संकट से गुज़रता क्यूबा: यह उथल-पुथल अप्रत्याशित नहीं
लता
क्यूबा, करेबियन सागर स्थित एक द्वीप जो अमेरिकी साम्राज्यवाद को आइना दिखाने के लिए अक्सर चर्चा में रहा है, इस वर्ष जुलाई में फिर सुर्खियों में था। लेकिन इस बार सुर्खियों में होने की वजह अमेरिका नहीं बल्कि स्वयं क्यूबा का अन्तरिक मामला था। हज़ारों की संख्या में लोग दियास कानाल की मौजूदा सरकार के ख़िलाफ़ सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे थे। 1994 के बाद क्यूबा में यह पहला इतना बड़ा प्रदर्शन या जनाक्रोश सड़कों पर देखने को मिला है। आक्रोश का तात्कालिक मुद्दा कोरोना के काल में डगमगाई अर्थव्यवस्था की वजह से उत्पन्न बेरोज़गारी, भोजन आपूर्ति की समस्या और लड़खड़ाई स्वास्थ्य सुविधाएँ रहीं। हालाँकि, स्वास्थ्य सुविधाओं और शिक्षा में प्रयोगों के क्षेत्र में क्यूबा की अपनी साख रही है। लेकिन लम्बे समय से डगमगाई अर्थव्यवस्था की वजह से स्वास्थ्य सुविधाएँ पहले से कुछ कमज़ोर पड़ी थीं, जो कोरोना की दूसरी लहर से उत्पन्न दबाव में चरमरा गयीं। जैसा कि वहाँ के लोगों का कहना था कि उनके आर्थिक संकट लम्बे हैं और अमेरिका की घेरेबन्दी ने इसे और गहरा बना दिया है। दियास कानाल के ख़िलाफ़ लोगों की नाराज़गी है ही, साथ ही लम्बे समय से चली आ रही अमेरिकी घेरेबन्दी के ख़िलाफ़ भी लोगों में नाराज़गी थी। सच्चाई यह है कि उसने अपने साम्राज्यवादी हितों की रक्षा के लिए जनता के आन्दोलनों को कुचला है और कठपुतली या तानाशाह सत्ताओं की स्थापना की है। जनता द्वारा तानाशाहों का तख़्तापलट; स्वयं अपनी सरकार का चुना जाना; प्रशासन और निर्णय में प्रत्यक्ष भागीदारी अमेरिका के जनवाद की व्याख्या में फिट नहीं बैठते। इसलिए अमेरिका ने कोरिया, वियतनाम, इण्डोनेशिया, लाओस, कम्बोडिया, चिले, अर्जेण्टीना, बोस्निया, कोसोवो, हायती के अलावा कई देशों में क्रान्तियों को समाप्त करने का प्रयास किया या जनवादी प्रक्रिया से चुनी सरकारों का तख़्ता पलट करवाया। अमेरिका के ऐसे कुत्सित कार्यों की सूची इतनी लम्बी है कि पूरा पन्ना भर जाएगा लेकिन सूची समाप्त नहीं होगी। क्यूबा में भी स्पेनी साम्राज्य के काल से ही घुसपैठ कर रहे अमेरिका ने क्रान्ति के विनाश के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा दिया। क्यूबा के सन्दर्भ में अमेरिका के ‘जनवादी’ कारनामों में शामिल है -1961 में ‘बे ऑफ पिग’ हमला, फिदेल कास्त्रो की हत्या की साज़िशें और सबसे महत्वपूर्ण क्यूबा पर लगायी गयी व्यापारिक घेरेबन्दी। अमेरिकी साम्राज्यवाद के इन घृणित कुकर्मों की वजह से जनता में पैठी नफ़रत ने ही बहुत हद तक क्यूबा की क्रान्ति को ज़िन्दा रखा या यूँ कहें कि क्यूबा की क्रान्ति के लम्बे समय तक टिके रहने के पीछे के प्रमुख कारणों में से एक है – अमेरिकी साम्राज्यवाद के खि़लाफ़ वहाँ की जनता की घोर नफ़रत। इसके अलावा लातिन अमेरिका की ‘कउदिल्यों’ परम्परा को भी बहुत हद तक हम महत्वपूर्ण कारक की तरह देख सकते हैं। ‘कउदिल्यों’ की अवधारणा को बहुत कुछ एक नायक/नेता के रूप में समझा जा सकता है; एक ऐसा नायक/नेता या सेनापति जिसकी करिश्माई छवि जनता के बीच उसके प्राधिकार को स्थापित करती है। यह नायक नेता जनता के संघर्षों को नेतृत्व देता है और उसकी मान्यता लगभग प्रश्नों से परे होती है। क्यूबा की जनता के बीच फिदेल कास्त्रो ऐसी ही छवि रखते थे।
