वीरेन डंगवाल के जन्मदिवस और स्मृति दिवस के अवसर पर
मंगलेश डबराल
हिन्दी की वाम कविता धारा के एक अग्रणी और अनूठे कवि वीरेन डंगवाल के 74वें जन्मदिन (5 अगस्त 1947) के विशेष अवसर पर उनको याद करते हुए हम यहाँ उनकी कुछ चुनी हुई कविताएँ प्रस्तुत कर रहे हैं। साथ ही नवारुण प्रकाशन से प्रकाशित वीरेन डंगवाल की सम्पूर्ण कविताओं के संकलन ‘कविता वीरेन’ की भूमिका को भी हम यहाँ साभार दे रहे हैं, जो उनके अन्तरंग मित्र मंगलेश डबराल ने लिखी है। (अफ़सोस कि मंगलेश डबराल भी अब हमारे बीच नहीं हैं। पिछले वर्ष 9 दिसम्बर को कोरोना ने उन्हें हमसे छीन लिया था।)
वीरेन डंगवाल एक ऐसे विरल कवि थे, जिनके व्यक्तित्व और कृतित्व में कोई फाँक नहीं थी। उनका सृजन कर्म उनके जीवन का नैसर्गिक विस्तार था। वीरेन डंगवाल का व्यक्तित्व और कृतित्व हमें हमेशा याद दिलाता रहेगा कि एक अच्छा कवि होने के लिए एक अच्छा मनुष्य होना ज़रूरी है। 28 सितम्बर, 2015 को अजेय आत्मा वाले इस कवि के शरीर को एक लम्बे, कठिन संघर्ष के बाद कैंसर ने अन्ततोगत्वा पराजित कर दिया। कैंसर के विरुद्ध उनका लम्बा संघर्ष भी वैसा ही था, जैसा तमाम मानवद्रोही और मृत्युधर्मी प्रवृत्तियों के विरुद्ध उनकी कविता का अनथक विद्रोह।
– कात्यायनी
आएँगे, उजले दिन ज़रूर आएँगे
आतंक सरीखी बिछी हुई हर ओर बर्फ़
है हवा कठिन, हड्डी-हड्डी को ठिठुराती
आकाश उगलता अन्धकार फिर एक बार
संशय विदीर्ण आत्मा राम की अकुलाती
होगा वह समर, अभी होगा कुछ और बार
तब कहीं मेघ ये छिन्न -भिन्न हो पाएँगे
तहखानों से निकले मोटे-मोटे चूहे
जो लाशों की बदबू फैलाते घूम रहे
हैं कुतर रहे पुरखों की सारी तस्वीरें
चीं-चीं, चिक-चिक की धूम मचाते घूम रहे
पर डरो नहीं, चूहे आख़िर चूहे ही हैं
जीवन की महिमा नष्ट नहीं कर पाएँगे
यह रक्तपात यह मारकाट जो मची हुई
लोगों के दिल भरमा देने का ज़रिया है
जो अड़ा हुआ है हमें डराता रस्ते पर
लपटें लेता घनघोर आग का दरिया है
सूखे चेहरे बच्चों के उनकी तरल हँसी
हम याद रखेंगे, पार उसे कर जाएँगे
मैं नहीं तसल्ली झूठ-मूठ की देता हूँ
हर सपने के पीछे सच्चाई होती है
हर दौर कभी तो ख़त्म हुआ ही करता है
हर कठिनाई कुछ राह दिखा ही देती है
आए हैं जब चलकर इतने लाख बरस
इसके आगे भी चलते ही जाएँगे
आएँगे उजले दिन ज़रूर आएँगे
हमारी नींद
मेरी नींद के दौरान
कुछ इंच बढ़ गये पेड़
कुछ सूत पौधे
अंकुर ने अपने नाम मात्र कोमल सींगों से
धकेलना शुरू किया
बीज की फूली हुई
छत, भीतर से।
एक मक्खी का जीवन-क्रम पूरा हुआ
कई शिशु पैदा हुए, और उनमें से
कई तो मारे भी गये
दंगे, आगज़नी और बमबारी में।
ग़रीब बस्तियों में भी
धमाके से हुआ देवी जागरण
लाउडस्पीकर पर।
याने साधन तो सभी जुटा लिए हैं अत्याचारियों ने
मगर जीवन हठीला फिर भी
बढ़ता ही जाता आगे
हमारी नींद के बावजूद
और लोग भी हैं, कई लोग हैं
अब भी
जो भूले नहीं करना
साफ़़ और मज़बूत
इन्कार
आँखें मूँदने से पहले याद करो रामसिंह और चलो…
दो रात और तीन दिन का सफ़र तय करके
छुट्टी पर अपने घर जा रहा है रामसिंह
रामसिंह अपना वार्निश की महक मारता ट्रंक खोलो
अपनी गन्दी जर्सी उतार कर कलफ़दार वर्दी पहन लो
रम की बोतलों को हिफ़ाज़त से रख लो रामसिंह, वक़्त ख़राब है ;
खुश हो, तनो, बस, घर में बैठो, घर चलो।
तुम्हारी याददाश्त बढ़िया है रामसिंह
पहाड़ होते थे अच्छे मौक़े के मुताबिक
कत्थई-सफ़ेद-हरे में बदले हुए
पानी की तरह साफ़़
ख़ुशी होती थी
तुम कनटोप पहन कर चाय पीते थे पीतल के चमकदार गिलास में
घड़े में, गड़ी हई दौलत की तरह रक्खा गुड़ होता था
हवा में मशक्कत करते चीड़ के पेड़ पसीजते थे फ़ौजियों की तरह
नींद में सुबकते घरों पर गिरा करती थी चट्टानें
तुम्हारा बाप
मरा करता था लाम पर अँगरेज़ बहादुर की ख़िदमत करता
माँ सारी रात रात रोती घूमती थी
भोर में जाती चार मील पानी भरने
घरों के भीतर तक घुस आया करता था बाघ
भूत होते थे
सीले हुए कमरों में
बिल्ली की तरह कलपती हई माँ होती थी, बिल्ली की तरह
पिता लाम पर कटा करते थे
ख़िदमत करते चीड़ के पेड़ पसीजते थे सिपाहियों की तरह ;
सड़क होती थी अपरिचित जगहों के कौतुक तुम तक लाती हुई
मोटर में बैठ कर घर से भागा करते थे रामसिंह
बीहड़ प्रदेश की तरफ़।
तुम किसकी चौकसी करते हो रामसिंह ?
तुम बन्दूक के घोड़े पर रखी किसकी उँगली हो ?
किसका उठा हुआ हाथ ?
किसके हाथों में पहना हुआ काले चमड़े का नफ़ीस दस्ताना ?
ज़िन्दा चीज़ में उतरती हुई किसके चाकू की धार ?
कौन हैं वे, कौन
जो हर समय आदमी का एक नया इलाज ढूँढते रहते हैं ?
