पश्चिम बंगाल : भारतीय वामपन्थ का संकट या संशोधनवादी सामाजिक फ़ासीवाद से खुले प्रतिक्रियावादी पूँजीवाद की ओर संक्रमण?
सम्पादकीय
पश्चिम बंगाल में बीते विधानसभा में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी)-नीत वाम मोर्चे की करारी हार के बाद जो दृश्य उपस्थित हुआ वह संशोधनवादी वामपन्थ ‘‘यानी, नाम में मार्क्सवादी, काम में पूँजीवादी’’ के पतन पर हमेशा ही उपस्थित होता है। पूरा मीडिया इसे वामपन्थ/मार्क्सवाद/कम्युनिज़्म के पतन की संज्ञा दे रहा था; खुले तौर पर पूँजीवादी (लोकतान्त्रिक!) अन्य पार्टियाँ भी यही गाना गा रही थीं। कुल मिलाकर, देश के पूँजीपति वर्ग की अगुवाई करने वालों ने हमेशा की तरह इस अवसर का पूरा लाभ उठाने की कोशिश की। 1989 में बर्लिन की दीवार गिरने, 1990 में सोवियत संघ के पतन और 1976 के बाद चीन में ‘‘बाज़ार समाजवाद” का जुमला उछलने के बाद विश्व-भर के पूँजीवादी मीडिया ने भी यही उन्मादी शोर मचाया था कि यह मार्क्सवाद की पराजय है। यह बेहद नैसर्गिक है कि पूँजीवादी मीडिया ऐसा करे।
लेकिन आज इस प्रचार का वैसा असर नहीं होने वाला था और न ही हुआ, जैसा कि 1989, 1990 और 1976 में हुआ था। तब से संशोधनवादियों ने तमाम ऐसे कारनामे किये हैं, जिससे कि उनका असली चरित्र साफ़ होने लगा है; इसके अतिरिक्त, दुनिया का माहौल भी दो अहम रूपों में काफ़ी बदला है। यह 1980 के पूरे दशक जैसा दौर नहीं है जब नामधारी समाजवादी सत्ताओं के पतन से पूरे विश्व के मज़दूर आन्दोलन में अपने इतिहास को लेकर एक संशयवादी, निराशावादी और अज्ञेयवादी माहौल पैदा हो गया था। 1990 के दशक की शुरुआत से लेकर आज तक के दौर में पूँजीवादी विश्व व्यवस्था के गहराते संकट ने एक बात आम लोगों के सामूहिक अचेतन में बिठा दी है : यह इतिहास और विश्व का अन्त नहीं हो सकता! ऐसी नरभक्षी, मानवद्रोही और विनाशकारी व्यवस्था मानवता का अन्त नहीं हो सकती है! दूसरी बात, साम्राज्यवाद-पूँजीवाद के गहराते संकटों ने दुनिया-भर में जनता के रैडिकल आन्दोलनों को जन्म दिया है। पूरी दुनिया में ‘मार्क्स की वापसी’, ‘कम्युनिज़्म के पुनर्जन्म’ आदि की ख़ूब बातें हो रही हैं। निश्चित रूप से, इसका अर्थ यह नहीं है कि कम्युनिस्ट आन्दोलन तत्काल कोई उभार देखने जा रहा है। अधिकांश देशों में क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन अन्दरूनी तौर पर दो विपरीत छोरों के भटकावों का शिकार है : एक छोर है, कठमुल्लावादी तरीके से पुराने फ़ार्मूलों से चिपके रहने और लकीर की फकीरी करने का; और दूसरा छोर है, धुरी-विहीन नववामपन्थी ‘‘मुक्त चिन्तन” का। जब तक इन दोनों विजातीय रुझानों से कम्युनिस्ट आन्दोलन मुक्ति नहीं पाता, तब तक मज़दूर वर्ग के आन्दोलन का सही तरीके से क्रान्तिकारी अगुवाई करने की स्थिति में वह नहीं आ सकता है और तब तक मज़दूर वर्ग का वर्ग-सचेत, लक्ष्य-सचेत और राजनीतिक और सांगठनिक तौर पर संगठित