मारुति सुजुकी मज़दूर आन्दोलन किस ओर?

शिशिर

 

पृष्ठभूमि

अगर 7-8 नवम्बर को गुड़गाँव-मानेसर में मारुति सुजुकी वर्कर्स यूनियन के नेतृत्व में हुए दो-दिवसीय धरने को मारुति सुजुकी मज़दूर आन्दोलन की नयी शुरुआत माना जाय, तो इस आन्दोलन को शुरु हुए अब करीब 8 माह बीत चुके हैं। इन 8 महीनों में यह आन्दोलन तमाम उतार-चढ़ाव से गुज़रा है। पिछले वर्ष 18 जुलाई को मारुति सुजुकी के मानेसर संयंत्र में हुई हिंसा और आगजनी की दुर्भाग्यपूर्ण घटना के बाद हरियाणा सरकार और मारुति सुजुकी प्रबन्धन ने बिना किसी उचित जाँच के मज़दूरों को निशाना बनाना शुरू किया। कुछ ही दिनों में पुलिस की धरपकड़ के फलस्वरूप करीब डेढ़ सौ मज़दूरों को गिरफ़्तार कर लिया गया। दर्ज़नों मज़दूर अभी भी अपने आपको पुलिस की धरपकड़ से बचाने के लिए अन्यत्र छिपे हुए थे। दरअसल, कम्पनी प्रबन्धन को एक सुनहरा मौका मिल गया था। 2011 में जब मारुति सुजुकी मज़दूरों के संघर्ष का पहला दौर नेतृत्व के पतन के साथ असफल हुआ था, तो कम्पनी प्रबन्धन को यह लगा था कि अब मज़दूरों का संघर्ष दोबारा सिर नहीं उठायेगा। लेकिन जल्द ही मज़दूरों ने अपनी अलग स्वतन्त्र ट्रेड यूनियन ‘मारुति सुजुकी वर्कर्स यूनियन’ का गठन किया और फिर से संघर्ष की शुरुआत की। प्रबन्धन की लगातार यह कोशिश थी कि इस यूनियन को किसी तरह से बिखरा दिया जाय। और 18 जुलाई को हुई घटना ने उन्हें यह अवसर दिया कि वह संघर्षरत मज़दूरों की यूनियन को निशाना बनाये। 18 जुलाई के बाद से मज़दूरों को पक्ष यह माँग कर रहा था कि 18 जुलाई की घटना की उच्च स्तरीय जाँच करायी जाय। लेकिन कम्पनी और हरियाणा सरकार इसे मानने को तैयार नहीं हैं। साफ़ है कि उन्हें भय है कि उनके साज़िशाना इरादे लोगों के सामने न आ जायें।

