भाषाई अस्मितावादियों और राष्ट्रवादियों के नये गहने
मगर अफ़सोस, तर्कविहीनता के नंगेपन को गहनों से नहीं ढँका जा सकता!

सम्पादक मण्डल, 7 नवम्बर 2019

जब कोई अपनी मूर्खतापूर्ण बातों को सिद्ध करने के लिए कुतर्क करने लग जाये तो उसे कई दिक़्क़तें आती हैं। पहली तो यह कि वह भूल जाता है कि उसने पहले कौन-सा कुतर्क दिया था। दूसरा यह कि उसे तरह-तरह के द्रविड़ प्राणायाम करने पड़ते हैं। हमारे भाषाई अस्मितावादियों और राष्ट्रवादियों की भी ऐसी ही स्थिति हो गयी है।

पहले इनका कहना था कि वे “महापंजाब” नहीं माँग रहे हैं। अब अपने कुतर्कों को बचाने के लिए नये-नये कुतर्कों की झड़ी लगाते-लगाते वे यह पूछने को मजबूर हो गये कि अगर कोई सीमा के दोनों पार के पंजाबों को एक करने की बात करता है, तो इसमें दिक़्क़त क्या है? मतलब अगर कोई “महापंजाब” बनाने की माँग करता है तो इसमें क्या दिक़्क़त है? तो महीने भर से यह क्यों कह रहे थे कि हम तो “महापंजाब” माँग ही नहीं रहे हैं? अगर कोई दिक़्क़त ही नहीं है, तो माँग ही लीजिए!

दूसरी बात, कोई भी कम्युनिस्ट निश्चय ही चाहेगा कि बाँट दिये गये लोग एक हो जायें। लेकिन भारत के सन्दर्भ में तो पूरे विभाजन को ही पलटने की बात होगी, सिर्फ़ पंजाब या बंगाल के विभाजन को नहीं। कोई भी कम्युनिस्ट तो कम-से-कम ऐसा ही करेगा। बंगाल का नाम भी इन्होंने बस इसलिए जोड़ दिया कि अपने पंजाबी राष्ट्रवाद को छिपा सकें।

तीसरी बात, पंजाब के एकीकरण की तुलना जर्मनी, वियतनाम, कोरिया आदि के हो चुके या सम्भावित एकीकरणों से करके हमारे भाषाई अस्मितावादियों ने यह भी दिखला दिया कि न तो इन्हें इतिहास की कोई समझ है और न ही राजनीति की। ये कैसे भी उल्टी-सीधी तुलनाएँ करके अपनी ग़लत कार्यदिशा (लाइन) को सही दिखलाने के प्रयासों में लगे हुए हैं।

अब आते हैं हमारे भाषाई अस्मितावादियों के नये गहने पर। इन्होंने माओ के एक उद्धरण को पेश किया है जिसमें माओ कह रहे हैं कि “चीनी कम्युनिस्ट महान चीनी क़ौम का हिस्सा हैं” और इसके आधार पर इन्होंने पूछा है कि कौन-सा कम्युनिस्ट अपनी क़ौम पर गर्व नहीं करेगा! इसे कहते हैं विरोधी के तर्कों का जवाब देने की बजाय किसी प्रसंगेतर उद्धरण के पीछे छिपकर भागना। क्या बहस कभी भी इस बात पर थी कि अपनी क़ौम पर गर्व करना चाहिए या नहीं? नहीं! फिर इस उद्धरण का मक़सद? यह तोहमत थोपना कि हम ऐसा कह रहे हैं कि अपनी क़ौम पर गर्व नहीं करना चाहिए। इस रूप में हर क़ौम ही महान होती है, क्योंकि हमेशा ही उसके कुछ महान सकारात्मक होते हैं। लेकिन पहली बात तो यह है कि माओ के लिए कम्युनिस्ट का काम अपनी क़ौम पर गर्व करना या शर्म करना नहीं होता। माओ लिखते हैं :