क्यूबा के वर्तमान संकट को समझने के लिए हमें इतिहास में कुछ पीछे जा कर इस बात की पड़ताल करनी होगी कि 1959 में क्यूबा की जनता ने जो बहादुराना संघर्ष कर बतिस्ता की तानाशाही उखाड़ फेंकी और साथ में अमेरिकी साम्राज्यवाद को भी क्यूबा से बाहर खदेड़ा, वह क्रान्ति क्यों लम्बे समय से संकट से गुज़र रही है। संकट का काल 1990 के पूर्वार्द्ध से ही आरम्भ हो गया था और धीरे-धीरे अपने प्रगतिशील चरित्र को खोती हुई यह क्रान्ति चीन की तरह के बाज़ार समाजवाद तक पहुँच गयी है। क्यूबा के इतिहास को और ख़ासकर क्यूबा की क्रान्ति के इतिहास को जानना बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि जब भी क्यूबा के सम्बन्ध में कोई ख़बर आती है तो बुर्ज़ुआ मीडिया प्रचार में जुट जाती है कि देखो-देखो एक और समाजवाद असफ़ल रहा। सबसे पहली और सबसे ज़रूरी बात कि क्यूबा की क्रान्ति एक सर्वहारा क्रान्ति नहीं थी; इसका नेतृत्व कोई सर्वहारा पार्टी नहीं कर रही थी और क्रान्ति हो जाने के बाद 1961 में क्यूबा के सामाजवादी राज्य होने की घोषणा की गयी। फिदेल कास्त्रो की पार्टी और वहाँ की कम्युनिस्ट पार्टी पीएसपी (पार्तिदो सोसेलिसता पोपुलार) ने 1965 संयुक्त रूप से ‘क्यूबा की कम्युनिस्ट पार्टी’ का नाम ग्रहण किया। इन सब बातों पर आगे चर्चा करेंगे। मुख्य बात यह है कि क्यूबा की क्रान्ति को हम समाजवादी या सर्वहारा क्रान्ति नहीं कह सकते। अपवादस्वरूप स्थितियों में यह सम्भव हो सकता है कि कोई साम्राज्यवाद विरोधी लोकप्रिय जनपक्षधर पार्टी सत्ता पर कब्ज़े के बाद भी सर्वहारा और लाइन अपना कर समाजवादी राज्य और अर्थव्यवस्था का निर्माण करे। लेकिन क्यूबा में ऐसा होता नज़र नहीं आता और सार में यह कहा जा सकता है कि यहाँ समाजवाद की ओर उन्मुख नीतियों को एक कल्याणकारी राज्य द्वारा लागू किया जा रहा था जिसके पीछे की मूल प्रेरक शक्ति साम्राज्यवाद के प्रति घोर नफ़रत थी। आइये इसे इतिहास में स्थित कर समझने की कोशिश करते हैं।
संक्षेप में क्यूबा की क्रान्ति का इतिहास
1959 में हुई क्यूबा की क्रान्ति एक शानदार परिघटना थी। यह क्रान्ति साम्राज्यवाद को करारा जवाब, बतिस्ता की तानाशाही के अन्त के साथ-साथ आज़ादी के लिए क्यूबा की जनता के लम्बे इन्तज़ार की समाप्ति भी थी। उन्नीसवीं सदी के आरम्भिक दशकों में जब लातिन अमेरिका के देश स्पेनी उपनिवेश के ख़िलाफ़ संघर्ष करते हुए ‘क्रियोल’ नेतृत्व में आज़ाद हो रहे थे, उस समय क्यूबा की ‘क्रियोल’ आबादी दक्षिण अमेरिका में स्पेन के सबसे वफ़ादार उपनिवेश की भूमिका निभा रही थी। क्यूबा की जनता को अभी आज़ादी के विचार और नेतृत्व के लिए 50 वर्षों का लम्बा इन्तज़ार करना बाकी था। लेकिन उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में कई ग़ुलाम विद्रोह हुए। इन ग़ुलाम विद्रोहों ने पुनर्जागरण से प्रभावित स्वतन्त्रता की अवधारणा को प्रभावित किया जो कि बाकी लातिन अमेरिकी देशों की मुख्य धारा की तुलना में ज़्यादा प्रगतिशील था। क्योंकि यहाँ गुलामों की स्वतन्त्रता और समानता के विचार भी पुनर्जागरण प्रभावित स्वतन्त्रता की अवधारणा में शामिल थे। स्पेनी साम्राज्यवाद से मुक्ति की अन्य धाराओं में जिनमें एक सुधारवाद की धारा और दूसरी सीधे अमेरिकी साम्राज्यवाद के आधिपत्य के