गणतन्‍त्र दिवस पर विचार-विमर्श…

आह्वान संवाददाता, करावल नगर, दिल्ली

62वें गणतन्त्र दिवस पर जब देश का शासक वर्ग व खाता-पीता उच्च मध्यवर्ग परेड व सैन्य-शक्ति प्रदर्शन पर मग्न था। ‘शहीद भगतसिंह पुस्तकालय’ करावल नगर, दिल्ली में ‘नौजवान भारत सभा’ की तरफ से एक विचार-गोष्ठी का आयोजन किया गया। गोष्ठी का विषय था – ‘कैसा गणतन्त्र, किसका गणतन्त्र’। पेट की आग शान्त करने की चिन्ता एवं भागमभाग ज़िन्दगी के बावजूद विचार-गोष्ठी में दिल्ली के विभिन्न इलाक़ों के छात्रों, मज़दूरों और नौजवानों ने हिस्सा लिया।

गोष्ठी की शुरुआत ‘दिशा छात्र संगठन’ के कुणाल ने अपनी बात से की। उन्होंने ज़ोर देते हुए कहा कि आज भारत के ‘जनतन्त्र और संविधान’ पर विचार करने का हमारा मकसद सीधा और साफ है। हम सभी साथी यहाँ इसलिए इकट्ठा नहीं हुए हैं कि अपनी जानकारी बढ़ा सके। हमारा मकसद ‘जनवाद और संविधान’ द्वारा प्रदत्त तथाकथित आज़ादी को समझना है और 61 साल की इस संवैधानिक आज़ादी का हमारी ज़िन्दगी पर प्रभाव व जनता के असली जनतन्त्र का मतलब क्या है – जानना है। कुणाल ने कहा कि इस संविधान के जनविरोधी चरित्र को हम अपनी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी से समझते हैं। जो हमारी ज़िन्दगी को तलघर के अँधेरे की तरफ धकेल रहा है। लेकिन अगर हम एक नज़र इसकी निर्माण-प्रक्रिया के इतिहास पर डालें और उस निर्माण-प्रक्रिया के ग़ैरजनवादी चरित्र को देखें तो यह स्वतः स्पष्ट हो जायेगा। उन्होंने इस संविधान को ब्रिटिश भारत में शासन के कानूनी इतिहास, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अपने वर्गीय हितों, समझौता-दवाब-समझौता की तीन तिकड़म की उपज बताया। 1935 के ‘गवर्नमेण्ट ऑफ इण्डिया एक्ट’ के 11.5 फ़ीसदी मताधिकार, जो मुख्यतः सम्पत्ति के आधार पर तय किया गया था, के आधार पर संविधान सभा का चुनाव हुआ था। 1935 के एक्ट का मुख्य मकसद जनान्दोलन के दबाव में भारतीय बुर्जुआ वर्ग को कुछ रियायतें देना था। इसी ग़ैर-जनवादी चुनाव-प्रक्रिया में चुने गये प्रतिनिधियों ने भारतीय संविधान का निर्माण किया। अतः ‘जनवाद की बात करने वाले संविधान’ की निर्माण-प्रक्रिया ही ग़ैर-जनवादी है। विचार-गोष्ठी को आगे बढ़ाते हुए योगेश ने कहा कि संविधान के जन्म के ऐतिहासिक विकास से यह स्पष्ट है कि जनवाद की बात करने वाला यह भारतीय संविधान ज़मींदार और उच्च अभिजात्य कुलीन वर्ग का मानसपुत्र है। जो आज तक सच्चे और निष्ठापूर्ण तरीक़े से देश के शासकों और पूँजीपतियों की सेवा कर रहा है। आज अगर भारत की आम मेहनतकश जनता, भुखमरी और आत्महत्या के कगार पर खड़े किसानों को सच्चे मायने में जनवाद और जनतन्त्र चाहिए, जो उसके जीने की सच्ची आज़ादी को सुनिश्चित करे तो आज एक बार फिर सार्विक मताधिकार पर आधारित सच्चे जनप्रतिनिधियों द्वारा संविधान सभा बुलाने की माँग को उठाना होगा; जो सम्पत्ति पर आधारित किसी भी चुनाव प्रक्रिया का अंग न हो।

