उत्तर प्रदेश जनसंख्या विधेयक – 2021 : जनता के जनवादी अधिकारों पर फ़ासीवादी हमला!
अमित
उत्तर प्रदेश की योगी सरकार द्वारा हाल ही में उत्तर प्रदेश जनसंख्या (नियन्त्रण, स्थिरीकरण एवं कल्याण) बिल – 2021 का प्रारूप जारी किया गया है। इसमें प्रावधान करने का प्रस्ताव रखा गया है कि दो से ज़्यादा बच्चे वाले माँ-बाप के निकाय चुनाव लड़ने, सरकारी सुविधाओं का लाभ लेने, सरकारी नौकरियों के लिए आवेदन करने और प्रमोशन हासिल करने आदि पर रोक लगा दी जायेगी। इतना ही नहीं, इस बिल में किसी भी परिवार में चार व्यक्तियों का ही राशन कार्ड बनाये जाने जैसे कई जनविरोधी प्रावधान किये गये हैं।
वास्तव में योगी सरकार द्वारा लाया गया यह बिल जनता के जनवादी अधिकारों पर एक फ़ासीवादी हमला है। ग़ौरतलब है कि पूँजीवादी व्यवस्था के पैरोकारों द्वारा व्यवस्था जनित संकटों, जैसे ग़रीबी, बेरोज़गारी, भुखमरी आदि के लिए जनता को ही ज़िम्मेदार ठहराये जाने के लिए जनसंख्या में वृद्धि को एक हथकण्डे के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। साथ ही फ़ासीवादी भाजपा और संघ परिवार पिछले लम्बे समय से जनसंख्या में वृद्धि और मुस्लिम आबादी की जनसंख्या बढ़ने के मिथक का प्रचार करके साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति करते रहे हैं। पूरी पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा आम तौर पर पूँजीवादी व्यवस्था में जनता की तबाही-बर्बादी के लिए लोगों को ही दोषी ठहरा देने के लिए जनसंख्या बढ़ने के हौव्वे का इस्तेमाल किया जाता है। पाठ्यक्रम के माध्यम से जनसंख्या को एक समस्या के रूप में बचपन से ही दिमाग़ में बैठा दिया जाता है। दूसरी ओर, अगर निजी जीवन के अनुभव से देखा जाय, तो ट्रेनों-बसों में यात्रा करते समय, अस्पतालों, परीक्षाओं का फॉर्म भरने और रोज़गार आदि के लिए लगने वाली लम्बी कतारों से हर जगह यही महसूस होता है कि जनसंख्या बहुत बढ़ गयी है। इसीलिए बहुत से लोगों को यह तर्क सही भी लगता है। दूसरे, भाजपा के साम्प्रदायिक प्रचार के प्रभाव में एक बड़ी हिन्दू आबादी इसे मुसलमानों पर लगाम लगाने के रूप में देखकर खुश है।
बिल में कहा गया है कि प्रदेश में संसाधनों की बहुत कमी है और समान वितरण तथा सतत विकास को बढ़ावा देने के लिए राज्य की जनसंख्या को नियन्त्रित करना, स्थिर करना ज़रूरी है। ज़ाहिर है कि जनसंख्या को स्थिर करके समान वितरण और सतत विकास की बात सिर्फ़ एक सफ़ेद झूठ है। अगर अभी की स्थिति में बात करें तो उत्तर प्रदेश अनाज उत्पादन के मामले में देश के अग्रणी राज्यों में है। उत्तर प्रदेश गेहूँ, गन्ना के उत्पादन में पहले नम्बर पर और चावल के उत्पादन में दूसरे नम्बर पर है। यह अनाज एफ़सीआई के गोदामों में सड़ता रहता है, चूहे खाते हैं और शराब बनाने वाली कम्पनियाँ सस्ते दामों में ले जाती हैं। लेकिन दूसरी ओर रोज़ भूख और कुपोषण से हजारों मौतें हो जाती हैं। प्रदेश और देश में जगह-जगह प्राकृतिक संसाधन बिखरे पड़े हैं। इलाहाबाद के नैनी, कानपुर, बिजनौर, चित्रकूट, पूर्वी उत्तर प्रदेश