जो रोज़ रक्तपात करते हैं और मृतकों के लिए शोकगीत गाते हैं
जो कपड़ों से प्यार करते हैं और आदमी से डरते हैं
वो माहिर लोग हैं रामसिंह
वे हत्या को भी कला में बदल देते हैं।
पहले वे तुम्हें क़ायदे से बन्दूक पकड़ना सिखाते हैं
फिर एक पुतले के सामने खड़ा करते हैं
यह पुतला है रामसिंह, बदमाश पुतला
इसे गोली मार दो, इसे संगीन भोंक दो
उसके बाद वे तुम्हें आदमी के सामने खड़ा करते हैं
ये पुतले हैं रामसिंह बदमाश पुतले
इन्हें गोली मार दो, इन्हें संगीन भोंक दो, इन्हें… इन्हें… इन्हें…
वे तुम पर खुश होते हैं — तुम्हें बख़्शीश देते हैं
तुम्हारे सीने पर कपड़े के रंगीन फूल बाँधते हैं
तुम्हें तीन जोड़ा वर्दी, चमकदार जूते
और उन्हें चमकाने की पॉलिश देते हैं
खेलने के लिए बन्दूक और नंगी तस्वीरें
खाने के लिए भरपेट खाना, सस्ती शराब
वे तुम्हें गौरव देते हैं और इसके बदले
तुमसे तुम्हारे निर्दोष हाथ और घास काटती हई
लड़कियों से बचपन में सीखे गये गीत ले लेते हैं
सचमुच वे बहुत माहिर हैं रामसिंह
और तुम्हारी याददाश्त वाकई बहुत बढ़िया है।
बहुत घुमावदार है आगे का रास्ता
इस पर तुम्हें चक्कर आएँगे रामसिंह मगर तुम्हें चलना ही है
क्योंकि ऐन इस पहाड़ की पसली पर
अटका है तुम्हारा गाँव
इसलिए चलो, अब ज़रा अपने बूटों के तस्मे तो कस लो
कन्धे से लटका ट्राँजिस्टर बुझा दो तो ख़बरें आने से पहले
हाँ, अब चलो गाड़ी में बैठ जाओ, डरो नहीं
गुस्सा नहीं करो, तनो
ठीक है अब ज़रा आँखें बन्द करो रामसिंह
और अपनी पत्थर की छत से
ओस के टपकने की आवाज़ को याद करो
सूर्य के पत्ते की तरह काँपना
हवा में आसमान का फड़फड़ाना
गायों का रम्भाते हुए भागना
बर्फ़ के ख़िलाफ़ लोगों और पेड़ों का इकठ्ठा होना
अच्छी ख़बर की तरह वसन्त का आना
आदमी का हर पल, हर पल मौसम और पहाड़ों से लड़ना
कभी न भरने वाले ज़ख़्म की तरह पेट
देवदार पर लगे ख़ुशबूदार शहद के छत्ते
पहला वर्णाक्षर लिख लेने का रोमांच
और अपनी माँ की कल्पना याद करो
याद करो कि वह किसका ख़ून होता है
जो उतर आता है तुम्हारी आँखों में
गोली चलाने से पहले हर बार ?
कहाँ की होती है वह मिटटी
जो हर रोज़ साफ़़ करने के बावजूद
तुम्हारे बूटों के तलवों में चिपक जाती है ?
कौन होते हैं वे लोग जो जब मरते हैं
तो उस वक्त भी नफ़रत से आँख उठाकर तुम्हें देखते हैं ?
आँखें मूँदने से पहले याद करो रामसिंह और चलो।
इतने भले नहीं बन जाना
इतने भले नहीं बन जाना साथी
जितने भले हुआ करते हैं सरकस के हाथी
गदहा बनने में लगा दी अपनी सारी कुव्वत सारी प्रतिभा
किसी से कुछ लिया नहीं न किसी को कुछ दिया
ऐसा भी जिया जीवन तो क्या जिया?
इतने दुर्गम मत बन जाना
सम्भव ही रह जाय न तुम तक कोई राह बनाना
अपने ऊंचे सन्नाटे में सर धुनते रह गये
लेकिन किंचित भी जीवन का मर्म नहीं जाना
इतने चालू मत हो जाना
सुन-सुन कर हरक़ते तुम्हारी पड़े हमें शरमाना
बग़ल दबी हो बोतल मुँह में जनता का अफसाना
ऐसे घाघ नहीं हो जाना
ऐसे कठमुल्ले मत बनना
बात नहीं हो मन की तो बस तन जाना
दुनिया देख चुके हो यारो
एक नज़र थोड़ा-सा अपने जीवन पर भी मारो
पोथी-पतरा-ज्ञान-कपट से बहुत बड़ा है मानव
कठमुल्लापन छोड़ो
उस पर भी तो तनिक विचारो
काफ़ी बुरा समय है साथी
गरज रहे हैं घन घमण्ड के नभ की फटती है छाती
अन्धकार की सत्ता चिल-बिल चिल-बिल मानव-जीवन
जिस पर बिजली रह-रह अपना चाबुक चमकाती
संस्कृति के दर्पण में ये जो शक्लें हैं मुस्काती
इनकी असल समझना साथी
अपनी समझ बदलना साथी
पी. टी. ऊषा
काली तरुण हिरनी
अपनी लम्बी चपल टाँगों पर
उड़ती है
मेरे ग़रीब देश की बेटी
आँखों की चमक में जीवित है अभी
भूख को पहचानने वाली विनम्रता
इसीलिए चेहरे पर नहीं है
सुनील गावस्कर की छटा
मत बैठना पी० टी० ऊषा
इनाम में मिली उस मारुति कार पर मन में भी इतराते हुए
बल्कि हवाई जहाज़ में जाओ
तो पैर भी रख लेना गद्दी पर
खाते हुए मुँह से चपचप की आवाज़ होती है ?
कोई ग़म नहीं
वे जो मानते हैं बेआवाज़ जबड़े को सभ्यता
दुनिया के
सबसे ख़तरनाक खाऊ लोग हैं !
हम औरतें
रक्त से भरा तसला है
रिसता हुआ घर के कोने-अन्तरों में
हम हैं सूजे हुए पपोटे
प्यार किये जाने की अभिलाषा
सब्जी काटते हुए भी
पार्क में अपने बच्चों पर निगाह रखती हुई
प्रेतात्माएँ
हम नींद में भी दरवाज़े पर लगा हुआ कान हैं
दरवाज़ा खोलते ही
अपने उड़े-उड़े बालों और फीकी शक्ल पर
पैदा होने वाला बेधक अपमान हैं
हम हैं इच्छा-मृग
वंचित स्वप्नों की चरागाह में तो
चौकड़ियाँ
मार लेने दो हमें कमबख्तो !