आन्दोलन खड़ा हो पाना मुश्किल नज़र आ रहा है। निश्चित तौर पर, स्वतःस्फूर्त उभारों में मज़दूर प्रमुख तौर पर हिस्सेदारी करेंगे और तमाम देशों में ऐसा हो भी रहा है। लेकिन यह अपने आप किसी क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन और मज़दूर वर्ग के आन्दोलन को जन्म नहीं देने वाला है। इन गम्भीर चुनौतियों के चलते एकदम तुरन्त कम्युनिस्ट आन्दोलन में कोई ज़बरदस्त उभार दिखने की सम्भावना कम ही है।
लेकिन यह कम्युनिस्ट आन्दोलन के अन्दरूनी संकट हैं। और ये किसी भी रूप में पूँजीवादी व्यवस्था की अच्छी सेहत का लक्षण नहीं हैं। यह एक अलग यथार्थ है। आज विश्व पूँजीवाद पिछले 80 वर्षों की सबसे बड़ी मन्दी देख रहा है। वहीं जनता के स्वतःस्फूर्त आन्दोलन भी तमाम देशों में फूट रहे हैं। यूरोप में, लातिनी अमेरिका में, एशिया और अफ्रीका में; हर जगह पूँजीवाद के गहराते संकट ने सामाजिक जनवादियों और संशोधनवादियों को काफ़ी हद तक बेनकाब किया है।
इन्हीं कारणों से आज पूँजीवादी मीडिया संशोधनवादी संसदीय वामपन्थ के पतन को अपनी लाख कोशिशों के बावजूद मार्क्सवाद की पराजय के रूप में चित्रित नहीं कर पा रहा है। हाँ, कुछ अशिक्षित साक्षरों ने ;जो अज्ञानवश ऐसा करते हैंद्ध जिसमें विशेष रूप से कुछ लोहियावादी समाजवादी शामिल हैं, तमाम अख़बारों के सम्पादकीय पृष्ठों को ‘मार्क्सवाद की असफलता’, ‘स्तालिनवाद की पराजय’, आदि जैसे जुमलों से रंग डाला। इन अशिक्षित साक्षरों के अलावा कुछ चतुर सुजान मार्क्सवाद-विरोधियों ने भी यही काम किया, जैसे कि सुधीश पचैरी जैसे धुरी-विहीन या सतत-परिवर्तनशील धुरियों वाले (इन्हें उत्तरआधुनिकतावादी कहना भी अतिशयोक्ति होगी, क्योंकि इनके लेखन को पढ़कर साफ़ तौर पर लगता है कि देरीदा, स्पिवाक, फूको, आदि जैसे उत्तरआधुनिक दार्शनिकों की किताबों की भी इन्होंने बस समीक्षा ही पढ़ी है!’’ बुद्धिजीवी! इसके अलावा, जिन लोगों ने पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे की पराजय को ‘लेनिनवादी/स्तालिनवादी’ मार्क्सवाद की पराजय का नाम दिया उनमें देश के तमाम ऐसे नववामपन्थी बुद्धिजीवी हैं, जो बीसवीं सदी के समाजवाद के प्रयोगों के बारे में माफ़ी माँगने के लिए पूँजीपतियों के सामने करबद्ध खड़े हैं; ये उत्तरमार्क्सवाद और नवमार्क्सवाद से प्रभावित बुद्धिजीवियों का एक गिरोह है जो मज़दूर वर्ग के आन्दोलन में कहीं भी नहीं हैं; इनमें आदित्य निगम, जैरस बनजी, आदि जैसे तमाम नववामपन्थी, पार्टी-विरोधी मार्क्सीय बुद्धिजीवी शामिल हैं, जो एलेन बेदियू, एण्टोनियो हार्ट और माईकेल नेग्री, लाक्लाऊ और माउफ जैसे उत्तरमार्क्सवादियों की पूँछ पकड़कर विचारधारा का ककहरा पढ़ रहे हैं। इनका अच्छा-ख़ासा प्रभाव मार्क्सवादी-लेनिनवादी आन्दोलन के बीच भी है। स्वयं पश्चिम बंगाल में अधिकांश मार्क्सवादी-लेनिनवादी क्रान्तिकारियों पर इनके ग़ैर-पार्टी क्रान्तिवाद का गहरा असर