प्रबोधनकारी है ‘आह्वान’

‘मुक्तिकामी छात्रों युवाओं का आह्वान’ का जनवरी- फरवरी, 2011 अंक काफी प्रशंसनीय है। ‘आह्वान’ का कलेवर निरन्तर और अधिक समृद्ध तथा तर्कणा से पूर्ण होता देख बेहद ख़ुशी होती है। जहाँ ‘आह्वान’ के साथियों की परिवर्तनकामी मुहिम की प्रतिबद्धता ओज से भर देती है, वहीं दूसरी तरफ हमारी दृष्टि को वैश्विक बनाने का काम करती है। ‘अरब जन उभार के मायने’ और ‘नौजवान जब भी जागा इतिहास ने करवट बदली है’ लेख अरब जगत के जनउभार के कारण के रूप में पूँजीवाद के निरन्तर मानवद्रोही चरित्र की उपज को व इनके केन्द्र में सर्वहारा वर्ग के सतत् संघर्ष के बावजूद मज़दूर वर्ग की संगठित ताकत के अभाव की वजह से आन्दोलन की सीमाओं को रेखांकित करते हुए एक सम्यक विवेचन रखता है। बिनायक सेन पर अदालत के फैसले पर आया लेख जिस प्रकार पूँजीवादी न्यायपालिका को बेनकाब करता है, प्रशंसनीय है।

आज जब तथाकथित मार्क्सवादी चिन्तकों के लेख उनके वैचारिक विचलनों के चलते निरन्तर धुँध पैदा कर रहे हैं, ऐसे में ‘प्रो. प्रभात पटनायक के नाम खुला पत्र’ एवं ‘प्रो. लाल बहादुर वर्मा का प्रेम-चिन्तन’ जैसे लेख अत्यन्त ज़रूरी हैं। आगे भी ऐसे लेखों को जारी रखें।

विज्ञान पर आया लेख ‘आस्था मूलक दर्शनों से विज्ञान की मुठभेड़ सतत जारी’ में सारगर्भित विश्लेषण के बावजूद लेख के वैज्ञानिक मुद्दे संक्षिप्त कर दिये गये हैं जिसके कारण लेख की न केवल बोधगम्यता प्रभावित होती है वरन् वैज्ञानिक कथनों की तार्किक धारणा बनाने में बाधा भी पैदा होती है। कापरनिकस, न्यूटन, लाप्लास, हेल्महोल्ट्ज द्वारा दिये सिद्धान्तों को लेख में और अधिक विस्तारित करके देते तो विज्ञान के सामान्य विद्यार्थियों व पाठकों को भी वैज्ञानिक तर्कणा एवं अवधारणाओं को समझने में सुविधा होती। आगे विज्ञान पर लेख जारी रखें। कला पर एक कॉलम जारी करें तो आह्वान और अधिक उन्नत हो सकेगा।

शैलेन्द्र, दिल्ली

 

