अग्निपथ: ठेके पर “राष्ट्र सेवा” की योजना

अविनाश

कवि पास्टर निमोलर ने कहा था कि फ़ासीवादी, देशप्रेम और “राष्ट्रवाद” की डफली बजाते हुए अन्तत: किसी को नहीं छोड़ते! इस बात की प्रमाणिकता आज भारतीय फ़ासीवादी निज़ाम पेश कर रहा है। फ़ासीवादी सत्ता द्वारा आतंकवादियों की फण्डिंग रोकने और “राष्ट्र” की सुरक्षा की आड़ में आम जनता के हितों पर हमले का जो सिलसिला नोटबन्दी से चला वह जीएसटी, श्रम क़ानूनों में बदलाव, सरकारी विभागों में लैटरल एण्ट्री, सरकारी कर्मचारियों को सीआरएस/वीआरएस के ज़रिये जबरिया सेवानिवृत्ति, विभागों के निजीकरण आदि रूपों में आज भी जारी है। अब बारी है सैनिक और अर्द्धसैनिक बलों की!
मोदी सरकार द्वारा सैनिक और अर्द्धसैनिक बलों की भर्ती के लिए लायी गयी अग्निपथ योजना पूरे देश में कुछ दिनों तक चर्चा, बहस और विवाद का मसला बनी रही। इस फ़ैसले के बाद पूरे देश में स्वतःस्फूर्त तरीक़े से छात्रों-युवाओं का असन्तोष उग्र प्रदर्शन के रूप में फूट पड़ा। सैकड़ों की संख्या में ट्रेनों-बसों, कार्यालयों आदि को आग के हवाले कर दिया गया। कई जगहों पर इसके ख़िलाफ़ बड़े-बड़े प्रदर्शन हुए और कई जगहों पर यह सिलसिला अभी चल रहा है। इन प्रदर्शनों के बाद सत्ता द्वारा पूरे देश में दमन और उत्पीड़न के नये कीर्तिमान रचे गये और अब भी दमन का पाटा अलग-अलग रूपों में चल रहा है। छात्रों-नौजवानों के आक्रोश के मुख्य केन्द्रों पर अघोषित कर्फ़्यू लगा दिया गया। छात्र-बहुल केन्द्रों के चौराहों-नुक्कड़ों पर पुलिस लगी हुई है। सारे कोचिंग सेण्टरों को प्रशासन द्वारा जबरिया बन्द करवा दिया गया था। प्रशासन द्वारा कोचिंग संचालकों को योजना के पक्ष में वीडियो बनाने के लिए बाकायदा निर्देशित किया गया था। तमाम राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं की एक-एक गतिविधियों की निगरानी की जा रही थी और केवल सन्देह के बिना पर कार्यकर्ताओं को गिरफ़्तार किया जा रहा था।
सत्ता में पहुँचने के लिए भाजपा ने अपने चुनाव प्रचार में सेना, देशप्रेम, राष्ट्रवाद, राष्ट्रसेवा का ख़ूब भावनात्मक इस्तेमाल किया था। इस प्रक्रिया में फासिस्टों ने सेना का निरपेक्ष आदर्शीकरण कर इसे सवालों से परे किसी दैवीय शक्ति के रूप में प्रस्तुत किया। लेकिन आज यही सेना के जवान फासिस्टों के ख़ूनी पंजों का शिकार हो रहे हैं।

क्या है अग्निपथ योजना?