में जगह-जगह चीनी मिलें, मिर्जापुर में कृषि यन्त्र कारखाने, प्रतापगढ़ में एटीएल कारखाना आदि पिछले कई सालों से बन्द हैं। वहाँ पड़ी मशीनें और पूरा ढाँचा बर्बाद होता जा रहा है। यही हालत पूरे देश भर में है। सरकार के पास न तो दिक्कत बुनियादी ढाँचे की है, न तो किसी अन्य चीज़ की। आह्वान के पिछले अंकों में हम दिखा चुके हैं कि आज़ादी के बाद से अब तक देश में खाद्यान, खनन और उद्योगों में आबादी की तुलना में कई सौ गुना की वृद्धि हो चुकी है। सांसदों-विधायकों की ऐय्याशी, चुनावी रैलियों में पानी की तरह बहाये जा रहे पैसों का कोई हिसाब ही नहीं है। लेकिन जब जनता की बात आती है तो संसाधनों की कमी पड़ जाती है। अगर इन पैसों और संसाधनों का ठीक से इस्तेमाल किया जाये तो करोड़ों नौजवानों को रोज़गार दिया जा सकता है। इतना ही नहीं, हर सरकारी विभाग में बड़े पैमाने पर पद खाली पड़े हैं, लेकिन इन पदों को भरने के बजाय सारा काम संविदा और ठेके पर कराया जा रहा है और तमाम सरकारी विभाग और निजी हाथों में सौंपे जा रहे हैं। इन खाली पदों को भरने पर ही लाखों रोज़गार सृजित हो सकता है। सेण्ट्रल विस्टा प्रोजेक्ट, जिसको जारी रखने के लिए फ़ासिस्टों ने कोरोना महमारी के दौरान विशेष क़ानून तक बना दिया, में खर्च किये जा रहे रु. 20,000 करोड़ में, रु. 100 करोड़ की लागत वाले 200 अस्पताल बनाये जा सकते हैं। लेकिन इन सब बातों पर पर्दा डालने के लिए जनसंख्या का हौव्वा खड़ा किया जाता है।
दूसरे सरकार इस बिल को लाने के पीछे यह उद्देश्य बता रही है कि इस बिल के माध्यम से प्रदेश में कुल प्रजनन दर (टीएफ़आर) को 2.1 प्रतिशत पर लाया जाएगा। टीएफ़आर का 2.1 प्रतिशत होने का अर्थ है जनसख्या का स्थिर हो जाना। लेकिन वर्ल्ड बैंक 2018 के आँकड़ों के हिसाब से भारत की प्रजनन दर घटते हुए 2.2 पर पहुँच गयी है और इसमें भी उत्तर प्रदेश में इसके घटने की दर पूरे देश के औसत से कहीं ज़्यादा है। प्रजनन दर का 2.1 प्रतिशत होना जनसंख्या के स्थिर होने का मानक माना जाता है। साफ़़ है कि देश की जनसंख्या आने वाले सालों में और घटेगी। इतना ही नहीं, इन आँकड़ों की और गहराई से छानबीन की जाए तो संघ परिवार के मुस्लिम आबादी के बढ़ने के झूठे प्रचार की भी पोल खुल कर सामने आ जाती है। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के आँकड़ों के अनुसार 2005-06 से 2015-16 के दस सालों में जहाँ हिन्दू आबादी की टीएफ़आर में 0.5 प्रतिशत की कमी आई थी, वहीं मुस्लिम आबादी में यह कमी 0.8 प्रतिशत की है। बहुत से सर्वेक्षणकर्ताओं ने यह अनुमान लगाये हैं कि 2071 तक हिन्दू तथा मुस्लिम आबादी की जनसंख्या वृद्धि दर बराबर हो जायेगी। लेकिन संघ परिवार अपने आदर्श हिटलर और मुसोलिनी जैसे फ़ासिस्टों के नक्शे क़दम पर चलते हुए इस फ़ासीवादी मिथ्याप्रचार को हवा देता रहता है।