18 जुलाई की घटना के बाद हरियाणा पुलिस ने मारुति सुजुकी मज़दूरों के लिए एक आतंक राज्य कायम किया। कुछ समय तक तो मज़दूरों की बेतहाशा धरपकड़ चलती रही। गिरफ़्तार मज़दूरों को पुलिस हिरासत में मारने-पीटने और आतंकित करने का काम बदस्तूर जारी था। लेकिन इन सब के बावजूद मारुति सुजुकी वर्कर्स यूनियन ने नवम्बर में अपने संघर्ष को फिर से शुरू किया। 7-8 नवम्बर का दो-दिवसीय धरना इस बात का ऐलान था कि मज़दूर राज्य दमन और कम्पनी प्रबन्धन के उत्पीड़न के ख़िलाफ़ झुकने वाले नहीं हैं। इसके बाद से संघर्ष की एक पूरी प्रक्रिया शुरू हुई जो अभी हाल तक जारी रही है। 7-8 नवम्बर के प्रदर्शन के बाद से मारुति सुजुकी वर्कर्स यूनियन ने फरीदाबाद, गुड़गाँव, रोहतक, कैथल और जीन्द तक में कई बार एक-दिनी प्रदर्शन किये, श्रम मन्त्री और उद्योग मन्त्री से लेकर मुख्यमन्त्री तक को अपने ज्ञापन और माँगपत्रक सौंपे। इस संघर्ष का केन्द्र अभी गुड़गाँव-मानेसर बना हुआ था। यहाँ पर कुछ केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों की 16-सदस्यीय समिति, जिसमें कि एटक, सीटू, एचएमएस आदि जैसी यूनियनें शामिल थीं, अभी मोटे तौर पर इस संघर्ष का अप्रत्यक्ष संचालन कर रही थी। मारुति सुजुकी वर्कर्स यूनियन (एम.एस.डब्ल्यू.यू.) इन केन्द्रीय ट्रेड यूनियन संघों के साथ तालमेल बिठाकर योजना बना रही थी। एक महीने के अन्दर ही मज़दूरों के सामने यह साफ़ होने लगा था कि एक-एक दिन के प्रदर्शन करके और अलग-अलग मन्त्रियों या डी.सी. को ज्ञापन सौंपते रहने से उनकी माँगों की कोई सुनवाई नहीं होने वाली है। मज़दूरों के बीच यह राय बनने लगी थी कि जब तक किसी एक जगह अनिश्चितकालीन धरने और भूख हड़ताल की शुरुआत नहीं होती तब तक संघर्ष के आगे जाने की गुंजाइश नहीं है। आन्दोलन में सक्रिय एक संगठन ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ की ओर से यूनियन नेतृत्व को लिखित तौर पर एक सुझाव पत्र दिया गया। इसमें दिये गये सुझावों में तीन प्रमुख बातें थीं। पहली बात यह थी कि संघर्ष के स्थान में परिवर्तन करना होगा; मारुति सुजुकी का मुद्दा कोई हरियाणा का स्थानीय मुद्दा नहीं है और हमें इसे स्थानीय मुद्दा बनाना भी नहीं चाहिए। इस मसले पर हरियाणा राज्य सरकार अलग से चाहे भी तो कोई निर्णय नहीं ले सकती और इस विषय में सारे निर्णय राष्ट्रीय स्तर पर लिये जाते हैं। इसलिए यूनियन को नयी दिल्ली में संघर्ष को ले जाना चाहिए। दूसरी बात यह कि नयी दिल्ली में एक दिनी प्रदर्शनों से कुछ नहीं हो सकता; वहाँ पर मारुति सुजुकी मज़दूरों को अपनी वर्दी में और अपने परिवारों के साथ अनिश्चितकालीन धरने और भूख हड़ताल पर बैठना चाहिए। इससे मारुति मज़दूरों का पक्ष मीडिया में आयेगा और पूरे देश में आम लोगों के बीच जायेगा, जिसमें पूँजीवादी मीडिया ने यह प्रचार कर रखा है कि मारुति सुजुकी के मज़दूर ही दोषी हैं और उन्होंने हिंसा और आगजनी की वारदात को अंजाम दिया था। तीसरी बात यह कि यूनियन के भीतर शुरू से ही ट्रेड यूनियन जनवाद के उसूलों का पालन किया जाना चाहिए; इसी के ज़रिये सभी निर्णयों में आम मारुति मज़दूरों की भागीदारी हो सकती है; इसी के ज़रिये मज़दूर निर्णय लेना सीखेंगे और उनका राजनीतिक प्रशिक्षण होगा। इसलिए नियमित अन्तराल पर संघर्ष की आगे की योजना बनाने के लिए जनरल बॉडी मीटिंगें बुलायी जानी चाहिए।