समर्थन की धारा थी उनमें यह पहलू नदारद थे। बड़े-बड़े गन्ने की खेतों और रैन्च के मालिक अमेरिकी साम्राज्यवाद के वफ़ादार बने रहे और क्रान्ति के बाद भी अपनी लुटी दुनिया वापस लेने के लिए अमेरिकी साम्राज्यवाद के साथ मिल कर विध्वंस का प्रयास करते रहे। ‘बे ऑफ पिग’ हमला उसी का एक उदाहरण है। क्यूबा में अमेरिकी साम्राज्यवाद का सामाजिक आधार भी यही वर्ग था। इन दोनों धाराओं में दूसरी धारा के बारे में तो कुछ कहने की आवश्यकता नहीं लेकिन तथाकथित सुधारवादी धारा भी अश्वेतों की गुलामी को अपरिहार्य बुराई मानती थी।
वैचारिक स्तर पर फेलिक्स वालेरा स्पेनी उपनिवेश से आज़ादी और गुलामी से मुक्ति के पहले चिन्तक थे। 10 अक्टूबर 1868 के आन्दोलन में स्पेनी उपनिवेश से आज़़ादी और ग़ुलाम मुक्ति के विचार आपस में मिले हुए थे। कार्लोस मानुएल सेस्पेदेस ने बाइयानो शहर पर कब्ज़ा कर वहाँ क्रान्तिकारी सरकार की स्थापना की और यहीं से दस वर्ष का युद्ध आरम्भ हुआ। क्यूबा के इतिहास में आज़ादी के लिए चला सबसे लम्बा और सबसे रक्तरंजित युद्ध था यह। अपनी एक तिहाई आबादी को खो कर, बड़ी आबादी के अमेरिका प्रवासित हो कर और बड़े स्तर पर जान-माल की बर्बादी के बावजूद क्यूबा अपनी आज़ादी की लड़ाई हार गया। सेस्पेदे ने 1870 में कहा था कि क्यूबा पर अधिकार जमाने की अमेरिका की गुप्त योजना है और उसकी यह बात 1898 में सच हो गयी। ‘दस वर्ष के युद्ध’ की असफ़लता के बाद भी माम्बिसेस (‘दस वर्ष युद्ध’ के गेरिल्ला योद्धा) के नेतृत्व में आज़ादी का संघर्ष जारी रहा। खोसे मार्ती की विचारधारा ने भी 1868 की विचारधारा को ही आगे बढ़ाया। माम्बिसेस के तीस वर्षों के विद्रोह का चरित्र स्पष्ट रूप से जनवादी, सामाजिक और नस्ली समानतावादी था जो उपनिवेशवाद विरोधी होने के साथ-साथ साम्राज्यवाद विरोधी भी था। 1898 में अमेरिका ने प्रत्यक्ष हस्तक्षेप किया और 30 साल के इस वीरतापूर्ण विद्रोह को बेरहमी से कुचल दिया। अमेरिकी साम्राज्यवाद ने क्यूबा की आम मेहनतकश जनता के सपनों और महत्वाकांक्षाओं को बन्दूक की नली और फौजी बूटों से कुचलते हुए सौनिक सत्ता स्थापित की। इसके बाद कई कठपुतली सरकारें बनी और बीच-बीच में सैन्य तानाशाही के काल रहे।
यदि क्रान्ति के विचारधारात्मक प्रभावों की बात करें तो इसमें कई धाराएँ शामिल थीं, लेकिन प्रमुख धारा माम्बिसेस की ही मानी जायेगी यानी जनवाद, उग्र-समतावाद, कृषि सुधार और साम्राज्यवाद विरोध। आगे की चर्चा विचारधारात्मक प्रभाव पर ही केन्द्रित है। 1898 से 1959 की क्रान्ति तक विद्रोहों के बर्बर दमन के बावजूद साम्राज्यवाद का यह कालखण्ड मज़दूरों, छात्रों, गुलामों और किसानों के संघर्षों और विद्रोहों से भरा हुआ था। निश्चित ही इनमें साम्राज्यवाद विरोध का स्वर सबसे मुखर था जो कि अमेरिकी साम्राज्यवाद के बर्बर दमन और फल व चीनी प्लान्टेश के भयंकर शोषण-उत्पीड़न को देख कर समझा जा सकता है। इसके अलावा विद्रोहों की विचारधारा में वही उग्र-समतावाद, जनवादी कृषि सुधार व आत्मनिर्भरता ही प्रमुख पहलू थे। तानाशाह खेरारदो माचादो के ख़िलाफ़ हुई 1933 की असफ़ल क्रान्ति को 1956 की क्रान्ति का प्रणेता माना जाता है। इसकी मुख्य वजह है दोनों क्रान्तियों की विचारधारात्मक समानता। यह हम कह सकते हैं कि माम्बिसेस की विचारधारा क्यूबा के संघर्षों में विकसित हो रही थी और प्रत्येक संघर्ष के बाद यह उन्नत हो रही थी। इस तरह 1959 की क्रान्ति का सैद्धान्तिक आधार निश्चित ही स्वतन्त्रता के इन कई असफ़ल संघर्षों और सुधार के प्रयासों के विचारधारात्मक आधार की जारी कड़ी ही थी जिसे हम किसी भी रूप में ‘पहले से ही’ समाजवादी या कम्युनिस्ट नहीं कह सकते। 