वास्तव में जनसंख्या को सभी समस्याओं का कारण बताकर जनता के सिर पर ठीकरा फोड़ने का काम पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा बहुत लम्बे समय से किया जा रहा है। 18वीं सदी में माल्थस द्वारा दिए गये तर्क का भ्रम फ़ैलाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है कि बढ़ती हुई जनसंख्या के अनुपात में उत्पादन में होने वाली वृद्धि बहुत कम होती है। माल्थस के अनुसार जनसंख्या 2, 4, 8, 16.. के हिसाब से यानी गुणोत्तर श्रेणी में बढ़ती है जबकि संसाधन में वृद्धि समान्तर श्रेणी यानी 1, 2, 3, 4… के रूप में होती है। माल्थस ने इस समस्या का बहुत ही मानवद्रोही हल दिया था जो कि अमीर तबकों व शासक वर्ग व उनके तलुआचाट बुद्धिजीवियों को बहुत भाता है। माल्थस का हल यह था कि महामारी आदि को रोकना नहीं चाहिए बल्कि महामारियों से होने वाली आम जनता की मौतों से सन्तुलन बना रहेगा। आज के वर्तमान फ़ासीवादी उभार के दौर में यह तर्क नस्ल, धर्म आदि के नाम पर आबादी के क़त्ले-आम की तरफ ले जाता है। वास्तव में माल्थस का यह सिद्धान्त आँकड़ों की हेराफ़ेरी और झूठ पर आधारित था। माल्थस ने अपने इस मानवद्रोही सिद्धान्त को सही साबित करने के लिए आबादी में वृद्धि का आँकड़ा अमेरिका से लिया था और खाद्यान्न तथा आजीविका के साधनों की वृद्धि के लिए फ़्रांस को आधार बनाया था। ग़ौरतलब है कि अमेरिका की आबादी के बढ़ने की वज़ह प्राकृतिक नहीं बल्कि बड़े पैमाने पर वहाँ पर प्रवासियों का आना था। जबकि दूसरी ओर फ़्रांस के संसाधनों की फ़्रांस की आबादी से तुलना की जाये तो यह सामने आता है कि आबादी के अनुपात में संसाधन कहीं तेज़ी से बढ़ रहे थे। फ़िर भी इस झूठ को पूँजीवादी व्यवस्था के पैरोकारों द्वारा हाथोंहाथ लपक लिया गया।
आज पूरी दुनिया भर में आबादी में बढ़ोत्तरी का एक कारण ग़रीबों द्वारा ज़्यादा बच्चा पैदा करना नहीं, बल्कि मृत्यु दर में आनेवाली कमी है। मसलन, 1950-55 में दुनिया भर का औसत सम्भावित जीवन तक़रीबन 46 साल हुआ करता था, जो कि 2000-05 में 65 साल हो गया। कई देशों में आबादी बढ़ोत्तरी दर शून्य से कम है। जिस रफ़्तार आबादी से बढ़ रही है, उस रफ़्तार से 2040 तक आबादी क़रीब 7.6 अरब तक पहुँचेगी। उसके बाद यह घटेगी और 21वीं सदी के अन्त में 5 अरब रह जायेगी। जिसमें बच्चे और नौजवान बहुत कम होंगे, बुजुर्गों की संख्या बहुत ज़्यादा होगी। आज इन्हीं वज़हों से जापान और चीन जैसे देशों में जनसंख्या नीति में बदलाव किये गये हैं।
सच्चाई यह है कि भुखमरी, कुपोषण, बेरोज़गारी सहित सभी समस्याओं की असली वज़ह लूट और मुनाफ़े पर टिकी यह पूँजीवादी व्यवस्था है। इसलिए इन समस्याओं को हमेशा के लिए ख़त्म करने के लिए इस लुटेरी व्यवस्था को तबाह करके इसकी जगह पर समतामूलक समाज का सपना बनाने के लिए एकजुट होना होगा। आज छात्रों-युवाओं को न केवल जनता के बीच में जाकर जनसंख्या के सवाल फैलाये गये भ्रम को साफ़़ करना चाहिए बल्कि संगठित होकर इस जनविरोधी बिल का विरोध करना चाहिए और अपनी एकजुटता के दम पर समान शिक्षा-सबको रोज़गार, भोजन, स्वास्थ्य और आवास के बुनियादी अधिकारों के लिए सरकार को मजबूर करना चाहिए।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्त 2021
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