“हमें कभी भी बड़ी शक्ति के अन्धराष्ट्रवाद का अहंकारी रवैया नहीं अपनाना चाहिए और हमारी क्रान्ति की विजय तथा हमारे निर्माण की कुछ उपलब्धियों के कारण घमण्डी नहीं हो जाना चाहिए। हर राष्ट्र, चाहे वह छोटा हो या बड़ा, उसकी कुछ अच्छाइयाँ और कुछ कमज़ोरियाँ होती हैं।” (माओ, ‘चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की आठवीं राष्ट्रीय कांग्रेस में उद्घाटन भाषण’, 15 सितम्बर 1956)

माओ मानते हैं कि हर क़ौम के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही होते हैं और इसीलिए कम्युनिस्ट उस पर गर्व या शर्म नहीं करते। राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति की मंज़िल में कम्युनिस्टों का काम एक ऐसी राष्ट्रीय संस्कृति का निर्माण होता है, जिसमें अपनी क़ौम के सकारात्मक हों और अन्य क़ौमों की संस्कृतियों के भी सकारात्मक हों। लेकिन इससे भी प्रमुख बात यह है कि माओ के लिए जनवादी क्रान्ति की मंज़िल में राष्ट्रीय संस्कृति का अर्थ था साम्राज्यवाद-विरोधी सामन्तवाद-विरोधी संस्कृति। वे लिखते हैं :

“नव-जनवादी संस्कृति राष्ट्रीय है। यह साम्राज्यवादी उत्पीड़न का विरोध करती है और चीनी राष्ट्र के सम्मान और स्वतंत्रता का समर्थन करती है।” (माओ, ‘नव-जनवाद के बारे में’)

दूसरी बात, चीन देश में कोई एक क़ौम ही नहीं थी और न ही माओ यहाँ चीन की प्रमुख राष्ट्रीयता के बारे में ही बात कर रहे हैं। वे चीनी क़ौम की बात यहाँ साम्राज्यवाद द्वारा उत्पीड़ित एक देश के रूप में कर रहे हैं, जिसमें कई राष्ट्रीयताएँ हैं। यह साम्राज्यवादी दमन ही उन्हें एक क़ौम के रूप में संघटित करता है। माओ लिखते हैं :

“यहाँ रहने वाले दस में से नौ लोग हान राष्ट्रीयता के हैं। यहाँ मंगोल, हुई, तिब्बती, उइगुर, मियाओ, यी, चुआङ, चुङचिया और कोरियाई राष्ट्रीयताओं सहित बीसियों अल्पसंख्यक राष्ट्रीयताएँ भी हैं, जिन सभी का लम्बा इतिहास है, हालाँकि वे सांस्कृतिक विकास के अलग-अलग स्तरों पर हैं। इस प्रकार चीन अनेक राष्ट्रीयताओं से बनी विशाल आबादी वाला देश है।” (माओ, ‘चीनी कम्युनिस्ट पार्टी और चीनी क्रान्ति’)

इसी रचना में माओ राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति का चरित्र भी बताते हैं।

“निस्सन्देह रूप से, मुख्य कार्यभार इन दो दुश्मनों पर चोट करना है, विदेशी साम्राज्यवादी उत्पीड़न को उखाड़ फेंकने के लिए राष्ट्रीय क्रान्ति सम्पन्न करना और सामन्ती भूस्वामियों के उत्पीड़न को उखाड़ फेंकने के लिए जनवादी क्रान्ति सम्पन्न करना, जिसमें प्राथमिक और सर्वोपरि कार्यभार है साम्राज्यवाद को उखाड़ फेंकने के लिए राष्ट्रीय क्रान्ति।” (वही)

स्पष्ट है कि माओ के लिए एक साझा चीनी क़ौम का अर्थ इसी रूप में है कि वह साम्राज्यवाद द्वारा दमित है। अपने आप में क़ौमियत उनके लिए जश्न मनाने का मुद्दा नहीं है और समाजवादी क्रान्ति की मंज़िल में तो इसका प्रश्न ही नहीं पैदा होता है। राष्ट्रीय संस्कृति के बारे में निम्न उद्धरण से यह बात और स्पष्ट हो जाती है :

