बंगलादेश में मुनाफ़े की अन्धी हवस की बलि चढ़े हरेक मज़दूर की मौत पूँजीवादी व्यवस्था के ताबूत की कील साबित होगी!
सम्पादकीय
24 अप्रैल 2013 की वह सुबह बंगलादेश के कपड़ा मज़दूरों के लिए एक भयावह सपने से कम नहीं थी। बंगलादेश की राजधानी ढाका से 20 मील उत्तर-पश्चिम में सावर नामक औद्योगिक इलाके में एक जर्जर इमारत के ढहने से 1000 से भी ज़्यादा मज़दूर इमारत के मलबे में दबकर मर गये। जैसे-जैसे दिन गुज़रते गये मज़दूरों की लाशें निकलती गयीं और यह आँकड़ा भी बढ़ता गया। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक लगभग 1100 मज़दूरों के मारे जाने की ख़बर थी और करीब 2500 से ज़्यादा मज़दूरों को बचाया जा चुका था। इस आठ-मंजिला इमारत में रेडीमेड कपड़ों के पाँच कारखाने थे। एक दिन पहले ही इस इमारत में दरारें नज़र आ गयी थीं और इसे ख़ाली करा लिया गया था। इसके बाद इमारत के मालिक ने बड़ी बेशरमी के साथ दावा किया कि यह इमारत 100 साल तक टिकी रह सकती है। अगले दिन कारखाना मालिकों ने मज़दूरों को फिर काम पर बुला लिया। मज़दूरों को धमकी दी गयी थी कि नहीं आने पर उन्हें काम से निकाल दिया जायेगा या वेतन काट लिया जायेगा। जिस वक्त यह हादसा हुआ करीब 3500 मज़दूर इस इमारत में काम कर रहे थे। इनमें से अधिकांश महिलाएँ थीं।
इस हादसे की जाँच के बाद जो बात सामने आयी उसमें कुछ भी नया नहीं था। इमारत मालिक और कारखाना मालिकों द्वारा सुरक्षा मानदण्डों की गम्भीर अनदेखी की गयी थी। इमारत की मूल स्वीकृति केवल पाँच मंजिलों और एक शॉपिंग मॉल की थी, भारी मशीनों से लैस कारखाना चलाने की नहीं। लेकिन भारत की ही तरह तीसरी दुनिया के ज़्यादातर देशों में, जिसमें बंगलादेश भी शामिल है, श्रम कानूनों और नियमों का उल्लंघन एक आम बात है। इमारत का मालिक सत्तारूढ़ अवामी लीग की युवा शाखा का स्थानीय नेता है। हादसे के बाद इसे और कारखाना मालिकों को गिरफ्तार तो कर लिया गया है, लेकिन इसके बाद इस मामले में ज़्यादा कुछ होगा, इसकी उम्मीद कम ही है।
बंगलादेश की यह घटना पूँजीवादी व्यवस्था और समाज की प्रतीक घटना है। यह घटना इस सच्चाई की याददिहानी है कि मुनाफ़े की अन्धी हवस में मालिकों का पूरा वर्ग किस तरह सुरक्षा इन्तज़ामों की अनदेखी करता है और हर दिन कितने मज़दूरों को इसके कारण अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है। तीसरी दुनिया के देशों पर तो यह बात और भी ज़्यादा लागू होती है। मालिकों का पूरा वर्ग मुनाफ़े के मार्जिन को बढ़ाने के लिए और लागत को ज़्यादा से ज़्यादा कम करने के लिए औद्योगिक इकाइयों में सुरक्षा मानदण्डों को ताक पर रखते हैं। भारत, पाकिस्तान, बंगलादेश जैसे देशों में मज़दूर हर रोज़ असुरक्षित कार्यस्थितियों में काम करने के लिए अभिशप्त रहते हैं, इसलिए औद्योगिक दुर्घटनाएँ इन देशों में आम बात है। खुद आई.एल.ओ. की रिपोर्ट कहती है कि ऐसे देशों में प्रतिदिन 6300 मज़दूर इन दुर्घटनाओं में अपनी जान गँवाते हैं। किसी भी लिहाज़ से यह आँकड़ा एक सही तस्वीर नहीं पेश करता है, और यह माना जा सकता है कि सही आँकड़ा इससे कहीं ज़्यादा होगा। लेकिन सोचने की बात है कि ऐसी सभी घटनाओं को दुर्घटना कहना कितना सही है। ये दुर्घटनाएँ नहीं हैं बल्कि जानबूझकर सोचे-समझे तरीके से की गयी हत्याएँ हैं। ये घटनाएँ अनजाने में हुई लापरवाही के चलते नहीं बल्कि मुनाफा बढ़ाने के लिए जानबूझकर सुरक्षा उपायों की अनदेखी के कारण घटित होती हैं। इसके बाद भी अगर इन्हें महज़ दुर्घटना की संज्ञा दी जाती है, तो इससे भद्दा मज़ाक और कोई नहीं हो सकता।