इन तीनों सुझावों पर आन्दोलन के भीतर बहस-मुबाहिसा चला। लेकिन यह प्रक्रिया स्वस्थ ढंग से नहीं चली। न तो केन्द्रीय ट्रेड यूनियन संघ यह चाहते थे कि मारुति सुजुकी का संघर्ष राष्ट्रीय राजधानी जाये और न ही कुछ अन्य संगठन ऐसा चाहते थे, जो कि कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी संगठन होने का दावा करते हैं लेकिन वास्तव में अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी संगठन हैं। क्रान्तिकारी नौजवानों का संगठन होने का दावा रखने वाले मज़दूरों का इंक़लाबी संगठन होने का दावा रखने वाले ये संगठन यूनियन नेतृत्व के बीच इन सुझावों के विरुद्ध राय बनाने के लिए लगातार सक्रिय रहे। उनके अन्दर इस बात का भय काम कर रहा था कि यदि संघर्ष का स्थान नयी दिल्ली में स्थानान्तरित होता है तो उनके लिए आन्दोलन में ज़्यादा कुछ करने के लिए नहीं रह जायेगा और दिल्ली में मौजूद अन्य मज़दूर संगठनों का आन्दोलन में प्रभाव विस्तारित होगा। नतीजतन, उन्होंने दिल्ली जाने के निर्णय को रोकने के लिए कुछ निश्चित संगठनों के बारे में कुत्साप्रचार तक का सहारा लिया। नतीजतन, यूनियन नेतृत्व इस निर्णय पर नहीं पहुँच पाया और भ्रम की स्थिति में बना रहा। इन तथाकथित “इंक़लाबी-क्रान्तिकारी” संगठनों के दिल्ली जाने से भयाक्रान्त होने का एक कारण यह भी था कि जब एम.एस.डब्ल्यू.यू. ने एक बार 9 दिसम्बर को दिल्ली में एक दिन के ऑटोमोबाइल मज़दूर सम्मेलन का आयोजन किया था तो उसमें इन संगठनों की बजाय अन्य संगठनों के मज़दूर ज़्यादा बड़ी संख्या में मौजूद थे और उनका प्रभाव नगण्य हो गया था। तभी उनकी यह लाइन तय हो गयी थी कि एम.एस.डब्ल्यू.यू. को संघर्ष के स्थान को नयी दिल्ली स्थानान्तरित करने से रोका जाय। नतीजतन, अपने संकीर्ण सांगठनिक हितों के मद्देनज़र इन संगठनों ने नेतृत्व में एक सही रणनीति और आम रणकौशल को लेकर कभी कोई सही राय ही नहीं बनने दी।

लेकिन एक राय जो कि ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ द्वारा सुझाव पत्र में दी गयी थी, उस पर अमल करना अब एम.एस.डब्ल्यू.यू. नेतृत्व के समक्ष एक बाध्यता थी। वह राय थी एक जगह खूँटा गाड़कर बैठने की राय। मार्च के अन्त में इस राय पर अमल हुआ। लेकिन अनिश्चितकालीन धरने और भूख हड़ताल के लिए नयी दिल्ली की बजाय कैथल को चुना गया, जो कि उद्योग मन्त्री रणदीप सुरजेवाला का निर्वाचन क्षेत्र है। इस मौके पर ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ की ओर से यह बात यूनियन नेतृत्व को सम्प्रेषित की गयी थी कि कैथल में यह धरना सफल हो पायेगा, इसकी उम्मीद कम है। जब तक किसी दूर-दराज़ के प्लॉट या ख़ाली ज़मीन पर धरना जारी रहेगा, तब तक हरियाणा प्रशासन उस पर ज़्यादा ध्यान भी नहीं देगा, क्योंकि इससे कोई ख़ास दबाव नहीं बनने वाला है। और जैसे ही मज़दूर किसी आन्दोलनात्मक कार्रवाई, जैसे कि जुलूस या घेराव के लिए आगे बढ़ेंगे वैसे ही हरियाणा सरकार उस पर बर्बर दमन करेगी। हरियाणा में मज़दूरों या आम मेहनतकश आबादी का कोई भी आन्दोलन तमाम दमन झेलकर तभी सफल हो सकता है, जब उसके पास लड़ने को प्रतिबद्ध 10-12 हज़ार लोगों को सड़कों पर उतारने की ताक़त हो। अगर कैथल में हरियाणा सरकार आन्दोलन का दमन करती है और कम ताक़त के चलते आन्दोलन में बिखराव आता है,  तो इसके दोबारा पुनर्संगठित होने की कोई सम्भावना नहीं थी। 19 मई को वही हुआ। 19 मई को जब मज़दूर 56 दिनों के धरने के बाद भी कुछ नहीं हासिल कर सके तो फिर सुरजेवाला के निवास स्थान की ओर एक रैली का आह्वान किया गया। उसके पहले ही हरियाणा पुलिस ने रात के समय धरना स्थल पर धावा बोलकर 90 से ज़्यादा मज़दूरों को गिरफ़्तार कर लिया। फिर भी कुछ खाप पंचायतों और उनके नेताओं के समर्थन से 19 मई को मज़दूरों का एक समूह सुरजेवाला के निवास की ओर बढ़ा। निवास से कुछ पहले ही उन्हें रोक लिया गया। इस समय यूनियन नेतृत्व ने पूरे आन्दोलन के नेतृत्व को एक खाप नेता सुरेश कौथ के हाथों में सौंप दिया था (यूनियन द्वारा नेतृत्व किसी अन्य ताक़त के हाथों में सौंप देने और फिर उसकी पूँछ पकड़कर चलने की प्रवृत्ति पर हम आगे आयेंगे)। सुरेश कौथ ने आह्नान किया कि सभी लोग गिरफ़्तारी देंगे। लेकिन उससे पहले ही कहीं से पुलिस पर पथराव हुआ और उसके बाद पुलिस को मौका मिल गया कि वह मज़दूरों पर लाठी चार्ज करे। उसके बाद मज़दूरों और उनके परिवार वालों पर बर्बर लाठी चार्ज हुआ और कई लोगों को गिरफ़्तार भी कर लिया गया। इसमें यूनियन के एक प्रमुख नेता भी शामिल थे।

