लगातार बढ़ रही दलित उत्पीड़न की घटनाओं के ख़िलाफ़ एकजुट हो
जातीय पहचान को लेकर चल रही अस्मितावादी राजनीति को त्यागकर जाति-व्यवस्था और इसके पोषक पूँजीवाद के ख़िलाफ़ संघर्ष तेज़ करो

अखिल भारतीय जाति विरोधी मंच

विगत 19 जुलाई को उत्तरप्रदेश के आगरा जनपद में ककरपुरा नामक गाँव में दलित जाति की महिला के शव को शमशान घाट पर चिता से ही उतरवा दिया गया क्योंकि यह शमशान घाट तथाकथित ऊँची जाति वालों का था। 18 जुलाई को कर्नाटक के विजयपुरा में एक दलित व्यक्ति और उसके परिजनों को तथाकथित ऊँची जाति के लोगों की भीड़ के द्वारा बेरहमी से पीटा गया और निर्वस्त्र करके घुमाया गया। पुलिस के ही मुताबिक़ कारण यह था कि इस व्यक्ति ने कथित तौर पर “ऊँची जाति” के एक शख़्स की बाइक को छू दिया था! 14 जुलाई को मध्यप्रदेश के गुना में पुलिस के द्वारा ही कब्ज़ा छुड़ाने के नाम पर ग़रीब-दलित किसान दम्पत्ति के साथ बहुत ही अमानवीय बर्ताव किया गया। किसान ने ज़मीन उसी की जाति के किसी दलाल को पैसे देकर पट्टे पर ली थी। उसने मेहनत करके उसमें जो फ़सल उगायी थी उस सबको भी मटियामेट कर दिया गया। पुलिस की बर्बरता से आहत दलित किसान राजकुमार बीवी समेत ज़हर पी लिया। लॉकडाउन के दौरान की ही घटना है कि ओडिशा के सुन्दरगढ़ में एक 13 वर्षीय ग़रीब-आदिवासी बच्ची का थाना प्रभारी सहित कई पुलिस वालों ने तीन महीनों तक रेप किया। इस घटना पर डीजीपी ने बच्ची से सार्वजनिक माफ़ी माँगी लेकिन क्या इससे उसके शारीरिक और मानसिक घाव भर पायेंगे? एक जून को उत्तरप्रदेश के अयोध्या में एक अनुसूचित जाति के व्यक्ति को धारदार हथियारों के द्वारा काट डाला गया। 3 मई को डायन होने का आरोप लगाकर बिहार के मुजफ़्फ़रपुर में तीन महिलाओं समेत चार दलित लोगों को बुरी तरह से पीटा गया और मैला पीने को मजबूर किया गया। इसके अलावा पूरे कोरोनाकाल में भी क्वैरण्टाइन सेण्टरों में दोयम दर्जे के व्यवहार से लेकर सफ़ाई कर्मियों के उत्पीड़न की तमाम घटनाएँ हमारे सामने आयीं।

देश में दलित उत्पीड़न की घटनाएँ और अस्मितावादी मानसिकता दोनों ही इस समय उफ़ान पर हैं। आये दिन कभी घोड़ी पर चढ़ने के कारण तो कभी मूछें रखने के कारण; कभी अन्तर्जातीय विवाह के कारण तो कभी प्रेम प्रसंग के कारण; कभी बर्तन छू लेने के कारण तो कभी मन्दिर की सीढ़ियों पर चढ़ने के कारण हत्या, मारपीट, बहिष्कार और बेइज़्ज़त करने के रूप में दलित उत्पीड़न की घटनाएँ सामने आती ही रहती हैं। अधिकतर मामलों में आर्थिक शोषण और सामाजिक उत्पीड़न ग़रीब दलित आबादी को ही झेलना पड़ता है।

