भगतसिंह पर डा. एस. इरफान हबीब की पुस्तक के हिन्दी संस्करण का लोकार्पण
26 सितम्बर को डा. एस. इरफान हबीब की पुस्तक ‘टु मेक द डेफ हियर’ के हिन्दी अनुवाद ‘बहरों को सुनाने के लिए’ का लोकार्पण त्रिवेणी सभागार, नई दिल्ली में किया गया । लोकार्पण आधुनिक भारत के सुप्रसिद्ध इतिहासकार प्रो. सब्यसाची भट्टाचार्य ने किया । इस मौके पर पुस्तक के अनुवादक और ‘दायित्वबोध’ के सम्पादक सत्यम, वरिष्ठ समाजवादी चिन्तक सुरेन्द्र मोहन, चर्चित कवि असद ज़ैदी, डा. एस. इरफान हबीब मौजूद थे । कार्यक्रम का संचालन दिशा छात्र संगठन के संयोजक अभिनव ने किया । कार्यक्रम की शुरुआत ‘शहीदों के लिए’ नामक गीत से शहीदों को श्रृद्धांजलि देते हुए की गई । इसके बाद प्रो. भट्टाचार्य ने भगतसिंह की धारा पर अपनी बात रखते हुए बताया कि किस तरह भगतसिंह की वैचारिक विरासत को शासन–सत्ता द्वारा किस प्रकार उपेक्षा का सामना करना पड़ा लेकिन भगतसिंह को लेकर पूरे देश की आम जनता के दिल में जो इज़्ज़त और जज़्बा है उसके कारण पिछले कुछ समय से सरकार को भी भगतसिंह पर ध्यान देने के लिए मजबूर होना पड़ा है । पिछले कुछ समय में भगतसिंह की तमाम प्रतिमाओं के अनावरण से लेकर उन पर बनी फिल्मों की बाढ़ सी आ गई थी । साथ ही भगतसिंह पर हाल ही में कई नई पुस्तकें भी प्रकाशित हुईं । लेकिन एस. इरफान हबीब की पुस्तक अपने आप में अनोखी है क्योंकि पूरे ऐतिहासिक शोध और अनुसंधान के साथ भगतसिंह के जीवन और विचारों पर लिखी गई यह अपने किस्म की एकमात्र पुस्तक है । वरिष्ठ चिन्तक सुरेन्द्र मोहन ने ‘युगांतर’ और ‘अनुशीलन’ के दौर से भगतसिंह की क्रान्तिकारी धारा के विकास पर बात रखते हुए इस बात पर ज़ोर दिया कि जो बात भगतसिंह को पहले के क्रान्तिकारी आतंकवाद से अलग करती थी, वह यह थी कि वह बम–पिस्तौल की आराधना नहीं करते थे और वास्तव में वह एक जनदिशा को लागू करने के हामी इंकलाबी थे । एस. इरफान हबीब की पुस्तक को पहले अंग्रेज़ी में छापने वाले ‘थ्री एसेज़ कलेक्टिव’ प्रकाशन के असद ज़ैदी जो एक प्रसिद्ध हिन्दी कवि भी हैं, ने बताया कि इस पुस्तक को छापने का पूरा अनुभव क्या था और साथ ही भगतसिंह के विचारों की प्रासंगिकता आज भी किस तरह बनी हुई है । पुस्तक के अनुवादक सत्यम ने बताया कि भगतसिंह की पूरी धारा पर यह एक अनोखी पुस्तक है और इसे छात्रों–नौजवानों के बीच खूब पढ़ा जाएगा । ऐतिहासिक दृष्टिकोण से भगतसिंह की पूरी धारा पर कुछ लेख व पुस्तिकाएँ तो लिखी गईं थीं, लेकिन एक विस्तृत शोध की लम्बे समय से ज़रूरत थी ।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, अक्टूबर दिसम्बर 2008
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