टीसीएस द्वारा कर्मचारियों की छँटनी: अन्त की ओर अग्रसर आईटी सेक्टर का सुनहरा युग
अखिल
गत वर्ष के आख़िरी महीने में आईटी (सूचना प्रौद्योगिकी) उद्योग की अग्रणी कम्पनी टीसीएस (टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज) द्वारा एकबारगी 2574 कर्मचारियों को गुलाबी पर्ची (कम्पनी से निकाले जाने की सूचना) थमाये जाने का मामला तूल पकड़ चुका है। टीसीएस ने जिनकी छँटनी की है उनमें ज़्यादातर 8 साल से ऊपर अनुभव वाले लोग हैं जो ऐसोसिएट कंसल्टेण्ट, प्रोजेक्ट मैनेजर जैसे वरिष्ठ पदों पर कार्यरत थे और मोटी तनख़्वाहें हासिल कर रहे थे। छँटनी को जायज ठहराने के लिए टीसीएस ने तर्क दिया है कि जिन लोगों को गुलाबी पर्ची थमायी गयी है उनका “प्रदर्शन” पिछले कुछ समय से सन्तोषजनक नहीं था। वर्ष 2015 में जहाँ एक तरफ़ टीसीएस की लगभग 30,000 कर्मचारियों की छँटनी करने की योजना है वहीं दूसरी तरफ़ कम्पनी इसी साल लगभग 55,000 नये लोगों को भर्ती करने की तैयारी भी कर रही है। इसे लेकर आईटी सेक्टर में काम करने वाले लोगों ख़ासकर वरिष्ठ कर्मचारियों में असुरक्षा और असन्तोष का माहौल व्याप्त है। ज्ञात हो कि पूँजीवादी उत्पादन एवं वितरण प्रणाली के बाक़ी क्षेत्रों की तरह आईटी सेक्टर में भी छँटनी कोई नयी परिघटना नहीं है, अपने मुनाफ़े की दर बरकरार रखने और बाज़ार में प्रतिस्पर्द्धी कम्पनियों को पछाड़ने के लिए कम्पनियाँ अपनी लागत को कम करने की हरचन्द कोशिश करती हैं। इसी के नतीजे के तौर पर वे “प्रदर्शन” के मनमाने मापदण्ड गढ़ती रहती हैं और इस मापदण्ड पर खरा न उतरने वाले को झट गुलाबी पर्ची थमा दी जाती है। और मामला सिर्फ़ टीसीएस का भी नहीं है, पिछले साल अकेले बंगलौर में आईटी सेक्टर में कार्यरत 15,000 लोगों को नौकरी से हाथ धोना पड़ा। ऐसे में टीसीएस द्वारा छँटनी किये जाने का मामला इसलिए छाया हुआ है क्योंकि टीसीएस की छवि अब तक एक ऐसी कम्पनी की रही है जो अपने कर्मचारियों को नौकरी से नहीं निकालती है। और हाल की घटना ने टीसीएस को एक आदर्श कम्पनी के तौर पर देखने वालों को काफ़ी मायूस किया है।
टीसीएस ने हालाँकि छँटनी के अपने फ़ैसले को जायज़ ठहराने के लिए “कर्मचारियों के असन्तोषजनक प्रदर्शन” की दलील का सहारा लिया है लेकिन इस छँटनी के पीछे की असलियत को समझने के लिए हमें विश्व पूँजीवादी व्यवस्था के हालात और आईटी उद्योग पर इसके प्रभाव के बारे में चर्चा करनी होगी। आईटी या सूचना प्रौद्योगिकी उद्योग क्या है और यह क्या उत्पादन करता है? दरअसल, आईटी उद्योग का काम उत्पादन करने का नहीं बल्कि यह उत्पादन एवं वितरण क्षेत्र के कुछ हिस्सों को अपनी सेवाएँ प्रदान करता है। यह मुख्यतः मैन्युफ़ैक्चरिंग, बैंकिंग एवं वित्तीय क्षेत्र को अपनी सेवाएँ मुहैया कराता है। इसीलिए