उपरोक्त विवरण से साफ़ ज़ाहिर होता है कि घनघोर अमानवीय जाति-व्यवस्था आज भी क़ायम है और रोज़ दलित उत्पीड़न के नये-नये मामले सामने आ रहे हैं। तमाम सरकारें आयी और गयी किन्तु जातिवादी मानसिकता में कोई कमी नहीं आयी बल्कि इसे नया खाद-पानी ही मिलता रहा है। जाति-व्यवस्था की पैरोकार भाजपा के शासन में तो जातिवादी मानसिकता और जातिवादी उत्पीड़न में और भी बढ़ोत्तरी हुई है।

मार्च 2018 में आयी नेशनल क्राइम रेकॉर्ड ब्यूरो (NCRB/एनसीआरबी) की रिपोर्ट के अनुसार 2007 से 2017 के बीच के दस सालों में दलित विरोधी अपराधों में 66 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है, 2006 में जहाँ 27,070 दलित विरोधी मामले दर्ज हुए थे वहीं 2011 में 33,719 और 2016 में इनकी संख्या बढ़कर 40,801 ही गयी। आप देख सकते हैं समाज में दलित उत्पीड़न के मामलों में किस तरह से दिन दूनी रात चौगुनी गति से वृद्धि हुई है।

देशभर में दलित विरोधी जातिगत नफ़रत व हिंसा का लम्बा इतिहास रहा है। 1989 में एससी/एसटी एक्ट के लागू होने के बावजूद भी देश में औसतन हर 15 मिनट में एक दलित उत्पीड़न का शिकार होता है; हर घण्टे दलितों के ख़िलाफ़ पाँच से ज़्यादा हमले दर्ज होते हैं; हर दिन दो दलितों की हत्या कर दी जाती है; अगर दलित महिलाओं की बात की जाये तो उनकी स्थिति तो और भी भयानक है। प्रतिदिन औसतन 6 स्त्रियाँ बलात्कार का शिकार होती हैं।

मामलों के प्रशासनिक और न्यायिक संज्ञान में आने के बाद भी वास्तविक न्याय मिलने की गारण्टी नहीं होती!

पहली बात तो बहुत सारे दलित-विरोधी उत्पीड़न के मामले सामाजिक डर और आर्थिक असुरक्षा के चलते पुलिस-प्रशासन के संज्ञान में ही नहीं आ पाते। किन्तु पुलिस और कोर्ट की फ़ाइलों में दर्ज होने के बाद भी न जाने कितने मामले अपनी तार्किक परिणति तक नहीं पहुँच पाते। देश भर में हुए भयंकर दलित-विरोधी काण्ड और उनकी न्यायिक प्रक्रिया हमारी न्याय-व्यवस्था पर भी बहुत से सवाल खड़े करती है। आप ख़ुद ही देखिए कि देशभर में दलितों के ख़िलाफ़ संगठित हिंसा करने वालों का क्या बिगड़ा।

44 दलितों की हत्या, किलवनमनी, तमिलनाडु, 25 दिसम्बर 1968, न्यायिक परिणाम – सभी आरोपियों को बरी कर दिया गया।

13 दलितों की हत्या, चुन्दुर, आन्ध्रप्रदेश, 6 अगस्त 1991, न्यायिक परिणाम – 2014 में सभी आरोपियों को छोड़ दिया गया।

10 दलितों की हत्या, नागरी, बिहार, 11 नवम्बर 1998, न्यायिक परिणाम – मार्च 2013 में सभी आरोपियों को छोड़ दिया गया।

22 दलितों की हत्या, शंकर बीघा गाँव, बिहार, 25 जनवरी, 1999, न्यायिक परिणाम – जनवरी 2015 में सभी आरोपी बरी।

21 दलितों की हत्या, बथानी टोला, बिहार, 11 जुलाई 1996, न्यायिक परिणाम – अप्रैल 2012 में सभी आरोपियों को छोड़ दिया गया।

32 दलितों की हत्या मिंयापुर, बिहार, 2000, न्यायिक परिणाम –2013 में सभी को छोड़ दिया गया।