1959 की क्रान्ति के विचारधारात्मक प्रभाव में प्रमुख माम्बिसेस के विचार थे जैसा कि हमने पहले ही स्पष्ट किया है, इसलिए यह अनायास नहीं था कि क्रान्ति के बाद कास्त्रो ने ‘दस वर्षों के युद्ध’ के सेनापति कार्लोस मान्युल दे सेसपेदेस को राष्ट्रपिता घोषित किया। इतना ही नहीं फिदेल कास्त्रो स्वयं किसी कम्युनिस्ट पार्टी से नहीं आते थे। कास्त्रो ‘पार्तिदो ओरथोदॉक्स’ (ऑर्थोडॉक्स पार्टी) के सदस्य थे जिस पार्टी का संस्थापक एदुआर्दो चीबास, एक रईस विद्रोही था। वह 1933 की असफ़ल क्रान्ति के नेता रामोन ग्राऊ सान मार्तीन की पार्टी औतेन्तिको (ऑथेन्टिक) से निकला हुआ था। 1933 की क्रान्ति की असफ़लता के बाद मार्तीन की पार्टी में व्याप्त भ्रष्टाचार देख कर चीबास अलग हो गया और उसने ‘ऑर्थोडॉक्स पार्टी’ का गठन किया। वह भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ रेडियो के साप्ताहिक कार्यक्रमों में बेहद जोश और आक्रोश से बातें करता था और ऐसे ही एक कार्यक्रम में उसने ख़ुद को गोली मार ली थी।
क्रान्ति के एक अन्य महत्वपूर्ण विचारधारात्मक प्रभाव के रूप में हम आन्तोनियो गितेरास को देख सकते हैं। क्यूबा की क्रान्ति में समाजवादी तत्व शामिल करने का योगदान गितेरास का रहा। गितेरास 1933 की असफ़ल क्रान्ति के दौरान रामोन ग्राऊ सान मार्तीन की चार महीने की अल्पकालिक सरकार के गृह मन्त्री थे। उस समय नौजवान गितेरास अभी विश्वविद्यालय में स्नातक की पढ़ाई ही कर रहे थे। खोसे मार्ती की सरकार के उग्र परिवर्तन के निर्णय के पीछे गितेरास का ही हाथ था। हालाँकि ये परिवर्तन लागू हो पाते उसके पहले ही बतिस्ता ने सरकार गिरा दी और सैन्य तानाशाही स्थापित कर दी। गितेरास की विचारधारा समाजवाद के क़रीब थी जिसे मुख्य: पेरू के चिन्तक खोसे मारियातेगी के विचारों का वाहक कह सकते हैं। कास्त्रो की पार्टी के कई सदस्य भी मारियातेगी से प्रभावित थे। इस तरह स्वयं कास्त्रो की पार्टी ‘26 जुलाई मूवमेन्ट’ (एम-26-7) में कई विचारों का प्रभाव था। इस पार्टी की स्थापना 1956 में कास्त्रो ने मेक्सिको में की जहाँ गेरिल्ला योद्धाओं की फौज़ तैयार करने वह गये थे। एरनेस्तो ‘चे’ गेवारा भी कास्त्रो की पार्टी में यहीं शामिल हुए। इसमें प्रमुख स्रोत माम्बिसेस (कार्लोस मान्युल दे सेसपेदेस और आन्तोनियो मासेयो, दस वर्ष युद्ध के सेनापति और उपसेनापति) की लोकप्रिय क्रान्तिकारी परम्परा मानी जायेगी और फिर चीबास, रामोन मार्तीन, गितेरास, मारियातेगी और अन्त में ‘चे’ की फोको विचारधारा। (फोकोवाद, बेहद संक्षेप में कहें तो क्रान्ति को जन युद्ध या आम बगावत तक इन्तज़ार करने की ज़रूरत नहीं। कुछ समर्पित घुमन्तू गेरिल्ला योद्धा किसी भी समय छोटे गेरिल्ला युद्ध आरम्भ कर सकते हैं जो दूसरों के लिए प्रेरणा बनेगें और दूसरों के शामिल होने से गेरिल्ला युद्ध तेज़ी से फैलेगा। फोको स्पेनी शब्द है जिसका अर्थ है स्पॉटलाइट, यानी शुरुआती गेरिल्ला युद्ध स्पॉटलाइट बनेंगे अन्य गेरिल्ला युद्धों के लिए।)