कुछ कद्दू चमकाए मैंने
कुछ कद्दू चमकाए मैंने
कुछ रास्तों को गुलज़ार किया
कुछ कविता-टविता लिख दीं तो
हफ़्ते भर ख़ुद को प्यार किया
अब हुई रात अपना ही दिल सीने में भींचे बैठा हूँ
हाँ जी हाँ वही कनफटा हूँ, हेठा हूँ
टेलीफ़ोन की बग़ल में लेटा हूँ
रोता हूँ धोता हूँ रोता-रोता धोता हूँ
तुम्हारे कपड़ों से ख़ून के निशाँ धोता हूँ
जो न होना था वही सब हुवाँ-हुवाँ
अलबत्ता उधर गहरा खड्ड था इधर सूखा कुआँ
हरदोई मे जीन्स पहनी बेटी को देख
प्रमुदित हुई कमला बुआ
तब रमीज़ कुरैशी का हाल ये था
कि बम फोड़ा जेल गया
वियतनाम विजय की ख़ुशी में
कचहरी पर अकेले ही नारे लगाए
चाय की दुकान खोली
जनता पार्टी में गया वहाँ भी भूखा मरा
बिलाया जाने कहाँ
उसके कई साथी इन दिनों टीवी पर चमकते हैं
मगर दिल हमारे उसी के लिए सुलगते हैं
हाँ जी, कामरेड कज्जी मज़े में हैं
पहनने लगे है इधर अच्छी काट के कपड़े
राजा और प्रजा दोनों की भाषा जानते हैं
और दोनों का ही प्रयोग करते हैं अवसरानुसार
काल और स्थान के साथ उनके संकलन त्रय के दो उदहारण
उनकी ही भाषा में :
“रहे न कोई तलब कोई तिश्नगी बाकी
बढ़ा के हाथ दे दो बूँद भर हमे साकी”
“मजे का बखत है तो इसमे हैरानी क्या है
हमें भी कल्लैन दो मज्जा परेसानी क्या है ”
अनिद्रा की रेत पर तड़ पड़ तड़पती रात
रह गयी है रह गयी है अभी कहने से
सबसे ज़रूरी बात।
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‘इन्हीं सड़कों से चल कर आते हैं आततायी/ इन्हीं सड़कों से चल कर आयेंगे अपने भी जन।’ वीरेन डंगवाल ‘अपने जन’ के, इस महादेश के साधारण मनुष्य के कवि हैं। वे उन दूसरे प्राणियों और जड़-जंगम वस्तुओं के कवि भी हैं जो हमें रोज़मर्रा के जीवन में अक्सर दिखाई देती हैं, लेकिन हमारे दिमाग में दर्ज़ नहीं होतीं। कविता के ये ‘अपने जन’ सिपाही रामसिंह और इलाहाबाद के मल्लाहों, लकड़हारों, रेलवे स्टेशन के फेरीवालों, डाकियों, अपने दोस्तों की बेटियों समता और भाषा, निराला, शमशेर, नागार्जुन, त्रिलोचन, केदार, पीटी उषा, तारन्ता बाबू, किन्हीं माथुर साहब और श्रोत्री जी तक फैले हुए हैं। मनुष्येतर जीवधारियों और वस्तुओं के स्तर पर यह संसार भाप के इंजन, हाथी, ऊँट, गाय, भैंस, कुत्ते, भालू, सियार, सूअर, मक्खी, मकड़ी, पपीते, इमली, समोसे, नींबू, जलेबी, पुदीने, भात और पिद्दी का शोरबा आदि तक हलचल करता है। इन जीवित-अजीवित चीज़ों से वीरेन का व्यवहार कितना आत्मीय और ऐन्द्रीय है, इसके साक्ष्य उनकी बहुत सी रचनाओं में हैं। मसलन, ‘फरमाइशें’ में वे कहते है : ‘कुत्ते मुझे थोड़ा-सा स्नेह दे/गाय ममता/भालू मुझे दे यार/शहद के लिए थोड़ा/अपना मर्दाना प्यार/भैंस दे थोड़ा बैरागीपन/बन्दर फुर्ती/अपनी अक्ल से मुझे बख्शे रहना सियार’। इस कविता में कुत्ते, गाय, भालू, भैंस, बन्दर और सियार की अपनी-अपनी स्वभावगत और मासूम विशेषताओं का वर्णन है, लेकिन असल चीज़ शायद वह प्रेम और आत्मीयता है जो इन प्राणियों के प्रति कवि के भीतर से उमड़ती है। कवि सियार से भी यह कहता है कि मुझे तुम्हारी अक्ल यानी चालाकी की ज़रूरत नहीं है।
भाप इंजन को याद करती, नींबुओं को सलाम करती, पोस्टकार्डों की महिमा गाती, अधेड़ नैनीताल की उधेड़बुन में उलझती, फूलों से भरी हुई फरवरी का ‘घुटनों चलती बेटी’ की तरह स्वागत करती, जीव-जन्तुओं और खाद्य पदार्थों की विलक्षण सत्ता का गुणगान करती इन कविताओं का उद्देश्य उनका एक ‘लार्जर दैन लाइफ’ रूपान्तरण करना नहीं, बल्कि उनके अपने अस्तित्व को, एक ख़ास और संक्षिप्त अर्थवत्ता और उस छोटे से प्रकाश को दिखलाना है जिसे हम प्राय: अनदेखा किये रहते हैं। साधारण चीज़ों की एक असाधारण दुनिया दिखाने का काम हिन्दी कविता में कुछ हद तक हुआ है, लेकिन वीरेन की कविता जैसे एक जि़द के साथ कहती है कि मामूली लोग और मामूली चीज़ें दरअसल उसी तरह हैं जिस तरह वे हैं और इसी मामूलीपन में उनकी सार्थकता है, जिसे पहचानना उनके जीवन का सम्मान करना है और हम जितना अधिक ऐसे जीवन को जानेंगे, उतने अधिक मानवीय हो सकेंगे। व्यापक नकार और ‘सिनिसिज़्म’ के दौर में वीरेन की कविता जीवन के स्वीकार को ज़रा भी नहीं छोड़ती। ‘मक्खी’ शीर्षक कविता में स्याही में गिरी हुई मक्खी को जब बाहर निकाला जाता है तो ‘वह दवात के कगार पर बैठी रही कुछ देर / हाल में घटी दुर्घटना के बोझ से झुकी हुई और पस्त/फिर दवात की ढलान पर रेंगती उतर गयी धूप में/अपने जुड़े पंखों पर पतली टांगों को चलाते हुए/उसने लिया हवा और धूप को /अपने झिल्ली डैनों पर/खिड़की पर बैठे हुए/कुछ देर बाद वह वहाँ नहीं थी/सलाख पर/ गिरी न होगी /उड़ चली होगी दूसरी मक्खियों के पास/क्योंकि मक्खियाँ गिरा नहीं करती कहीं से/अगर वे जि़न्दा हों।’
वीरेन के अड़सठ वर्षीय जीवन-काल (जन्म: 5 अगस्त 1947; निधन : 28 सितम्बर 2015) में तीन कविता संग्रह, कुछ छिटपुट लेख और ‘पहल पुस्तिका’ के रूप में तुर्की के क्रान्तिकारी महाकवि नाजि़म हिकमत की कविताओं के अनुवाद प्रकाशित हुए। यह सफ़र 1991 में ‘इसी दुनिया में’ से शुरू हुआ हालाँकि तब तक ‘रामसिंह’, ‘पीटी उषा’, ‘मेरा बच्चा’, ‘गाय’, ‘भूगोल-रहित’, ‘दुख’, ‘समय’ और ‘इतने भले नहीं बन जाना साथी’ जैसी कविताओं ने वीरेन को मार्क्सवाद की ज्ञानात्मक संवेदना से अनुप्रेरित ऐसे प्रतिबद्ध और जन-पक्षधर कवि की पहचान दे दी थी, जिसकी आवाज़ अपने समकालीनों से कुछ अलहदा और अनोखी थी और अपने पूर्ववर्ती कवियों से गहरा संवाद करती थी। उसमें ख़ास तौर पर निराला और शमशेर बहादुर सिंह के काव्य-विवेक की रोशनी थी। ‘इसी दुनिया में’ की कुछ कविताएँ कवि की मूल प्रस्थापनाओं का घोषणा-पत्र जैसी मानी जा सकती हैं :