वास्तव में अग्निपथ योजना ठेके पर “राष्ट्र-सेवा” की योजना है। मोदी सरकार ‘अग्निपथ’ के ज़रिये सैनिक और अर्द्धसैनिक बलों को भी ‘फ़िक्स्ड टर्म एम्प्लॉयमेण्ट’ या ‘फ़िक्स्ड टर्म कॉण्ट्रेक्ट’ या ज़्यादा साफ़ शब्दों में कहें तो ठेका प्रथा के मातहत ला रही है। अग्निपथ के तहत सैनिक व अर्द्धसैनिक बलों में “अग्निवीरों” को चार वर्ष के लिए नौकरी दी जायेगी और उसके बाद 75 फ़ीसदी नौजवानों को बिना किसी सामाजिक सुरक्षा के सड़कों पर धक्के खाने के लिये छोड़ दिया जायेगा। इन “अग्निवीरों” को पेंशन व ग्रैच्युटी आदि जैसे अधिकार भी हासिल नहीं होंगे। पेमेण्ट ऑफ ग्रैच्युटी एक्ट”, 1972 के मुताबिक़ अगर कोई शख्स़ किसी कम्पनी या किसी संस्था के लिए कम से कम 5 साल तक काम करता है तो वह ग्रैच्युटी का हक़दार होता है। ग्रैच्युटी की गणना करते समय महीने को 26 दिन का ही माना जाता है। इस प्रकार अगर कोई व्यक्ति किसी नियोक्ता के यहाँ 1560 दिनों तक काम करता है तो वह ग्रैच्युटी क़ानून के तहत ग्रैच्युटी पाने का अधिकारी हो जाता है। लेकिन मोदी जी ने एक बार फिर यहाँ मास्टर स्ट्रोक लगाया और अग्निवीरों को 1460 दिनों के लिए ही नियुक्त कर ग्रैच्युटी के आधार को ही ख़त्म कर दिया।
फ़ासिस्टों द्वारा सेना के जवानों के हितों पर किया जाने वाला यह हमला दरअसल देश के छात्रों-नौजवानों, आम मेहनतकशों, मज़दूरों, ग़रीब व निम्न मध्यम किसानों आदि पर होने वाला परोक्ष हमला है। सेना और फौज़ में कौन जाता है? क्या नेताओं-मन्त्रियों, पूँजीपतियों के बेटे जाते हैं? नहीं! इनके बेटे-बेटियाँ जनता की लूट के पैसों से विदेशों में सैर करते हैं, जो यहाँ रह जाते हैं उन्हें बड़े प्रशासनिक पदों पर नियुक्त कर लिया जाता है। सच्चाई यही है कि सेना-पुलिस में आम मेहनतकश और निम्न-मध्यम वर्ग के घरों के बेटे-बेटियाँ जाते हैं जिनको यह व्यवस्था अपने हितों के मातहत ट्रेनिंग देकर तैयार करती है। पूँजीवादी राज्यसत्ता द्वारा पूँजी के निहित स्वार्थों के मद्देनज़र सेना के जवानों को सोचने-विचारने की क्षमता से रिक्त कर बिना सवाल किये केवल आदेश मानने वाले रोबोट में बदलने का हर सम्भव प्रयास करता है। इसीलिए इनको हर प्रकार की राजनीतिक गतिविधि, इतिहास, देश-विदेश में चल रही बहसों आदि से दूर रखा जाता है। यहाँ तक की सैन्य बलों को सामान्य नागरिक अधिकारों जैसे कि यूनियन आदि बनाने के अधिकार से भी वंचित रखा जाता है। सेना में व्याप्त अलोकतान्त्रिक-ग़ैरजनवादी माहौल और भयंकर शोषण, उत्पीड़न और अपमान के कारण सैनिक व अर्द्धसैनिक बलों में तेज़ी से अवसाद फैल रहा है। लम्बे समय तक ऐसी जटिल और उबाऊ परिस्थितियों में काम करने के कारण हताश-निराश नौजवान आत्महत्या जैसे क़दम उठा रहे हैं। पिछले सात सालों में 800 से अधिक सेना के जवानों ने इस स्थिति से तंग आकर आत्महत्या का रास्ता चुना है, यह संख्या कारगिल युद्ध में मारे गये सैनिकों की संख्या (527) से काफ़ी ज़्यादा है। सेना के जवानों की आत्महत्याओं की यह वह संख्या है जो सेना में भयंकर सरकारी सेंसर के बाद लोगों तक पहुँची है। अगर सही से रिपोर्टिंग की जाय तो यह संख्या इससे कई गुना ज़्यादा होगी। इस योजना के आने के बाद ही देश भर से सेना में जाने के इच्छुक दर्जनों छात्र आत्महत्या कर चुके हैं।
ऐसा नहीं है कि मोदी सरकार ‘अग्निपथ’ जैसी घोर छात्र-नौजवान विरोधी योजना को रातों-रात लेकर आ गयी है। इसकी पूर्वपीठिका काफ़ी लम्बे समय से तैयार की जा रही थी, तब समाज में एक प्रकार की मुर्दाशान्ति छायी हुई थी। सत्ता सम्भालते ही मोदी सरकार ने सरकारी विभागों में उच्च पदों पर भर्ती के लिए ‘लैटरल एण्ट्री’ की नीति अपनाकर अपना इरादा ज़ाहिर कर दिया था। फिर सरकारी विभागों में भर्तियों को लगभग रोक दिया गया और सरकारी विभागों के अन्धाधुन्ध निजीकरण का दौर शुरू हुआ। अगले क़दम के तौर पर मोदी सरकार द्वारा पेट्रोलियम उत्पादों पर भारी कर लगाकर सरकारी घाटे को कम करने का काम किया गया। देशभर में पूँजीपति वर्ग को नये लेबर कोड्स के तहत मज़दूरों के श्रम के बेरोकटोक शोषण की पूरी छूट देने की भी तैयारी की जा चुकी है, हालाँकि देश के 93 प्रतिशत अनौपचारिक क्षेत्र के मज़दूरों के श्रम की लूट की खुली छूट तो पहले से ही मिली हुई थी। अब श्रम क़ानूनों की वजह से पूँजीपतियों को जो थोड़ी-बहुत दिक्कत होती थी, उसे भी ख़त्म किया जा रहा है। सेवानिवृत्ति के बाद जीवन यापन के लिए मिलने वाली पेंशन को तो अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार ही डकार गयी थी। अब इस क्रम को आगे बढ़ाते हुए सेना में ‘अग्निपथ’ योजना के ज़रिये देश के मज़दूरों-ग़रीब किसानों के बेटे-बेटियों से स्थायी नौकरी का हक़, पेंशन का हक़ और ग्रैच्युटी का हक़ भी छीना जा रहा है।