ठहराव से बिखराव की ओरः अराजकतावादी-संघाधिपत्यवाद, अवसरवाद और व्यवहारवाद पर अमल के परिणाम

इसके बाद से आन्दोलन में ठहराव और बिखराव की प्रक्रिया शुरू हुई। इसे पुनर्संगठित करने का आखि़री प्रयास 18 जुलाई को हुआ जब मानेसर संयंत्र में हुई हिंसा की घटना को एक वर्ष पूरा हो रहा था। इसके लिए यूनियन नेतृत्व ने देश भर में ‘मानेसर चलो’ का नारा दिया। उसका इरादा था कि मारुति सुजुकी के मज़दूर संघर्ष का अब तक का सबसे बड़ा जुटान किया जाय। देश की तमाम यूनियनों और मज़दूर संगठनों को भी बुलाया गया। यह ऐलान किया गया कि उस दिन मानेसर संयंत्र की ओर मार्च किया जायेगा, अनिश्चितकालीन धरने और भूख हड़ताल की शुरुआत की जायेगी। लेकिन मानेसर में प्रदर्शन की आज्ञा नहीं मिली। फिर गुड़गाँव के ताऊ देवीलाल पार्क का चुनाव किया गया, जहाँ से जुलूस निकालने की योजना थी। लेकिन गुड़गाँव प्रशासन ने इसकी आज्ञा भी नहीं दी। प्रशासन ने गुड़गाँव के रिहायशी इलाके के एक पार्क लेज़र वैली में प्रदर्शन की इजाज़त दी, जो कि चारों ओर से शॉपिंग मॉलों और अपार्टमेंटों से घिरा हुआ है। यूनियन नेतृत्व ने ऐलान किया कि वह सरकारी निषेधाज्ञा का उल्लंघन करते हुए राष्ट्रीय राजमार्ग पर जुलूस निकालेगा। ऐसी उम्मीद की जा रही थी कि भारी संख्या में मारुति मज़दूर आयेंगे, देश भर से मज़दूर आयेंगे और 5-6 हज़ार लोगों की भीड़ एकत्र होगी। लेकिन जब 18 जुलाई को प्रदर्शन शुरू हुआ तो पता चला कि महज़ 60-70 मारुति मज़दूर आये हैं और अन्य संगठनों से देश भर से जो लोग समर्थन में आये हैं, उन सबको मिलाकर कुल करीब 300 लोग ही इकट्ठा हुए हैं।

