औद्योगिक दुर्घटनाओं पर डॉक्युमेण्ट्री फिल्म का प्रथम प्रदर्शन
कार्यालय संवाददाता (अरविन्द स्मृति न्यास)
लखनऊ। अरविन्द स्मृति न्यास द्वारा प्रस्तुत पहली डॉक्युमेण्ट्री फिल्म ‘मौत और मायूसी के कारख़ाने’ को 9 जून को लखनऊ प्रेस क्लब में आयोजित कार्यक्रम में जारी किया गया। न्यास के दृश्य-श्रव्य प्रभाग ‘ह्यूमन लैंडस्केप प्रोडक्शन्स’ द्वारा निर्मित यह फिल्म राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के कारख़ानों में आये दिन होने वाली दुर्घटनाओं और औद्योगिक मज़दूरों की नारकीय कार्य-स्थितियों पर केन्द्रित है। फिल्म दिखाती है कि किस तरह राजधानी के चमचमाते इलाक़ों के अगल-बगल ऐसे औद्योगिक क्षेत्र मौजूद हैं जहाँ मज़दूर आज भी सौ साल पहले जैसे हालात में काम कर रहे हैं। लाखों-लाख मज़दूर बस दो वक़्त की रोटी के लिए रोज़ मौत के साये में काम करते हैं। सुरक्षा इन्तज़ामों को ताक पर धरकर काम कराने के कारण आये दिन दुर्घटनाएँ होती रहती हैं और लोग मरते रहते हैं, मगर ख़ामोशी के एक सर्द पर्दे के पीछे सबकुछ यूँ ही चलता रहता है, बदस्तूर। फिल्म में यह भी अत्यन्त प्रभावशाली ढंग से दिखाया गया है कि किस तरह दुर्घटनाओं के बाद पुलिस, फैक्ट्री मालिक और राजनीतिज्ञों के गँठजोड़ से मौत की ख़बरों को दबा दिया जाता है। मज़दूर या उसके परिवार को दुर्घटना के मुआवज़े से भी वंचित रखने में श्रम क़ानूनों की ख़ामियों, दलालों और भ्रष्ट अफसरों के तिकड़मों को भी इसमें उजागर किया गया है।
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ साहित्यकार श्री नरेश सक्सेना ने फिल्म जारी करते हुए कहा कि पिछले कुछ समय के दौरान बढ़ते औद्योगिक हादसों की पृष्ठभूमि में इस फिल्म की प्रासंगिकता और अधिक बढ़ गयी है। उन्होंने कहा कि आज के दौर में व्यापक आबादी तक अपनी बात पहुँचाने और उन्हें अधिकारों के बारे में जागरूक बनाने में दृश्य-श्रव्य माध्यमों की भूमिका काफी महत्वपूर्ण है और इस दिशा में यह परियोजना एक ज़रूरी कदम है। उन्होंने फिल्म के कला पक्ष पर और अधिक ध्यान देने की ज़रूरत पर बल दिया। इस अवसर पर फिल्म के निर्देशक चारु चन्द्र पाठक ने फिल्म बनाने के दौरान अपने अनुभवों को साझा करते हुए बताया कि औद्योगिक मज़दूरों के काम के हालात और नारकीय जीवन स्थितियों को नज़दीक से देखने के बाद उन्होंने तय किया कि ग्लैमर और शोहरत की फिल्मी दुनिया में जगह बनाने की कोशिश करने के बजाय वे इस कला का इस्तेमाल उन तबकों के जीवन की सच्चाई को सामने लाने में करेंगे जो इस देश के विकास की नींव होने के बावजूद मीडिया की नज़रों से दूर हैं। उन्होंने बताया कि वे इस फिल्म को मज़दूर बस्तियों और कारख़ाना इलाकों में लेकर जायेंगे क्योंकि वे ही इसके असली दर्शक हैं। अरविन्द स्मृति न्यास की ओर से सत्यम ने बताया कि न्यास ने मज़दूरों के जीवन और संघर्ष, आम जनजीवन, जनान्दोलनों और सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर डॉक्युमेण्ट्री और फीचर फिल्मों के निर्माण के लिए अपना दृश्य-श्रव्य प्रभाग ‘ह्यूमन लैण्डस्केप प्रोडक्शन्स’ नाम से संगठित किया है। न्यास का दृश्य-श्रव्य प्रभाग विभिन्न जनान्दोलनों और महत्वपूर्ण घटनाओं के दृश्य-श्रव्य अभिलेखन (ऑडियो-विज़ुअल डॉक्युमेण्टेशन) का काम भी कर रहा है। यह विश्वप्रसिद्ध क्रान्तिकारी, प्रगतिशील फ़िल्मों का संग्रह तैयार कर रहा है जिनकी हिन्दी में सबटाइटलिंग और डबिंग का प्रबन्ध किया जा रहा है। जल्दी ही अलग-अलग शहरों में ऐसी फिल्मों का नियमित प्रदर्शन एवं उन पर परिचर्चा आयोजित करने की शुरुआत की जायेगी। कार्यक्रम का संचालन कर रही वरिष्ठ कवयित्री कात्यायनी ने बताया कि जनता का वैकल्पिक मीडिया खड़ा करना आज बेहद ज़रूरी है और आडियो-विजुअल माध्यम तथा इण्टरनेट आदि का उपयोग इसमें बहुत महत्व रखते हैं। उन्होंने बताया कि न्यास का यह प्रभाग क्रान्तिकारी गीतों और संगीत रचनाओं की सीडी.डीवीडी भी तैयार करेगा। समय-समय पर इसके द्वारा डिजिटल फ़िल्म तकनीक के विभिन्न पक्षों और डॉक्युमेण्ट्री निर्माण, एनिमेशन आदि पर कार्यशालाएँ भी आयोजित की जायेंगी। ये सभी काम किसी प्रकार के संस्थागत अनुदान लिये बिना जनता से जुटाये गये संसाधनों के बूते किये जा रहे हैं। इस वजह से इनमें देर भले ही हो लेकिन ये किसी दबाव से मुक्त होकर पूरे किये जायेंगे। इस अवसर पर ‘प्रत्यूष’ की ओर से ‘ज़िन्दगी ने एक दिन कहा कि तुम लड़ो’ गीत प्रस्तुत किया गया। कार्यक्रम में बड़ी संख्या में पत्रकारों, लेखकों, बुद्धिजीवियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, संस्कृतिकर्मियों तथा छात्रों ने भाग लिया। फिल्म प्रर्दृान के बाद उसके विभिन्न पहलुओं पर दर्शकों के साथ चर्चा भी हुई।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्त 2013
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