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स्त्री को एक वस्तु बनाकर पेश कर रहा सिनेमा

सिनेमा में औरतों को उस रूप में पेश किया जाता है जिस रूप में पूँजीवादी व्यवस्था उन्हें देखती है। मौजूदा व्यवस्था के लिये औरत एक भोगने की वस्तु है और उसका जिस्म नुमाइश लगाने की चीज़ है जिसको बाज़ार में कई तरह का माल बेचने के लिये इस्तेमाल किया जाता है। ऐसी औरत की तो मनुष्य के तौर पर कोई पहचान ही नहीं है बल्कि जिन मर्दों के मन में स्त्री का ऐसा अक्स बनता है वे भी मनुष्य होने की संवेदना गँवा चुके और पशु बन चुके हैं। मौजूदा समाज में स्त्री को मनुष्य का दर्ज़ा दिलवाने के लिये उन सामाजिक सम्बन्धों को तोड़ना ज़रूरी है जिनके केन्द्र में मुनाफा और इसके साथ जुड़ी हर तरह की वहशी हवस है। इस सामाजिक व्यवस्था को बदलने के साथ-साथ सिनेमा और कला और साहित्य के अन्य माध्यमों में भी स्त्रियों की इस तरह की पेशकारी के ख़िलाफ़ आन्दोलन चलाया जाना चाहिए और इन क्षेत्रों में मज़दूर वर्ग के नज़रिये वाले साहित्य, कला और सिनेमा को ये लोगों में ले जाया जाना चाहिए जिन में स्त्रियाँ और मर्द आज़ादी, समानता के साथ भी सब मानवीय भावनाओं के साथ लबरेज़ मनुष्यों के रूप में सामने आते हैं। यानी सामाजिक सम्बन्धों के ख़िलाफ़ लड़ाई के साथ-साथ अपनी पूरी आत्मिक दौलत के साथ मनुष्य होना क्या होता है, यह भी लोगों को सिखाया जाना चाहिए।