मैं ग्रीष्म की तेजस्विता हूँ
और गुठली जैसा
छिपा शरद का ऊष्म ताप
मैं हूँ वसन्त का सुखद अकेलापन
जेब में गहरी पड़ी मूँगफली को छाँट कर
चबाता फुरसत से
मैं चेकदार कपड़े की कमीज हूँ
उमड़ते हुए बादल जब रगड़ खाते हैं
मैं उनका मुखर गुस्सा हूँ।
आत्मकथ्य सरीखी इन पंक्तियों में वीरेन की काव्य संवेदना के प्रमुख सरोकार साफ़़ हो जाते हैं। उसमें अनुभव की उदात्तता है तो रोज़मर्रा की मामूली चीज़ों के प्रति गहरा लगाव भी। ग्रीष्म की तेजस्विता और शरद की ऊष्मा और वसन्त के सुखद अकेलेपन के साथ जेब में पड़ी मूँगफली और चेकदार कमीज की उपस्थिति एक नया यथार्थ और नया सौन्दर्यशास्त्र निर्मित करती है। यहाँ उदात्त अनुभवों और साधारण दुनियावी चीज़ों में कोई बुनियादी विभेद नहीं है, अमूर्तनों और भौतिक उपस्थितियों के बीच कोई दूरी नहीं है, बल्कि वे एक दूसरे के साथ और उनके भीतर भी अस्तित्वमान और पूरक हैं। मामूलीपन और नगण्यता के जिस गुणगान के लिए वीरेन की कविता पहचानी गयी, उसकी शुरुआत इस तरह की बहुत सी और ख़ासकर ‘पीटी उषा’ जैसी कविताओं से हुई थी जिसमें वीरेन क्रिकेट की सम्भ्रान्तता के बरक्स एक दुबली-पतली धावक पीटी उषा के खेल की अपेक्षाकृत निम्नवर्गीयता, उसके सामान्य चेहरे और साँवलेपन को उभारते हुए उसे ‘मेरे गरीब देश की बेटी’ कह कर सम्बोधित करते हैं : ‘उसकी आँखों की चमक में जीवित है अभी/भूख को पहचानने वाली विनम्रता/ इसीलिए चेहरे पर नहीं है/ सुनील गावस्कर की छटा।’ वे उसे सलाह देते हैं कि अगर खाना खाते समय तुम्हारे मुँह से चपचप की आवाज़ होती है तो यह अच्छा है क्योंकि जो लोग ‘बेआवाज़ जबड़े को सभ्यता मानते हैं/ वे दुनिया के सबसे खाऊ और इसलिए ख़तरनाक लोग हैं।’
‘पर्जन्य’, वरुण’, ‘इन्द्र’, ‘द्यौस’ जैसे रूपकों और बिम्बों पर रोमांचक शिल्प की कविताओं में भी वीरेन की संवेदनात्मक स्मृति का स्वरूप इसी तरह जनवादी और प्रतिबद्ध रहा। इन वैदिक छवियों को साधारण जन की आँखों से और एक भौतिक भूमिका में देखा गया है। वीरेन जब इन्द्र का उल्लेख करते हैं तो उसकी उंगलियों में मोटी-मोटी पन्ने की अंगूठियाँ दिखलाना नहीं भूलते : ‘वह समुद्रों को उठाकर सितार की तरह बजाता है/ वह पानी का स्वामी है,/सातों समुद्रों और सारी नदियों पर उसका एकाधिकार है/ जबकि यहाँ हमारे कण्ठ स्वरहीन और सूखे हैं’। वन की देवी वन्या भी जंगलात के अफसरों की क्रूरता से भयभीत स्त्री है और अपने ही जंगल में जाते हुए आशंका से भरी हुई है : ‘अकेले कैसे जाऊँगी मैं वहाँ/ मुझे देखते ही विलापने लगते हैं चीड़ के पेड़/ सुनाई देने लगती है/ किसी घायल लड़की की दबी-दबी कराह।’ इन रचनाओं में वीरेन ने देवताओं के संसार में भी वर्ग-विभेद को, उनकी जन-पक्षधर और जन-विरोधी उपस्थितियों को जिस शिद्दत से रेखांकित किया, वह हिन्दी कविता में पहले नहीं थी। यह एक नया आयाम था, जिसमें पपीता, इमली, समोसे, जलेबी, ऊँट, हाथी, गाय, मक्खी जैसी वस्तुएं भी पहली बार कविता का विषय बनीं।
ये कविताएँ जिस दौर में लिखी गयीं, वह नेहरू युगोत्तर मोहभंग की सामाजिक-बौद्धिक-राजनीतिक उथल-पुथल, नक्सलबाड़ी की ‘वसन्त गर्जना’ और उसके क्रूर दमन, विश्व स्तर पर वियतनाम युद्ध के विरोध, अमेरिका की विद्रोही बीट पीढ़ी की अराजकता और काली या अश्वेत चेतना से उबलता हुआ था। वीरेन की संवेदना पर भी इस वैश्विक उभार की गहरी छाप पड़ी। उन्हीं दिनों आलोकधन्वा की ‘जनता का आदमी’ और ‘गोली दागो पोस्टर’, लीलाधर जगूड़ी की ‘बलदेव खटिक’ और वीरेन की ‘रामसिंह’ नक्सलबाड़ी संघर्ष की प्रमुख कविताओं के रूप में चर्चित हुईं और नाटकों की शक्ल में भी मंचित की गयीं। इन कविताओं का मुख्य सरोकार मनुष्य का शोषण-दमन करने वाली शासक शक्तियों का प्रतिरोध करना, क्रान्ति का स्वप्न जगाना और मानवीय अच्छाई और समानता के संघर्ष की अनिवार्यता को रेखांकित करना था। ‘रामसिंह’ एक गरीब पहाड़ी परिवार के बेटे और फौजी सिपाही को सालाना छुट्टी पर घर जाते हुए देखती है और उसे आत्म-साक्षात्कार के बिन्दु तक ले जाती है :
तुम किसकी चौकसी करते हो रामसिंह?
तुम बन्दूक के घोड़े पर रखी किसकी उँगली हो?
किसका उठा हुआ हाथ?
किसके हाथों में पहना हुआ काले चमड़े का नफ़ीस दस्ताना?
जि़न्दा चीज़ में उतरती हुई किसके चाकू की धार?
कौन हैं वे, कौन
जो हर समय आदमी का एक नया इलाज ढूँढ़ते रहते हैं?
जो रोज़ रक्तपात करते हैं और मृतकों के लिए शोकगीत गाते हैं
जो कपड़ों से प्यार करते हैं और आदमी से डरते हैं
वे माहिर लोग हैं रामसिंह
वे हत्या को भी कला में बदल देते हैं
यह कविता अपने क्रान्तिकारी वक्तव्य के अलावा रामसिंह के फौजी जीवन के ब्यौरों के साथ पहाड़ के स्मृति-बिम्बों को एक विरोधाभासी कथ्य-संयोजन में रखने की वजह से भी याद की गयी। ऐसे बिम्ब तब तक हिन्दी कविता में बहुत नहीं आये थे : ‘पानी की तरह साफ़़ खुशी’, ‘घड़े में गड़ी हुई दौलत की तरह रक्खा गुड़’, ‘हवा में मशक्कत करते पसीजते चीड़ के पेड़’, ‘नींद में सुबकते घरों पर गिरती हुई चट्टानें’, ‘घरों में भीतर तक घुस आता बाघ’ ऐसे ही सघन दृश्य हैं। हाथी, ऊँट, गाय, पपीता, इमली, समोसे वगैरह पर लिखी कविताओं की संरचना विवरणात्मक और निबन्ध सरीखी है। ‘गाय’ कविता की प्रारम्भिक पंक्तियाँ—‘वह एक गाय है/धुँधला सफेद है उसका रंग/ वह घास चर रही है/ वहाँ जहाँ बरसात ने मैदान बना दिया है/ जब वह चरती है तो चर्र-चर्र करती है’—तीसरी-चौथी कक्षा के किसी बच्चे के वाक्यों की याद दिलाती है जिसे परीक्षा में गाय पर निबन्ध लिखने के लिए कहा गया हो। यह संघ परिवार की करतूतों और साम्प्रदायिक धर्मतन्त्र, द्वारा एक आक्रामक धार्मिक प्रतीक में बदल दी गयी गाय नहीं, बल्कि भारतीय गाँवों और किसान जीवन के ‘सेकुलर स्पेस’ की प्राणी है। कई वर्ष पहले ‘इसी दुनिया में’ की समीक्षा करते हुए रवींद्र त्रिपाठी ने लिखा था कि ‘कवि गाय को धार्मिक संदर्भों से मुक्त कर उसे आत्मीय रूप में प्रस्तुत करता है। यह भारतीय मनुष्य और गाय के उदात्तीकृत रिश्ते का एहसास है।’ इसी संग्रह की ‘इलाहाबाद :1970’ और ‘सड़क के लिए सात कविताएँ’ भी चर्चा में रहीं जो इलाहाबाद को तत्कालीन साहित्यिक माहौल में अनोखे ढंग से देखती थीं : ‘छूटते हुए छोकड़ेपन का गम, कड़की, एक नियामत है डोसा/ कॉफी हाउस में थे कुछ लघुमानव, कुछ महामानव/ दो चे गेवारा/ मनुष्य था मेरे साथ रमेन्द्र /उसके पास थे चार रुपये।’