58 दलितों की हत्या, लक्ष्मणपुर बाथे, 1 दिसम्बर 1997, न्यायिक परिणाम –2013 में सभी को छोड़ दिया गया।

महाराष्ट्र का प्रसिद्ध नितिन आगे केस, जिसमें एक दलित नौजवान को गाँव के सामने मार दिया गया था, 28 अप्रैल 2014, न्यायिक परिणाम – 23 नवम्बर 2017 के दिन सबको छोड़ दिया गया।

उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि दलितों के विरुद्ध हुए बहुत से बर्बर से बर्बर हत्याकाण्डों में भी सज़ाएँ नाममात्र ही हुईं या बिल्कुल ही नहीं हुईं। ये चन्द आँकड़े साफ़ बता रहे हैं कि 73 साल की आज़ादी के बाद भी ग़रीब दलित आबादी हर रूप से कितनी अरक्षित है।

समता, न्याय, भाईचारे और सौहार्द के बेशक कितने ही ढोल बजा लिये जायें, आज बड़ी संख्या में देश के ही नागरिक न्याय, बराबरी और अवसर की समानता जैसे अपने संवैधानिक अधिकारों तक से महरूम हैं। निश्चय ही हमें तमाम तरह के जातीय भेदभाव, उत्पीड़न और शोषण का तत्काल प्रतिकार करना चाहिए। जातीय उत्पीड़न और जातिवादी मानसिकता के ख़िलाफ़ सशक्त जनवादी और नागरिक अधिकार आन्दोलन खड़ा करना चाहिए। एक ऐसा आन्दोलन जिसके दरवाज़े हर जाति के प्रगतिशील व्यक्ति के लिए खुले हों। इसके साथ ही हमें जाति-व्यवस्था के असल कारणों की भी पड़ताल करके इनके विरुद्ध आन्दोलन की सांगोपांग रूपरेखा भी तैयार करनी चाहिए। कम से कम हमारे सामने यह तो स्पष्ट होना ही चाहिए कि जातिवाद को कौन-सी चीज़ कमज़ोर करेगी और कौन-सी चीज़ मज़बूत करेगी।

जातिवाद से मुक्ति का रास्ता अस्मितावाद और प्रतीकवाद से नहीं बल्कि वर्ग-आधारित जाति-विरोधी आन्दोलन और इन्क़लाब से होकर जाता है

जातीय उत्पीड़न की भयावह स्थिति के बावजूद जातिवाद-विरोधी प्रगतिशील आन्दोलन खड़ा होने की बजाय चारों तरफ़ अपनी-अपनी जातीय पहचान को लेकर अस्मितावादी राजनीति ज़ोरों पर है। अस्मितावाद की नैया में सवार होकर तमाम जातीय ठेकेदार पलक झपकते ही भाजपा-कांग्रेस से लेकर तमाम क्षेत्रीय चुनावबाज़ पार्टियों की गोद में जा बैठते हैं और अपनी जाति के ही ग़रीबों के हितों के साथ सौदा करने लगते हैं। जाति-व्यवस्था विरोधी और वर्ग-आधारित आन्दोलन खड़ा करने का कार्यभार आज देश की मेहनतकश जनता और उसके युवा बेटे-बेटियों के कन्धों पर ही टिका है। अस्मितावादी रंगे सियारों और चुनावबाज़ धन्धेबाज़ों से हमें कोई उम्मीद नहीं रखनी चाहिए।