है। पश्चिम बंगाल में संसदीय वामपन्थ की पराजय का कारण ये पार्टी-सिद्धान्त में और लेनिन और स्तालिन द्वारा मार्क्सवाद में पैदा की गयी स्विकृति” को मानते हैं, जिसका अर्थ है हिरावल पार्टी का लेनिनवादी सिद्धान्त, जो अनिवार्य रूप से तथाकथित स्तालिनवादी अतियों में परिणामित होता है। इनका हमला वास्तव में माकपा के सामाजिक फ़ासीवादी चरित्र के बहाने मार्क्सवाद के बुनियादी सिद्धान्तों और उसूलों पर है। कोई भी व्यक्ति जो मार्क्सवाद की बुनियादी रचनाओं का भी अध्ययन कर चुका हो, वह इन नववामपन्थी गिरोहों के असली चरित्र को समझ सकता है, जिसके किसी सदस्य का मज़दूर वर्ग के आन्दोलन से न तो कोई लेना-देना है, और न ही उनके जीवन की आम जनता के जीवन से कोई भी नज़दीकी है। इनमें से कुछ विदेशों के विश्वविद्यालयों में पढ़ा रहे हैं और मार्क्सवाद को विकृत करने की कमाई खा रहे हैं; कुछ त्रात्स्कीपन्थी हैं जिन्हें किसी एक देश में भी क्रान्ति नहीं करनी है, इसलिए वे ‘‘विश्व क्रान्ति” की बात करते हैं; कुछ बेदियू, नेग्री, हार्ट, लाक्लाऊ, माउफ के अनुयायी हैं, तो दूसरे जि़ज़ेक जैसे रहस्यवादी-पॉप मार्क्सवादी के जो आज मार्क्सवाद की ऐसी हिफ़ाज़त कर रहे हैं कि उसे पूँजीवाद से किसी हमले की ज़रूरत ही नहीं रही! इन सभी में एक बात साझा है : ये सभी कुलीन वर्ग से आने वाले, कुलीन जीवन जीने वाले, मज़दूर वर्ग से मीलों दूर बसे पैसिव रैडिकल बुद्धिजीवी हैं। इनके खण्डन पर हम बहुत स्याही नहीं ख़र्च करेंगे।
अब मूल सवालों पर आते हैं। पश्चिम बंगाल में जिस चीज़ की हार हुई वह क्या है? तृणमूल कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबन्धन की ज़बरदस्त चुनावी जीत के पीछे कौन से कारक काम कर रहे थे? क्या यह भारत में संसदीय वामपन्थ का अन्त है? इन सवालों के जवाब की प्रक्रिया में ही कई अहम चीज़ें साफ़ हो जायेंगी।
पहली बात तो यह है कि माकपा को उतना ही मार्क्सवादी कहा जा सकता है, जितना आज के चीन को समाजवादी। पश्चिम बंगाल में 34 वर्ष के अपने शासन के दौरान संसदीय वामपन्थियों ने अनगिनत बार अपने मार्क्सवादी/कम्युनिस्ट न होने को पुष्ट किया। भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ‘‘मार्क्सवादी’’ पैदा ही संशोधनवाद में हुई थी। भारत की कम्युनिस्ट पार्टी तेलंगाना की पराजय के बाद अपने आपको पूरी तरह खुली संसदीय पार्टी के रूप में स्थापित कर चुकी थी। ये दोनों ही पार्टियाँ भारतीय राजनीति में संशोधनवाद के दो अलग शेड्स का प्रतिनिधित्व करती हैं, हालाँकि अब इनके बीच का फ़र्क इतना नगण्य हो चुका है कि इनके एकीकरण की चर्चाएँ शुरू हो चुकी हैं। इन पार्टियों का इंकलाब से कोई रिश्ता नहीं रहा है, यह इनके घोषणापत्र, संविधान, व्यवहार और ढाँचे को देखकर स्पष्ट हो जाता है। मार्क्सवाद की बुनियादी शिक्षाओं में एक यह है कि क्रान्ति का प्रश्न राजसत्ता का प्रश्न है और कोई भी क्रान्तिकारी