यह चर्चा थी क्रान्ति को नेतृत्व देने वाली कास्त्रो की पार्टी के एम-26-7 के विचारधारात्मक आधार की जो बहुत कुछ थी लेकिन कम्युनिस्ट नहीं। क्यूबा की कम्युनिस्ट पार्टी, पार्तिदो सोसियालिस्ता पोपुलार (पॉप्यूलर सोशलिस्ट पार्टी) क्रान्ति में देर से शामिल हुई लगभग जीत हासिल करने के कुछ पहले। यह पार्टी सोवियत रूस से क़रीबी रखती थी। उस समय रूस में संशोधनवादी निकिता ख्रुश्चेव का शासन था। पीएसपी का मज़दूर आन्दोलनों और बुद्धिजीवियों के बीच कुछ आधार था लेकिन यदि इसकी वैचारिक समझदारी की बात करें तो इसने फिदेल कास्त्रो, ‘चे’ ग्वेरा आदि अन्य गेरिल्ला योद्धाओं को निम्नपूँजीवादी दुस्साहसवादी कहते हुए बतिस्ता का समर्थन किया था। 1958 के अन्त-अन्त तक जब क्रान्ति की जीत तय ही थी तब जाकर पीएसपी ने क्रान्ति का समर्थन किया और इसमें शामिल हुई।
क्यूबा की शानदार क्रान्ति लम्बे समय से चले आ रहे शोषण, उत्पीड़न से मुक्ति और स्वतन्त्रता की चाहत से लबरेज थी जिसमें साम्राज्यवाद विरोधी भावना प्रबल थी। साम्राज्यवाद, भयंकर आर्थिक संकट और बतिस्ता की तानाशाही के ख़िलाफ़ जनता का आक्रोश फूट पड़ा; मज़दूरों ने चीनी मिलों पर कब्ज़ा कर लिया और लाल झण्डे फहरा दिये; छात्रों ने राष्ट्रपति भवन पर कब्ज़ा करने का प्रयास किया और सेना के सिपाहियों ने अफ़सरशाही समाप्त करते हुए सैनिक विद्रोह किया; 1957 से 1 जनवरी 1959 तक क्यूबा मज़दूर हड़तालों, छात्र आन्दोलनों और आम प्रदर्शनों के साथ साथ सेना पर हथियारबन्द हमलों की घटनाओं से भरा हुआ था। यह भयंकर उथल-पुथल का दौर था। 1956 में कास्त्रो और चे अन्य 81 गेरिल्ला योद्धाओं के साथ एक टूटी कैबीन क्रूज़र में मेक्सिको से क्यूबा पहुँचे। बतिस्ता की सेना से युद्ध में आठ नौ योद्धाओं को छोड़ कर सभी मारे गए। लेकिन तानाशाही और साम्राज्यवाद से त्रस्त जनता ‘चे’ और कास्त्रो के गेरिल्ला युद्ध में जल्द ही शामिल होने लगे और यह लोगों में लोकप्रिय होने लगी। यह युद्ध ‘सियेरा मायेस्त्रा’ (प्रमुख पर्वत श्रृंखला) में चल रहा था। उसी समय शहरों में भी छात्रों और मज़दूरों का विद्रोह जारी था। शहरों की क्रान्ति दूर-दराज़ के ग्रामीण इलाकों तक पहुँच गयी जहाँ पहले से ही कास्त्रो के नेतृत्व में गेरिल्ला युद्ध जारी था। ग्वातेमाला की क्रान्ति की तरह असफ़ल न होने और ‘बे ऑफ पिग’ के आक्रमण से क्यूबा की क्रान्ति को सुरक्षित निकाल पाने में जनता में आधार और सर्वहारा का हथियारबन्द होना बेहद महत्वपूर्ण कारक रहे।
इस तरह क्यूबा की क्रान्ति को एक व्यापक जनवादी आन्दोलन कहा जा सकता है जिस पर कई विचारधाराओं का प्रभाव था। यह क्रान्ति किसी भी रूप में सर्वहारा क्रान्ति नहीं थी जिसका नेतृत्व एक सर्वहारा पार्टी कर रही हो जो जनता की सर्वहारा चेतना जागृत करते हुए मार्क्सवादी सिद्धान्त, लाइन और कार्यक्रम के आधार पर सर्वहारा अधिनायकत्व स्थापित करने का लक्ष्य रखती हो। क्यूबा में क्रान्ति सम्पन्न हो जाने के बाद 1961 में समाजवादी कार्यक्रम अपनाया गया और क्रान्ति में शामिल पार्टियों के संयुक्त मोर्चे को 1965 में क्यूबा की कम्युनिस्ट पार्टी का नाम दिया गया। क्रान्ति के बाद समाजवादी कार्यक्रम अपनाना क्रान्ति की ज़रूरत थी। लेकिन इसके बावजूद भी कम्युनिस्ट सिद्धान्तों की समझदारी विकसित करते हुए सर्वहारा अधिनायकत्व के अन्तर्गत