पूँजीवादी जनवाद के खाने के दाँत

श्वेता

प्रायः देश का शासक वर्ग आम जनमानस में इस धारणा को स्थापित करने की हरचन्द कोशिश में लगा रहता है कि पुलिस और जेलतन्त्र आम जनता की भलाई के लिए होते हैं। यदि पुलिस और जेल न हों तो समाज में अनुशासनहीनता और आपराधिक प्रवृत्तियां बढ़ जाएँगी। समाज में अराजकता को फैलने से रोकने का “तर्क” देकर पुलिस और जेल को व्यवस्था के संचालन के लिए महत्वपूर्ण बताया जाता है। आम जनमानस भी शासक वर्ग के “तर्क” के जाल में फँसकर इन तन्त्रों के महत्व की वकालत करने लगता है। हालाँकि अगर कुछ आँकड़ों पर ग़ौर किया जाए तो इस धारणा को खण्डित होने में देर न लगेगी।

नयी दिल्ली में केन्द्रित एशियन सेंटर फॉर ह्यूमन राइट्स की एक रिपोर्ट वर्ष 2001-2010 के बीच हिरासत में हुई मौतों पर रोशनी डालती है। रिपोर्ट के अनुसार इस अवधि के दौरान हिरासत में 14,231 लोगों की मौत हुई। इनमें से 1,504 मौतें तो पुलिस हिरासत में जबकि 12,727 मौतें न्यायिक हिरासत में हुईं। पुलिस हिरासत में सबसे अधिक मौतें महाराष्ट्र (250) जबकि न्यायिक हिरासत में सबसे अधिक मौतें उत्तर प्रदेश (2171)में दर्ज़ की गईं। रिपोर्ट में स्पष्ट तौर पर कहा गया कि इन मौतों का प्रमुख कारण हिरासत में दी जाने वाली यातना है। एक अन्य संस्था वर्किंग ग्रुप ऑन ह्यूमन राइट्स (डब्लू जी एच आर) के अनुसार भारत में प्रत्येक वर्ष पुलिस और न्यायिक हिरासत में यातना के औसतन 1 करोड़ 80 लाख मामले घटित होते हैं। यातना देने के लिए आम तौर पर जिन तरीकों को इस्तेमाल किया जाता है वे हैं- छत से उल्टा लटकाया जाना, पानी में सिर डुबाना, गुप्तांगों में बिजली का करेंट लगाना इत्यादि। क्या यह जानने के बाद भी “रक्षक” की भूमिका निभाने वाले पुलिस और जेलतंत्र में आस्था बरकरार रहने का कोई आधार बचा रह जाता है? एक सचेत और संवेदनशील व्यक्ति तो रोज़मर्रा के जीवन में पुलिस के रवैये से ही इस बात का अनुमान लगा सकता है कि हिरासत में यातना के बर्बरतम रूपों को भी अंजाम देने में पुलिस तंत्र के लोगों को ज़रा भी हिचकिचाहट नहीं होती होगी।

custodial-death

ग़ौरतलब यह है कि हिरासत में यातना का कहर या तो गरीब पृष्ठभूमि के लोगों या सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं को झेलना पड़ता है। अरबों-खरबों के भ्रष्टाचार में सिर से पाँव तक डूबे नेता-मन्त्री-नौकरशाह-पूँजीपति अव्वल तो हिरासत तक पहुँचते ही नहीं हैं और अगर इक्का-दुक्का मामलों में ऐसा हो भी जाए तो जिस राजसी ठाठ-बाट का माहौल उन्हें मुहैया होता है वह किसी पाँच सितारा होटल से कम नहीं होता। पैसे के दम पर कानून को अपनी जेब में लेकर घूमने वाले असली अपराधी तो सीना ताने खुलेआम घूमते हैं जबकि न जाने कितने ही आम बेगुनाह लोगों का जीवन “इंसाफ” (पूँजीवादी न्यायपालिका से इंसाफ) की आस लगाते-लगाते जेल की काल कोठरियों में ही समाप्त हो जाता है। भोपाल गैस त्रासदी में हज़ारों बेगुनाह लोगों की मौत के लिए जिम्मेदार  वॉरेन एण्डरसन पर भारत सरकार आँच तक आने नहीं देती, बल्कि उसे सकुशल विदेश पहुँचाने का काम किया जाता है, 2002 में गुजरात में बर्बर कत्लेआम को अंजाम देने वाले नरेन्द्र मोदी की प्रशंसा में कसीदे पढ़े जाते हैं, फुटपाथों पर सो रहे बेघर मासूम गरीबों को कार के नीचे कुचल देने के आरोपी सलमान खान को युवाओं के रोल मॉडल के रूप में प्रस्तुत किया जाता है वहीं दूसरी तरफ अपने अधिकारों के लिए मानेसर स्थित मारुति प्लाण्ट के मज़दूर जब सड़कों पर उतरते हैं तो उन पर संगीन धाराएँ लगाकर हिरासत में बर्बर यातनाएँ दी जाती हैं, जनता के हकों के लिए संघर्षरत राजनीतिक कार्यकर्ताओं पर फर्जी मुकदमे चलाकर अकल्पनीय स्तर तक हिरासत में यातना दी जाती हैं। ये तो महज़ कुछ उदाहरण हैं। इन उदाहरणों के ज़रिये हम मुख्यतः पुलिस और जेल तन्त्र के वर्गीय चरित्र को उजागर करना चाहते हैं। प्रत्येक वर्ग समाज में पुलिस और जेल तन्त्र की भी अपनी वर्गीय पक्षधरता सुनिश्चित होती है।