‘अग्निपथ योजना’ के पीछे असली मंशा क्या है?

अग्निपथ योजना के पीछे की मूल वजह मोदी सरकार द्वारा राजकोषीय घाटे को पाटने के लिए सरकारी ख़र्चे को कम करना है। क्या यह बजट घाटा आम जनता द्वारा पैदा किया गया है? नहीं! राजकोषीय घाटे में वृद्धि की असली वजह पूँजीवादी व्यवस्था की आन्तरिक गतिकी में अन्तर्निहित है। पूँजीवाद अपनी स्वाभाविक गति से मन्दी को जन्म देता है। आज भारत सहित पूरी दुनिया की पूँजीवादी अर्थव्यवस्था एक भयंकर आर्थिक मन्दी की चपेट में है। पूँजीवादी आर्थिक संकट दरअसल मुनाफ़े की औसत दर में गिरावट का संकट है। सरकारी राजस्व अर्थव्यवस्था में पैदा होने वाले अधिशेष का ही हिस्सा होता है। इसलिए आर्थिक संकट के दौर में सरकारी राजस्व में भी गिरावट लाज़िमी है। जिससे सरकारी घाटे का ग्राफ़ उत्तरवर्ती बढ़ता रहा है। इस बढ़ते सरकारी घाटे को पाटने के लिए पूँजीवादी सत्ताएँ जनता के शोषण के स्तर को बढ़ा रही हैं, जनता को मिलने वाली सीमित सामाजिक सुरक्षा को भी रद्द कर रही हैं। और इस प्रकार हर पूँजीवादी संकट के बोझ को आमतौर पर देश की जनता के सिर पर मढ़ती रही हैं। इसको इस रूप में आसानी से समझा जा सकता है कि सरकारी ख़जाने से हर साल लाखों करोड़ रुपये पूँजीपतियों को बेल आउट पैकेज़ के रूप में दे दिया जाता है। देश में कनफ़ेडरेशन ऑफ़ आल इण्डिया ट्रेडर्स के मातहत 40,000 संघों में संगठित आठ करोड़ पंजीकृत छोटे, मँझोले और बड़े व्यापारी हैं, लेकिन जीएसटी के तहत पंजीकृत व्यक्तियों और कारोबारों की संख्या मात्र 1.4 करोड़ है। मतलब साफ़ है कि साढ़े छः करोड़ से भी अधिक बड़े और मँझोले व्यापारी सरकार की देखरेख में टैक्स चोरी करते हैं। इसी प्रकार, कारपोरेट पूँजीपति घराने भारी पैमाने पर टैक्स चोरी करते हैं और उन पर लगने वाले टैक्स को मोदी सरकार समेत पिछले तीन दशकों में आयी सभी सरकारों ने लगातार घटाया है। साथ ही, खेतिहर पूँजीपति वर्ग यानी धनी किसानों-कुलकों को करों से छूट दी गयी है, साथ ही साथ एमएसपी के रूप में इस वर्ग को एक प्रकार का सरकारी संरक्षण भी प्राप्त है, जिसका बोझ अन्ततः आम मेहनतकश जनता ही उठाती है। पिछले पाँच सालों में देशभर में चुनावों पर जितनी फ़ुज़ूलख़र्ची हुई है, उतने में हर साल कम-से-कम पाँच लाख नौजवानों को रोज़गार देकर आजीवन वेतन और पेंशन की व्यवस्था की जा सकती है। नेताओं-मन्त्रियों की ऐय्याशी पर हर साल अरबों का वारा-न्यारा कर दिया जाता है।
इस फ़ुज़ूलख़र्ची को बन्द करके और सम्पत्तिवानों पर प्रगतिशील कर लगाकर राजकोषीय घाटे को भरने की जगह (यह भी कोई अन्तिम उपाय नहीं है क्योंकि जब तक लूट पर टिकी यह व्यवस्था क़ायम है, मन्दी का यह संकट दस्तक देता रहेगा) मोदी सरकार देश की लगभग 100 करोड़ जनता को भविष्य की अनिश्चितता, सामाजिक असुरक्षा, बेरोज़गारी, भुखमरी में धकेलने पर आमादा है।

भाजपा का “राष्ट्र” क्या है?