समाजवादी कार्यक्रम लागू किया जा सकता था। साथ ही समाजवादी संक्रमण के दौरान सतत् सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति करते हुए समाज परिवर्तन की दिशा में आगे बढ़ाया जा सकता था। लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। समाजवादी कार्यक्रम तो अपनाया गया लेकिन समाजवाद की स्थापना में जनता की क्रान्तिकारी पहलक़दमी और रचनात्मकता पर ज़्यादा निर्भर नहीं रहा गया। इसकी जगह सोवियत रूस की मदद पर निर्भरता बढ़ाई गयी। 1953 में स्तालिन की मृत्यु के बाद संशोधनवादी ख्रुश्चेव शासन में आया। 1963 में महान बहस के दौरान क्यूबा ने चीन की क्रान्तिकारी राजनीतिक दिशा की जगह ख्रुश्चेव की संधोधनवादी दिशा का समर्थन किया था। यह भी दर्शाता है कि क्यूबा द्वारा समाजवादी कार्यक्रम अपनाना क्रान्ति की आवश्यकता तो थी लेकिन यह किसी सैद्धान्तिक समझदारी पर आधारित कार्यक्रम न हो कर परिस्थिति जन्यकार्यक्रम था। क्रान्ति के नेतृत्व में सर्वहारा सिद्धान्त की समझदारी लगभग नगण्य थी और आने वाले सालों में इसे विकसित करने का प्रयास होता भी नज़र नहीं आया। 1991 में सोवियत रूस के विघटन के बाद क्यूबा को मिलने वाली मदद समाप्त हो गयी और अमेरिका की घेरेबन्दी जारी थी। 1994 आते-आते क्यूबा गम्भीर आर्थिक संकट से घिर गया। 1993 में ही सीमित लेकिन निजी व्यवसाय को अनुमति दी गयी। 1976 में समाजवादी संविधान अपनाने के बाद 15 साल के अन्दर ही निजी व्यवसाय व सम्पत्ति को अनुमति दी गयी जो यह दर्शाता है कि समाजवादी कार्यक्रम का अपनाया जाना देश की ठोस परिस्थितियों के ठोस विश्लेषण के आधार पर नहीं किया गया था और रूस से मदद मिलना समाप्त होते ही अर्थव्यवस्था का लड़खड़ा जाना दिखलाता है कि कुछ समाजवादी नीतियों और संस्थाओं की स्थापना समाज की आन्तरिक गति से निर्दिष्ट न हो कर बाह्य गति से प्रभावित थी और बाह्य गति के समाप्त होते ही वह भी हिल गयी।
यूँ तो क्यूबा में अमेरिकी साम्राज्यवाद-विरोधी जनता की गहरी घृणा के चलते जनता की पहलक़दमी लगातार मौजूद रही थी और समाज के विभिन्न क्षेत्रों में तमाम किस्म की जनसंस्थाएँ और प्लेटफॉर्म मौजूद रहे थे, लेकिन 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद जब सोवियत सहायता बन्द हो गयी तो क्यूबाई अर्थव्यवस्थाा को अपने पैरों पर खड़ा होने और टिके रहने में इन जनसंस्थाओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी और कुछ नयी जनसंस्थााएँ भी अस्तित्व में आयीं। जनता के ‘ग्रासरूट ऑर्गनाइज़ेशन’ जैसे ‘कोनसेखो पोपुलार’ (लोक परिषद्) ‘पारलियामियेन्तो ओबरेरो’ (मज़दूर संसद) आदि का गठन किया गया और सामाजिक सुरक्षा वाले कार्यक्रमों को बजट का बड़ा हिस्सा दिया गया जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा और सामाजिक सुरक्षा। बड़े उद्योग धन्धे राज्य के नियन्त्रण में ही रहे लेकिन छोटे व्यवसायों को अनुमति दी गयी। यदि सर्वहारा वर्ग राज्यसत्ता में काबिज़ है, तो अर्थव्यवस्था की नियन्त्रणकारी चोटियों पर यानी भारी उद्योगों, बैंकों, अवरचना आदि में समाजवादी सम्पत्ति सम्बन्ध स्थापित हो गये हों, तो कुछ क्षेत्रों में छोटे पैमाने के माल उत्पादकों की निजी सम्पत्ति की मौजूदगी कुछ समय के लिए बनी रही सकती है और एक क्रमिक प्रक्रिया में इन छूटे हुए क्षेत्रों में समाजवादी सम्पत्ति