संग्रह की एक और कविता में वीरेन मनुष्य के दुःख की पहचान एक नये और भौतिक ढंग से करते हैं, उसे ‘भाप की तरह तैरते हुए’ देखते हैं, अँधेरे में भी उसकी सच्चाई से साक्षात्कार करते हैं और फिर उससे एक सार्थक राजनीतिक आयाम दे देते हैं : ‘नकली सुखी आदमी की आवाज़ में/टीन का पत्तर बजता है/ मसलन मारे गये लोगों पर/राजपुरुष का रुँधा हुआ गला।’ इस तरह के अप्रत्याशित अर्थ-स्तर वीरेन की कविता में बहुत बार आते हैं और एक कथ्य अचानक एक ज़्यादा व्यापक अनुभव तक चला जाता है। मुक्तिबोध ने जब ‘कविता की स्थानान्तरगामी प्रवृत्ति’ की ज़रूरत का जि़क्र किया था तो उनका आशय ऐसे ही विस्तारों से रहा होगा। ‘तोप’ शीर्षक कविता इसकी एक सुन्दर मिसाल है जो कवि की प्रतिबद्धता, अन्याय के साधनों और जन-सघर्षों से जुड़ी ऐतिहासिक प्रक्रियाओं को बतलाती है। सन् 1857 की जन-क्रान्ति का दमन करने के काम आयी एक औपनिवेशिक तोप का मौजूदा हाल यह है कि उस पर बच्चे घुड़सवारी करते हैं और चिड़ियाँ कभी उसके ऊपर और कभी भीतर बैठकर गपशप करती हैं। अन्त में कवि कहता है : ‘कितनी भी बड़ी हो तोप/ एक दिन तो होना ही है उसका मुँह बन्द।’ दरअसल वीरेन आरम्भ से ही एक अलग किस्म के कवि के रूप में सामने आये और ‘इसी दुनिया में’ आठवें दशक की कविता का एक प्रमुख दस्तावेज़ बन गया।
ग्यारह साल बाद सन 2002 में वीरेन का दूसरा संग्रह ‘दुश्चक्र में स्रष्टा’ प्रकाशित हुआ, जिस पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। कुछ समय तक यह तुलना भी होती रही कि दोनों संग्रह हस्ताक्षर-कविता बने। ‘उजले दिन ज़रूर’ को प्रतिबद्ध जनवादी कथ्य के कारण ‘इतने भले नहीं बन जाना साथी’ और ‘हमारा समाज’ जैसी पहले संग्रह की कविताओं के साथ बहुत सी साहित्यिक गोष्ठियों और ख़ासकर जनसंस्कृति मंच और ‘हिरावल’ के कार्यक्रमों में गाया जाने लगा। इसी दौर में वीरेन ने नाजि़म हिकमत की कई कविताओं का प्रभावशाली अनुवाद किया, जिनकी गहरी भावनात्मकता की छाप भी उन पर पड़ी।
‘दुश्चक्र में स्रष्टा’ वीरेन की बेहतरीन कविताओं में शामिल है। यह किसी अज्ञात ईश्वर, किसी ‘करुणानिधान’ से किये गये शिकवे की तरह है, जिसमें प्रकृति के विशाल कारोबार को, नदी, पर्वत, हाथी की सूँड़, कुत्ते की जीभ और दुम, मछली, छिपकली और आदमी की आँतों के जाल को ‘भगवान का कारनामा’ करार देते हुए समकालीन यथार्थ का भयावह परिदृश्य है और मौजूदा अमानुषिकताओं-विरूपणों के बारे में विचलित करने वाले सवाल पूछे गये हैं :
नहीं निकली कोई नदी पिछले चार-पाँच सौ सालों से
जहाँ तक मैं जानता हूँ
न बना कोई पहाड़ या समुद्र
एकाध ज्वालामुखी ज़रूर फूटते दिखाई दे जाते हैं कभी-कभार।
बाढ़ें तो आयीं खैर भरपूर, काफ़ी भूकम्प,
तूफान खून से लबालब हत्याकाण्ड अलबत्ता हुए खूब
खूब अकाल, युद्ध एक से एक तकनीकी चमत्कार
रह गयी सिर्फ़ एक सी भूख, लगभग एक सी फौजी
वर्दियाँ जैसे
मनुष्य मात्र की एकता प्रमाणित करने के लिए
एक जैसी हुंकार, हाहाकार!
प्रार्थनागृह ज़रूर उठाये गये एक से एक आलीशान!
मगर भीतर चिने हुए रक्त के गारे से
वे खोखले आत्माहीन शिखर-गुम्बद-मीनार
ऊँगली से छूते ही जिन्हें रिस आता है खून!
आख़िर यह किनके हाथों सौंप दिया है ईश्वर
तुमने अपना इतना बड़ा कारोबार?’
‘दुश्चक्र में स्रष्टा’ हमारे समाज, लोकतन्त्र और मनुष्य की आत्मिक संरचना में आये क्षरण और गिरावट को दर्ज करता है। ‘हड्डी खोपड़ी ख़तरा निशान’ में जब वीरेन कहते हैं कि ‘अब दरअसल सारे ख़तरे ख़त्म हो चुके हैं/ प्यार की तरह’ तो वे एक आत्म-केन्द्रित, ख़ुदगर्ज़, और संवेदना-रहित होते जाते समाज पर गहरा व्यंग्य करते हैं। ऐसी रचनाओं में ख़ास तौर से लोकतन्त्र पर बढ़ने वाले संकटों और साम्प्रदायिक ताकतों के उन्माद की तीखी प्रश्नाकुल चीरफाड़ मिलती है : ‘पर हमने कैसा समाज रच डाला है/ इसमें जो दमक रहा, शर्तिया काला है/ वह क़त्ल हो रहा सरे आम सड़कों पर/ निर्दोष और सज्जन, जो भोला-भाला है/ किसने ऐसा समाज रच डाला है/ जिसमें बस वही दमकता है जो काला है?’ अयोध्या में बाबरी मस्जिद के साजि़शी विध्वंस की त्रासदी पर लिखते हए वीरेन दो कविताओं में निराला को याद करते हैं और राम और निराला, दोनों को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर राष्टीय स्वयंसेवक संघ की साम्प्रदायिक-फ़ासिस्ट ताकतों के प्रतिरोध का औज़ार बना देते हैं। ‘अयोध्या-फैज़ाबाद’ भी निराला की एक कविता-पंक्ति को उद्धृत करते हुए कहती है :
वह एक और मन रहा राम का
जो न थका
इसीलिए रौंदी जा कर भी
मरी नहीं हमारी अयोध्या
इसीलिए हे महाकवि, टोहता फिरता हूँ मैं
इस
अँधेरे में
तेरे पगचिह्न।
