कॉ. शालिनी नहीं रहीं
सामाजिक परिवर्तन की वैचारिक-सांस्कृतिक बुनियाद खड़ी करने को समर्पित एक ऊर्जस्वी जीवन का अन्त!
कविता
युवा क्रान्तिकारी और जनमुक्ति समर की वैचारिक-सांस्कृतिक बुनियाद खड़ी करने के अनेक क्रान्तिकारी उपक्रमों की एक प्रमुख संगठनकर्ता कॉमरेड शालिनी नहीं रहीं। पिछले 29 मार्च की रात को दिल्ली के धर्मशिला कैंसर अस्पताल में उनका निधन हो गया। वे सिर्फ 38 वर्ष की थीं। जनवरी 2013 के दूसरे सप्ताह में लखनऊ में कैंसर होने का पता चलते ही उन्हें इलाज के लिए दिल्ली के धर्मशिला कैंसर अस्पताल लाया गया था, जहाँ डॉक्टरों ने बता दिया था कि पैंक्रियास का कैंसर काफी उन्नत अवस्था में पहुँच चुका है और मेटास्टैसिस शुरू हो चुका है तथा एलोपैथी में इसका पूर्ण इलाज सम्भव नहीं है। वे केवल दर्द से राहत देने और उम्र को लम्बा खींचने के लिए उपचार कर सकते हैं। हालाँकि धर्मशिला कैंसर अस्पताल के डॉक्टरों से बात करके वैकल्पिक उपचार की दो पद्धतियों से भी उनका उपचार साथ-साथ चल रहा था। कॉ. शालिनी शुरू से ही पूरी स्थिति से अवगत थीं और अद्भुत जिजीविषा, साहस और ख़ुशमिज़ाजी के साथ रोग से लड़ रही थीं।
कॉ. शालिनी ‘जनचेतना’ पुस्तक प्रतिष्ठान की सोसायटी की अध्यक्ष, ‘अनुराग ट्रस्ट’ के न्यासी मण्डल की सदस्य, ‘राहुल फाउण्डेशन’ की कार्यकारिणी सदस्य और परिकल्पना प्रकाशन की निदेशक थीं। प्रगतिशील, जनपक्षधर और क्रान्तिकारी साहित्य के प्रकाशन तथा उसे व्यापक जन तक पहुँचाने के काम को भारत में सामाजिक बदलाव के संघर्ष का एक बेहद ज़रूरी मोर्चा मानकर वे पूरी तल्लीनता और मेहनत के साथ इसमें जुटी हुई थीं। अपने छोटे-से जीवन के अठारह वर्ष उन्होंने विभिन्न मोर्चों पर सामाजिक-राजनीतिक कामों को समर्पित किये।
बलिया में 1974 में जन्मी कामरेड शालिनी का राजनीतिक जीवन बीस साल की उम्र में ही शुरू हो गया, जब 1995 में लखनऊ से गोरखपुर जाकर उन्होंने एक माह तक चली एक सांस्कृतिक कार्यशाला में और फिर ‘शहीद मेला’ के आयोजन में हिस्सा लिया। इसके बाद वह गोरखपुर में ही युवा महिला कॉमरेडों के एक कम्यून में रहने लगीं। तीन वर्षों तक कम्यून में रहने के दौरान शालिनी स्त्री मोर्चे पर, सांस्कृतिक मोर्चे पर और छात्र मोर्चे पर काम करती रहीं। इसी दौरान उन्होंने गोरखपुर विश्वविद्यालय से प्राचीन इतिहास में एम.ए. किया। एक पूरावक़्ती क्रान्तिकारी कार्यकर्ता के रूप में काम करने का निर्णय वह 1995 में ही ले चुकी थीं।
1998-99 के दौरान शालिनी लखनऊ आकर राहुल फाउण्डेशन से मार्क्सवादी साहित्य के प्रकाशन एवं अन्य गतिविधियों में भागीदारी करने लगीं। 1999 से 2001 तक उन्होंने गोरखपुर में ‘जनचेतना’ पुस्तक प्रतिष्ठान की जिम्मेदारी सँभाली। इसी दौरान गोरखपुर में दिशा छात्र संगठन और नौजवान भारत सभा में काम करते हुए शालिनी जन अभियानों, आन्दोलनों, धरना-प्रदर्शनों आदि में भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती रहीं। वे एक कुशल अभिनेत्री भी थीं और अनेक मंचीय तथा नुक्कड़ नाटकों में उन्होंने काम किया। जनचेतना पुस्तक केन्द्र में बैठने के साथ ही वे अन्य साथियों के साथ झोलों में किताबें और पत्रिकाएँ लेकर घर-घर और कालेजों-दफ्तरों में जाती थीं, लोगों को प्रगतिशील साहित्य के बारे में बताती थीं, नये पाठक तैयार करती थीं। नवम्बर 2002 से दिसम्बर 2003 तक उन्होंने इलाहाबाद में ‘जनचेतना’ की प्रभारी के रूप में काम किया। इस दौरान भी अन्य स्त्री कार्यकर्ताओं की टीम के साथ वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रों के बीच और इलाहाबाद शहर में युवाओं तथा नागरिकों के बीच विभिन्न सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा लेती रहीं। इलाहाबाद के अनेक लेखक और संस्कृतिकर्मी आज भी उन्हें याद करते हैं।