“एक राष्ट्रीय, वैज्ञानिक और जन संस्कृति – ऐसी है जनता की साम्राज्यवाद-विरोधी और सामन्तवाद-विरोधी संस्कृति, नव जनवाद की संस्कृति, चीनी राष्ट्र की नयी संस्कृति।” (उपरोक्त)

यानी, राष्ट्रीय संस्कृति का अर्थ जनवादी क्रान्ति की मंज़िल में भी माओ के लिए राष्ट्र की सम्पूर्ण संस्कृति का जश्न मनाना नहीं था, बल्कि यह राष्ट्रीय संस्कृति इसी रूप में प्रगतिशील हो सकती है कि वह साम्राज्यवाद-विरोधी और सामन्तवाद-विरोधी हो और साथ ही वैज्ञानिक व जनवादी हो। और यह स्वतः मौजूद नहीं होती है, बल्कि कम्युनिस्टों के नेतृत्व में निर्मित होती है। इसे समझने के लिए आप ‘नवजनवाद के बारे में’ पढ़ सकते हैं।

लेकिन हमारे भाषाई अस्मितावादियों ने तो माओ को राष्ट्रवादी ही बना दिया है!

माओ हान बिग शॉविनिस्ट राष्ट्रवाद के साथ ही अन्य राष्ट्रीयताओं में पनपने वाले राष्ट्रवाद को भी एक दुश्मन ही मानते थे। माओ लिखते हैं :

“इस प्रश्न को हल करने की कुंजी है हान अन्धराष्ट्रवाद को दूर करना। साथ ही जहाँ कहीं अल्पसंख्यक राष्ट्रीयताओं में स्थानीय-राष्ट्रीय अन्धराष्ट्रवाद (local-nationality chauvinism) मौजूद हो, वहाँ उसे दूर करने के प्रयास भी किये जाने चाहिए। विभिन्न जातियों की एकता के लिए हान अन्धराष्ट्रवाद और स्थानीय-राष्ट्रीय अन्धराष्ट्रवाद, दोनों ही हानिकर होते हैं। यह जनता के बीच का एक अन्तरविरोध है जिसे हल किया जाना चाहिए।” (माओ, ‘जनता के बीच के अन्तरविरोधों को सही ढंग से हल करने के बारे में’)

हमने हिन्दी भाषा को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिये जाने पर आये अमित शाह के बयान पर तत्काल आलोचना और विरोध किया था। लेकिन साथ ही हम किसी भी प्रकार के राष्ट्रवाद या राष्ट्रवादी विचलन का विरोध करते हैं। लेकिन हमारे भाषाई अस्मितावादियों व राष्ट्रवादियों के लिए केवल भारतीय राष्ट्रवाद ख़तरा है (जिसकी वाहक उनके लिए हिन्दी भाषा है!) लेकिन पंजाबी राष्ट्रवाद और बिग नेशन शॉविनिज़्म नहीं है! होगा भी कैसे? उसके नुमाइन्दे तो ख़ुद ये ही लोग बने हुए हैं! लेकिन माओ के एक उद्धरण की ग़लत व्याख्या करके वे अपने राष्ट्रवादी विचलन और भाषाई अस्मितावाद को सही ठहराने के लिए द्रविड़ प्राणायाम किये जा रहे हैं। इनकी यह सोच अन्त में जनता के बीच के दोस्ताना अन्तरविरोधों को भी दुश्मनाना अन्तरविरोध में तब्दील कर देगी।

हमने इस बहस के शुरू में जब कहा था कि स्तालिन ने बताया है कि राष्ट्रीय प्रश्न का सारतत्व भूमि का प्रश्न और/या औपनिवेशीकरण का प्रश्न होता है, तो इन्होंने आरोप लगाया था कि हम झूठ बोल रहे हैं और स्तालिन ने ऐसा कहीं नहीं कहा है। हमने उस वक़्त भी उद्धरणों समेत अपनी बात को पुष्ट किया था, जिस पर हमारे भाषाई अस्मितावादी चुप मार गये। देखें स्तालिन क्या कहते हैं :