इसके बाद सारी पूर्व निर्धारित घोषणाओं के बावजूद प्रदर्शन पार्क में ही रहा, पार्क से बाहर नहीं गया। और वहाँ जो कुछ हुआ वह भी बता रहा था कि आन्दोलन अब बिखराव की अवस्था में पहुँच चुका है, न सिर्फ संख्या बल के मायने में बल्कि राजनीतिक तौर पर। वहाँ पर मारुति सुजुकी के दिवंगत एचआर मैनेजर अवनीश देव की बड़ी-बड़ी तस्वीरों के साथ उन्हें श्रृद्धांजलि अर्पित की गयी और उनकी याद में मज़दूरों ने कैण्डल लाइट विजिल निकाला। जो काम उस दिन मारुति सुजुकी का प्रबन्धन करने वाला था, वह काम लेज़र वैली पार्क में एम.एस.डब्ल्यू.यू. और “इंक़लाबी-क्रान्तिकारी” संगठनों की अगुवाई में हो रहा था! न तो अनिश्चितकालीन धरना और भूख हड़ताल की शुरुआत हुई, न निषेधाज्ञा का उल्लंघन हुआ, और न ही राष्ट्रीय राजमार्ग पर कोई जुलूस निकला। यह प्रदर्शन मारुति सुजुकी मज़दूर आन्दोलन के ह्रास को दिखला रहा था। इसके बावजूद यूनियन नेतृत्व ने उस दिन वहाँ जो घोषणा की उससे पता चल रहा था कि अब नेतृत्व सही रणनीति और रणकौशल को अपनाने की बात तो दूर, उसके बारे में सही तरीके से सोच पाने की क्षमता भी खो चुका है। एक केन्द्रीय ट्रेड यूनियन एक्टू को धन्यवाद ज्ञापन किया गया कि उन्होंने एक लाख रुपये का सहयोग दिया। इसके बाद मंच से यूनियन के नेतृत्व में ऐलान किया गया कि चाहे जो हो जाये, आन्दोलन को हरियाणा में ही रखा जायेगा और वे मानेसर में प्रदर्शन की आज्ञा लेने के लिए सुप्रीम कोर्ट तक जायेंगे। यानी, अब आन्दोलन का प्रमुख मुद्दा ही यह बन गया था कि मानेसर में प्रदर्शन की आज्ञा ली जाय!! और इस पूरी राय को बनाने में तथाकथित इंकलाबी-क्रान्तिकारी कॉमरेडों की प्रमुख भूमिका थी, क्योंकि उनकी राजनीति ही पुछल्लावाद की है।

