‘मानवाधिकारों’ के हिमायती अमेरिका के बर्बर कारनामे

 सत्‍यनारायण, मुंबई

विकीलीक्स नामक अन्तरराष्ट्रीय संस्था जो अन्यथा प्रकाशित न होने वाले गुप्त दस्तोवेज़ों को लोगों के बीच इण्टरनेट के माध्यम से लेकर जाती है, ने हाल ही में अमेरिका द्वारा इराक में किये गये अपराधों के बारे में दस्तावेज़ प्रकाशित किये हैं। ये दस्तावेज़ अमेरिकी सैनिकों द्वारा लिखी गयी रिपोर्टों से हैक किये गये हैं। ऐसे में ज़ाहिर है कि ये दस्तावेज़ तो अमेरिकी सेना के उन बर्बर कारनामों का एक बहुत छोटा हिस्सा है जो उन्होंने इराक में किये हैं। लेकिन फिर भी इन दस्तावेज़ों से अमेरिकी दरिन्दों की वहशीयत का पता लगता है।

Iraq-Rawa.-Operation-Stee-006 America war on iraq sukrallah_col_030407

विकीलीक्स के जूलियन असांजे ने इस सन्दर्भ में एक मार्के की बात कही है जो हर युद्ध के बारे में सही बैठती है। उन्होंने कहा – ‘‘सच के ऊपर पर्दा डालने का काम युद्ध से काफी पहले शुरू हो जाता है जो युद्ध के काफी लम्बे समय बाद तक जारी रहता है।’‘ अमेरिकी शासक वर्ग ने भी इराक पर हमले का औचित्य सिद्ध करने के लिए बुर्जुआ मीडिया के भाड़े के टट्टुओं की मदद से झूठ के पुलिन्दे पेश किये थे। जैव-रासायनिक हथियारों के जखीरे और नाभिकीय हथियारों के गुपचुप निर्माण का काफी शोर अमेरिकी शासकों ने मचाया था। ये बातें इतिहास का ऐसा झूठ साबित हुई हैं, जिनके बारे में अब अमेरिका-ब्रिटेन के सत्ताधारी और उनके अन्धप्रचारक भी कुछ कहने से कतराने लगे हैं।

यह बात अब दुनिया की आम जनता के बीच दिन के उजाले की तरह साफ हो चुकी है कि अमेरिका की इस ऐतिहासिक बर्बरता के पीछे बस एक ही उद्देश्य था, और वह था, पश्चिम एशिया की अकूत तेल सम्पदा पर अपना निर्णायक एकाधिकार कायम रखना। कहने की ज़रूरत नहीं कि तालिबानी आतंकवाद पर हमले के पीछे भी अमेरिका का मूल उद्देश्य था कैस्पियन सागर के द्रोणीत्र के विशाल तेल भण्डार तक अपनी पहुँच सुनिश्चित करना। पश्चिमी एशिया के बाद दुनिया का सबसे बड़ा तेल भण्डार कैस्पियन सागर क्षेत्र ही है, जिस पर दुनियाभर के साम्राज्यवादियों की गिद्ध-दृष्टि टिकी हुई है।

अमेरिका के इराक युद्ध का एक पहलू अन्तर साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा का भी था। दुनिया के कुल तेल भण्डार के 16 प्रतिशत के मालिक इराक का सबसे बड़ा ‘’गुनाह’‘ वस्तुतः यह था कि उसने नवम्बर 2000 में तेल व्यापार के लिए डॉलर के बजाय यूरो को मुद्रा के रूप में अपना लिया था और सामान्यतः यूरो उसके विदेशी व्यापार की मुख्य मुद्रा बन गया था। अकेले इराक के इस निर्णय के चलते, जिस यूरो की कीमत अमेरिकी डॉलर के मुकाबले 82 सेण्ट थी, वह बढ़कर 1.5 डॉलर हो गयी और यूरो पहली बार डॉलर को चुनौती देने की स्थिति में आ खड़ा हुआ।