“… किसान राष्ट्रीय आन्दोलन की मुख्य सेना होते हैं, … किसानों की सेना के बिना कोई शक्तिशाली राष्ट्रीय आन्दोलन नहीं है, न ही हो सकता है। जब यह कहा जाता है कि, सार रूप में, राष्ट्रीय प्रश्न किसान प्रश्न है, तो उसका यही मतलब होता है।” (Stalin, Works, Eng. ed., FLPH, Moscow, 1954, Vol. VII, pp. 71-72 )

आगे हमारे भाषाई अस्मितावादी कहते हैं कि जब मार्क्सवादी साहित्य में रूसी सर्वहारा, चीनी सर्वहारा, जर्मन सर्वहारा लिखा जाता है तो इसका अर्थ होता है कि सर्वहारा वर्ग का कोई राष्ट्र होता है। निश्चित तौर पर दुनिया जब तक राष्ट्रों में बँटी है, तब तक किसी भी वर्ग का व्यक्ति चाहे वह सर्वहारा हो या बुर्जुआ, जन्म से तथा स्थान व भाषा से किसी न किसी राष्ट्र का होगा। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि सर्वहारा वर्ग का कोई राष्ट्र होता है। मार्क्स व एंगेल्स लिखते हैं :

“कम्युनिस्टों और दूसरी मज़दूर पार्टियों में सिर्फ़ यह अन्तर है कि : 1. विभिन्न देशों के सर्वहाराओं के राष्ट्रीय संघर्षों में राष्ट्रीयता के सभी भेदभावों को छोड़कर वे पूरे सर्वहारा वर्ग के सामान्य हितों का पता लगाते हैं और उन्हें सामने लाते हैं…

“कम्युनिस्टों पर यह आरोप भी लगाया जाता है कि वे देशों और राष्ट्रीयता को मिटा देना चाहते हैं।

“मज़दूरों का कोई स्वदेश नहीं है। जो उनके पास है ही नहीं उसे उनसे छीना नहीं जा सकता है। चूँकि सर्वहारा वर्ग को सबसे पहले राजनीतिक प्रभुत्व प्राप्त करना है, राष्ट्र में अग्रणी वर्ग का स्थान ग्रहण करना है, ख़ुद अपने को राष्ट्र के रूप में संगठित करना है, अतः इस हद तक वह स्वयं राष्ट्रीय चरित्र रखता है, गोकि इस शब्द के बुर्जुआ अर्थ में नहीं।” (मार्क्स, एंगेल्स, ‘कम्युनिस्ट पार्टी का घोषाणपत्र’)

चूँकि इन भाषाई अस्मितावादियों ने किताब में “जर्मन सर्वहारा”, “रूसी सर्वहारा”, “चीनी सर्वहारा” आदि जैसे शब्द पढ़ लिये तो इन्होंने नतीजा निकाल लिया कि सर्वहारा वर्ग का कोई राष्ट्र होता है! सर्वहारा वर्ग सभी राष्ट्रों में है और इस रूप में हर राष्ट्र का सर्वहारा वर्ग है, जिसका पहला कार्यभार अपने राष्ट्र में वर्चस्वकारी बनना होता है, और इस रूप में अपने आपको ही एकमात्र “राष्ट्र” के रूप में संघटित करना होता है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं होता है सर्वहारा वर्ग का कोई राष्ट्र होता है। यही कारण है कि वह मनुष्य जाति की सार्वभौमिकता की नुमाइन्दगी करता है और इतिहास का सबसे क्रान्तिकारी वर्ग है। यही वजह है कि ‘राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग’ तो होता है, पर ‘राष्ट्रीय सर्वहारा’ जैसा कोई वर्ग नहीं होता।