दुनिया के सबसे बड़े आतंकी का न्याय होना बाकी है

आतंक का साम्राज्य अजर-अमर नहीं होता, उसका अन्त होना तय है। अन्तरराष्ट्रीय आतंक का पर्याय बन चुका ओसामा बिन लादेन पाकिस्तान की सरज़मीं पर अमेरिकी नौसेना कमाण्डो दस्ते के हाथों 2 मई को जिस तरह मारा गया, उससे तो यही ज़ाहिर होता है। मुसोलिनी व हिटलर का दुखद अन्त अब विश्व इतिहास का हिस्सा बन चुका है। हालाँकि उनके आतंक का ख़ौफ अभी भी दुनिया के ज़ेहन से मिटा नहीं है। और ओसामा तो अभी-अभी मरा है। ज़ाहिर है उसका आतंक इतना जल्द मिटने वाला नहीं है। अमेरिका के खि़लाफ ओसामा का 9/11 का इस्लामी जिहाद भी लोगों ने अचरज से देखा। आज उसकी मौत को भी लोग उसी अन्दाज़ में देख रहे हैं। जिस अमेरिका को अपने विश्व व्यापार केन्द्र पर बड़ा दम्भ था, वह क्षणभर में ही ताश के घर की तरह धरती पर छितर गया और वह असहाय सा देखता रहा। अपने सैन्य सामर्थ्य पर अमेरिका को भरोसा था, उस रोज़ उसकी पोल खुल गयी। भीषण आग की लपटों और धूल-धुआँ के लापरवाह बादलों को अमेरिकी साम्राज्य पर पसरते हुए सबने देखा। दौड़ते-भागते व गिरते-पड़ते लोगों की चीख़-पुकार सबने सुनी। दुनिया के सबसे ताकतवर देश पर अलकायदा के बर्बर हमले ने उसके मिथ्या दम्भ को सिर्फ एक धक्का दिया कि पूरा अमेरिका दहल गया। हज़ारों निर्दोष लोग आतंकी हमले में मारे गये। उनके अपनों के आँसू ने धरती को सराबोर कर दिया। हमें तो उस रोज़ भी आश्चर्य नहीं हुआ था न आज ही। हाँ, निर्दोष लोगों की अप्राकृतिक मौत पर गहरा सदमा ज़रूर पहुँचा था। जो अमेरिका ख़ुद को दुर्भेद्य समझता था, अलकायदा सरगना ओसामा ने यह साबित कर दिया कि उसका साम्राज्य भी दुर्भेद्य नहीं है, उसे ध्वस्त किया जा सकता है। अमेरिकी-जनद्रोही नीतियों के खि़लाफ यह कोई जनक्रान्ति नहीं थी, यह एक आतंकी हमला था। ज़ाहिर है कोई भी विवेकसम्पन्न इंसान ऐसे हमलों की तरफदारी नहीं कर सकता।

निर्दोष-निहत्थे इराकी अवाम पर जिस तरह मखमूर अमेरिका ने अपना कहर बरपाया, और वह आज भी वहाँ की धरती और आकाश को जिस तरह रौंद रहा है, उसे भी देख कर कष्ट होता है। अफगानिस्तान के रौंदे जाने का भी दर्द कम नहीं है। आज अमेरिका दुनिया में जो कर रहा है उसे भी हम जायज़ नहीं ठहरा सकते।

कुदरत ने अपने ढंग से धरती पर लकीरें खींची हैं। ज़रूरत के हिसाब से उसने हर भूखण्ड को नदी, पहाड़ और मरुभूमि में बाँटा है। कुदरत ने अपने हिसाब से सबको कुछ न कुछ दिया है – किसी को वन-सम्पदा तो किसी को जल सम्पदा। किसी को खनिज सम्पदा तो किसी को उर्वर भूमि। कुदरत ने अगर किसी को मरुभूमि दिया तो उसे हीरे-जवाहरात भी दिये हैं। कुदरत का सन्देश स्पष्ट है – मिलजुल कर रहने का। मिल-बाँटकर खाने का। सब एक-दूसरे पर निर्भर हैं। और इसके लिए भाव-विनिमय की दरकार है, न कि युद्ध की। जबकि अमेरिका अकेले ही दुनिया के समस्त सुख-साधनों पर अपना एकाधिकार चाहता है और इसके लिए तो वह किसी भी हद तक जाने को तैयार है। ज़ाहिर है कुदरत के सन्देश की अवज्ञा ही युद्ध और महाविनाश के कारण हैं। अमेरिका के आतंकी हमले की फेहरिस्त तो द्रौपदी के चीर से भी लम्बी है। फिर भी कोई कृष्ण इस धरती की सन्तानों को बचाने के लिए अब तक आगे नहीं आया! कसक तो हमें इसकी भी है। न्याय तो सबके लिए बराबर होना चाहिए। अमेरिका ने अपने ढंग से ओसामा का न्याय तो कर दिया, मगर अमेरिका का न्याय कौन करेगा?—