2004 से लेकर दिसम्बर 2012 के अन्त में बीमार होने तक वह लखनऊ स्थित ‘जनचेतना’ के केन्द्रीय कार्यालय और पुस्तक प्रतिष्ठान का काम सँभालती रहीं। इसके साथ ही वह ‘परिकल्पना,’ ‘राहुल फाउण्डेशन’ और ‘अनुराग ट्रस्ट’ के प्रकाशन सम्बन्धी कामों में भी हाथ बँटाती रहीं। ‘अनुराग ट्रस्ट’ के मुख्यालय की गतिविधियों (पुस्तकालय, वाचनालय, बाल कार्यशालाएँ आदि) की जिम्मेदारी उठाने के साथ ही कॉ. शालिनी ने ट्रस्ट की वयोवृद्ध मुख्य न्यासी दिवंगत कॉ. कमला पाण्डेय की जिस लगन और लगाव के साथ सेवा और देखभाल की, वह कोई सच्चा सेवाभावी कम्युनिस्ट ही कर सकता था। 2011 में ‘अरविन्द स्मृति न्यास’ का केन्द्रीय पुस्तकालय लखनऊ में तैयार करने का जब निर्णय लिया गया तो उसकी व्यवस्था की भी मुख्य जिम्मेदारी शालिनी ने ही उठायी।
ग़ौरतलब है कि इतनी सारी विभागीय जिम्मेदारियों के साथ ही शालिनी आम राजनीतिक प्रचार और आन्दोलनात्मक सरगर्मियों में भी यथासम्भव हिस्सा लेती रहती थीं। बीच-बीच में वह लखनऊ की ग़रीब बस्तियों में बच्चों को पढ़ाने भी जाती थीं। लखनऊ के हज़रतगंज में रोज़ शाम को लगने वाले जनचेतना के स्टॉल पर पिछले कई वर्षों से सबसे ज़्यादा शालिनी ही खड़ी होती थीं।
कॉ. शालिनी एक ऐसी कर्मठ, युवा कम्युनिस्ट संगठनकर्ता थीं, जिनके पास अठारह वर्षों के कठिन, चढ़ावों-उतारों भरे राजनीतिक जीवन का समृद्ध अनुभव था। कम्युनिज़्म में अडिग आस्था के साथ उन्होंने एक मज़दूर की तरह खटकर राजनीतिक काम किया। इस दौरान, समरभूमि में बहुतों के पैर उखड़ते रहे। बहुतेरे लोग समझौते करते रहे, पतन के पंककुण्ड में लोट लगाने जाते रहे, घोंसले बनाते रहे, दूसरों को भी दुनियादारी का पाठ पढ़ाते रहे या अवसरवादी राजनीति की दुकान चलाते रहे। शालिनी इन सबसे रत्तीभर भी प्रभावित हुए बिना अपनी राह चलती रहीं। एक बार जीवन लक्ष्य तय करने के बाद पीछे मुड़कर उन्होंने कभी कोई समझौता नहीं किया। यहाँ तक कि उनके पिता ने भी जब निहित स्वार्थ और वर्गीय अहंकार के चलते पतित होकर कुत्सा-प्रचार और चरित्र-हनन का मार्ग अपनाया तो उनसे पूर्ण सम्बन्ध-विच्छेद कर लेने में शालिनी ने पल भर की भी देरी नहीं की। एक व्यापारी और भूस्वामी परिवार की पृष्ठभूमि से आकर, शालिनी ने जिस दृढ़ता के साथ सम्पत्ति-सम्बन्धों से निर्णायक विच्छेद किया और जिस निष्कपटता के साथ कम्युनिस्ट जीवन-मूल्यों को अपनाया, वह आज जैसे समय में दुर्लभ है और अनुकरणीय भी।
शालिनी की उसूली दृढ़ता हमेशा अकुण्ठ-निष्कम्प रही। कामों की जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए अनुशासन में बेहद कठोर, पर लगाव और सरोकार के मामले में उतनी ही सहृदय। शालिनी मौत के ख़तरे के सामने भी उतनी ही जिद के साथ खड़ी रहीं, जैसे वह अपने लक्ष्य के शत्रुओं और राह की बाधाओं के विरुद्ध खड़ी रही थीं। असहनीय पीड़ा, अनिद्रा की थकान और कमज़ोरी के बीच जब थोड़ी ऊर्जा संचित हो जाती तो वह कामों की समस्याओं और भविष्य की योजनाओं की बातें करती थीं। उन्हें अन्त तक विश्वास था कि वह कैंसर को पराजित कर देंगी। आखिर तक वह अपने से ज़्यादा यह चिन्ता करती रहीं कि उनकी तीमारदारी में साथियों को कितना श्रम और समय लगाना पड़ता