बंगलादेश में घटित यह त्रासदी 1984 की भोपाल गैस त्रासदी के बाद से विश्व की सबसे भयंकर औद्योगिक त्रासदी है और कपड़ा उद्योग में अब तक की सबसे भीषण त्रासदी है। अभी इस घटना को कुछ ही दिन हुए थे कि एक अन्य गारमेण्ट फैक्टरी में आग लगने से 6 मज़दूरों की मौत हो गयी। 2005 में बंगलादेश में ही एक फैक्टरी की इमारत ढह जाने से 73 लोगों की मौत हुई जिनमें से ज़्यादातर कपड़ा उद्योग में लगे मज़दूर थे। नवम्बर 2012 में एक कपड़ा कारखाने में आग लगने से 112 मज़दूरों की जान गयी और कई सौ मज़दूर बुरी तरह से झुलस गये। बंगलादेश का कपड़ा उद्योग लगभग 20 बिलियन डॉलर का उद्योग है। ऐसी “दुर्घटनाएँ” लगभग रोज़ ही इस उद्योग में होती हैं। सस्ते श्रम की उपलब्धता के कारण कपड़ा उद्योग बंगलादेशी अर्थव्यवस्था के लिए सबसे आवश्यक सेक्टर बन चुका है। अमेरिका और यूरोप की बड़ी-बड़ी रिटेल कम्पनियों का माल यहीं तैयार होता है। देश भर में लगभग 4500 कपड़ा कारखाने हैं जिनमें 40 लाख से भी ज़्यादा मज़दूर काम करते हैं। इनमें 32 लाख तो केवल स्त्री मज़दूर हैं। बड़े-बड़े पश्चिमी रिटेल ब्राण्डों के लिए कपड़ा तैयार करने वाले इस उद्योग की असलियत इस बात से ही ज़ाहिर हो जाती है कि यहाँ काम करने वाले मज़दूरों को महीने का दो हज़ार रुपये से भी कम मज़दूरी मिलती है। वहीं दूसरी तरफ़ यह उद्योग बंगलादेश के सालाना निर्यात का 80 प्रतिशत से ज़्यादा हिस्सा पैदा करता है। और बंगलादेश को चीन के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा कपड़ा निर्यातक बनाता है। लेकिन न तो कभी कारखानेदारों तो और न ही इनके ताक़तवर संघ बी.जी.एम.ई.ए. यानी, ‘बंगलादेश गारमेण्ट मैन्युफैक्चरर्स एण्ड एक्सपोर्टर्स एसोसियेशन’, ने मज़दूरों की सुरक्षा की सुध ली। ज़्यादातर कारखानों में मज़दूरों के हितों और अधिकारों की रक्षा के लिए ट्रेड यूनियनें तक नहीं हैं। बंगलादेश के कपड़ा उद्योग की इस त्रासदी ने एक बार फिर इस सच्चाई को रेखांकित किया है कि पूँजीवाद न सिर्फ मज़दूरों का अमानवीय शोषण ही करता है बल्कि पूँजीवादी व्यवस्था में मज़दूरों की जान की भी कोई कीमत नहीं है। साथ ही, यह सच्चाई भी एक बार फिर सामने आयी है कि मज़दूरों को अमानवीय कार्यस्थितियों में काम करने के लिए न सिर्फ छोटी देशी पूँजी बल्कि बड़ी विदेशी पूँजी भी मजबूर करती है। ये तमाम बड़ी रिटेल कम्पनियाँ मज़दूरों की सुरक्षा को लेकर एकदम बेफिक्र रहती हैं। लेकिन इस बार मीडिया में बड़ी ख़बर बनने के बाद इन तमाम बड़ी रिटेल कम्पनियों की काफ़ी छीछालेदर हुई और अब ये अपनी जिम्मेदारी से मुँह चुराने की स्थिति में नहीं हैं, जैसा कि वे पहले थीं। नतीजतन, वॉल मार्ट जैसी कम्पनियों ने कुछ बयान दे दिये कि अब वे ऐसी कम्पनियों को काम नहीं देंगी और काम देने से पहले उनकी जाँच करेंगी। लेकिन यह समझा जा सकता है कि यह महज़ एक ढोंग है। मन्दी के समय में लागत को कम करने की बदहवासी में बड़ी से बड़ी कम्पनियों सभी श्रम कानूनों और मानकों को ताक पर रखकर, सस्ते श्रम के लिए ‘तीसरी दुनिया’ के देशों में बिना किसी जाँच के तमाम कम्पनियों को काम सौंप रही हैं। यह उन्हें उनकी जिम्मेदारी और सिरदर्द से मुक्ति देता है और लागत को भी कम करता है। ऐसा नहीं है कि हालिया दुर्घटना बंगलादेश के कपड़ा उद्योग में हुई पहली दुर्घटना है, हालाँकि यह सच है कि यह अब तक की सबसे बड़ी दुर्घटना थी। लेकिन हर दुर्घटना के बाद उन्नत देशों के नागरिकों में अपनी इज़्ज़त और साख बचाने के लिए ऐसी कम्पनियाँ कुछ दिखावटी बयान दे देती हैं लेकिन अपने कुकर्म जारी रखती हैं। वॉल मार्ट और उस जैसी कुछ बड़ी कपड़ा कम्पनियों ने भी इस बार ऐसा ही किया है।