इसकी ख़ुद की सेहत पूरी तरह उपरोक्त क्षेत्रों की सेहत पर टिकी हुई है। लम्बे समय से जहाँ भारत के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र का हिस्सा लगातार कम हो रहा है और मैन्युफ़ैक्चरिंग क्षेत्र का हिस्सा बहुत धीमी गति से बढ़ रहा है, वहीं सेवा क्षेत्र के विस्तार ने इसमें अपनी हिस्सेदारी तेज़ी से बढ़ाई है। साल 2014 के अन्त तक भारत के सकल घरेलू उत्पाद में सेवा क्षेत्र की हिस्सेदारी 65 फ़ीसद थी। इसमें भी आईटी क्षेत्र में साल 2008 से पहले तक औसतन 30 फ़ीसद की दर से वृद्धि हो रही थी। आईटी क्षेत्र के कुल मुनाफ़े का बड़ा हिस्सा निर्यात पर टिका हुआ है। 2012 में आईटी क्षेत्र के कुल मुनाफ़े का 77 फ़ीसद हिस्सा निर्यात की गयी सेवाओं से प्राप्त हुआ था। यह क्षेत्र अमरीका, यूरोप, जापान, रूस और मध्यपूर्व के देशों समेत लगभग 60 देशों में अपनी सेवाओं का निर्यात करता है। निर्यात का दो-तिहाई हिस्सा तो सिर्फ़ अमरीका पर निर्भर है। ऐसे में यह समझना कठिन नहीं है कि भारत का आईटी सेक्टर किस कदर विकसित देशों की अर्थव्यवस्थाओं पर निर्भर करता है। इसी वजह से 2008 की आर्थिक मन्दी ने भारत के आईटी उद्योग की विकास दर 30 फ़ीसद से घटाकर 15 फ़ीसद कर दी थी। हालाँकि तब भारत सरकार ने उत्प्रेरण पैकेजों के ज़रिये घरेलू माँग बढ़ाकर आईटी उद्योग पर मन्दी की आँच को कम कर दिया था। दूसरा, बाक़ी देशों के आईटी उद्योग की तुलना में सस्ती सेवाएँ निर्यात करने की वजह से भी भारतीय आईटी उद्योग को मन्दी ने कम नुक़सान पहुँचाया। लेकिन 2008 में 30 से घटकर 15 पर पहुँची आईटी उद्योग की विकास दर फिर से उभार का समय नहीं देख पायी। तब से लेकर अब तक यह दर 12 से लेकर 16 फ़ीसद के बीच ही रही है। विश्व पूँजीवादी व्यवस्था की खस्ता हालत की वजह से बाक़ी क्षेत्रों की तरह आईटी सेवाओं की माँग में भी कमी आयी है। यूरोप, जापान, रूस और मध्यपूर्व के देश जो भारतीय सेवा क्षेत्र का लगभग 20 फ़ीसद हिस्सा आयात करते हैं, उनकी अर्थव्यवस्थाएँ इन दिनों ढलान पर हैं। दूसरा, फिलीपींस और चीन जैसे देशों की आईटी कम्पनियाँ भारत की आईटी कम्पनियों को कड़ी टक्कर दे रही हैं। इस वजह से भी आईटी कम्पनियों पर लागत को कम करके सेवाओं को सस्ता करने का दबाव बना हुआ है। भारतीय आईटी सेक्टर में विभिन्न देशी और विदेशी कम्पनियों के बीच की प्रतिस्पर्द्धा भी इस दबाव को और बढ़ा रही है। ऐसे में आईटी कम्पनियाँ इस दबाव को कम करने के लिए अपनी प्रौद्योगिकी विकसित करने के साथ-साथ लम्बे समय से अपने यहाँ काम कर रहे और मोटी तनख़्वाहें पा रहे कर्मचारियों को सबसे पहले बाहर का दरवाज़ा दिखाती हैं।
