसके भाड़े के टट्टू, यानी कि कारपोरेट मीडिया का चहेता बना हुआ है। सारे पूँजीपति एक स्वर में कांग्रेस के नीति-निर्धारण और निर्णय क्षमता को लकवा मारने की बात कर रहे हैं और मोदी की नीतियों और निर्णायकता की प्रशंसा कर रहे हैं। हाल ही में चार राज्यों में भाजपा की विजय में इस प्रक्रिया का अच्छा-ख़ासा हाथ है।

फ़ासीवादी ताक़तें राज्यसत्ता में आ सकें इसके लिए सिर्फ़ राज्यसत्ता का ही नहीं बल्कि पूरे सामाजिक ताने-बाने का फ़ासीवादीकरण किया जा रहा है। सवाल सिर्फ़ तरह-तरह के नये-पुराने काले कानूनों, फर्ज़ी मुठभेड़ों, पुलिस हिरासत में यातना से हुई मौतों, हड़तालों पर प्रतिबन्ध, उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं के बर्बर दमन और प्रतिवर्ष सैकड़ों की तादाद में व्यवस्था-विरोधी क्रान्तिकारियों की हत्याओं व गिरफ़्तारीयों का ही नहीं है बल्कि शिक्षा पद्धति, संस्कृति, न्याय व्यवस्था के फासिस्टीकरण व सर्वसत्तावादीकरण का भी है। मज़दूरों के लिए सत्तातन्त्र पहले भी कभी जनवादी नहीं था, लेकिन फासीवादियों के सत्ता में आने पर उनपर दमन और भी भयंकर हो जाता है। गुजरात में मोदी के ‘मॉडल’ का मज़दूरों के लिए क्या अर्थ है? यह मोदी ने खुद ही बता दिया था जब उसने कहा था कि गुजरात में हमें श्रम विभाग की कोई ज़रूरत नहीं है क्योंकि मालिक कभी कारखाने में ख़राब मशीने लगाता ही नहीं है; वह तो मज़दूरों के संरक्षक/पिता के समान होता है! हर मज़दूर जानता है कि यह “संरक्षण” और “पितृत्व” किस प्रकार का होता है! ज़ाहिर है, मोदी सत्ता में आयेगा तो वह पहली चोट मज़दूर आन्दोलन और क्रान्तिकारी व जनवादी ताक़तों पर ही करेगा। यही कारण है कि टाटा, बिड़ला, अम्बानी, जिन्दल, मित्तल जैसे लुटेरे मोदी की प्रशंसा करते अघा नहीं रहे हैं। देश में आज फासीवादी उभार की पूरी ज़मीन पूँजीवादी व्यवस्था के संकट के कारण तैयार हो रही है। यह सच है कि इस नग्न और बेशर्म फासीवाद के सत्ता में आये बग़ैर भी भारतीय राज्यसत्ता का चरित्र दमनकारी और जनविरोधी था और रहेगा। आवर्ती क्रम में आने वाला पूँजीवादी संकट आवर्ती क्रम में मोदी जैसे फासीवादियों की ज़रूरत भी पैदा करता रहता है। आज यही हो रहा है। निश्चित तौर पर, भारतीय राज्यसत्ता के पूरे दमनकारी चरित्र के ख़िलाफ़ संघर्ष तो ज़रूरी है ही लेकिन इस समय साम्प्रदायिक फासीवादी उभार से निपटने के लिए अलग से विशिष्ट रणनीति की ज़रूरत है और सभी जनपक्षधर क्रान्तिकारी ताक़तों को इस पर काम करना चाहिए।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, सितम्‍बर-दिसम्‍बर 2013

 

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