पार्टी बुर्जुआ राजसत्ता पर चुनाव के रास्ते कब्ज़ा करके क्रान्ति नहीं कर सकती, बल्कि उसे चकनाचूर करके और उसकी जगह सर्वहारा राजसत्ता को स्थापित करके ही क्रान्ति कर सकती है। यह कोई आकाशवाणी जैसी बात नहीं है, बल्कि यह सूत्रीकरण इतिहास की शिक्षाओं से ही निकलकर आया था, और बाद में भी इतिहास ने इसे सही साबित किया। हम सभी चिली में अलेन्दे की सरकार की नियति से वाकिफ़ हैं, जो दिखलाती है कि अगर बुर्जुआ राजसत्ता को चकनाचूर किये बिना चुनाव के रास्ते कोई ईमानदार समाजवादी सत्ता में आ भी गया, तो समाजवादी नीतियों की शुरुआत करते ही वह राजसत्ता के ही कार्यकारी निकायों द्वारा उखाड़ फेंका जायेगा। खै़र, अलेन्दे तो कम-से-कम ईमानदार था, और इतिहास की शिक्षा सही तरीके से ग्रहण न करने की कीमत उसे अपनी शहादत से देनी पड़ी; माकपा और भाकपा की ईमानदारी के बारे में बात करके पाठकों को ‘कॉमिक रिलीफ़’ देने का हमारा कोई इरादा नहीं है। स्पष्ट है, कि मार्क्सवाद के बुनियादी सिद्धान्तों में प्रतिक्रियावादी संशोधन करके पूँजीवाद की सेवा करने वाली माकपा और भाकपा के लिए ‘मार्क्सवादी’ विशेषण का उपयोग करना एकदम हास्यास्पद होगा। बोल्शेविक पार्टी के उसूलों से इन संशोधनवादी पार्टियों को कोई लेना-देना नहीं है, क्योंकि बोल्शेविक होने की उन्हें कोई ज़रूरत ही नहीं है। बोल्शेविक होने की ज़रूरत उसे ही होगी, जिसे वाकई इंकलाब करना होगा। अपने 34 वर्ष के शासन में वाम मोर्चे ने अपने जनविरोधी चरित्र को बार-बार साफ़ किया है। यहाँ तक कि सत्ता में आने से पहले ही कांग्रेस के साथ गठबन्धन सरकार में रहते समय नक्सलबाड़ी के जनउभार को कुचलने के लिए माकपा ने जो-जो काम किये, उसे कौन भूल सकता है? इसलिए, इनके क्रान्तिकारी होने या न होने के बारे में कोई लम्बा विश्लेषण करके हम पाठकों में ऊब नहीं पैदा करना चाहते हैं।
दूसरा अहम सवाल है कि तृणमूल-नीत गठबन्धन की एकतरफ़ा जीत के पीछे कौन-से कारक काम कर रहे थे? सबसे पहली बात जो यहाँ हमें समझने की ज़रूरत है वह यह है कि पश्चिम बंगाल में चुनावों में मतदाताओं का फ़ैसला एक प्रतिक्रिया थी। ऐसा नहीं है कि तृणमूल कांग्रेस-नीत गठबन्धन को एक कारगर विकल्प मानकर उसके पक्ष में वोटिंग हुई हो। ममता बनर्जी ने पहले ही साफ़ कर दिया था कि वह ‘‘विकास” के लिए किये जाने वाले भूमि अधिग्रहण की विरोधी नहीं हैं। लेकिन वे भूमि अधिग्रहण या औद्योगिकीकरण के लिए ज़मीन के लेन-देन में सरकार की संस्थागत भूमिका के खि़लाफ़ हैं। यानी, अब भूमि के अधिग्रहण का काम किसानों और निजी पूँजी के बीच मुक्त रूप से होगा। कुल मिलाकर फ़र्क पूँजीवादी विकास के पैटर्न में आना है। ऐसा नहीं है कि ममता बनर्जी पूँजीवाद का कोई विकल्प पेश कर रही हैं, जैसा कि माकपा से प्रतिक्रिया में आये कुछ नववामपन्थी बुद्धिजीवी कह रहे हैं। आपको ऐसे तमाम नववाम बुद्धिजीवी पश्चिम बंगाल में मिल जायेंगे जो कहते