अमेरिका के लिए यह भयंकर आतंकवादी सम्भावना थी कि कल को यदि सिर्फ ईरान और वेनेजुएला भी ऐसा ही करे तो डॉलर का पराभव अवश्यम्भावी हो जायेगा। यह एक बुनियादी कारण था कि हर सम्भव बहाना ढूँढ़कर इराकी शासकों की उनकी ‘’हिमाकत’‘ के लिए सज़ा देना और उनके फैसले को उलटने के लिए उनके तेल भण्डार पर सीधे कब्ज़ा कर लेना अमेरिकी साम्राज्यवाद की अपरिहार्य आसन्न आवश्यकता बन गया। युद्ध के बाद वहाँ अपनी कठपुतली सरकार बैठा अमेरिका अपने हितों को साध रहा है। ख़ुशहाल इराक को ध्वस्त कर आज वहाँ पर अनेक पुनर्निर्माण के प्रोजेक्ट चल रहे हैं, जिसमें अमेरिकी कम्पनियों की चाँदी हो रही है।

झूठ की बुनियाद पर लड़े जाने वाले युद्ध अवश्य ही भयंकर बर्बरतापूर्ण होते हैं। कारण साफ है, जब कोई सेना यह जान कर लड़ती है कि यह युद्ध सच्चाई और न्याय के लिए नहीं बल्कि लूट-मार और किसी का दमन करने के लिए लड़ा जा रहा है तो उनसे दया, इन्साफ और मानवता की आशा नहीं की जा सकती। अमेरिकी सेना के लिए इराक युद्ध कोई पहला युद्ध नहीं था जो झूठ के पुलिन्दों के सहारे शुरू किया गया था। इससे पहले भी, द्वितीय विश्वयुद्ध में जर्मनी के हारने के बावजूद जापान के हिरोशिमा और नागाशाकी पर परमाणु बम गिराकर लाखों मासूमों को मारकर भी अमेरिका आज तक इन पूरी बातों को दुनिया की नज़र से छुपाने की कोशिश कर रहा है। पिछले छह दशकों में विश्व के अलग-अलग कोनों में अमेरिका ने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष अनेक युद्धों को झूठ के सहारे शुरू किया। अमेरिकी सेना द्वारा वियतनाम में किये गये बर्बर कृत्यों से आज कौन वाकिफ नहीं है। फिलीस्तीनी जनता के दमनकारी इज़राइल के ऊपर अमेरिका का ही हाथ है जिससे प्रोत्साहित होकर वह समय-समय पर निहत्थे नागरिकों पर बम गिराने जैसी कार्रवाइयाँ करता रहता है। अफगानिस्तान व इराक में भी अमेरिका ने जो कुछ किया है वो आज दुनिया के सामने आ चुका है। इराक में अमेरिकी सेना ने अब तक लगभग 10 लाख लोगों को मौत के घाट उतार दिया है। इराकी जनता को ‘‘सबक’‘ सिखाने के लिए अमेरिकी रेडियो ने बर्बरतम तरीके इज़ाद किये। आगे हमने इनका जिक्र किया है। महिलाओं और बच्चों को भी नहीं बख्शा गया। गुवाण्टेनामा के बारे में आज पूरा विश्व जानता है, लेकिन इराक के अन्दर इससे भी भयंकर जेल है। अबुघोरेब व बुका जेलों में महिला कैदियों के साथ बलात्कार की अनेक घटनाएँ हुईं। ज़्यादातर मामलों में जेल से छूटने के बाद महिलाओं ने आत्महत्या कर ली। इसके अलावा परिवार के पुरुष सदस्यों को ढूँढ़ने के लिए भी अमेरिकी सेना ने महिलाओं और बच्चों को बन्धक बनाया। जेलों में पुरुषों से बातें उगलवाने के लिए उनकी परिवार की महिलाओं और बच्चों को टॉर्चर किया गया। इराक को बर्बाद करने के लिए वहाँ के वैज्ञानिकों, डॉक्टरों, प्रोफेसरों इत्यादी को भी मारा गया। इराकी पुलिस के आँकड़ों के अनुसार मार्च 2004 तक ही 1000 वैज्ञानिकों को मार दिया गया था। यू.एस. की तरफ से जारी की गयी एक रिपोर्ट के अनुसार परमाणु विज्ञान से जुड़े हुए 350 वैज्ञानिकों व प्रोफेसरों को भी मार डाला गया। 15,500 प्रोफेसरों, डॉक्टरों इत्यादि को देश से बाहर जाने के लिए मजबूर कर दिया गया।