सम्बन्धों की स्थापना हो सकती है। उस सूरत में भी समाजवादी व्यवस्था उजरती श्रम के शोषण पर पूर्ण रोक लगाती है। समाजवादी सम्पत्ति सम्बन्धों की सभी क्षेत्रों में स्थापना से ही उत्पादन सम्बन्धों का समाजवादी रूपान्तरण पूरा नहीं हो जाता है, बल्कि उसके बाद सतत् सांस्कृातिक क्रान्तियों के ज़रिये तीन महान अन्तरवैयक्तिक असमानताओं को ख़त्म करके ही श्रम विभाजन और वितरण की असमानताओं को कम से कम बनाया जा सकता है और समाजवादी संक्रमण में सही दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है। लेकिन क्यूबा में हमें ऐसा होता नज़र नहीं आता। यदि पार्टी एक कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी पार्टी नहीं है, जो कि अपने भीतर सचेतन तौर पर दो लाइनों के संघर्ष को चलाती हो, समाज के भीतर जारी वर्ग संघर्ष में सही राजनीतिक कार्यदिशा को स्थापित करने के लिए क्रान्तिकारी जनदिशा को लागू करती हो और पूँजीवादी पथगामियों के विरुद्ध हर क्षेत्र में संघर्ष चलाती हो, तो न तो समाजवादी सम्पत्ति सम्बन्धों की स्थापना ढंग से हो सकती है और न ही उत्पादन सम्बन्धों का क्रान्तिकारी रूपान्तरण पूरा हो सकता है।
1994 के बाद क्यूबा धीरे-धीरे कई निजी व्यवसायों को कई रियायतें देता है। पर्यटन पर अर्थव्यवस्था की निर्भरता काफ़ी है इसलिए इस क्षेत्र में कई रियायतें दी गयी हैं। यह भी आश्चर्य की बात है कि यदि इसे समाजवादी व्यवस्था कहा जा रहा है तो कैसे कोई समाजवादी व्यवस्था वेश्यावृत्ति, नशाखोरी, जुआ आदि की इजाज़त दे सकती है। लेकिन यह सभी कुछ क्यूबा में हो रहा है। विदेशों में बैठी वह आबादी जिसका स्वर्ग लुट गया था 1959 में एक बार फिर वह और उसके वंशज क्यूबा में पैसा लगा रहे हैं। पसरता पूँजीवाद क्यूबा के कल्याणकारी राज्य पर दबाव बनाता रहा और 2011 में पार्टी की छठी कांग्रेस में कई प्रमुख आर्थिक परिवर्तन शामिल किये जिसमें कृषि, बड़े उद्योगों में निजी निवेश की बात कही गयी, सरकारी पदों में भारी संख्या में कटौती, राज्य द्वारा दी जाने वाली सब्सिडी को धीरे-धीरे ख़त्म करने की योजना और सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन; निजी सम्पत्ति के ख़रीद-फरोख़्त पर लगा प्रतिबन्ध समाप्त कर दिया गया। अगले सुधार 2016 में सातवें कांग्रेस में हुए जो 2011 के सुधारों को ज़्यादा व्यवस्थित करते सुधार थे।
रोज़गार के अवसरों में कटौती, सब्सिडी का कम किया जाना यह सब गहराते आर्थिक संकट के दबाव में किया जा रहा है। कल्याणकारी राज्य की ज़िन्दगी बहुत लम्बी नहीं होती है, बढ़ता निजी क्षेत्र हर दिशा में अपने पैर फैलायेगा। पूरे विश्व में कोरोना के बाद गहरी मन्दी छाई है। वहीं क्यूबा में अर्थव्यवस्था पहले से ही ख़स्ताहाल थी। कोरोना ने चरमराई अर्थव्यवस्था को झकझोर कर रख दिया। 1993 से क्रमिक प्रक्रिया में अल्पजीवी समाजवाद के ढर्रे वाले ढाँचे में परिवर्तन उसे कल्याणकारी राज्य के दायरे से भी बाहर लेते जा रहे हैं। क्यूबा बाज़ार के लिए धीरे-धीरे खुल रहा है लेकिन क्यूबा का बाज़ार के लिए खुलना बहुत हद तक चीन के बाज़ार समाजवाद की तरह है जिसमें मूलभूत उद्योगों पर राज्य का नियन्त्रण बना रहेगा।