हमारे भाषाई अस्मितावादियों ने लेनिन को उद्धृत करके कहा है कि जो राष्ट्रीय दमन का विरोध नहीं करता, उस कम्युनिस्ट का अन्तरराष्ट्रीयतावाद थोथा है। सही बात है। लेकिन इससे असहमत कौन है? यदि ये कहना चाह रहे हैं कि पंजाबी राष्ट्रीयता दमित राष्ट्रीयता है, तो इस पर केवल हँसा जा सकता है। इन्हें दमित राष्ट्रीयता और राष्ट्रीय प्रश्न का अर्थ समझने के लिए स्तालिन को पढ़ लेना चाहिए। और अगर पंजाबी राष्ट्रीयता दमित राष्ट्रीयता है, जैसे कि कश्मीर की राष्ट्रीयता है और उत्तर-पूर्व की राष्ट्रीयताएँ हैं, तो इन्हें किसी भी राष्ट्रीय-सांस्कृतिक स्वायत्तता की कार्यदिशा (लाइन) नहीं देनी चाहिए जैसे कि ओट्टो बावर दे रहे थे और जिसकी स्तालिन ने कठोर आलोचना की है। इन्हें तो सीधे राष्ट्रीय मुक्ति को अपना लक्ष्य बनाना चाहिए और चार वर्गों का मोर्चा बनाना चाहिए! लेकिन ऐसा ये कर ही नहीं रहे हैं!

इन भाषाई अस्मितावादियों में से ही एक ने एक नयी अवधारणा पेश की है : साम्राज्यवादी भाषा की अवधारणा!! संस्कृति साम्राज्यवादी हो सकती है, राजनीति साम्राज्यवादी हो सकती है, लेकिन भाषा कैसे साम्राज्यवादी हो सकती है? यह मार्क्सवादी दृष्टिकोण तो है ही नहीं। भाषा का कोई वर्ग चरित्र नहीं होता है। यदि किसी भाषा को साम्राज्यवादियों ने हथियार बनाया हो तो भी वह साम्राज्यवादी भाषा नहीं होती है। मिसाल के तौर पर, अंग्रेज़ी साम्राज्यवादी भाषा नहीं है। वह एक भाषा है। ये बात उत्तर-आधुनिकतावादी और उत्तर-औपनिवेशिक सिद्धान्तों को मानने वाले अस्मितावादी कहते हैं, जिनके अनुसार भाषा स्वयं सत्ता का लोकेशन होती है और भाषा किसी सत्ता की भाषा हो सकती है (लैंग्वेज ऑफ़ पावर!)। मार्क्सवाद का भाषा को लेकर यह नज़रिया ही नहीं है। लेकिन पढ़ने-लिखने से हमारे भाषाई अस्मितावादियों को विशेष तौर पर चिढ़ है। इसलिए सम्भवतः इन्हें यह पता भी नहीं है। इसीलिए यह किसी भाषा को ही साम्राज्यवादी क़रार देकर सोच रहे हैं कि इन्होंने क्या जुझारू क़िस्म का मार्क्सवादी सूत्रीकरण पेश ‍कि‍या है!

मार्क्सवाद-लेनिनवाद हर भाषा की बराबरी की बात करता है और किसी एक भाषा के वर्चस्व के ख़िलाफ़ है। हिन्दी वर्चस्ववाद और पंजाबी वर्चस्ववाद दोनों ही हमारे लिए पराये हैं। लेकिन हमारे भाषाई अस्मितावादी हिन्दी को “हत्यारी भाषा” क़रार देते हैं, क्योंकि वह बोलियों की हत्या करके पैदा हुई है (हम पहले की पोस्टों में तर्क व तथ्य समेत दिखला चुके हैं कि अपने हिन्दी-विरोध में अन्धे हो चुके इन बन्धुओं को भाषा के इतिहास और सिद्धान्त दोनों के ही बारे में शून्य ज्ञान है)! लेकिन भाषा और बोली के अपने इस सिद्धान्त को वह पंजाबी भाषा पर लागू नहीं करते। हमने पूछा कि पंजाबी भाषा और उसकी तमाम बोलियों में क्या सम्बन्ध है, तो इस पर इन्हें अभी भी सनाका ही मारा हुआ है। उड़ती-उड़ती ख़बर है कि इनका मानना है कि चूँकि पंजाबी भाषा को तमाम पंजाबी बोलियाँ बोलने वाले समझ लेते हैं, इसलिए उनमें वैसा रिश्ता नहीं है! ग़ज़ब तर्क है! अस्मितावाद में बौराये इन लोगों को पता नहीं है कि हिन्दी भाषा परिवार में आने वाली बोलियाँ बोलने वाले भी हिन्दी भाषा को समझ लेते हैं। हर तर्कविहीन अस्मितावादी के समान ये अपने लिए एक्सेप्शनलिज़्म की माँग करते हैं।

