बाल मजदूरों के खून से सना विकास का यह चकाचौंध

प्रेम प्रकाश

आजादी के 61 वर्ष बीत जाने के बावजूद बाल एवं बंधुआ मजदूरी बदस्तूर जारी है । विकास एवं जनकल्याण का सफेद झूठ बोलने वाली सभी सरकारें हमेशा ही इसे खत्म करने की कसम खाती रहती हैं परन्तु ये आजादी के इतने दिनों बाद भी और अधिक बढ़ती जा रही है । सच्चाई तो यह है कि अंग्रेजों से सत्ता हस्तान्तरित होने के बाद देश में आयी कांग्रेस सरकार एवं उत्तरवर्ती समय में आयी सभी संसदीय सरकारें शोषण की जिस व्यवस्था की पोषक हैं उसे बाल श्रम से अकूत लाभ मिलता है । पिछले 61 वर्षों में बाल एवं बंधुआ मजदूरों के वीभत्स शोषण ने सरकार के जनता के प्रति दृष्टिकोण को स्पष्ट कर दिया है । वस्तुत: भारतीय शासन के पैरोकारों को कभी भी भारतीय मेहनतकश जनता के भलाई की मंशा थी ही नहीं । अत: यह कहना बेमाने है कि सरकार बाल अधिकारों को प्रदान करने में असफल हुई है, क्योंकि सफल या असफल होना प्रयास करने पर निर्भर करता है । जब शोषकों की इस जमात ने कभी भी जनता के कल्याण का प्रयास ही नहीं किया तो असफल होने का प्रश्न ही कहाँ उठता है ।

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भारत में ही नहीं बल्कि तीसरी दुनिया के सभी देशों में मेहनतकशों के शोषण के साथ उनके बच्चों से बाल मजदूरी करायी जाती है । विकासशील एवं पिछड़े देशों के बाल एवं बंधुआ मज़दूर साम्राज्यवादियों के साथ साथ देशी शोषकों के दोहरे शोषण का शिकार हो रहे हैं । मानव विकास रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 5 से 14 वर्ष की उम्र के 112 लाख बच्चे बाल मजदूरी कर रहे हैं । मानव विकास रिपोर्ट में स्पष्ट किया गया है कि बाल एवं बंधुआ मजदूरों के पैदा होने की वजह माँ–बाप की ग़रीबी, अशिक्षा एवं सामाजिक–आर्थिक परिस्थितियाँ बतायी गयी हैं । इससे स्पष्ट है कि मेहनतकशों का शोषण ही उनको ग़रीब बनाता है और ग़रीब मेहनतकश अवाम के बच्चों को तमाम कामों में लगाकर शोषकों की जमात उनका दोहरा शोषण करती है । इसी रिपोर्ट के अनुसार भारत में 14 वर्ष की आयु तक के 20 लाख बच्चे अपने घर से बाहर घरेलू नौकर के रूप में कार्य करते हैं । भारत सरकार के आँकड़ों के अनुसार 20 प्रतिशत बच्चे खतरनाक उद्योगों में संलग्न हैं । इन उद्योगों में र्इंट निर्माण, पत्थर खदान, अग्नि कार्य उत्पादन (Firework manufacturing) , ताला उद्योग एवं शीशा उद्योग शामिल है । उन उद्योगों में काम करने की कार्यदशाएँ जहाँ प्रतिकूल हैं वहीं सुरक्षा उपायों की खुल्लम–खुल्ला अवहेलना की जाती है जिससे मजदूरों के जीवन पर हमेशा तलवार लटकी रहती है ।

बाल एवं बंधुआ मजदूरों के शोषण का सबसे वीभत्स रूप बच्चों एवं लड़कियों का क्रय–विक्रय है । भारत में प्रतिवर्ष लगभग 50 लाख औरतों और बच्चों को देह व्यापार के धन्धे में धकेल दिया जाता है । ‘बाल अधिकार एवं आप’ नामक एक संस्था के अध्ययन के अनुसार भारत में 19 प्रतिशत बच्चे स्कूल तक नहीं जा पाते एवं 4 प्रतिशत बच्चे अपनी गरीबी के कारण आर्थिक गतिविधियों में लगे हैं । भारतीय न्याय व्यवस्था भी बाल मजदूरी एवं अशिक्षा के लिए प्रथम अपराधी बच्चे के माँ–बाप को ही मानती है, लेकिन क्या कोई माता–पिता अपनी इच्छा से अपने बच्चे को बाल–मजदूरी में धकेलता है । कदापि नहीं । वरन उसके जीने की पूर्वशर्त ही उन्हें यहाँ ला खड़ा करती है । लेकिन इसके लिए जिम्मेदार यह शोषणकारी व्यवस्था अपने आप को साफ बरी कर लेती है ।