राष्ट्र और राष्ट्रवाद का राग अलापते हुए सत्ता में आयी भाजपा का “राष्ट्र” दरअसल अम्बानी-अडानी सरीखे बड़े देशी-विदेशी पूँजीपतियों की देश में करोड़ों मेहनतकशों पर नंगी तानाशाही है। आज जब देश का युवा बेरोज़गारी की भयंकर मार झेल रहा हो, जब शिक्षा लगातार आम जनता की पहुँच से दूर होती जा रही हो, जब दवा-ईलाज का ख़र्च उठा पाना आम जनता के बस के बाहर की बात बन गयी हो, तब राष्ट्र के विकास की सारी बातें कोरी लफ्फ़ाज़ी होती हैं और जनता को भरमाने का एक औज़ार होती हैं। वास्तव में, “राष्ट्रीय हित” और “राष्ट्र की रक्षा” के नाम पर पूँजीपति वर्ग के हितों की सेवा होती है और उन्हीं की रक्षा होती है। पूँजीपति वर्ग अपने हितों जैसे कि लाभप्रद निवेश के अवसरों की तलाश, बाज़ारों पर क़ब्ज़े की जद्दोजहद और सस्ते श्रम तथा कच्चे माल के स्रोतों पर क़ब्ज़ा आदि के लिए जब भी युद्ध भड़काते हैं, उसका ख़ामियाज़ा सेना के जवान जान गवाँ कर और आम जनता आसमान छूती महँगाई के रूप में चुकाती है।

अग्निपथ योजना के ख़िलाफ़ यह गुस्सा, बेरोज़गारी के ख़िलाफ़ आम गुस्से की अभिव्यक्ति है-

‘अग्निपथ’ योजना के विरोध में छात्रों-नौजवानों का जो गुस्सा सड़कों पर दिखायी दिया वह केवल सेना भर्ती में ठेकाकरण के ख़िलाफ़ नहीं था। बल्कि इस योजना के ज़रिये बेरोज़गारी के ख़िलाफ़ युवाओं में लम्बे समय से पनप रहा गुस्सा सतह पर आ गया। देश में बेरोज़गारी आज सारे रिकॉर्ड तोड़ रही है। सीएमआईई की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक़ जून के महीने में लगभग 1.3 करोड़ लोगों को रोज़गार मिलना बन्द हो गया है। इसमें से ज़्यादातर मज़दूर असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। भारत के गाँवों में बेरोज़गारी दर 8.3 फ़ीसदी और शहरों में 7.9 फ़ीसदी तक पहुँच चुकी है। निजी क्षेत्र में भी रोज़गार सृजन की दर नगण्य है और जो भर्तियाँ हो भी रही हैं वे ठेका या कैज़ुअल मज़दूर के रूप में हो रही हैं, जिनमें मज़दूरों से ग़ुलामों की तरह काम करवाया जाता है। सरकारी नौकरियाँ तो लुप्तप्राय ही हो चुकी हैं और जो बची हैं वे भी समाप्त की जा रही हैं। पिछले 6 सालों में रेलवे के 72 हज़ार खाली पदों को समाप्त किया जा चुका है और 81 हज़ार पदों को समाप्त करने का प्रस्ताव शासन को भेजा गया है। शासन से स्वीकृति मिलते ही ये पद भी समाप्त हो जायेंगे। पर्चा लीक, धाँधली परीक्षाओं में आम नियम बन चुका है।
ऐसा भी नहीं है कि बेरोज़गारी की इस भयानक स्थिति के ख़िलाफ़ प्रतिरोध नहीं है। पिछले दिनों रेलवे एनटीपीसी, यूपीएसआई और उत्तर प्रदेश में 69,000 शिक्षक भर्ती के ख़िलाफ़ छात्रों ने एक सशक्त प्रतिरोध दर्ज़ कराया था। बेरोज़गारी, महँगाई, भुखमरी की शिकार जनता का गुस्सा जगह-जगह स्वतःस्फूर्त रूप में फूट रहा है। किसी क्रान्तिकारी विकल्प के न होने के कारण यह आन्दोलन जल्द ही बिखर भी जा रहा है। इसलिए बेरोज़गारी के ख़िलाफ़ देशव्यापी जुझारू आन्दोलन खड़ा करने में इंसाफ़पसन्द छात्रों-युवाओं को पूरी ताक़त से लग जाना चाहिए।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्त 2022

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