आज अस्मितावाद (यानी ग़रीबों को उनकी जातीय पहचान और अस्मिता के आधार पर संगठित और गोलबन्द करना) तथा प्रतीकवाद (यानी मूर्ति तोड़े जाने और किसी प्रतीक के बारे में किसी के द्वारा कुछ कह देने जैसे मुद्दों को ही मुखरता से उठाना और दलित-ग़रीब आबादी के असल मुद्दों पर चुप रहना) से ग़रीबों और दलितों का कोई भला नहीं होने वाला। इस तरह की राजनीति का फ़ायदा हरेक जाति में बैठे शासक वर्ग के लोग ही उठाते हैं। रामदास आठवले, उदित राज, जीतन राम मांझी, रामविलास पासवान इत्यादि इसके मौजूँ उदाहरण हैं। यदि देशव्यापी आँकड़ों पर नज़र दौड़ाएँ तो दलितों का करीब 95 प्रतिशत हिस्सा खेत मज़दूर, निर्माण मज़दूर, सफ़ाई कर्मी और औद्योगिक मज़दूर के तौर पर खट रहा है। अस्मितावादी और प्रतीकवादी राजनीति करने वाले लोग विरले ही इस मेहनतकश दलित आबादी के मुद्दों को उठाते हैं। दूसरा हर अस्मितावादी राजनीति अपने बरक्स अन्य जातियों की अस्मितावादी राजनीति को भी बढ़ावा देती है। तमाम जातियों में बैठे पूँजीपति वर्ग के विभिन्न हिस्से शासन-सत्ता में में भागीदारी करने के मक़सद से जातीय पहचान को आधार बनाकर नूराकुश्ती करते रहते हैं और तमाम जातियों की मेहनतकश जनता के बीच सिरफुटौव्वल करवाते रहते हैं। पूँजीवादी व्यवस्था के पैरोकार भी यही चाहते हैं कि जनता अपनी बर्बादी के असल कारणों को समझकर व्यवस्था के ख़िलाफ़ एकजुट होने की बजाय आपस में ही लड़ती रहे।

क्रान्ति के बिना दलित मुक्ति नहीं हो सकती व जाति-व्यवस्था विरोधी व्यापक आन्दोलनों के बिना क्रान्ति का विचार भी एक ख़याली पुलाव भर है

जातिवाद या ब्राह्मणवाद आज संस्कारित तौर पर पूँजीवादी व्यवस्था की ही सेवा कर रहा है। जातिवाद, साम्प्रदायिकता और तमाम तरह की अस्मितावादी राजनीति आज पूँजीवाद के लिए ‘संजीवनी बूटी’ के समान है। व्यवस्था के ठेकेदार पूँजीवाद द्वारा परिष्कृत करके अपना ली गयी जाति-व्यवस्था का अपने हितों के लिए ख़ूब इस्तेमाल कर रहे हैं। यही कारण है कि आज़ादी के 73 साल बाद भी जातिवादी दमन-उत्पीड़न घटने की बजाय नये-नये रूपों में बढ़ ही रहा है।

दलित-विरोधी उत्पीड़न के ख़िलाफ़ मज़बूती से तभी लड़ा जा सकता है जब हर जाति की व्यापक मेहनतकश जनता को जाति-व्यवस्था के ख़िलाफ़ लामबन्द किया जायेगा। शिक्षा, रोज़गार, चिकित्सा, आवास, महँगाई जैसे मुद्दों पर होने वाले संघर्षों में हर जाति की मेहनतकश जनता की भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए। साथ ही लोगों के बीच वैचारिक-शैक्षणिक मुहिम चलायी जानी भी बेहद ज़रूरी है जिसके माध्यम से लोगों के बीच जाति-व्यवस्था के इतिहास और वर्तमान से जुड़े विभिन्न पहलुओं और इसकी समाप्ति के आवश्यक कार्यभारों व चुनौतियों को स्पष्टता के साथ रखा जा सके। तथाकथित उच्च जाति वालों के सामने भावनात्मक अपीलों से कुछ नहीं होगा बल्कि उनकी भी मेहनतकश जनता को अपने आन्दोलन के साथ जोड़कर सक्रिय करना होगा। जाति-व्यवस्था-विरोधी आन्दोलनों को मेहनतकश वर्ग की एकजुटता के दम पर ही असल मुक़ाम तक पहुँचाया जा सकता है।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,जुलाई-अक्‍टूबर 2020

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