हैं कि ‘‘इन (यानी माकपा के) मार्क्सवादियों से ज़्यादा मार्क्सवादी तो ममता बनर्जी है!” रोज़मर्रा बोले जाने वाले तमाम जुमलों में से एक होने पर तो यह जुमला ठीक है, लेकिन वैचारिक सटीकता के लिहाज़ से इसका कोई मतलब नहीं है। सच बात यह है कि जनता के पास कोई विकल्प था ही नहीं! ऐसे में, झूठे विकल्पों में से, यानी वे विकल्प जो विकल्प होने का दावा करते हैं, किसी एक को चुनना था। पिछले 34 वर्षों में संशोधनवादियों ने जो सामाजिक फ़ासीवादी गुण्डा राज पश्चिम बंगाल में चलाया, उसकी प्रतिक्रिया में जनता ने खुले प्रतिक्रियावादी पूँजीवाद को चुन लिया। यह सज़ा देने का एक उपक्रम था, जिसमें वास्तव में लम्बी दूरी में सज़ा जनता को ही मिलनी है, क्योंकि वास्तविक विकल्पों का कोई समुच्चय चुनावी व्यवस्था के भीतर उसके पास है ही नहीं। वास्तविक विकल्प पूँजीवादी जनवाद के दायरे के बाहर मौजूद है, लेकिन उस विकल्प के प्रति जनता को राजनीतिक तौर पर सचेत, गोलबन्द और संगठित करने वाली कोई अगुवा ताकत आज मौजूद नहीं है।
तृणमूल कांग्रेस को कुछ निश्चित असन्तुष्ट तबकों के वोट हासिल हुए। इसमें नन्दीग्राम-सिंगूर के दमित-उत्पीडि़त किसान, जंगलमहल की उत्पीडि़त जनजातीय आबादी, दार्जीलिंग के गोरखा, दूआर के कोची-राजबोंशी, और बेरोज़गार मज़दूरों, बेदख़ल किसानों, उजड़े भूमिहीनों की वह विशाल आबादी है जो सामाजिक फ़ासीवादी वाम मोर्चे की विकास की नीति के परिणामस्वरूप पैदा हुई है। इन सभी तबकों का ढीला-ढाला गठबन्धन ही तृणमूल कांग्रेस के उभार का सामाजिक आधार है। यह गठबन्धन भी बेहद कमज़ोर और विचित्र है। इन सभी तबकों के बीच तमाम अन्तरविरोध मौजूद हैं। इस गठबन्धन का लम्बे समय तक चलना तृणमूल कांग्रेस के लिए बेहद ज़रूरी है। इसके लिए तृणमूल कांग्रेस-नीत गठबन्धन की सरकार इन तबकों के हितों में अवसरवादी तरीके से तालमेल करते हुए चलने की कोशिश करेगी। निश्चित तौर पर, इस पूरी प्रक्रिया में इन तबकों के शासक वर्गों का ध्यान रखा जायेगा। जहाँ तक ग़रीब किसानों, बेरोज़गार मज़दूरों और भूमिहीन मज़दूरों का प्रश्न है, वे या तो जल्दी ही समझ जायेंगे या पहले से ही समझते हैं कि तृणमूल कांग्रेस-नीत गठबन्धन की सरकार उनके हितों के लिए कुछ भी नहीं करने वाली है। वास्तव में उनका वोट (माकपा के लिए) पनिशमेण्ट वोट था, (तृणमूल के लिए) रिवॉर्ड वोट नहीं।
कोई क्रान्तिकारी ताकत भी संशोधनवादी सामाजिक फ़ासीवाद के शासन से असन्तुष्ट तबकों की माँगों को अपने एजेण्डे में अधिकतम सम्भव समायोजित करने की कोशिश करती। लेकिन ऐसा करते हुए उसका प्रमुख ज़ोर इन तबकों में सर्वहारा वर्ग के दृष्टिकोण से राजनीतिक प्रचार और आन्दोलन पर होता। लेकिन कोई भी शक्ति इस समय इस काम को कारगर तरीके से अंजाम नहीं दे पा रही है। ऐसे में प्रतिक्रियावादी ताकतें पहचान की राजनीति और अवसरवादी पूँजीवादी राजनीतिक प्रबन्धन कर इन असमान और वैविध्यपूर्ण पहचानों के बीच धन (+) का चिन्ह लगाकर इनके पूँजीवादी गठबन्धन का इस्तेमाल करेंगी। यह कालान्तर में इन पहचानों के भीतर वर्ग अन्तरविरोधों को और तीखा बनायेगा। लेकिन यह भविष्य की बात है।