बाल एवं बंधुआ मजदूरी आर्थिक रूप से पिछड़े एवं शोषित क्षेत्रों में जहाँ मेहनतकशों का शोषण अत्याधिक तेज हो रहा है अपने नंगे रूप में पायी जाती है । उड़ीसा, झारखण्ड, बिहार के लोग दिल्ली में जेवर बनाने एवं रंगाई करने के काम में बंधुआ मजदूरी करते हैं । दिल्ली में आज भी ज़री के कारखानों में 50 हजार बच्चे काम कर रहे हैं, यह आँकड़ा और भी बड़ा होगा यदि अन्य क्षेत्रों के बाल श्रम को इसमें शामिल कर दिया जाये । दिल्ली में खानपुर, नरेला, सीलमपुर, कोटला मुबारकपुर, मंगोलपुरी, मदनगीर एवं सरायकाले खाँ के समीप ज़री के कारखानों में बाल मजदूरों की भारी संख्या रहती है । शासन भले ही कुछ इनाकों में बाल एवं बंधुआ मजदूरी खत्म करने की बात करे लेकिन यह जारी है क्योंकि मजदूरों को कोई उचित नियोजन नहीं होने के कारण उनके जीवन की जरूरतें पुन: उसी उद्योगों में ला खड़ा करती हैं जहां से उनको मुक्त कराया गया था । गाँवों में बाल एवं बंधुआ मजदूरी और अधिक है और शासन के पैरोकारों और रखवालों की जमात इन बच्चों का खून निचोड़कर अपनी तिजोरियां भरने में सबसे आगे हैं । दबंग कारखाना मालिक, ठेकेदारों की पहुँच शासन के गलियारों तक हैं और ये खुद शासन में शामिल हैं । पुलिस और प्रशासन इनकी जेब में रहता है । बाल एवं बंधुआ मजदूर अपनी पारिवारिक आर्थिक समस्या के कारण अपने शोषण के खिलाफ आवाज़ नहीं उठा पाता । इसका एक प्रमुख कारण असंगठित क्षेत्रों में बाल मजदूरी का होना है । यहां तक कि दिल्ली तक में मजदूरों को सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम मजदूरी से बहुत कम और कहीं–कहीं आधी मजदूरी दी जाती है । श्रम अधिकारियों से लेकर प्रशासन और पुलिस सब श्रम की इस लूट में शामिल हैं और इसकी बंदरबाट में सफेदपोशों की जमात भी अपना हिस्सा पाती है ।

इस लूट को न तो सरकार कम करना चाहती है और न कम कर सकती है क्योंकि पूँजीपतियों के अन्धाघुन्ध लाभ एवं लूट को इससे बट्टा लग जायेगा । परन्तु पूँजीवादी व्यवस्था में सरकार पूँजीपतियों एवं लुटेरों की सलाहकार समिति होने के नाते तमाम एन.जी.ओ., अस्मितावादी, पहचानवादी संस्थाओं के द्वारा एवं स्वयं द्वारा तमाम छद्म सुधार कार्यों द्वारा बाल मजदूरों के शोषण को दीर्घकालिक बनाना चाहती हैं ।

सामाजिक जीवन की समस्याओं का निराकरण उसके मूलभूत कारणों के उच्छेदन एवं समापन से जोड़ा जाना चाहिये तभी ऐसी समस्याओं से छुटकारा पाया जा सकता है । लेकिन शासन एवं इनकी पोषक संस्थाओं की अपनी–अपनी स्वार्थ लिप्सा एवं शोषण अथवा यों कहें कि उनके जिन्दा होने की शर्त के कारण, न तो उनका उद्देश्य कभी भी मेहनतकश आवाम की समस्याओं के मूल कारणों की पहचान करना होता है न ही उन समस्याओं को खत्म करना क्योंकि इन समस्याओं के मूल कारण शोषकों की गतिविधियाँ एवं कार्य हैं । ऐसी समस्याओं का समाधान एक समतामूलक व्यवस्था की माँग करता है जो शासन के मौजूदा स्वरूप में उसकी मृत्यु की माँग पर आधारित है । ऐसी सारी समस्याओं का मूल आर्थिक असमानता एवं शोषण पर टिकी व्यवस्था में है ।

बाल मजदूरों को आज होटलों, एक्सपोर्ट घरों, भट्ठों, घरेलू नौकरी एवं अनेक ऐसे ही कामों से मुक्त करवाना इसका हल नहीं है । इसका प्रमुख कारण है आर्थिक असमानता, श्रम का शोषण, मजदूरों के सम्मुख कार्यों की ऐसी उपस्थिति जिसमें वह चयन नहीं करते बल्कि वह बेचने के लिए खुद को प्रस्तुत करते है । । शोषण ने श्रमिकों से शिक्षा, चिकित्सा, आवास सभी कुछ छीन लिया है, उनके सामने हमेशा एक यक्ष प्रश्न होता है, जिन्दा रहने की न्यूनतम शर्त, भोजन और वह भी उतना ही जिससे वह काम करने लायक बने रह सके । यह प्रमुख प्रश्न पूँजीवादी शोषणकारी व्यवस्था की देन है और इसकी नियति भी  । अत: आज अगर बाल मजदूरों को महज इन कामों से हटा दिया जाये तो ये पुन: उसी तरह के किसी काम में वापस आयेंगे क्योंकि इनके पास जीवित रहने के लिए और कोई विकल्प ही नहीं है ।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, अक्‍टूबर-दिसम्‍बर 2008

 

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