18 जुलाई 2013 को गुड़गांव में मारूति सुजुकी मज़दूरों का प्रदर्शन

18 जुलाई 2013 को गुड़गांव में मारूति सुजुकी मज़दूरों का प्रदर्शन

साथ ही, यूनियन नेतृत्व के भीतर स्वयं एक व्यवहारवादी और अवसरवादी प्रवृत्ति घर कर चुकी है और इंक़लाबी-क्रान्तिकारी कामरेडों ने इस प्रवृत्ति को लगातार बढ़ावा देने का ही काम किया है। कोई भी क्रान्तिकारी संगठन जब किसी मज़दूर संघर्ष में शामिल होगा, तो उसकी भूमिका संघर्ष का बहादुरी के साथ समर्थन करने और उसमें शामिल होने के अलावा, आलोचना, परामर्श और सुझाव देने की होगी। वह महज़ कोरस में स्वर नहीं मिलायेगा। लेकिन इन तथाकथित “इंकलाबी-क्रान्तिकारी” संगठन ने यूनियन नेतृत्व में अवसरवाद और व्यवहारवाद की प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया और एक नकली ‘मज़दूरवाद’ की बीन बजाते रहे। नतीजतन, यह संघर्ष कभी उनकी राजनीति के पक्ष में भी नहीं खड़ा हुआ! एम.एस.डब्ल्यू.यू. के नेतृत्व ने समय-समय पर जो स्वतःस्वूर्त अवस्थिति अपनायी, ये राजनीतिक नौदौलतिये उसका जश्न मनाते रहे! जब संघर्ष की मुख्य ज़मीन गुड़गाँव-मानेसर बनी हुई थी तब यूनियन नेतृत्व केन्द्रीय ट्रेड यूनियन संघों की पूँछ पकड़कर चल रहा था; जब केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों ने संघर्ष को आगे जाने और मज़दूरों को अनिश्चितकालीन धरने और भूख हड़ताल से लगातार रोका और मज़दूरों के बीच इसके प्रति असन्तोष बढ़ने लगा तो यूनियन नेतृत्व में कैथल में अनिश्चितकालीन धरने की शुरुआत की; लेकिन यहाँ पर भी यूनियन ने नेतृत्व ने अपनी ताक़त और विवेक पर भरोसा करने की बजाय खाप पंचायतों की शरण ली, जो कि अपने आपमें एक आत्मघाती कदम था; 19 मई के लाठी चार्ज के बाद खाप पंचायतें संघर्ष के मंच से दृष्टि-ओझल हो गयीं; तो फिर यूनियन नेतृत्व घूम-फिर कर केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों की शरण में आ गया। हर मौके पर यूनियन नेतृत्व व्यवहारवादी अवसरवादी तरीके से उस ताकत की पूँछ पकड़ने का तैयार था, जो उसे स्थानीय रूप से ज़्यादा ताक़तवर लगती थी, चाहे उसका राजनीतिक चरित्र जो भी हो। कुछ अन्य निष्क्रिय परिवर्तनवादी संगठनों ने यह दावा किया है कि मारुति सुजुकी मज़दूर संघर्ष में शामिल मज़दूरों का वर्ग चरित्र सही नहीं था, इसीलिए आन्दोलन में ग़लत प्रवृत्तियाँ हावी थीं! यह विश्लेषण अजीबो-ग़रीब है; यह मानकर चलता है कि मज़दूर वर्ग में सर्वहारा चेतना एक दिव्य रूप से प्रदत्त चीज़ होगी। वास्तव में, अधिक से अधिक ग़रीब मज़दूरों के आन्दोलनों में भी मज़दूरों की चेतना स्वतःस्फूर्त रूप से सर्वहारा होगी, इसकी उम्मीद कम ही होती है। सर्वहारा चेतना को हिरावल द्वारा लगातार संघर्ष करके हासिल किया जाना होता है; राजनीतिक से लेकर सामाजिक-आर्थिक स्तर तक। मारुति मज़दूरों के आन्दोलन के ”ह्रास का मूल कारण मज़दूरों के गड़बड़ वर्ग चरित्र में नहीं तलाशे जा सकते। वास्तव में, हिरावल ताक़तों को मारुति मज़दूर आन्दोलन में जो भूमिका निभानी थी, उसे निभाने की बजाय, वे मज़दूर वर्ग की स्वतःस्फूर्तता का जश्न मानते रहे, जो कि बिरले ही अपने आपमें सर्वहारा होती है! लेनिन ने एक बार कहा था मज़दूर वर्ग स्वतःस्फूर्त रूप से ट्रेड यूनियनवादी चेतना या अर्थवादी चेतना ही पैदा कर सकता है। वह राजनीतिक रूप से सचेत हो, इसके लिए हिरावल की भूमिका अनिवार्य होती है। लेकिन आन्दोलन में अपने आपको इंक़लाबी मज़दूरों का “केन्द्र” और क्रान्तिकारी नौजवानों का संगठन घोषित करने वाले राजनीतिक नौदौलतियों ने मज़दूर वर्ग की स्वतःस्फूर्तता-पूजन का काम जारी रखा और मज़दूर वर्ग के क्रान्तिकारी राजनीतिकीकरण का कोई एजेण्डा हाथ में नहीं लिया। नतीजतन, यूनियन नेतृत्व जो कि एक क्रान्तिकारी राजनीतिकीकरण की स्थिति में सही कदम उठा सकता था, वह कभी सीटू, एटक, एच.एम.एस. आदि जैसी ग़द्दार ट्रेड यूनियनों को आन्दोलन का रहनुमा बनाता रहा तो कभी खाप पंचायतों को।