एक छन्दबद्ध कविता ‘उजले दिन ज़रूर’ में भी देश और समाज के हालात बतलाने के लिए निराला की ‘राम की शक्ति पूजा’ का संदर्भ है : ‘आकाश उग़लता अन्धकार फिर एक बार/ संशय विदीर्ण आत्मा राम की अकुलाती/होगा वह समर, अभी होगा कुछ और बार/ तब कहीं मेघ ये छिन्न-भिन्न हो पायेंगे/ आयेंगे उजले दिन ज़रूर आयेंगे।’ ‘रात-गाड़ी’ भी संग्रह की एक अहम कविता है हालाँकि उसकी चर्चा ज़्यादा नहीं हुई। वह ‘दीन और देश’ यानी नैतिकता और समाज के विकृत-अमानवीय परिदृश्य की पड़ताल करती है जहाँ एक तरफ ‘बेरोज़गारों के बीमार कारखानों जैसे विश्वविद्यालय’ हैं, ‘राजधानियाँ गुण्डों के मेले हैं’, ‘कलावा बाँधे गदगद खल विदूषक’ हैं जो ‘सोने के मुकुट पहनकर फोटो उतरवा रहे’ हैं, और दूसरी तरफ ‘बेघर बेदाना बिना काम के मेरे लोग/ चिन्दियों की तरह उड़े चले जा रहे हैं/ हर ठौर देश की हवा में।’ दो विसंगतियों को एक साथ रखने की इस प्रविधि में हमें पूरा देश दिखाई दे जाता है जिसकी आख़िरी पंक्तियों में कवि कहता है : ‘खुसरो की बातों में संशय है/ खुसरो की बातों में डर है/ इसी रात में अपना भी घर है’। ‘माथुर साहब को नमस्कार’ भी ऐसी ही कम चर्चित कविता है, जो दो व्यक्तियों के माध्यम से मनुष्यता की निरन्तरता और उसमें कवि की अटूट आस्था को मर्म छूने वाले ढंग से रेखांकित कर जाती है। इस प्रसंग में कवि को कहीं अचानक अपने गणित के दिवंगत अध्यापक माथुर साहब दिखाई दे जाते हैं, लेकिन फिर पता चलता है कि वे कोई श्रोत्री जी हैं जिन्हें कवि ने माथुर सर समझ कर नमस्कार किया है। माथुर साहब की अनुपस्थिति में श्रोत्री जी की उपस्थिति समूची मनुष्य जाति से प्रेम का एक मार्मिक वक्तव्य निर्मित करती है : ‘लोगों में ही दीख जाते हैं लोग भी/ लोगों में ही वे बच रहते हैं/ किसी चमकदार सुघड़ मज़बूत विचार की तरह/ दीख जाते हैं कौंधकर जब लग रहा होता है ‘सब कुछ ख़त्म हुआ’/शुक्रिया श्रोत्रीजी माथुर सर शुक्रिया/याद रखूँगा मैं अपना सीखा गणित का एकमात्र सूत्र/ ‘शून्य ही है सबसे ताकतवर संख्या/ हालाँकि सबसे नगण्य भी।’
वैचित्र्य-विरूप और कौतुक को, जि़न्दगी के ऊटपटाँगपन को देखने की वीरेन की लाजवाब क्षमता भी इस संग्रह की कई कविताओं में सामने आयी। मिसाल के लिए, यूनानी संगीतकार यान्नी की अगवानी में लिखी गयी ‘डीज़ल इंजन’। यान्नी ने कुछ वर्ष पहले ताजमहल के सामने अपना संगीत प्रस्तुत किया था। यान्नी संगीत के हमारे देसी माहौल में उसी तरह की उपस्थिति हैं जैसे कोयला इंजन के रोमांच की दुनिया में बेसुरे भड़भड़ करते डीज़ल इंजन का आगमन। यह छोटी सी कविता रेल में डीज़ल इंजन और संगीत में यान्नी का एक साथ इस तरह स्वागत करती है : ‘आओ जी, आओ लोहे के बनवारी/अपनी चीकट में सने-बने/यह बिना हवा की पुष्ट देह/ यह भों-पों-पों/ आओ पटरी पर खड़कताल की संगत में/ विस्मृत हों सारे आर्तनाद / आओ, आओ चोखे लाल/ आओ, आओ चिकने बाल/ आओ, आओ दुलकी चाल/ पीली पट्टी लाल रूमाल/ आओ रे, अरे, उरे, उपूरे, परे, दरे, पूरे, दपूरे/ के रे केरे?’ यह देखना दिलचस्प है कि वीरेन किस तरह डीज़ल इंजन और यान्नी के बीच एक सम्बन्ध बनाते हैं। दोनों का संगीत हमारे अपने ध्वनि-सहचर्यों को दबा देता है और उस विसंगति को पैदा करता है जो हमारे अपने जीवन-स्वर को विस्मृत करती हुई एक विरूपता को प्रविष्ट करा देती है। कविता की अन्तिम पंक्तियाँ : ‘आओ रे, अरे, उरे, उपूरे, परे, दरे, दपूरे, के रे, केरे’ के विन्यास में सतह पर कुछ अपरिचित शब्द हैं और इन शब्द-समुच्चयों को हम उत्तर रेल, उत्तर-पूर्व रेल, पश्चिम और दक्षिण रेल, दक्षिण-पूर्व रेल और केन्द्रीय रेल जैसे अर्थों में ले सकते हैं, लेकिन यहाँ वे अपने अर्थों से विच्छिन्न संकेतकों का रूप भी ग्रहण कर लेते हैं और ध्वनियों का एक विरूप पैदा करते हैं।
‘घोड़ों का बिल्ली अभिशाप’, ‘काम-प्रेम’, ‘गप्प-सबद’ और ‘कुछ नयी कसमें’ भी ऐसी रचनाएँ हैं जिनमें वीरेन शिल्पगत तोड़फोड़ करते हैं और अनुभवों के विद्रूप की चीरफाड़ भी करते हैं। ‘कुछ नयी कसमें’ विचित्र ढंग से ‘हल्दीराम भुजिया की कसम/ रिलायंस के तेल की कसम/ प्रमोद महाजन की कसम, कालू वितर्णा की कसम/ भाईचुंग भूटिया की कसम’ खाती हुई अन्त में कुछ सुन्दर-साधारण-सुखद चीज़ों की कसमें खाकर एक प्रतिरोधात्मक कविता बन जाती है : ‘फिर भी लेता हूँ फूलमती तिराहे की कसम/ पुल बंगश की कसम/ चमेली की बगिया की कसम/ ठंडी रसमलाई की कसम/ सिविल लैन इलाहाबाद की कसम/ सेमल की रूई जैसे कुरकुरे कोहरे से भरे / नैनीताल की कसम/ जो चीज़ तू है कोई और नहीं।’ ऐसी कविताओं का उद्देश्य सिर्फ़ भाषाई खिलवाड़ या कौतुक नहीं है। इन कसमों के ज़रिये वीरेन यह भी बताते चलते हैं कि साधारण चीज़ों-जगहों के कसम खाने में एक असाधारणता और वर्गीय विशिष्टता निहित है। इस अर्थ में ये कसमें कवि की राजनीतिक प्रस्थापनाएँ भी हैं।
एक और कविता ‘सूअर का बच्चा’ वीरेन की बारीक निरीक्षण क्षमता, ब्यौरों की पकड़, छन्द-प्रयोग और ठेठ देसी किस्म के सौन्दर्यशास्त्र का सुन्दर उदाहरण है। पहली बारिश में ‘धुल-पुँछकर अंग्रेज़़’ बना हुआ सूअर का बच्चा अपनी आँखों से सड़क के जो दृश्य देखता है, उनका इतना राग-भरा वर्णन एक दुर्लभ अनुभव है जो वीरेन के अलावा शायद नागार्जुन या त्रिलोचन या नगरीय प्रसंगों में रघुवीर सहाय के यहाँ ही मिल सकता है। वे एक कस्बे की सड़क के दृश्य हैं जिनमें आम तौर पर कोई आकर्षण नहीं होता, लेकिन वीरेन सूअर के बच्चे की आँखों से देखे गये दृश्यों को इतना कोमल और उदात्त बना देते हैं कि वह एक क्लासिकी अनुभव में बदलने लगता है : ‘पहले-पहल दृश्य दीखते हैं इतने अलबेले/ आँखों ने पहले-पहले अपनी उजास देखी है/ ठण्डक पहुँची सीझ हृदय में अद्भुत मोद भरा है/ इससे इतनी अकड़ भरा है सुअर का बच्चा।’ पहले इस कविता का उपशीर्षक ‘सूअर के बच्चे का प्रथम वर्षा दर्शन’ था। सूअर का बच्चा वीरेन की निगाह में किसी भी दूसरे मानवीय या मानवेतर शिशु जैसी ही, बल्कि शायद उससे भी अधिक कोमल-निश्छल उपस्थिति है। दरअसल मनुष्यों, पशु-पक्षियों, वनस्पतियों और खाद्य सामग्री का भी एक निम्न वर्ग, एक ‘सबॉल्टर्न’ होता है, जिससे वीरेन को मानव जाति जैसा ही लगाव है। ‘समोसे’ इस संदर्भ में एक प्रतिनिधि उदाहरण है। इसमें एक आम निम्नवर्गीय दुकान का जि़क्र है जहाँ ‘कढ़ाई में सनसनाते समोसे’ बन रहे हैं : ‘बड़े झरने से लचक के साथ/ समोसे समेटता कारीगर था/दो बार निथारे उसने झन्नफन्न/ यह दरअसल उसकी कलाकार/ इतराहट थी/ तमतमाये समोसों के सौन्दर्य पर/ दाद पाने की इच्छा से पैदा’, और फिर—‘कौन अभागा होगा इस क्षण/ जिसके मन में नहीं आयेगी एक बार भी/ समोसा खाने की इच्छा।’ जब कवि समोसे खाने के लिए लपकता है, तब तक समोसे बनाता कलाकार और समोसे की कलात्मकता इतने स्वायत्त हो उठते हैं कि अपना सौन्दर्यशास्त्र निर्मित कर लेते हैं और उनके सामने समोसे के लिए ललचाता व्यक्ति कुछ अप्रासंगिक हो उठता है। वीरेन का हुनर यह है कि वे मनुष्य के उपभोग में आने वाली चीज़ों को मनुष्य से अलग करके स्वतन्त्र और स्वायत्त बना देते हैं।
वीरेन की संवेदना के एक सिरे पर नागार्जुन जैसे जनकवि की देसीपन और यथार्थवाद है तो दूसरे सिरे पर शमशेर जैसे ‘सौन्दर्य के कवि’ हैं और दोनों के बीच कही निराला की उपस्थिति है। तीनों मिलकर उनके काव्य- विवेक की त्रिमूर्ति निर्मित करते हैं और अपने वक्त के अँधेरे से लड़ने की राह दिखाते हैं : ‘कवि हूँ मैं पाया है प्रकाश।’ ‘शमशेर’ शीर्षक कविता एक बड़े कवि के विकल जीवन को बहुत कम शब्दों में दर्ज करती है : ‘अकेलापन शाम का तारा था/ इकलौता/ उसे मैंने गटका/ नींद की गोली की तरह/ मगर मैं सोया नहीं।’ दरअसल पूर्वजों से लगातार संवाद करती वीरेन की कविता भाषा का भी एक नया देशकाल रचती है, जिसमें तत्सम-तद्भव आपस में घुले-मिले हैं और अक्सर तत्सम की जगह तद्भव है या इसका उलट है। उनके राजनीतिक-नैतिक सरोकार और ठेठ देशज अनुभव क्लासिक आयाम से जुड़कर एक संश्लिष्ट काव्य-व्यक्तित्व बनाते हैं। यह अन्तरक्रिया तब और भी दिखती है जब वे शमशेर जैसी सौन्दर्य की ऊँचाई पर जाते हैं और वहाँ एक नागार्जुन खड़े मिलते हैं और जब नागार्जुन के निपट निरलंकार यथार्थ को खोजते हैं तो वहाँ एक शमशेर मौजूद होते हैं। इन दो बड़ी परम्पराओं के भीतर काम करते हुए वीरेन प्रचलित काव्य-प्रविधियों में एक ज़रूरी विखण्डन भी पैदा करते हैं और सौन्दर्य, प्रेम और संघर्ष की निम्नवर्गीयता को कसकर थामे रहते हैं। इसके लिए वे भाषायी अराजकता को भी अपनाते हैं, कई प्रचलित देशज शब्दों का इस्तेमाल करते हैं या पुराने शब्दों को नयों की तरह बरतते हैं।
वीरेन का तीसरा संग्रह ‘स्याही ताल’ सन 2010 में प्रकाशित हुआ, जिसमें उनकी बेचैनी और बेफिक्री, समकालीन हताशा और बुनियादी उम्मीद के भरपूर साक्ष्य मिलते हैं। ‘कटरी की रुकुमिनी और उसकी माता की खण्डित कथा’ जैसी कुछ लम्बी कविता में वीरेन अपने भयावह समय को एक खण्डित गद्यात्मक कथा में पढ़ते हैं। यह एक चिन्तित मनुष्य की कविता है जो समाज के ‘सड़ते हुए जल’ में देखता है कि किस तरह एक कस्बाई जीवन में ग्राम प्रधान, दारोगा और स्मैक तस्कर वकील का भ्रष्ट त्रिकोण घुसपैठ कर चुका है। वह एक गरीब विधवा की चौदह वर्ष की बेटी को अपना शिकार बनाना चाहता है। यह एक दुर्वह-दुस्सह अनुभव के ब्यौरों की कविता है जिसके और भी बर्बर और डरावने रूप आज हमारे समाज में बढ़ रहे बलात्कारों, बेरहमियों और हिंसा में दिखाई दे रहे हैं। ‘ऊधो, मोहि ब्रज’ में इलाहाबाद के ‘अमरूदों की उत्तेजक लालसा-भरी गन्ध’ को याद करने के साथ ही वीरेन कहते हैं : ‘अब बगुले हैं या पण्डे हैं या कउवे हैं या वकील/नर्म भोले मृगछौनों के आखेटोत्सुक सियार।’ यह सिर्फ़ मोहभंग नहीं है, बल्कि एक नये डरावने समय में आशंकित मन की मुक्तिबोधीय चिन्ता है।
‘स्याही ताल’ वीरेन डंगवाल के जीवन की दो त्रासद घटनाओं का दस्तावेज़ भी है : पिता की मृत्यु, और ख़ुद की बीमारी, जो सारी उम्मीदों के ख़िलाफ़ असाध्य और अन्तत: प्राणघातक बनती गयी। ‘रॉकलैंड डायरी’ बीमारी के दौरान अस्पताल में देखे-सोचे गये दृश्यों की डरावनी फैण्टेसी है और अनायास मुक्तिबोध की प्रसिद्ध कविता ‘अँधेरे में’ की याद दिलाती है : ‘विभ्रम/ दु:स्वप्न /कई धारावाहिक कूट कथाओं की रीलें/ अलग-बगल एक साथ चलतीं,/ जनता, हाँ जनता को रौंद देने के लिए उतरीं/ फौजी गाड़ियों की तरह/ हृदय में घृणा और जोश भरे/ साधु-सन्त-मठाधीश-पत्रकार दौलत के लिज-गिल-गिल/ पिछलग्गू /ललकारते जाति को एक नये विप्लव के लिए।’ चार कवितांश पिता की बीमारी, मृत्यु, अन्तिम संस्कार और फिर स्मृति से सम्बन्धित हैं और अन्त में पिता स्मृति में इस तरह बच रहते हैं : ‘एक शून्य की परछाईं के भीतर/ घूमता है एक और शून्य पहिये की तरह/ मगर कहीं न जाता हुआ/ फिरकी के भीतर घूमती एक और फिरकी/ शैशव के किसी मेले की।’ लेकिन गौरतलब है कि तमाम हताशाओं के बावजूद वीरेन उस उम्मीद को कभी ओझल नहीं होने देते जो यह मानती है कि ‘आदमी कमबख़्त का सानी नहीं है/फोड़कर दीवार कारागार की इंसाफ़़ की खातिर/तलहटी तक ढूँढ़ता है स्वयं अपनी राह।’ अपने जहाज़ी बेटे के लिए लिखी गयी इस कविता ‘उठा लंगर खोल इंजन’ में वीरेन कहते हैं : ‘हवाएँ रास्ता बतलायेंगी/ पता देगा अडिग रुख/ चम-चम-चमचमाता/ प्रेम अपना/ दिशा देगा/ नहीं होंगे जबकि हम तब भी हमेशा दिशा देगा/लिहाजा/ उठा लंगर खोल इंजन छोड़ बन्दरगाह।’
