पाठक मंच
गर तुम इस दौर के इंक़लाबी न हुए, तो क्या हुए? – इस बर्बर, मानवद्रोही, लुटेरी पूँजीवादी व्यवस्था के सेवक हुए, उसके टुकड़खोर हुए!

दिव्या, एक हौज़री मज़दूर, लुधियाना

इसमें किसी की दो राय नहीं होगी कि यह पूँजीवादी दौर है और यह व्यवस्था पूँजीपतियों के हितों की नुमाइन्दगी करती है। इसके मूलभूत ढाँचे से लेकर इसकी अधिरचना तक के सारे सरंजाम पूँजीपतियों को पाल-पोस रहे हैं। अपनी ज़िन्दगी की जद्दोज़हद में लगे हुए हम चाहे-अनचाहे इसी पूँजीवादी व्यवस्था की सेवा कर रहे हैं। अपने तईं तो हम समाज के लिए कुछ कर रहे होते हैं, अपनी भूमिका निभा रहे होते हैं, लेकिन क्या हम वास्तव में समाज के लिए कुछ कर रहे होते हैं? यह एक बड़ा प्रश्न है, जो आज हमारे हर क़दम के साथ हमारे सामने आ खड़ा होता है।

खुली आँखों से हम देख सकते हैं कि आज हो क्या रहा है! कितने तुर्रम खाँ हैं जो इसी व्यवस्था में रहते हुए इसे इंसानों के रहने लायक बनाने में लगे हुए हैं। कितने आईएस-आईपीएस बनकर इसका भ्रष्टाचार, इसका शोषण ख़त्म करने में लगे हुए हैं। कुछ भी क्यों न बन जायें, हम कर इस पूँजीवादी सिस्टम की सेवा ही रहे हैं। जज, वकील, इंजीनियर, डॉक्टर कुछ भी क्यों न बन जायें, बनना हमें इस सिस्टम की मशीनरी का हिस्सा ही है। अगर इस मशीनरी का हिस्सा नहीं बनेंगे, अगर इसके माहौल में नहीं ढलेंगे तो बेकार कलपूर्जे की तरह बाहर फेंक दिये जायेंगे।

इस व्यवस्था में जीने का सीधा-सादा फ़ण्डा है – या तो भ्रष्टाचार करने के लिए तैयार हो जाओ; लोगों को लूटने के लिए, उनका हिस्सा हड़पने के लिए तैयार हो जाओ; उनको मूर्ख बनाने के लिए, उन पर हँसने के लिए तैयार हो जाओ या— या फिर ख़ुद लुटने के लिए, अपना हिस्सा गँवाने के लिए और मूर्ख बनने के लिए तैयार हो जाओ। सीधी सी बात है या तो लूटो या फिर लुटने के लिए तैयार रहो। इस पूँजीवादी व्यवस्था में जीने का इसके अलावा कोई रास्ता-तरीक़ा नहीं है।

अब सवाल यह उठता है कि जब तक यह व्यवस्था बदल नहीं जाती, तब तक हमें रहना तो इसी में पड़ेगा। तो फिर क्या किया जाये?

इसका जवाब और भी सीधा-सादा है! इस व्यवस्था को बदलने में अपनी भूमिका निभायी जाये। अपनी क्षमताओं को आँका जाये और व्यवस्था परिवर्तन के लिए जो भी किया जा सके, वो किया जाये। इस बात को अच्छी तरह समझ लिया जाये कि व्यवस्था परिवर्तन दो-चार दिन में, दो-चार सालों में नहीं होता। इसमें ज़िन्दगियाँ लगती हैं, पीढ़ियाँ फ़नाह होती हैं।  अगर हम अपनी पीढ़ी की बात करें तो हम एक अँधेरे समय में जी रहे हैं, जहाँ हत्याएँ हैं, मौतें हैं, मायूसियाँ हैं, दमन-शोषण है, बर्बर लूट है, विकृत मानसिकताएँ हैं, अज्ञान-अन्धविश्वास है; अब ऐसे ही समय में हमें जीना है, तो क्यों न इस अँधेरे समय में मशालें जलाते हुए जिया जाये, इस दौर का इंक़लाबी बनके जिया जाये।

कोई क्लर्क, दिहाड़ी मज़दूर, जज-वकील, डॉक्टर, इंजीनियर या कोई बड़ा अधिकारी बनकर इस बर्बर, मानवद्रोही, सड़ान्ध मारती पूँजीवादी व्यवस्था की सेवा करने से तो बेहतर है कि इसकी क़ब्र खोदने वाले हाथों के साथ अपना हाथ मिलाया जाये। अपना पक्ष चुना जाये और इंक़लाब में अपनी भूमिका निभायी जाये। चुना जाये कि तौरे-ज़िन्दगी क्या हो! समझौता करते हुए या संघर्ष करते हुए।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, सितम्‍बर-दिसम्‍बर 2014

 

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