ताज्जुब की बात यह है कि मज़दूर वर्ग की स्वतःस्फूर्तता का जश्न मनाने वाले ये अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी कभी भी यह सवाल नहीं उठा सके कि एम.एस.डब्ल्यू.यू. का नेतृत्व राजनीतिक निर्णय लेने की प्रक्रिया में कभी भी आम मज़दूरों को शामिल नहीं करता था। बजाय इसके कि ये “मज़दूरवादी” यूनियन नेतृत्व को निर्णय लेने की प्रक्रिया में आम मज़दूरों को शामिल करने का सुझाव देते, वे यूनियन नेतृत्व की गैरजनवादी प्रवृत्तियों को प्रश्रय और प्रोत्साहन देते रहे! निर्णय लेने के काम में आम मारुति मज़दूरों की कोई भागीदारी नहीं बनती थी। ये सारे निर्णय यूनियन नेतृत्व द्वारा “इंक़लाबी-क्रान्तिकारी” संगठनों के तथाकथित वरिष्ठ बुद्धिजीवियों के साथ बन्द कमरों में कानाफूसी करके लिये जाते रहे। और जनरल बॉडी बैठकों में मज़दूरों को बस लिये गये निर्णय की सूचना दे दी जाती थी। न तो कभी कोई ऐसी बैठक बुलायी जाती थी जिसमें कि सभी मज़दूर और साथ ही सभी भागीदारी संगठनों के प्रतिनिधियों को बुलाया जाय, और न ही निर्णय को लेकर आम मज़दूरों के बीच कोई राय-मशविरा होता था। मज़दूरों के बीच भी इस मानसिकता को बढ़ावा दिया जाता रहा कि प्रधान जी लोग निर्णय ले लेंगे और उन्हें केवल उन निर्णयों पर अमल करना है। नतीजतन, आन्दोलन को लगने वाले हर झटके के साथ मज़दूरों की भागीदारी की दर गिरती गयी और उसका निम्नतम बिन्दु 18 जुलाई 2013 के प्रदर्शन में सामने आया। यूनियन के नेतृत्व के व्यवहारवाद की स्थिति अब यहाँ तक पहुँच रही है कि जो बड़ी यूनियन आर्थिक तौर पर बड़ा सहयोग कर रही है, उसके अनुसार यूनियन नेतृत्व नीति निर्धारण करने का तैयार है। अगर राजनीतिक तौर पर कहें तो इस पूरे आन्दोलन में जो बड़ी कमज़ोरी रही, जो आगे चलकर इसके ह्रास का कारण भी बनी वह था यूनियन नेतृत्व में अराजकतावादी-संघाधिपत्यवाद, अवसरवाद और व्यवहारवाद (प्रैग्मेटिज़्म) का असर जिसे कि तथाकथित इंक़लाबी-क्रान्तिकारी कामरेडों ने जमकर बढ़ावा दिया।

छद्म आशावाद से होगा नुकसानः वर्तमान परिस्थिति के वस्तुगत विश्लेषण की ज़रूरत

अगर ठोस वस्तुगत सच्चाई की बात करें तो मारुति सुजुकी मज़दूरों का आन्दोलन अब बिखराव के रास्ते पर बढ़ चुका है। निश्चित तौर पर शुरू में इस आन्दोलन में ज़बर्दस्त सम्भावनाएँ निहित थीं और यह भारत में मज़दूरों के बीच और विशेष तौर पर ऑटोमोबाइल सेक्टर के मज़दूरों के बीच एक मिसाल बन सकता था। लेकिन कोई भी सम्भावना स्वयं यथार्थ में तब्दील नहीं हो जाती है और हर सम्भावना की एक विपरीत सम्भावना भी हमेशा ही मौजूद होती है। मज़दूर वर्ग के आन्दोलनों में अराजकतावादी-संघाधिपत्यवाद, अवसरवाद और व्यवहारवाद की प्रवृत्तियाँ हमेशा से ही मौजूद रही हैं और स्वतःस्फूर्त रूप से भी सिर उठाती रही हैं। अगर इन प्रवृत्तियों को प्रश्रय और प्रोत्साहन देने वाले कुछ अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी और अवसरवादी संगठन भी आन्दोलनों में शामिल हों तो ये प्रवृत्तियाँ अक्सर प्रमुख प्रवृत्तियाँ बन जाती हैं और कई बार आन्दोलन के पतन और बिखराव का कारण बन जाती हैं। मारुति सुजुकी मज़दूरों के संघर्ष में यही स्थिति पैदा हुई है।

18 जुलाई को अपेक्षा से बेहद कम जुटान होने और तय कार्यक्रम के असफल होने के बावजूद कुछ संगठन एक छद्म आशावाद फैलाने में लगे हुए हैं। वे प्रचारित कर रहे हैं कि आन्दोलन नायकत्वपूर्ण रूप से आगे बढ़ रहा है। लेकिन अगर 18 जुलाई के वास्तविक घटनाक्रम पर निगाह डालें तो यह साफ़ हो जाता है कि आन्दोलन बिखराव की मंज़िल में है।