अब ज़रा नीचे दिये गये लेनिन के उद्धरणों को पढ़ें और सोचें कि क्या यह एकदम सटीकपन के साथ हमारे भाषाई अस्मितावादियों पर लागू नहीं होते?

“रूस में, ख़ासकर 1905 के बाद, जब बुर्जुआ वर्ग के ज़्यादा समझदार सदस्यों को अहसास हुआ कि केवल ताक़त का ज़ोर कारगर नहीं है, तमाम तरह की “प्रगतिशील” बुर्जुआ पार्टियाँ और ग्रुप क़िस्म-क़िस्म के ऐसे बुर्जुआ विचारों और सिद्धान्तों की हिमायत करके मज़दूरों को बाँटने के तरीक़े का अधिकाधिक सहारा ले रहे हैं जिनका मक़सद मज़दूर वर्ग के संघर्ष को कमज़ोर करना है।

“ऐसा एक विचार परिशुद्ध (या बारीक – अनु.) राष्ट्रवाद का है, जो सर्वहारा को अनेक सत्याभासी और दिखावटी बहानों से बाँटने और उसमें फूट डालने की हिमायत करता है, जैसे उदाहरण के तौर पर, “राष्ट्रीय संस्कृति”, “राष्ट्रीय स्वायत्तता, या स्वतंत्रता”, आदि के हितों की रक्षा करना।

“वर्ग-सचेत मज़दूर हर प्रकार के राष्ट्रवाद के विरुद्ध लड़ते हैं, भोंड़े, हिंसक, ब्लैक-हण्ड्रेड राष्ट्रवाद के विरुद्ध भी, और उस बेहद बारीक राष्ट्रवाद के विरुद्ध भी जो राष्ट्रों की समानता की बात … राष्ट्रीयता के अनुसार मज़दूरों के ध्येय, मज़दूरों के संगठनों और मज़दूर वर्ग के आन्दोलन में फूट डालने के साथसाथ करता है। राष्ट्रवादी बुर्जुआ वर्ग की सभी क़ि‍स्मों के विपरीत, वर्ग-सचेत मज़दूर, मार्क्सवादियों की हाल की (ग्रीष्म 1913) की कॉन्फ़्रेंस के फ़ैसलों पर अमल करते हुए, न केवल राष्ट्रों और भाषाओं की सर्वाधिक सम्पूर्ण, सुसंगत और पूर्णतः क्रियान्वित समानता के पक्ष में हैं, बल्कि हर प्रकार के एकीकृत सर्वहारा संगठनों में अलग-अलग राष्ट्रीयताओं के मज़दूरों के समेकीकरण के भी पक्ष में हैं।

“मार्क्सवाद के राष्ट्रीय कार्यक्रम और किसी भी बुर्जुआ के राष्ट्रीय कार्यक्रम, चाहे वह कितना भी ‘उन्नत’ क्यों न हो, में मूलभूत फ़र्क़ यही है।” (लेनिन, ‘मज़दूरों को बारीक राष्ट्रवाद से भ्रष्ट करना’)

आगे देखें :

