प्रदीप की कविताएँ

1- सपाट कविता बनाम काव्यकला

 

सभी आधुनिक कविगण हँसते हैं

मेरी सपाट ‘कुपोषित’ कविताओं पर

अभद्रता का शून्य प्रदर्शन करते हुए

किन्हीं तिलस्मी बिम्बमहलों में

शब्दों के गोल-गोल छल्ले बनाते हुए।

वे पापी ठहराते हैं मुझे

क्रिया-फ्रिया, रस-फस,

और छन्द-बन्द की घोर

अनुपस्थिति पर।

कविता में उभरती इस

‘ख़तरनाक बीमारी’ के चलते

वे गम्भीर चिन्तन में डूब जाते हैं

जैसे कई जलपोत डूब गये हों

प्रशान्त महासागर में।

आखि़र शुद्ध काव्य-कला की अमरता के लिए

राजसत्ता का कवच पहनकर

वे निकल पड़ते हैं

सफेद घोड़ों पर सवार हो

हाथों में ही उग आये भालों से

मेरी कविता के स्रोत ढूँढ़ने।

वे रौंदते हुए आते हैं

कविताओं में जन्मी धूसर रंग की बस्तियों

तपते मुक्ति-स्वप्नों

और आह्नान करते मेरे उप-शरीरों को।

वे अब ठीक मेरे पास आ पहुँचे हैं

अपने-अपने नुकीले हाथों के साथ

कुरेदने लगे हैं बिना समय गँवाये

मेरे ‘कुपोषित मस्तिष्क’ के

सभी ‘सपाट भ्रूण स्थल’

और बिखेर दिये हैं इनमें

काव्य कला के सभी  श्रंगार

मेरी सभी चीख़ों के बावजूद।

वे सन्तुष्ट हो लौटते हैं

अपने-अपने यथा स्थलों में

 

जबकि इधर अब मेरा पूरा शरीर

‘सपाट और कुपोषित’ हो चुका है

और सभी  श्रंगार कुरूप

— — —

 

2. एकान्त

 

धरती के सभी एकान्त

सजीव या वे निर्जीव

गुमसुम से पसरे हुए हैं

स्याही की कई परतों के भीतर।

सिर्फ एक संवेदनशील भाषा

के हस्तक्षेप के इन्तज़ार में।

सिर्फ जीवन के संगीत की सभी

धुनों को सुनने की चाहत में।

सिर्फ रोशनी की सभी किरणों

के मखमली से खुरदरा होने तक।

 

3. कलाकृतियाँ

 

धीरे-धीरे छिन गयी

हमारी सभी कलाकृतियाँ

रोटी, कपड़ा, मकान

काग़ज़, जहाज़, घड़ियाँ

हमारे पास रह गयी

कुछ छन्द मुक्त कविताएँ

इनमें है एक दुनिया

जो कभी भी दौड़ उठेगी

अपनी सभी कलाकृतियाँ

चूमने के लिए।

 

4. आर्ट गैलरी

 

भव्य चमकीले मुखौटे थे

सूखे चमड़े जैसे चेहरों पर

और थीं उजली पोशाकें

हर खुरचे हुए बदन पर

चटकीले रंग थोपे हुए थे

धूसर रंगों के ऊपर

और छाई हुई थीं भ्रान्तियाँ

यथार्थ की छाती पर

सबकुछ था वहाँ मसलन

नीलामी के स्वर, संगीत

और धीरे-धीरे छाता धुआँ

लेकिन अफसोस नहीं था

वहाँ एक भी गहरा कुआँ।

 

5. फिर अंकुरित हूँ

 

मैं निर्जीव नहीं

धरती में दबा कोई धातु का टुकड़ा नहीं

हालाँकि मिट्टी में ही पला हूँ

लेकिन मिट्टी में ही छुपा नहीं।

धूसर बस्तियों से आयी हवाओं ने

मुझे बार-बार हौसला दिया

चारों तरफ फैली सीलन में

हर रोज़ धूप का एक टुकड़ा दिया।

मानता हूँ कर्ज उनका, जानता हूँ ध्येय अपना

करूँ कोशिश कि फैला अवसाद भाग जाये

है सभी दिशाओं में गुंजित एक ही आर्त्तनाद

इसलिए मैंने धूप भरी देह में प्राण पाये।

मामूली हूँ, तुच्छ हूँ

गहरी जड़ों वाले वटवृक्षों के देश में

अनुरागी एक सिम्फनी बजती है

फिर भी मेरी नन्हीं सी देह में।

मेरी शैशव जड़ों में प्रवाहित है

अरण्य की विराट चेतना

कि धीरे से पग बढ़ाऊँ तो भी

पिघलती जाये सदियों की वेदना।

इसलिए मैं एक बार फिर

अंकुरित हूँ

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मार्च-अप्रैल 2011

 

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