दूसरा कारक जिसने तृणमूल कांग्रेस को भारी फ़ायदा पहुँचाया वह था कांग्रेस और सोशलिस्ट यूनिटी सेण्टर ऑफ़ इण्डिया के साथ उसका गठजोड़। जिन क्षेत्रों में तृणमूल कांग्रेस का गहरा आधार नहीं था वहाँ एस.यू.सी.आई. के आधार ने उसे काफ़ी मदद पहुँचायी। इस गठबन्धन ने एस.यू.सी.आई. के चरित्र को एक बार फिर साफ़ किया है। यह गठबन्धन एस.यू.सी.आई. ने किसी अज्ञानतावश नहीं किया है। बल्कि ऐसे अवसरवादी गठबन्धन संशोधनवादी चुनावी राजनीति का एक अभिन्न अंग होते हैं। नन्दीग्राम और सिंगूर में किसानों के आन्दोलन में तृणमूल कांग्रेस की भूमिका और माकपा-नीत सामाजिक फ़ासीवादी गठबन्धन को सत्ता से बाहर करना एस.यू.सी.आई. के लिए प्रमुख कारण थे, जिनके चलते ममता बनर्जी का एस.यू.सी.आई. ने साथ दिया। स्पष्टतः यह एक नकारात्मक नीति थी। और यह लाजि़मी था कि यह नीति अपनायी जाती क्योंकि एस.यू.सी.आई. भी संशोधनवाद की ही एक दूसरी प्रजाति है।
तीसरा अहम सवाल जो इस सन्दर्भ में हमारे समक्ष है कि इस गठबन्धन की जीत के बाद आगे किस प्रकार की सत्ता पश्चिम बंगाल में हमें देखने को मिलेगी। इसका जवाब साफ़ है। इस गठबन्धन की विजय के फलस्वरूप हम राज्य की चुनावी राजनीति में एक संक्रमण देखेंगे : संशोधनवादी सामाजिक फ़ासीवाद से खुले पूँजीवादी प्रतिक्रियावाद की तरफ़। इस राजनीति के तहत उपरोक्त उल्लिखित तबकों के पूँजीपति और टुटपुँजिया वर्गों द्वारा मज़दूर वर्ग के हितों पर प्रभुत्व स्थापित किया जायेगा और इन तबकों के प्रभुत्वशाली वर्गों के हितों के बीच राज्य सरकार एक तालमेल स्थापित करने के प्रयास में लगी रहेगी। इस सरकार में कुछ भी जनपक्षधर या मज़दूर-समर्थक नहीं है, और न ही किसान समर्थक। किसानों की ज़मीनों को हड़पने, सर्वहाराकरण और दरिद्रीकरण की प्रक्रिया जारी रहेगी। बस फ़र्क इतना आयेगा कि इस पूरी प्रक्रिया में राज्य की भूमिका प्रत्यक्ष हस्तक्षेपकारी की बजाय सहायक (फ़ैसिलिटेटर) की हो जायेगी। जहाँ तक राज्य में भाकपा ‘‘माओवादी’’ के दमन का प्रश्न है, उसमें तात्कालिक तौर पर कुछ फ़र्क आ सकता है लेकिन लम्बी दूरी में राज्य सरकार उनके दमन की वही नीति अपनायेगी जो पूरे देश में अन्य राज्यों में अपनायी जा रही है। इसके अलावा ममता बनर्जी की सरकार और कुछ कर भी नहीं सकती है। हमें भूलना नहीं चाहिए कि ममता बनर्जी उसी सिद्धार्थ शंकर रे की चहेती थी जिसे नक्सलबाड़ी उभार के दौर में पश्चिम बंगाल के क्रान्तिकारी छात्रों-युवाओं के कसाई की संज्ञा दी गयी थी। मार्क्सवादी-लेनिनवादी आन्दोलन के बिखरते शिविर के तमाम घटकों का यह भ्रम जल्दी ही दूर हो जायेगा कि ममता बनर्जी भाकपा ‘‘माओवादी’’ के प्रति कोई सहानुभूति भरी नीति अपनाने वाली है।