तमाम वाम पत्र-पत्रिकाओं में भी इसे लेकर जो रिपोर्टें छप रही हैं, वे वस्तुगत तस्वीर पेश करने की बजाय एक काल्पनिक छद्म आशावादी तस्वीर पेश कर रहीं हैं। वास्तव में इन रिपोर्टों को लिखने वाले लोग भी आम तौर पर उन्हीं अति-उत्साही संगठनों के लोग ही हैं, जिनके उत्साह को बचकाना ही कहा जा सकता है। ऐसे तमाम भूतपूर्व-वामपंथी-कार्यकर्ता-सम्प्रति-उदीयमान बुद्धिजीवी हैं जो नियमित रूप से हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में मारुति सुजुकी आन्दोलन पर मूर्खतापूर्ण रपटें लिखते रहते हैं! ताज्जुब की बात यह है कि ये निष्क्रिय उग्रपरिवर्तनवादी बुद्धिजीवी मज़दूर आन्दोलनों में कभी शिरक़त नहीं करते; बस उसको देखकर ताली बजाते रहते हैं और आलोचनात्मक विश्लेषण करने की बजाय छद्म आशावाद का प्रसार करने में लगे रहते हैं! इस प्रवृत्ति से नुकसान ही हो रहा है क्योंकि छद्म आशावाद निराशावाद से भी ज़्यादा ख़तरनाक होता है; कारण यह कि ऐसा छद्म आशावाद पलटकर हताशा की स्थिति पैदा करता है। मारुति सुजुकी मज़दूरों के बीच और साथ ही देश भर के मज़दूरों के बीच इस आन्दोलन के सकारात्मक और नकारात्मक अनुभवों के सार-संक्षेप पर चर्चा और बहस होनी चाहिए। आज आन्दोलन की स्थिति के एक वस्तुगत विश्लेषण की आवश्यकता है। इसी के ज़रिये आगे के रास्ते पर कोई बात हो सकती है।

कुछ लोगों की यह भी राय है कि जब तक आन्दोलन बिल्कुल खत्म न हो जाये तब तक आन्दोलन की कमियों-ख़ामियों के बारे में कुछ नहीं कहा या लिखा जाना चाहिए क्योंकि इससे मज़दूरों का हौसला पस्त हो जायेगा। लेकिन जब आन्दोलन ख़त्म ही हो जायेगा तब उनके बारे में बात करके क्या हासिल होगा? और सवाल तो यह है कि अभी मज़दूरों के बीच कौन-सी बहुत उत्साह की स्थिति है? वास्तव में, सच्चा उत्साह एक सही आत्मविश्लेषण, आत्मालोचना और रणनीति और आम रणकौशल में बदलाव से ही पैदा हो सकता है। सही तरीका तो यह होगा कि आन्दोलन के जारी रहते ही आलोचना-आत्मालोचना की प्रक्रिया से उसकी कमियों-ख़ामियों को दूर किया जाय ताकि असफलता की स्थिति को ही पैदा होने से भरसक रोका जा सके। जो आन्दोलन आत्म-विश्लेषण की क्षमता खो बैठता है, वह अन्ततः पतन के रास्ते पर ही आगे बढ़ता है। लेकिन पुछल्लावाद और मज़दूरवाद की प्रवृत्ति के शिकार संगठनों और बुद्धिजीवियों की यही प्रवृत्ति होती है कि जब तक आन्दोलन जारी रहता है और उसमें उसके पतन का बीज बनने वाली विजातीय प्रवृत्तियाँ पैदा हो रही होती हैं, तब वे उस पर चुप्पी साधे रहते हैं और जय-जयकार में मगन रहते हैं; और जब आन्दोलन की नाव डूब जाती है तो बताना शुरू करते हैं कि नाव में कहाँ-कहाँ पर छेद था, और यह कि वह तो पहले से ही जानते थे! यह अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादियों का अवसरवाद ही है। पहले भी ऐसा होता रहा है और लगता है कि इस बार भी ऐसा ही होने वाला है।

मारुति सुजुकी मज़दूरों के संघर्ष के पुनर्गठन की सम्भावना के बारे में अभी कुछ भी दावे से नहीं कहा जा सकता है। लेकिन एक बात तय हैः अगर पुनर्गठन की कोई भी सम्भावना है तो वह एक सही राजनीतिक आत्मालोचना, रणनीति और रणकौशल में बदलाव, ट्रेड यूनियन जनवाद की स्थापना और अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी प्रवृत्तियों और रुझानों से मुक्ति पाकर ही हक़ीकत में तब्दील की जा सकती है। हालाँकि, किसी करेक्टिव के लिए अब समय शेष है या नहीं इसके बारे में अभी कुछ भी नहीं कहा जा सकता है, लेकिन फिर भी अगर क्षीण सम्भावनाओं के लिए भी कुछ करना हो तो यही रास्ता है।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्‍त 2013

 

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