यहाँ यह बात भी ग़ौरतलब है कि न सिर्फ अमेरिका और अन्य उन्नत देशों का, बल्कि भारत और बंगलादेश जैसी पिछड़े पूँजीवादी देशों के खाते-पीते उच्च मध्यवर्ग को ऐसी घटनाओं से कोई फर्क नहीं पड़ता। 1960 या 1970 के दशक में मध्यवर्ग का भी चरित्र ऐसा था कि ऐसी किसी भी घटना के बाद उसके तमाम लोग ऐसी कम्पनियों के उत्पादों का बहिष्कार कर देते। लेकिन आज के अघाये हुए मध्यवर्ग को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि वॉल मार्ट के किसी स्टोर से ख़रीदी उसकी डिज़ाइनर जींस या शर्ट मज़दूरों के खून से तर हो। साथ ही, यह भी ग़ौर करने वाली बात है कि इस घटना पर तमाम एन.जी.ओ.-पंथियों और सुधारवादियों की क्या प्रतिक्रिया रही। तमाम एन.जी.ओ. इन बड़े रिटेल ब्राण्डों को उपदेश देने का दिखावा करते हुए यह सलाह दे रहे हैं कि उन्हें उन्हीं कम्पनियों को अपने काम का ठेका देना चाहिए जो कम-से-कम मज़दूरों की सुरक्षा की गारण्टी तो लेती हों। लेकिन इन्हीं कारखानों में हर रोज़ जिस तरीके से श्रम कानूनों और मानकों का उल्लंघन किया जाता है, उस पर ये तमाम एन.जी.ओ. कभी कुछ नहीं कहते और न ही ये उस शोषण के बारे में ही कुछ कहते हैं जो पूँजीवाद के साथ नाभिनालबद्ध है। मज़दूरों की सुरक्षा के प्रति यह सरोकार भी एक नाटक ही है, क्योंकि ये तमाम एन.जी.ओ. मज़दूर सुरक्षा को लेकर नसीहतें देने के साथ, परिशिष्ट में यह ज़रूर जोड़ देते हैं कि विदेशी कम्पनियों को बंगलादेश छोड़कर नहीं जाना चाहिए। बस उन्हें सन्त बन जाना चाहिए! मिसाल के तौर पर, साम्राज्यवाद के टुकड़ों पर पलने वाले बंगलादेश के तमाम दल्लों के सरगना मोहम्मद युसुफ़ (ग्रामीण बैंक और माइक्रो फाइनेंस के जनक, जिन्हें न जाने शान्ति का नोबेल पुरस्कार क्यों दिया गया था!) ने गिड़गिड़ाते हुए कहा कि इन बड़े रिटेल ब्राण्डों को बस थोड़ा-बहुत सुरक्षा इन्तज़ामों का ख़याल करना चाहिए, लेकिन इस दुर्घटना के बाद उन्हें बंगलादेश छोड़कर किसी दूसरे देश में निवेश नहीं करना चाहिए। इससे बंगलादेश की अर्थव्यवस्था को काफ़ी नुकसान पहुँचेगा और रोज़गार पर भी इसका बुरा असर पड़ेगा!
बंगलादेश की यह दुर्घटना इसी बात को सत्यापित कर रही है कि पूँजीवादी समाज में मज़दूर वर्ग मालिकों द्वारा मुनाफा कमाये जाने का साधन मात्र बनकर रह जाता है। यह घटना पूँजीवाद की इस क्षुद्र सच्चाई का प्रातिनिधिक उदाहरण है कि इस व्यवस्था में मज़दूरों की जान कौड़ियों से भी सस्ती है। गुज़रते एक-एक दिन के साथ पूँजीवाद का आदमखोर चरित्र इसी तरह की घटनाओं को अंजाम देकर अपने नग्नतम रूप में खुद को पेश कर रहा है। बंगलादेश में जो कुछ हुआ वह इसी की बानगी है, इसलिए दुनिया भर में मज़दूर वर्ग के जीने की शर्त पूँजीवाद का अन्त ही है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-जून 2013
'आह्वान' की सदस्यता लें!
आर्थिक सहयोग भी करें!