सभी जानते हैं अमेरिका दुनिया का प्रथम परमाणु बम हमलावर राष्ट्र है। उसने अपने साम्राज्यवादी मनसूबे को ले अब तक कितने षड्यन्त्र रचे। अनेक देशों पर हमले किये। वहाँ की शान्ति-समृद्धि को ध्वस्त किया। महाविनाश के बीज बोये। कुदरत प्रदत्त जल-वायु को उसने प्रदूषित किया। उर्वर भूमि को बंजर बनाया। पर्यावरण सन्तुलन को बिगाड़ा। करोड़ों लोगों के प्राण लिये। अनगिनत मासूमों को अपंग बनाया। माँ-बहनों की अस्मत लुटी। एक द्रौपदी की अस्मत को बचाने के लिए कृष्ण ने महाभारत रच डाला। अब दुनिया के सताये व सोये हुए लोगों के उठ खड़े होने की बारी है। दुश्मन के खि़लाफ जिस रोज़ करोड़ों कृष्ण तनकर खड़े हो जायेंगे, उसी रोज़ मानव-जीवन के महाकाव्य की रचना होगी। न तो हम अमेरिका के न्याय के पैरोकार हो सकते हैं, न ही इस्लामी जिहाद का समर्थन ही कर सकते। हमें यह समझना होगा, दोनों ही विश्व-शान्ति के लिए घातक हैं। आज दुनिया में जो कुछ भी हो रहा है उसे भाववादी ईश-कृपा कहकर सन्तोष कर लेंगे। शान्ति व सुकून के लिए कुछ लोग हवन और यज्ञ करेंगे। मगर हम ऐसा नहीं कर सकते। दुनिया में वियतनाम ने पहली बार अमेरिका को शिकस्त दी थी। लगभग 20 साल तक वियतनामी अवाम से लड़ने के बाद अमेरिका को दबे पाँव लौटना पड़ा था। उसके विमानों ने जमकर बम बरसाये। पूरे वियतनाम को रौंद डाला। जिन हाथों में कलम व किताबें होनी चाहिए, उन हाथों ने अपनी धरती, माँ-बहनों की अस्मत की रक्षा के लिए बन्दूकें थाम लीं। तब वियतनाम के प्राण पुरुष 80 साल के हो-ची मिन्ह ने कहा था, “जब तक हमारे शरीर में खून का एक भी कतरा रहेगा, तब तक हम अमेरिका के खि़लाफ लड़ते रहेंगे।” उन्होंने लड़कर दिखाया भी। अन्याय-अविचार अथवा थोपे गये युद्ध के खि़लाफ यह भी एक जंग का तरीका है। ज़ाहिर है अमेरिका अधिक ख़तरनाक और दुर्दान्त है। वह आतंक का प्रायोजक है।