कुल मिलाकर, ममता बनर्जी की सरकार औद्योगिक पूँजी, धनी किसानों, और खाते-पीते मध्यवर्ग के हितों का प्रतिनिधित्व एक दूसरी तरह से करेगी, जो मज़दूर वर्ग, ग़रीब और निम्न-मध्यम किसानों और शहरी निम्न मध्यम वर्ग के हितों को इनके अधीन करते हुए उन्हें तबाही की ओर धकेलना जारी रखेगी।
पश्चिम बंगाल में संशोधनवादी माकपा के उदय के पीछे ऐतिहासिक तौर पर कुछ निश्चित कारण काम कर रहे थे। वास्तव में, यही कारण अपने विपरीत में तब्दील हो गये हैं। ऑपरेशन बरगा के ज़रिये माकपा ने भूमि सुधार करते हुए छोटे ख़ुदकाश्त किसानों के एक पूरे वर्ग को जन्म दिया था। यही वर्ग ऐतिहासिक तौर पर पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे का सामाजिक आधार रहा है। सामन्ती उत्पादन सम्बन्धों के अवशेषों की भारी मौजूदगी और पूँजीवादी विकास के अभाव के दौरान ये भूमि सुधार अपने सन्तृप्ति बिन्दु पर नहीं पहुँच सकते थे। लेकिन देश भर में और पश्चिम बंगाल में नयी आर्थिक नीतियों की शुरुआत और सार्वजनिक क्षेत्र के राज्य पूँजीवाद को तिलांजलि दिये जाने के बाद छोटी किसानी की व्यवस्था का लम्बे समय तक जारी रह पाना मुश्किल था। छोटे पैमाने का किसानी उत्पादन स्वतः पूँजी के प्रवेश और पूँजीवादी विकास में बाधाएँ पैदा करता है। संशोधनवादी माकपा-नीत वाम मोर्चा पश्चिम बंगाल में अलग से कोई समाजवादी विकास न तो कर ही सकता था और न ही ऐसा इरादा रखता था। उसे अपनी शैली में पूँजीवादी विकास के पथ पर ही चलना था। और पूँजीवादी विकास के किसी भी मॉडल के दायरे के भीतर छोटी किसानी के ऐसे व्यापक ढाँचे को देर-सबेर तबाह होना ही था। राज्य में पूँजीवादी औद्योगिकीकरण के तेज़ी से शुरू होने के बाद बड़े पैमाने पर किसानों के उजड़ने, भूमि अधिग्रहण और भूमि के संकेन्द्रीकरण की शुरुआत हुई। नन्दीग्राम और सिंगूर में जो कुछ हुआ वह इसी प्रक्रिया के फलस्वरूप हुआ। लालगढ़ में भी जो हुआ वह इसी पूँजीवादी संचय की प्रक्रिया का एक हिस्सा था।
वाम मोर्चे के लिए संकट यह था कि वामपन्थी जुमलों के साथ इस प्रक्रिया को चला पाना उनके लिए सम्भव नहीं था। यही कारण है कि पिछले दो दशकों के दौरान, ज्योति बसु के समय से ही वाम मोर्चा अपने को बेनकाब होने से बचाने के लिए वाम के जुमलों का जो कुशलतापूर्ण उपयोग करता था, वह समय बीतने के साथ लगातार असम्भव होता गया। वाम मोर्चे के लिए पूँजीवादी विकास को धड़ल्ले से आगे बढ़ाने की राह काफ़ी कठिन थी। यह काम किसी कांग्रेस या भाजपा की सरकार के लिए मुश्किल नहीं होता, क्योंकि उनके जुमले ही अलग हैं। लेकिन संशोधनवादियों को कम-से-कम संशोधनवादी रहने के लिए कुछ जुमलों का ख़र्च उठाना पड़ता है। अब वह ख़र्च काफ़ी बढ़ गया था और वाम मोर्चे के बजट को लाँघ गया था। ऐसा करने के लिए वाम मोर्चे को अपना चरित्र और ज़्यादा नग्न तौर पर सामाजिक फ़ासीवादी, ग़ैर-जनवादी और सर्वसत्तावादी बनाना ज़रूरी था और पिछले दो