गम्भीर बीमारी और सर्जरी के बावजूद वीरेन ने लिखना जारी रखा और उनकी जो भी अब तक असंकलित कविताएँ हैं, वे दो बदलावों का संकेत करती हैं : वे संवेदना और अनुभव के उन स्रोतों की ओर मुड़ रहे थे जिनमें या तो स्थानीयता और कुछ ‘पहाड़ीपन’ था या जिनसे ‘रामसिंह’ जैसी जुझारू कविता सम्भव हुई थी, और शिल्प के स्तर पर भी वे उस रास्ते को अपना रहे थे जिसका जि़क्र उन्होंने पिछले संग्रह में किया था : ‘इसीलिए एक अलग रस्ता पकड़ा मैंने/ फितूर सरीखा एक पक्का यकीन।’ एक लम्बी नाटकीय रचना ‘परिकल्पित कथालोकान्तर काव्य-नाटिका नौरात शिवदास और सिरीभोग वगैरह’ ख़ास तौर से ध्यान खींचती है जो लोक-कथा की शक्ल में एक प्रतिभाशाली दलित ढोल-कलाकार और एक रानी के प्रेम सम्बन्धों और राजा द्वारा उसकी हत्या के षड्यन्त्र के इर्दगिर्द बुनी गयी है, लेकिन ख़ास बात यह है कि सोने की तलवार से मारे जाने से पहले ही ढोलवादक राजा को पीटकर फरार हो जाता है। इस घटना के वर्षों बाद उस वादक का पोता शिवदास कथा के प्रसंग में एक नया गीत जोड़ता हुआ एक बड़े संघर्ष का आवाहन करता है :
राज्जों, वजीरों का, शास्रों-पुराणों का नाश हो
जिन्होंने हमें ग़ुलाम बनाया
इन तैंतीस करोड़ देवताओं का नाश हो
जो अपनी आत्मा जमाये बैठे हैं
हिमालय की बर्फीली चोटियों में
किसने सताया तुम्हें-हमें
इन पोथियों-पोथियारों, ताकतवालों ने
इनका नाश हो
इस रास्ते पर आगे बढ़ते हुए वीरेन कविता के नये पड़ावों की ओर जा रहे थे, लेकिन असामयिक और दुखद मृत्यु ने उनके सफ़र को रोक दिया। उनकी आख़िरी कविताओं में यह एहसास विकल रूप में दिखता है हालाँकि उसके साथ उम्मीद का दामन भी नहीं छूटता : ‘ये दिल मेरा ये कमबख़्त दिल/ डॉक्टर कहते हैं ये फिलहाल सिर्फ़ पैंतीस फ़ीसद काम कर रहा है/ मगर ये कूदता है शामी कबाब और आइसक्रीम खाता है/ भागता है/ शामिल होता है जुलूसों में धरनों पर बैठता है/ इंक़लाब जि़न्दाबाद कहते हुए/ या कोई उम्दा कविता पढ़ते हुए अब भी भर लाता है/ इन दुर्बल आँखों में आँसू/ दोस्तो-साथियो मुझे छोडऩा मत कभी/ कुछ नहीं तो मैं तुम लोगों को देखा करूँगा प्यार से/ दरी पर सबसे पीछे दीवार से सटकर बैठा।’ इसी नाउम्मीद सी उम्मीद के भीतर वीरेन मौजूदा देश-समाज का जायज़ा लेने से नहीं चूकते : ‘हमलावर बढ़े चले आ रहे हैं हर कोने से/ पंजर दबता जाता है उनके बोझे से/ मन आशंकित होता है तुम्हारे भविष्य के लिए/ ओ मेरी मातृभूमि ओ मेरी प्रिया/ कभी बतला भी न पाया कि कितना प्यार करता हूँ तुमसे मैं।’ यह गौरतलब है कि वैचारिक प्रतिबद्धता और जनता के संघर्षों पर विश्वास वीरेन डंगवाल की कविता और व्यक्तित्व में अन्त तक बने रहे और उनकी आरम्भिक प्रस्थापना की ताईद करते रहे : ‘एक कवि और कर भी क्या सकता है/ सही बने रहने के अलावा।’ यह आकस्मिक नहीं है कि रघुवीर सहाय की प्रसिद्ध कविता का ‘रामदास’ वीरेन के आख़िरी दौर में अस्पताल में असाध्य बीमार पड़े हुए ‘रामदास-2’ के रूप में लौट आता है।
हर कवि की एक मूल संवेदना होती है जिसके इर्द-गिर्द उसके तमाम अनुभव सक्रिय रहते हैं। इस तरह देखें तो वीरेन के काव्य-व्यक्तित्व की बुनियादी भावना प्रेम है। ऐसा प्रेम किसी भी अमानुषिकता और अन्याय का प्रतिरोध करता है और उन्मुक्ति के संघर्षों की ओर ले जाता है। ऐसे निर्मम समय में जब समाज में लोग ज़्यादातर घृणा कर रहे हों और प्रेम करना भूल रहे हों, मनुष्य के प्रति प्रेम की पुनर्प्रतिष्ठा ही सच्चे कवि का सरोकार हो सकता है। शायद इसीलिए वीरेन की कविता में वर्गशत्रु या अँधेरे की ताकतों से नफ़रत उतनी नहीं है, बल्कि बर्बर ताकतों का तिरस्कार ज़्यादा है।
यह कविता इसीलिए एक अजन्मे बच्चे को माँ की कोख में फुदकते, रंगीन गुब्बारे की तरह फूलते-पचकते, कोई शरारत-भरा करतब सोचते हुए महसूस करती है या दोस्तों की बेटियों को एक बड़े भविष्य का दिलासा देती है। एक पेड़ के पीले-हरे उकसे हुए, चमकदार पत्तों को देखकर वह कहती है : ‘पेड़ों के पास यही तरीका है/ यह बताने का कि वे भी दुनिया को प्यार करते हैं।’ शायद इसीलिए वीरेन ‘कत्थई गुलाब वाले’ शमशेर के बहुत निकट हैं, उन्हें बार-बार याद करते हैं और शमशेर के जीवन का निचोड़ और ख़ुद हमारे समाज का निर्मम हाल बतलाते हैं : ‘मैंने प्रेम किया/ इसी से भोगने पड़े/ मुझे इतने प्रतिशोध।’
यह देखकर आश्चर्य हो सकता है कि ‘पूरे संसार को ढोनेवाली/ नगण्यता की विनम्र गर्वीली ताकत’ की पहचान और प्रतिष्ठा करती हुई वीरेन डंगवाल की कविता अपने कलेवर में इतने अधिक प्राणियों और वस्तुओं को, उनके विशाल धड़कते हुए अस्तित्व को समेटती चलती रही। हिन्दी कविता में यह एक दुर्लभ घटना है जब कोई कवि अपने से इतना अधिक बाहर रहकर, इतना अधिक बाह्यान्तर से जुड़कर सार्थक सृजन कर पाया है। कविता से बाहर भी वीरेन के दोस्तों और प्रशंसकों की दुनिया इतनी बड़ी थी जितनी शायद किसी दूसरे समकालीन कवि की नहीं रही होगी। उनके निधन पर असद ज़ैदी ने मीर तकी ‘मीर’ की एक रुबाई का हवाला दिया था जिसमें किसी ऐसे व्यक्ति से मिलने की ख्वाहिश ज़ाहिर की गयी है जो सचमुच मनुष्य हो, जिसे अपने हुनर पर अहंकार न हो, जो अगर कुछ बोले तो एक दुनिया सुनने के लिए एकत्र हो जाये और जब वह ख़ामोश हो तो लगे कि एक दुनिया ख़ामोश हो गयी है। वीरेन की शख़्सियत ऐसी ही थी, जिसके ख़ामोश हो जाने से लोगों और कविताओं की विस्तृत दुनिया में जो उदास ख़ामोशी व्याप्त हुई थी, वह अब तक महसूस होती रहती है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्त 2021
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