अमेरिका ने ही अपने साम्राज्यवादी मंसूबे को अंजाम देने के लिए ओसामा बिन लादेन को खड़ा किया, उसे हथियार व धन दिये, हर तरह की सुरक्षा व सहूलियतें उपलब्ध करायीं। सिर्फ इतना ही नहीं दुनिया की नज़रों में उसे नायक बनाया। ओसामा की जीवटता व बहादुरी पर कसीदे कसे। इस बात से पूरी दुनिया वाकिफ है कि एक समय अमेरिका ने ओसामा बिन लादेन की तुलना अमेरिका व मैक्सिको की दुर्दान्त सेनाओं से दशकों तक लड़ने वाले अमेरिका के मूल निवासी इण्डियन के अजेय योद्धा जेरोमिनो से की थी। जब तक लादेन अमेरिकी हितों की रक्षा करता रहा, उसके इशारे पर चलता व ख़ून-ख़राबा करता रहा, तब तक वह अमेरिका का चहेता बना रहा। वह योद्धा रहा। ओसामा में उसे कोई खोट नज़र नहीं आया। और जब उसने अपने आका के नाजायज़ हुक्म को मानने से इंकार कर दिया और तन कर खड़ा हो गया तो अमेरिका ने उसे दुनिया का मोस्ट वाण्टेड आतंकी घोषित कर दिया। अमेरिका प्रारम्भ से ही अपनी सहूलियत के हिसाब से हर चीज़ की पड़ताल करता है। उसकी व्याख्या करता है। यही कारण है कि विश्व व्यापार केन्द्र के धराशाही होने से बौखलाये जार्ज डब्ल्यू बुश ने पूरी दुनिया को दो खेमों में बाँटते हुए साफ शब्दों में यह ऐलान कर दिया कि या तो आप हमारे पक्ष में हैं या आतंकवादियों के साथ हैं। अर्थात जो देश अमेरिका की अराजक नीतियों का समर्थन नहीं करेंगे, वे आतंकी राष्ट्र घोषित कर दिये जायेंगे।

26/11 के मुम्बई आतंकी हमले के गुनाहगारों के मामले में अमेरिका की चुप्पी और पाकिस्तान की सरज़मीं पर ओसामा का मारा जाना काफी कुछ कह जाता है। आज की तारीख़ में पाकिस्तान क्या सार्वभौम राष्ट्र है? हमें ऐसा नहीं लगता। एक समय पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ ने भारत के तत्कालीन प्रधानमन्त्री अटल बिहारी बाजपेयी को सम्बोधित कर कहा था, “पाकिस्तान ने कोई चूड़ियाँ नहीं पहन रखी हैं —” पाकिस्तान में आज जिस तरह अमेरिकी निशाचर विचरण कर रहे हैं, उसे देखते हुए हम सिर्फ इतना ही कह सकते हैं कि पाकिस्तान ने सिर्फ चूड़ियाँ ही नहीं बल्कि साड़ी भी पहन रखी है। पाकिस्तानी अवाम को यह समझना चाहिए कि जो लोग सत्ता-सल्तनत और धन के लालच में आतंकियों को पनाह दे रहे हैं और राष्ट्र की अस्मत अमेरिका के हाथों सौंप रहे हैं, वे कतई उसके रहनुमा नहीं हो सकते। पाकिस्तान की धरती को आतंकवाद से मुक्त कराने की जिम्मेवारी अमेरिका की नहीं, बल्कि पाकिस्तान की होनी चाहिए। पाकिस्तान की मिट्टी में जमहूरियत दिखनी चाहिए। यह हम दोनों मुल्कों की शान्ति-समृद्धि और स्थायित्व के लिए नितान्त ज़रूरी है। भारत और पाकिस्तान अगर साथ-साथ चलने की ठान लें तो अमेरिका के लिए एक बड़ी समस्या उठ खड़ी हो जायेगी। हमें यह समझना चाहिए कि अमेरिका का मकसद आतंकवाद को ख़त्म करना नहीं है, सिर्फ लड़ते रहना है। युद्ध होंगे तभी तो उसके हथियार बिकेंगे, जबकि हमारा मकसद युद्ध नहीं बल्कि शान्ति व समृद्धि है। और यह तभी सम्भव हो सकता है जब दुनिया से सभी तरह के आतंकवाद का ख़ात्मा हो। हमारी भलाई इसी में है कि अमेरिका के निहितार्थ को हम समझें। फिलहाल हम इतना ही कह सकते हैं कि ओसामा अपने ही गिरोह के ख़ूनी संघर्ष का शिकार हो गया। अमेरिका का न्याय होना बाकी है।

डा. राजेन्द्र प्रसाद सिंह
सम्पादक: आपका तिस्ता-हिमालय
सिलिगुड़ी

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मार्च-अप्रैल 2011

 

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