“राष्ट्रों और भाषाओं की समानता को मान्यता देना मार्क्सवादियों के लिए महत्वपूर्ण है, केवल इसीलिए नहीं क्योंकि वे सबसे सुसंगत जनवादी होते हैं। राष्ट्रीय अविश्वास, अलगाव, सन्देह और शत्रुता की हर निशानी को ख़त्म करने की दृष्टि से राष्ट्रों की सम्पूर्णतम समानता मज़दूरों के वर्ग संघर्ष में सर्वहारा एकजुटता और कॉमरेडाना एकता के हितों की माँग है। और पूर्ण समानता में किसी एक भाषा के सभी विशेषाधिकारों को ख़ारिज किया जाना और सभी राष्ट्रों के आत्म-निर्णय के अधिकार की मान्यता अन्तर्निहित है।

“लेकिन बुर्जुआ वर्ग के लिए राष्ट्रीय समानता की माँग का मतलब अक्सर ही अमल में राष्ट्रीय विशिष्टता और अन्धराष्ट्रवाद की हिमायत करना होता है; अक्सर ही वे इसे राष्ट्रों के विभाजन और अलगाव की हिमायत के साथ मिला देते हैं। यह सर्वहारा अन्तरराष्ट्रीयतावाद के साथ पूरी तरह असंगत है, जो न केवल राष्ट्रों के बीच नज़दीकी सम्बन्धों की, बल्कि किसी राज्य में सभी राष्ट्रीयताओं के मज़दूरों के एकीकृत सर्वहारा संगठनों में समेकीकरण की हिमायत करता है। इसीलिए मार्क्सवादी तथाकथित ‘सांस्कृतिक-राष्ट्रीय स्वायत्तता’, यानी इस विचार की पुरज़ोर भर्त्सना करते हैं कि शैक्षणिक मामलों को राज्य के हाथों से लेकर सम्बन्धित राष्ट्रीयताओं को सौंप दिया जाना चाहिए। इस योजना का मतलब है कि ‘राष्ट्रीय संस्कृति’ के सवालों में शैक्षणिक मामले किसी राज्य परिसंघ में राष्ट्रीयताओं के अनुसार राष्ट्रीय संघों में विभाजित कर दिये जायेंगें, जिनमें से हरेक की अपनी अलग ‘डायट’, शैक्षणिक बजट, स्कूल बोर्ड और शैक्षणिक संस्थान होंगे।” (वही)

लोकरंजकतावाद की अपनी गति होती है। इन्होंने तो एक भूतपूर्व अपराधी के द्वारा, जो कि राजनीति में आना चाहता है, ऐसी ही सस्ती और निचली कोटि की भाषाई अस्मितावादी कार्रवाइयों की हिमायत भी की थी। यह भूतपूर्व अपराधी हाइवे पर लगे मील के पत्थरों पर से हिन्दी और अंग्रेज़ी में की गयी ‍लि‍खावट पर कालिख पोत रहा था! उसे इन्होंने ‘दबी हुई भावनाओं की अभिव्यक्ति’ क़रार दिया था। लेकिन यही काम अगर अमित शाह के गुण्डे दिल्ली के साइनबोर्डों पर पंजाबी के साथ करें तो हम सभी उसकी निन्दा करेंगे। ये अस्मितावादी लोग भी करेंगे। अगर कनाडा की संसद की कार्यवाही का प्रसारण पंजाबी में होता है तो ये जस्टिन त्रूदो को बधाई देने में देर नहीं लगाते। ये ही लोग इस माँग का समर्थन भी करते हैं कि पंजाब में सारी शिक्षा और सारा सरकारी कामकाज केवल पंजाबी में होना चाहिए। यानी कि वहाँ के 27 लाख प्रवासियों को मातृभाषा में पढ़ने और सभी कामकाज का कोई हक़ नहीं होना चाहिए। ये सभी दोहरे मापदण्ड इनके राष्ट्रवादी और भाषाई अस्मितावादी दोहरे मानकों को नंगा कर देते हैं।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,मार्च-अप्रैल 2020

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