दशकों में यही हुआ है। अगर आप ज्योति बसु के 1990 के दशक के उत्तराद्र्ध के बयानों और बुद्धदेव भट्टाचार्य के शुरू से लेकर अन्त तक के बयानों को देखें तो वे खुले तौर पर मज़दूर-विरोधी, कारपोरेट पूँजी के समर्थक और वर्ग सहयोग की जगह पूँजी के वर्ग प्रभुत्व के समर्थक हो चुके थे। यह पश्चिम बंगाल के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक विकास का राज्य की संशोधनवादी राजनीति में प्रतिबिम्बन ही था।
वाम मोर्चे की नीतियों के निशाने पर अब सीधे तौर पर ग़रीब किसान और मज़दूर आबादी थी और इसके बारे में वाम मोर्चे की सरकार किसी भी रूप में माफ़ी माँगने की मुद्रा में नहीं थी। इन नीतियों को खुले तौर पर फ़ासीवादी तरीके से लागू किया जा रहा था। जो वर्ग इन नीतियों के प्रमुख लाभप्राप्तकर्ता थे, वे थे धनी किसान, बड़े और मँझोले पूँजीपति और शहरों का खाता-पीता पेशेवर मध्यवर्ग। पिछले दो दशकों में पश्चिम बंगाल धनी पूँजीवादी किसानों के एक ऐसे वर्ग के उदय का साक्षी बना है जो अपनी पूँजी का वैविध्यीकरण करना चाहता है और विशेष रूप से रियल एस्टेट में पूँजी लगाना चाहता है। इस काम में माकपा-नीत वाम मोर्चा सरकार ने राज्य के सभी उपकरणों और अपने काडरों का उपयोग करके इस वर्ग की जमकर सहायता की है। पश्चिम बंगाल में माकपा को रियल एस्टेट एजेण्टों की पार्टी के तौर पर भी जाना जाता है। दूसरी तरफ़, ग़रीब किसानों से जबरन ज़मीन छीनकर कारपोरेटों के हाथों में सौंपकर माकपा कारपोरेट पूँजीपति घरानों की भी चहेती बन गयी। संक्षेप में कहें तो धनी पूँजीवादी फ़ार्मरों और कारपोरेट पूँजी के हितों की पूर्ति के लिए माकपा ने पूँजी की तानाशाही को जिस नग्न रूप में लागू किया, वह किसी भी रूप में गुजरात में नरेन्द्र मोदी की सरकार से प्रतिस्पर्द्धा कर सकती थी।
ममता बनर्जी की सरकार इस पूरे काम को ही एक दूसरी तरह से अंजाम देने वाली है। नीतियों में कोई भी फ़र्क नहीं आना है। मज़दूर वर्ग और ग़रीब किसानों पर पूँजी की तानाशाही को लागू करने की पूरी प्रक्रिया में प्रत्यक्ष सरकारी हस्तक्षेप को कम कर अब मुक्त बाज़ार के स्मिथीय ‘‘प्रच्छन्न हस्त गतिकी” का इस्तेमाल किया जायेगा जो शुरू में किसी ऑप्टिकल इल्यूज़न को पैदा कर सकता है। लेकिन जल्द ही यह भ्रम दूर हो जायेगा। और कालान्तर में जहाँ-जहाँ निजी पूँजी की सौदेबाज़ी इस ‘‘प्रच्छन्न हस्त गतिकी” से सफल नहीं होगी, वहाँ-वहाँ ममता बनर्जी की सरकार अपने किसान-समर्थन उदार मुखौटे को उतारकर वैसा ही व्यवहार करेगी जैसा कि कोई भी पूँजीवादी सरकार करती है। एक मायने में यह परिवर्तन बेहद अच्छा है। यह मार्क्सवादी-लेनिनवादी क्रान्तिकारियों के कई भ्रमों को साफ़ करेगा। यह एक दीगर बात है कि इन भ्रमों से छुटकारा काफ़ी कीमत चुकाकर मिलेगा।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-जून 2011
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