टीसीएस द्वारा जिन कर्मचारियों की छँटनी की गयी है उनमें से कईयों का वेतन तो 20 लाख सालाना तक का था। इनमें से ज़्यादातर ऐसोसिएट कंसल्टेण्ट और प्रोजेक्ट मैनेजर जैसे वरिष्ठ पदों पर कार्यरत थे। इन पदों पर कार्यरत लोग प्रत्यक्ष रूप से काम (जैसे कि सोफ्टवेयर प्रोग्रामिंग या कोडिंग) में भागीदारी करने की बजाय, इसकी पूरी प्रक्रिया की देख-रेख, उसके प्रबन्धन और सेवाओं के वितरण के कामों में लगे होते हैं। दरअसल, आईटी कम्पनियों में जैसे-जैसे किसी कर्मचारी का अनुभव बढ़ता जाता है वैसे-वैसे वह काम में प्रत्यक्ष भागीदारी से दूर होता जाता है। अब या तो वह प्रबन्धन के काम में हाथ माँजे और इसमें कामयाब हो जाये, अन्यथा न तो वह अच्छे से तकनीकी काम (सोफ्टवेयर प्रोग्रामिंग या कोडिंग) कर पाता है न ही प्रबन्धन का काम सँभाल पाता है। ऐसे में क्योंकि उसका प्रदर्शन कम्पनी की “इच्छाओं” (जो कि लगातार बढ़ती जाती हैं) के अनुरूप नहीं रहता और कम्पनी को वह अपने ऊपर एक बोझ की तरह लगने लगता है। दूसरी तरफ़, व्यावसायिक कोर्स करवाने वाले शिक्षा संस्थान बड़ी संख्या में नये लोगों की सप्लाई करते रहते हैं जो आसानी से नयी प्रौद्योगिकी को सीख भी लेते हैं और जिन्हें वेतन भी बहुत कम देना पड़ता है। और तो और ट्रेनिंग के नाम पर कम्पनियाँ एक-दो साल तक छात्रों से मुफ्त में काम भी ले लेती हैं। इस तरह कम्पनी अपने काम को नुक़सान पहुँचाये बिना छँटनी करके और सस्ते श्रम को लाकर अपनी लागत भी कम कर लेती हैं। इसके अतिरिक्त अन्य सेक्टरों की भाँति आईटी सेक्टर में भी ठेका प्रथा का प्रचलन बढ़ा है जो कम्पनियों को ज़रूरत के मुताबिक़ हायर और फ़ायर करने में सहूलियत प्रदान करता है।
भारत में आईटी उद्योग की शुरुआत 1970 के दशक से हुई। टीसीएस भारत की सबसे पहली भारतीय आईटी कम्पनी थी। अपनी शुरुआत से ही इस सेक्टर ने मध्यवर्ग को सुनहरे सपने दिखाये, सुनहरे युग के दावे किये। ऐसा सुनहरा युग आया भी क्योंकि भूमण्डलीकरण के दौर में जब विकसित देशों की अर्थव्यवस्थाओं में आईटी सेवाओं की ज़बरदस्त माँग थी तो उसका लाभ आईटी कम्पनियों और उनमें काम कर रहे कर्मचारियों को मिला। लेकिन अब आईटी क्षेत्र प्रौढ़ हो चुका है और “सुनहरे युग” के दिन अब बीतने शुरू हो गये हैं। पूँजीवादी व्यवस्था का यह आम नियम है कि इसमें उभार के दौर के बाद गतिरोध और उसके बाद मन्दी का आना तय है। दूसरा, छँटनी और बेरोज़गारी भी पूँजीवादी व्यवस्था के लिए अनिवार्य बुराइयाँ हैं। पूँजीपतियों के लिए बेरोज़गारी का बने रहना बेहद ज़रूरी है क्योंकि पूँजीपतियों की दृष्टि से बेरोज़गारी एक “औद्योगिक रिज़र्व सेना” का काम करती है। माँग और पूर्ति के सिद्धान्त के अनुसार बाज़ार में किसी भी वस्तु की सप्लाई बढ़ जाने से उसका दाम कम हो जाता है। बेरोज़गारी भी बाज़ार में कर्मचारियों की सप्लाई को बढ़ाकर उनकी मोल-तोल की क्षमता को कम कर देती है जिससे पूँजीपतियों को सस्ते दाम पर कर्मचारी मिल जाते हैं और उनसे इस बात का दबाव डालकर अधिक काम निकलवा लिया जाता है कि यदि वे ठीक से काम नहीं करेंगे तो उनकी जगह दूसरों को हायर कर लिया जायेगा।