लेकिन इतने दमन के बावजूद, इराकी जनता अमेरिका के खि़लाफ जुझारू तरीके से लड़ रही है। अमेरिकियों के ऊपर इराक में हमले अब भी हो रहे हैं। भले ही इराक में अमेरिका अपनी कठपुतली सरकार बैठाकर व कुछ सैनिक तैनात रखकर चैन की साँस लेना चाहता हो, लेकिन इतिहास इस बात का गवाह है कि शक्तिशाली आक्रमणकारियों और सत्ताधारियों के हथियारों के बड़े से बड़े जखीरे जनसंघर्षों के महासमुद्र में डूब जाते हैं। अमेरिका का भी यही हाल होने वाला है।

इराक में अमेरिकी सेना के बर्बर कारनामों पर एक नज़र

1.  4 मार्च 2005 की रात को बगदाद में अलोवा जमीला नामक जगह से 14 किसानों को पुलिस कार में डालकर गुमनाम जगह ले गयी। दो दिन बाद सभी लोगों की लाश बग़दाद के बाहरी इलाके में कूड़े-कचरे के ढेर में मिली। सभी लोगों के सिर बुरी तरह कुचले हुए थे।

2.  10 जुलाई 2005 की दोपहर को अमेरिकी सेना ने बग़दाद के अलामीरिया इलाके में नागरिक कार पर अन्धाधुन्ध गोलियों बरसायीं, जिसमें एक आदमी मारा गया और दो घायल हुए। घायलों को अल नूर अस्पताल ले जाया गया। जब उन लोगों के परिजन वहाँ पहुँचे तो उनमें से 12 लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया। बाद में उन्हें मारा-पीटा गया, बिजली के झटके दिये गये व शरीर पर तेज़ाब भी डाला गया। दरिन्दगी की इन्तहा करते हुए अन्त में उन्हें एक कण्टेनर में 14 घण्टे तक 50 सेल्सियस के तापमान पर रखा गया। जिससे 11 लोगों की मौत हो गयी व मात्र 2 व्यक्ति जीवित बचे।

3.  जुलाई 2005 की शुरू में अमेरिकी सेना ने पश्चिमी बग़दाद के अलजिदान इलाके से 5 लोगों को हिरासत में लिया। दो दिन के बाद उनके शरीरों से विस्फोटक बाँधकर उन्हें उड़ा दिया गया। उनकी शिनाख़्त भी बड़ी मुश्किल से की जा सकी।

4.  इसके अलावा अमेरिकी सेना ने अनेक नागरिक इलाकों पर अत्यधिक तीव्रता वाले बमों की वर्षा की, जिसमें लाखों लोग मारे गये। अकेले फलुजा शहर में ही अप्रैल 2005 में 700 व नवम्बर 2005 में 1200 नागरिक मारे गये। अलगम शहर में बारात पर गिराये गये बम से 41 लोग मारे गये। जिसमें ज़्यादातर महिलाएँ और बच्चे थे।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,नवम्‍बर-दिसम्‍बर 2010

 

'आह्वान' की सदस्‍यता लें!

 

ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीआर्डर के लिए पताः बी-100, मुकुन्द विहार, करावल नगर, दिल्ली बैंक खाते का विवरणः प्रति – muktikami chhatron ka aahwan Bank of Baroda, Badli New Delhi Saving Account 21360100010629 IFSC Code: BARB0TRDBAD

आर्थिक सहयोग भी करें!

 

दोस्तों, “आह्वान” सारे देश में चल रहे वैकल्पिक मीडिया के प्रयासों की एक कड़ी है। हम सत्ता प्रतिष्ठानों, फ़ण्डिंग एजेंसियों, पूँजीवादी घरानों एवं चुनावी राजनीतिक दलों से किसी भी रूप में आर्थिक सहयोग लेना घोर अनर्थकारी मानते हैं। हमारी दृढ़ मान्यता है कि जनता का वैकल्पिक मीडिया सिर्फ जन संसाधनों के बूते खड़ा किया जाना चाहिए। एक लम्बे समय से बिना किसी किस्म का समझौता किये “आह्वान” सतत प्रचारित-प्रकाशित हो रही है। आपको मालूम हो कि विगत कई अंकों से पत्रिका आर्थिक संकट का सामना कर रही है। ऐसे में “आह्वान” अपने तमाम पाठकों, सहयोगियों से सहयोग की अपेक्षा करती है। हम आप सभी सहयोगियों, शुभचिन्तकों से अपील करते हैं कि वे अपनी ओर से अधिकतम सम्भव आर्थिक सहयोग भेजकर परिवर्तन के इस हथियार को मज़बूती प्रदान करें। सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग करने के लिए नीचे दिये गए Donate बटन पर क्लिक करें।