ज्ञानेन्द्र ने अपनी बात रखते हुए कहा कि आज समाज का आर्थिक आधार बदल चुका है। उत्पादन का स्वामित्व निजी है। समाज सम्पत्तिशाली पूँजीवादी वर्ग और आम मेहनतकश वर्ग में बँटा है। अतः आम लोगों का जनतन्त्र उत्पादन के मालिकाने पर आम लोगों के अधिकार द्वारा सम्भव है। जब तक ऐसा नहीं होता तो तमाम कानूनी इबारतें मज़दूरों का ख़ून निचोड़ने और पूँजीपतियों की तिजोरियाँ भरने का काम करती रहेंगी। ज्ञानेन्द्र ने कहा कि मज़दूरों, नौजवानों, नागरिकों को अपने क्रान्तिकारी संगठन बनाकर अपने अधिकारों, समानता, स्वतन्त्रता के लिए लड़ना होगा। तभी सही मायने में जनतन्त्र कायम किया जा सकता है।

प्रेम प्रकाश ने गोष्ठी को आगे बढ़ाते हुए कहा कि आइये अब एक नज़र वर्तमान संविधान में लिखे गये प्रस्तावना और अनुच्छेदों पर डालें। संविधान की प्रस्तावना में सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतन्त्रता, प्रतिभा और अवसर की समता प्राप्त कराने की बात की गयी है। लेकिन यह आम आदमी अपनी ज़िन्दगी से जानता है कि यह उसके साथ कितना भद्दा मज़ाक है। अनुच्छेद 21 में लिखा है कि कोई भी व्यक्ति अपने जीवन और निजी स्वतन्त्रता से वंचित नहीं किया जा सकता है, लेकिन दूसरी तरफ आई.पी.सी. की धाराएँ इसका मखौल उड़ाती हैं। आपको बोलने की आज़ादी है मगर यदि आप लोगों की दुख-तकलीफ और बदतर जीवन-स्थितियों के बारे में बोलते हैं, अगर आप राजसत्ता के दमन और पूँजीपतियों की लूट के बारे में बोलते हैं तो – भारतीय दण्ड संहिता की धारा-124, 120 और ए.एफ-एस.पी.ए., तमाम राज्यों के विशेष जन सुरक्षा कानूनों के तहत आप राजद्रोही बतलाये जायेंगे। यह है इस देश के संविधान की सच्चाई और बुर्जुआ वर्ग का जनतन्त्र।

दिशा छात्र संगठन के सनी ने भारत में साम्प्रदायिक दंगों और फ़ासीवादी ताकतों के ग़ैर-जनवादी और अमन विरोधी चरित्र को रेखांकित करते हुए कहा कि देश में वरुण गाँधी, राजठाकरे, आर.एस.एस. जैसे लोग सरेआम दंगा भड़काते हैं, तो कुछ नहीं होता और अगर आम आदमी अपनी बात करते हुए सवाल खड़ा करता है, तो उस पर लोगों को भड़काने का आरोप लगता है। सनी ने आगे कहा कि किसी भी देश की समकालीन परिस्थिति के लिए उस देश के विकास की ऐतिहासिक परिस्थितियाँ ज़िम्मेदार होती हैं। भारतीय समाज की संवैधानिक एवं सामाजिक सांस्कृतिक अवरचना के पीछे का कारण भी यही है। इन परिस्थितियों को बदलने के लिए व्यापक अर्थ में जीवन के ढंग-ढर्रे के प्रत्येक पहलू को बदलकर ही नये समाज का निर्माण किया जा सकता है।

बिगुल मज़दूर दस्ता के आशीष ने कहा कि ‘संविधान, गणतन्त्र’ के दायरे की आज़ादी पैसे के हाथों में खेल रही है। जब तक मज़दूर हर जुल्म को सहे, एक-एक दिन अपनी मौत, दुर्घटना और शोषण को सहे और कुछ न बोले तो इस तन्त्र में आज़ाद है; लेकिन जिस दिन वह फ़ैक्टरी में अपनी माँग के लिए धरने पर बैठते हैं तो यह जनवाद और जनतन्त्र उसके गले में फन्दा डालकर कहता है कि ‘हे मेरी प्यारी जनता अब तुम्हारी आज़ादी और जनवाद की सीमाएँ ख़त्म हुईं।’ अर्थात आप वहीं तक आज़ाद हैं, जब तक आप सत्ता की मार चुपचाप सहें। आज प्रत्येक मज़दूर को इस संविधान और शासन तन्त्र की हर झूठ-फरेब को समझकर आगे के समाज के निर्माण और अपनी ज़िन्दगी में रोशनी के लिए फिर से एकजुट होकर लड़ना होगा। हमें अपने जीवन के ढंग-ढर्रे को बदलने और अपनी सामूहिक ज़रूरतों दोनो के लिए खड़ा होना होगा।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-फरवरी 2011

 

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