फ़ेसबुक के बारे में चलते-चलाते कुछ ‘इम्प्रेशंस’
कविता कृष्णपल्लवी
फ़ेसबुक की ‘वर्चुअल’ दुनिया जहाँ तक ‘रीयल’ दुनिया का प्रतिबिम्बन है और ‘रीयल’ दुनिया में सार्थक सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से सक्रिय लोगों के बीच संवाद-सम्बन्ध का माध्यम है, वहाँ तक तो इस ‘स्पेस’ के इस्तेमाल की सार्थकता समझ में आती है, बाक़ी सबकुछ निरर्थक प्रतीत होता है।
(1) बहुत सारे लोग फ़ेसबुक पर बहुत सारा समय खपाकर राजनीति-साहित्य-समाज के बारे में अपनी दिवालिया समझ का जो प्रदर्शन करते रहते हैं, उसका छोटा सा हिस्सा भी वे देश-दुनिया, इतिहास और साहित्या-सैद्धान्तिकी के अध्ययन पर ख़र्च करते तो हिन्दी समाज का बहुत भला होता।
(2) दो-दो लाइन के शेरों, घटिया ग़ज़लों से फ़ेसबुक भरा रहता है। सस्ती तुकबन्दियों और कवितानुमा लाइनों की भरमार रहती है। नाम में ही ‘कवि’ जोड़े हुए फ़ेसबुकियों की भरमार है। ये सारे साहित्याकांक्षी गणों को एक अतिविनम्र सुझाव है कि उन्हें विश्व के कुछ प्रसिद्ध कवियों को पढ़ना चाहिए, निराला, प्रसाद, पन्त, मुक्तिबोध, शमशेर, त्रिलोचन, नागार्जुन, केदार आदि को पढ़ना चाहिए, अग्रणी समकालीन कवियों को पढ़ना चाहिए और साहित्य-सैद्धान्तिकी पढ़नी चाहिए। हिन्दी कविता की स्थिति इतनी बुरी भी नहीं है कि चार लाइनें जोड़-तोड़कर कोई भी गण्यमान्य बन जाये। ख़ूब लिखिये, आपको अपने मन की कहने की आज़ादी है, पर उसे डायरी में लिखकर अपने घरवालों और दोस्तों को सुनाइये। फ़ेसबुक एक सार्वजनिक स्पेस है। वहाँ अपनी भँड़ास निकालकर बहुत सारे लोगों का समय खाने और उन्हें बोर करने का काम ठीक नहीं है।
(3) और कुछ लोग तो बस यही बयान करने में रहते हैं कि इस समय उनके दिल पर क्या गुज़र रही है! उदासी, बेवक़ाई, यादें, तनहाइयाँ – वास्तविक दुनिया में तो सुनाने को कोई दोस्त है नहीं, किसी के पास फ़ुर्सत है नहीं, सो फ़ेसबुक पर ही सबकुछ उड़ेलकर रख देते हैं, खोमचा लगाकर बैठ जाते हैं अपनी निजी अनुभूतियों-भावनाओं का। ख़ैर, इससे यह तो पता चलता ही है कि समाज में ‘एलियनेशन’ कितना बढ़ गया है! कुछ बोर होते, निरर्थक बैठे लोग दिनों-रात फ़ेसबुक पर बैठे अपनी दिनचर्या बयान करते रहते हैं, ‘शुभ प्रभात’ बोलने से ‘शुभ रात्रि’ बोलने तक! यह भी बताते रहते हैं कि उनके बच्चे के कितने दाँत निकले! अरे, किसकी दिलचस्पी है! अपने परिजनों-मित्रों को चाय पर बुलाकर बताइये न! आप कहाँ जा रहे है कहाँ से आ रहे हैं, इसमें किसकी दिलचस्पी है? यदि सम्भव हो तो छायाचित्रें सहित कोई अच्छा-सा यात्र-वृत्तान्त लिखिये! वह ज़रूर बहुतों के लिए उपयोगी होगा।
(4) कुछ लोग न जाने क्यों अपनी या अपनी पत्नी की या बच्चों की तस्वीरें ही समय-समय पर अलग-अलग अदाओं में प्रस्तुत करते हैं। कुछ स्त्रियाँ भी फ़ेसबुक पर बस तरह-तरह की “लुभावनी” और नयी-नयी अदायें दिखाने में ही मशगूल रहती हैं। गजब की आत्ममुग्धता और प्रदर्शनधर्मिता का धकापेल मचा रहता है। घर मित्रों को बुलाकर अलबम दिखा लीजिये। फ़ेसबुक पर तो जो आपके सीधे मित्र नहीं हैं, उन्हें भी क्यों बोर करती/करते हैं! कुछ स्त्रियाँ बस अपनी भाँति-भाँति की तस्वीरें पोस्ट करती रहती हैं और कुछ पुरुष बस इसीलिए फ़ेसबुक पर मौजूद रहते हैं कि ऐसी अदाएँ देखते ही ‘हाय! गजब!’ टाइप कमेण्ट पोस्ट कर दें।
(5) बुर्जुआ समाज में वास्तविक दुनिया में मित्रता और लगाव का स्पेस सिकुड़ता जा रहा है, फलतः थके-हारे अवसादग्रस्त-अलगावग्रस्त लोग या ख़ाली बैठे लोग आभासी दुनिया को ही भाव-प्रकटन के लिए अपना शरण्य बना रहे हैं और मानवीय नैकट्य के मिथ्याभास में जी रहे हैं।
(6) फ़ेसबुक मुख्य मीडिया द्वारा दबाई सूचनाओं को फैलाकर, दुनियाभर से उन्हें छाँट-बटोरकर प्रायः वैकल्पिक मीडिया का काम करता है। यह कई बार सार्थक बहस और समान विचार के लोगों के बीच संवाद और परिचय का अच्छा माध्यम भी बनता है। दूसरी ओर, यह समाज को एक मिथ्या भास भी दे रहा है, ‘वर्चुअल’ को ‘रीयल’ का स्थानापन्नय बना रहा है। फ़िलहाल, जनपक्षधर विचारों की अपेक्षा बुर्जुआ विचारों और कूपमण्डूकता का फैलाव ही फ़ेसबुक पर ज़्यादा दीखता है।
(7) तर्कशील, प्रगतिकामी, समाज-सम्प्क्त जनों को विशेष कोशिश करनी चाहिए कि फ़ेसबुक सार्थक विचारों के विनिमय और संवाद के मंच के रूप में ज़्यादा से ज़्यादा प्रभावी भूमिका निभाये। भारतीय समाज को आज संजीदा वैचारिक-सांस्कृतिक माहौल की सख़्त ज़रूरत है। भँड़ास निकालने, आत्ममुग्धता-प्रदर्शन, खिलन्दड़ेपन और सतही भावुकता के घटाटोप से फ़ेसबुक का फ़ेस ही भोंड़ा-भद्दा लगने लगता है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-अप्रैल 2014
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