संसदीय बातबहादुरों के कारनामे
अभिनव
पिछले वर्ष संयुक्त प्रगतिशील (!?) गठबंधन की सरकार बनने के बाद तमाम भलेमानस लोगों के तमाम भ्रम टूटे होंगे। जो लोग यह समझते थे कि संप्रग सरकार वाम मोर्चा के समर्थन के कारण उदारीकरण और निजीकरण की उस प्रक्रिया पर कुछ लगाम लगाएगी जिसे राजग सरकार ने द्रुत गति से चलाया था, वे अपनी इस ग़लतफ़हमी से बाहर आ चुके हैं। संप्रग सरकार का एक वर्ष पूरा होने से पहले ही यह बात बिल्कुल साफ़ हो चुकी है कि वाम मोर्चा की हैसियत वैसी ही है जैसी कि उस पत्नी की होती है जो पति को लगातार मायके चले जाने की धमकी देती है लेकिन पति पर कोई असर न पड़ने पर मायके जाती भी नहीं! चूँकि यह पति थोड़ा उदार है इसलिए बीच-बीच में कुछ रियायतें दे देता है।
राजग सरकार ने आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया को ताबड़तोड़ तरीके से चलाया था। संप्रग सरकार ने इस प्रक्रिया को अधिक व्यवस्थित और योजनाबद्ध ढंग से चलाया है। इससे संसदीय वामपंथी बातबहादुरों के लिए मुश्किल हालात पैदा हो जाते हैं। सरकार जब भी पेट्रोलियम उत्पादों के दाम बढ़ाने, किसी सार्वजनिक उद्यम का विनिवेश, या प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में वृद्धि जैसा कोई कदम उठाती है तो ये बातबहादुर दोन किहोते की तरह गत्ते की तलवारें भाँजते सरकार पर टूट पड़ते हैं, समर्थन पर पुनर्विचार करने की धमकी देते हैं लेकिन साम्प्रदायिक शक्तियों को सत्ता से दूर रखने की दुहाई देते हुए समर्थन जारी रखते हैं। वैसे भी यह नौटंकी करना ज़रूरी होता है क्योंकि इन बातबहादुरों का मुख्य वोट बैंक बंगाल, केरल और त्रिपुरा के मज़दूरों से आता है और उन्हें वहाँ भी मुँह दिखाना पड़ता है। नतीजतन, उन्हें थोड़ा शोरगुल मचाना पड़ता है। लेकिन जब वे आर्थिक सुधारों पर हल्ला मचाते हैं तो चिदम्बरम महोदय को उन्हें शांत करने में ज्यादा दिक्कत नहीं होती। वह उनके सामने बंगाल की आर्थिक फ़ैक्टशीट खोल देते हैं जहाँ ये बातबहादुर वही नीतियाँ लागू कर रहे हैं जिनका वे केन्द्र में विरोध करते हैं। केरल में ये 4000 करोड़ रुपये की सम्पत्ति पर कुण्डली मारे बैठे हैं। अगर इस पर भी ये संसदीय वामपंथी शोर मचाते हैं तो कांग्रेस भी उनका हाल पूछना बंद कर देती है क्योंकि वह भी जानती है कि इनकी औकात ज़्यादा से ज़्यादा उनकी पालकी का कहार बनने की ही है। इस पर ये वामपंथी दोन किहोते नाराज़ पत्नी की तरह कोप भवन में चले जाते हैं, लेकिन समर्थन देते रहते हैं। फ़ुर्सत होने पर कांग्रेस उन्हें मना लेती है और वे खुशी-खुशी कांग्रेस की धर्मनिरपेक्ष, कल्याणकारी पूँछ में कंघी करने लगते हैं। माकपा ने तो इस बार अपनी पार्टी कांग्रेस में कांग्रेस को धर्मनिरपेक्ष ही घोषित कर दिया। वह भूल गई कि इसी कांग्रेस ने 1984 में सिखों का कत्लेआम करवाया था, इसी के राज में रामजन्मभूमि का ताला खुला था और शिलान्यास हुआ था और बाबरी मस्जिद ढहाई गई थी, और वह वक्तन-ज़रूरतन हिंदू कार्ड खेलने से नहीं हिचकिचाती। लेकिन ताज्जुब कैसा जबकि ‘‘वक्त पड़ने पर गधे को भी बाप बना लो’’ की कहावत इन संसदीय बातबहादुरों का सूत्रवाक्य बनी हुई हो।
जब भूमण्डलीकरण की रफ़्तार तेज़ थी तो लगने लगा था कि ऐसे नकली मार्क्सवादियों की ज़रूरत बुर्जुआ राजनीति में समाप्त हो जाएगी। लेकिन विश्व पूँजीवाद के थिंक टैंक्स को यह बात जल्दी ही समझ में आ गई कि एन.जी.ओ. और नकली वामपंथ जैसे कुछ सेफ्टी वाल्वों की ज़रूरत अभी लम्बे समय तक बनी रहेगी। नतीजतन, यूरोप, एशिया और अफ्रीका में नकली वामपंथ के नए-नए रूप पैदा हो रहे हैं। नकली वामपंथ पूँजीवादी व्यवस्था की एक सुरक्षा पंक्ति का काम कर रहा है। यह उदारीकरण की बेलगाम होती प्रक्रिया में स्पीड ब्रेकर का काम इस व्यवस्था के दूरगामी हित में कर रहा है। यह लाल मिर्च खाकर ‘‘विरोध-विरोध’’ की रट लगाने वाले तोते हैं। ये तब तक शोर मचाते रहेंगे जब तक जनता के युवा अगुआ दस्ते इस ज़ालिम व्यवस्था के साथ-साथ इनकी गर्दन भी न मरोड़ दें।
आह्वान कैम्पस टाइम्स, जुलाई-सितम्बर 2005
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