यह ग़ौर करने वाली बात है कि कॉरपोरेट मीडिया भी टीसीएस द्वारा निकाले गये कर्मचारियों के लिए ख़ूब आँसू बहा रहा है जबकि यही मीडिया इस देश के कल-कारख़ानों में नारकीय परिस्थिति में काम करने वाले मज़दूरों की दिन-प्रतिदिन होने वाली छँटनी की ख़बरें कभी नहीं दिखाता। आज अगर पूँजीवादी मीडिया टीसीएस के कर्मचारियों के प्रति सहानुभूति दिखा रहा है तो इसका कारण यही है कि उच्च-मध्यमवर्ग और मध्यम-मध्यवर्ग का यह तबका एकतरफ़ तो पूँजीवाद का सबसे बड़ा उपभोक्ता है दूसरी तरफ़ यह निजीकरण, उदारीकरण और भूमण्डलीकरण की नीतियों का मुखर समर्थक भी है। ऐसे में कॉरपोरेट मीडिया इस तबके को नाराज़ क़तई नहीं करना चाहेगा। यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि आईटी सेक्टर में उच्च पदों पर आसीन यह तबका मोदी सरकार का मुखर प्रशंसक है। इसी मोदी सरकार ने हाल ही में श्रम क़ानूनों में संशोधन करके पहले से ही कमजोर श्रम क़ानूनों को और ढीला-पोला बना दिया है। जिससे पूँजीपतियों के लिए अपने मन-मुताबिक़ कर्मचारियों को हायर-फ़ायर करना और आसान हो गया है। लेकिन यह तबका मोदी सरकार की नीतियों के नकारात्मक प्रभावों की पहचान नहीं कर पा रहा है और अभी भी मोदी सरकार से “अच्छे दिनों” की उम्मीदें लगाये बैठा है।
यह अच्छी बात है कि टीसीएस द्वारा निकाले गये कर्मचारियों ने हार नहीं मानी है और सोशल नेटवर्किंग के ज़रिये अपना एक फ़ोरम बनाकर और विभिन्न शहरों में प्रदर्शन करके कम्पनी के इस क़दम का एकजुट होकर विरोध करने का फैसला किया है। यह बिल्कुल हो सकता है कि कम्पनी या सेक्टर आधारित इस फ़ौरी लड़ाई से कुछ कर्मचारियों को कम्पनी द्वारा बहाल भी कर लिया जाये लेकिन यह समझना बहुत ज़रूरी है कि यह समस्या किसी एक कम्पनी या सेक्टर की समस्या नहीं है बल्कि पूँजीवादी व्यवस्था के सभी सेक्टरों में यह समस्या व्याप्त है जिसके लिए स्वयं पूँजीवादी व्यवस्था ज़िम्मेदार है। ऐसे में अपनी फ़ौरी माँगों के लिए कम्पनी के ख़िलाफ़ लड़ते हुए दूरगामी तौर पर पूँजीवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ लड़ाई की तैयारी करनी होगी। इसके लिए आईटी सेक्टर में काम कर रहे कर्मचारियों को मज़दूर वर्ग के संघर्षों के साथ एकजुटता बनानी होगी। छँटनी, बेरोज़गारी जैसी समस्याओं से स्थायी रूप से निजात पाने के लिए समूची पूँजीवादी व्यवस्था का विकल्प खड़ा करना ही एकमात्र रास्ता है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-अप्रैल 2015
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