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पूँजीवादी व्यवस्था का मुख्य आधार मुनाफ़ा होता है। मुनाफ़ाखोरों का एक छोटा-सा हिस्सा आम जनता के शोषण से इस मुनाफ़े को सुनिश्चित करता है। बढ़ते शोषण के खिलाफ जब जनता का गुस्सा फूटने लगता है तो शासक वर्ग इस गुस्से को नियन्त्रित करने के लिए कई तिकड़में चलता है। व्यवस्था के पैरोकार शोषण पर टिकी व्यवस्था को बरकरार रखने के लिए अनेकों साज़ो-सामान से खुद को लैस करके रखते हैं। कानून पुलिस, कोर्ट-कचहरी, जेल आदि का पूरा तन्त्र जनता के दिल में खौफ पैदा करने, उसे “काबू” में करने के लिए होता है।

पूँजीवादी व्यवस्था में संसद, विधानसभाएँ आदि तो केवल दिखाने के दाँत होते हैं जो जनता को दिग्भ्रमित करने के लिए खड़े किए जाते हैं। “लोकतंत्र की सर्वोच्च संस्था”, “लोकतंत्र के मजबूत खंभे” जैसी लुभावनी बातों से जनता की नज़रों से सच्चाई को ओझल करने की कोशिश की जाती है। पूँजीवादी जनवाद की असलियत यह है कि वह 15 प्रतिशत मुनाफ़ाखोरों का जनवाद होता है और 85 प्रतिशत आम जनता के लिए तानाशाही होता है। इसी तानाशाही को पुलिस, कानून, कोर्ट-कचहरी, जेल आदि मूर्त रूप प्रदान करते हैं जो पूँजीवादी व्यवस्था के खाने के दाँत की भूमिका अदा करते हैं।

कुछ लोगों का यह भी मानना होता है कि कुछ कानूनी संशोधनों के ज़रिये पुलिस और जेल तन्त्र को मानवीय रूप प्रदान किया जा सकता है। वे एकांगी तरीके से इन तन्त्रों की कार्य प्रणाली को देखते हैं। वे पुलिस और जेल तन्त्र के वर्गीय सारतत्व को नहीं समझते। मुनाफे पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था में पुलिस और जेल तन्त्र के मानवीय रूप की कल्पना शेखचिल्ली के सपने से अधिक कुछ नहीं है। सच्चाई तो यह है कि भारतीय शासक वर्ग लगातार कानून, पुलिस, जेल रूपी पूँजीवादी व्यवस्था के खाने के दाँतों को अत्यधिक पैना करने की कवायदें कर रहा है। यह अनायास नहीं है कि भारत की स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद हिरासत में यातना के संस्थागत रूप को ज्यों का त्यों रखा गया जैसा वह अंग्रेज़ों के शासन काल में था। सच्चाई तो यह है कि कानूनों में संशोधन करके हिरासत में यातना की कार्यवाही को अधिकाधिक सुगम बनाया जा रहा है। पूँजीवादी व्यवस्था के चाकर अन्याय के खिलाफ उठने वाले हर स्वर को दबाने की तैयारी में खुद को तमाम हरबे-हथियारों से लैस कर रहे हैं। शासक वर्ग की सेवा में लगे तमाम खंभों (विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका, मीडिया) से आम जनता के हितों का प्रतिनिधित्व करने की उम्मीद करना बेकार है। मुनाफ़े पर टिकी व्यवस्था से उम्मीद बाँधे रखने की सोच हमें अंधेरी गली में भटका देगी। हमें अपनी सोच को व्यापक बनाना होगा। पूँजीवादी व्यवस्था की सीमाओं और सन्तृप्त हुई तमाम सकारात्मक सम्भावनाओं को भी समझना होगा। मानवीय ज़रूरतों पर केन्द्रित एक वैकल्पिक व्यवस्था की तैयारी के लिए यह आज की बुनियादी शर्त भी है और ज़रूरत भी।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-जून 2013

 

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