है और इससे कामों का कितना नुकसान होता है! फिर भी, शालिनी का संघर्ष ‘आनन्द’ फिल्म के नायक जैसा रोमानी आशावादी नहीं था, न ही ‘सफ़र’ के नायक जैसा उदासी भरा था। ‘अग्निदीक्षा’ उपन्यास का लेखक निकोलाई ओस्त्रेवस्की उनका प्रेरणा स्रोत था और उसके पत्रों-लेखों की पुस्तक ‘जय जीवन’ उनकी प्रिय पुस्तकों में से एक थी। बीमारी की गम्भीरता का पता लगने के बाद जनवरी के अन्त में उन्होंने ब्लॉग (http://www.shaliniatjanchetna.blogspot.com) पर अपना अन्तिम-इच्छा पत्र लिखा था, जिसे हर संवेदनशील पाठक को पढ़ना ही चाहिए।
कॉ. शालिनी का जीवन, क्रान्तिकर्म के प्रति उनका एकनिष्ठ समर्पण, अपने निजी सुख-दुख और स्वप्नों-आकांक्षाओं को पूरी तरह जनमुक्ति संग्राम में अपनी भूमिका के अधीन कर देने की उनकी प्रतिबद्धता और कम्युनिस्ट जीवन मूल्यों तथा संस्कारों के प्रति उनका अटूट विश्वास आज के दौर में एक मिसाल है। रूसी क्रान्तिकारी फ़ेलिक्स जर्जिन्स्की की इन पंक्तियों को उन्होंने अपने जीवन में उतार लिया थाः
“दूसरों के लिए प्रकाश की एक किरण बनना, दूसरों के जीवन को देदीप्यमान करना, यह सबसे बड़ा सुख है जो मानव प्राप्त कर सकता है। इसके बाद कष्टों अथवा पीड़ा से, दुर्भाग्य अथवा अभाव से मानव नहीं डरता। फिर मृत्यु का भय उसके अन्दर से मिट जाता है, यद्यपि, वास्तव में जीवन को प्यार करना वह तभी सीखता है। और, केवल तभी पृथ्वी पर आँखें खोलकर वह इस तरह चल पाता है कि जिससे कि वह सब कुछ देख, सुन और समझ सके; केवल तभी अपने संकुचित घोंघे से निकलकर वह बाहर प्रकाश में आ सकता है और समस्त मानवजाति के सुखों और दुःखों का अनुभव कर सकता है। और केवल तभी वह वास्तविक मानव बन सकता है।”
कॉ. शालिनी के लिए बने ब्लॉग का लिंकः
http://www.shaliniatchetna.blogspot.in
वास्तविक मानव
(ए.ई. बुलहाक के नाम एफ. जर्जिन्स्की का पत्र, 16 जून, 1913)
फूल की तरह ही, मानव-आत्मा भी अचेतन रूप से सूर्य की किरणों का पान करती रहती है और शाश्वत रूप से उसकी, उसके प्रकाश की कामना करती रहती है। जब कोई बुराई प्रकाश को उसके पास तक पहुँचने से रोक देती है तो वह मुरझा और सूख जाती है। मानवजाति के लिए अधिक सुन्दर भविष्य का निर्माण करने से सम्बन्धित हमारी प्रेरणा और निष्ठा का आधार प्रत्येक मानव आत्मा द्वारा प्रकाश प्राप्त करने की यही आन्तरिक चेष्टा है; और, इसलिए, अपने पास निराशा को कभी नहीं हमें फटकने देना चाहिए। मानवजाति की सबसे बड़ी बुराई आज पाखण्ड है: शब्दों में प्रेम की बात करना, किन्तु व्यवहार में – जीवन के लिए, तथाकथित “सुख” की प्राप्ति के लिए, पदोन्नति हासिल करने के लिए निर्मम संघर्ष करना—
दूसरों के लिए प्रकाश की एक किरण बनना, दूसरों के जीवन को दैदीप्यमान करना, यह सबसे बड़ा सुख है जो मानव प्राप्त कर सकता है। इसके बाद कष्टों अथवा पीड़ा से, दुर्भाग्य अथवा अभाव से मानव नहीं डरता। फिर मृत्यु का भय उसके अन्दर से मिट जाता है, यद्यपि, वास्तव में, जीवन को प्यार करना वह तभी सीखता है। और, केवल तभी पृथ्वी पर आँखें खोलकर वह इस तरह चल पाता है जिससे वह सब कुछ देख, सुन और समझ सके; केवल तभी अपने संकुचित घोंघे से निकलकर वह बाहर प्रकाश में आ सकता है और समस्त मानवजाति के सुखों और दुखों का अनुभव कर सकता है। और केवल तभी वह वास्तविक मानव बन सकता है।
(21 फरवरी, 2013 को ब्लॉग पर पोस्ट)
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-जून 2013
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