लातिन अमेरिका और विश्व अकादमिक गलियारों में लिबरल और संशोधनवादियों के बीच हमेशा लातिन अमेरिका के प्रयोगों को लेकर अति आशावाद देखने को मिलता है। इसके अलावा उनका इस बात पर विशेष बल रहता है कि लातिन अमेरिका में समाजवाद का अपना ही लातिन अमेरिकी चरित्र है जो किसी अन्य समाजवाद की कॉपी नहीं। अपने चरित्र से उनका तात्पर्य होता है कि सर्वहारा सिद्धान्तों पर आधारित न होना और दूसरा किसी भी समाजवाद यानी चीन या रूस से कोई समानता नहीं होना। अमूमन तो हर देश की क्रान्ति अपने क़िस्म की होगी वह किसी भी क्रान्ति का नमूना नहीं होगी क्योंकि मार्क्सवाद क्रान्ति का ब्लू प्रिण्ट नहीं देता बल्कि क्रान्ति की समझदारी यानी ठोस परिस्थितियों के ठोस विश्लेषण की पहुँच और पद्धति देता है, जिसके आधार पर हर देश की कम्युनिस्ट पार्टी अपने देश में क्रान्ति की लाइन और कार्यक्रम तय करती है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि कोई भी परिवर्तन समाजवादी हो जाएगा महज़ इसलिए कि वह जनपक्षधर है। मार्क्सवाद के भूलभूत सिद्धान्तों में संशोधन किसी परिवर्तन को अपने क़िस्म का समाजवादी नहीं बना देता। इन बुद्धिजीवियों की मुख्य समस्या पूँजीवाद के समर्थकों सी ही है। उनके लिए पूँजीवाद इतिहास का अन्त है और इसके आगे समाज नहीं जाएगा। इन संशोधनवादियों के लिए ‘कल्याणकारी राज्य’ जो इनके अनुसार समाजवाद है वही समाज का अन्त है। क्योंकि इनकी मुख्य समस्या समाजवाद की व्याख्या है न कि यह समझना कि समाजवाद संक्रमण की मंज़िल है। कुछ भी जो जनपक्षधर दिखता है उसके पीछे यह समाजवाद का लेबल लेकर दौड़ जाते हैं, अपने क़िस्म का, इक्कीसवीं सदी का और ऐसे ही अन्य। इनके लिए यह समस्या नहीं है कि इनके क़िस्म के सुझाये राज्य का नेतृत्व सर्वहारा पार्टी कर रही है या नहीं, किस प्रकार अपने अगले स्तर यानी साम्यवाद तक पहुँचेगा। कहा जा सकता है कि इनके लिए कल्याणकारी राज्य का मॉडल ही इतिहास का अन्त है।
अन्त में क्यूबा की क्रान्ति की बात की जाए तो कहा जा सकता है कि यह समाजवाद उन्मुख नीतियों वाला कल्याणकारी राज्य है, जिसमें अमेरिकी साम्राज्यवाद के प्रति भयंकर नफ़रत इसके बने रहने की मुख्य वजहों में से एक है। एक अन्य प्रमुख वजह जिसकी हम चर्चा पहले भी कर चुके हैं, लातिन अमेरिका में ‘काउदिल्यों’ संस्कृति की वजह से देश की आम मेहनतकश आबादी में अपने उस नेतृत्व पर भरोसा है जिसने अमेरिकी साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ उनकी लड़ाई का नेतृत्व किया। लेकिन अब चीज़ें बदल रही हैं। देश में मौजूदा राष्ट्रपति मिगेल दियास कानेल में फिदेल कास्त्रो जैसा करिश्माई प्रभाव नहीं है। राउल कास्त्रो में भी करिश्माई प्रभाव फिदेल कास्त्रो के स्तर का नहीं था, लेकिन लोगों को पता था कि वह भी क्रान्ति में कास्त्रो के साथ कन्धे से कन्धा मिला कर लड़ा है। लेकिन कानाल उस दौर का नहीं है। लेकिन यह बात भी उतनी ही सच है कि अभी भी जनता में अमेरिकी साम्राज्यवाद के प्रति नफ़रत उतनी ही प्रबल है। अमेरिका में बैठी धनी प्रवासी आबादी सरकार के ख़िलाफ़ प्रचार कर रही है, लेकिन वहाँ की जनता सड़कों पर नौकरी, भोजन और स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए आन्दोलन कर रही है और साथ ही अमेरिका की घेरेबन्दी को समाप्त करने की भी माँग क्यूबा की जनता उठा रही है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्त 2021
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