टेरी ईगलटन की त्रासद आध्यात्मिकता की आध्यात्मिक त्रासदी
शिशिर
साहित्य और साहित्य आलोचना में रुचि रखने वाले किसी भी पाठक को टेरी ईगलटन के बारे कुछ बताने की आवश्यकता नहीं होगी। लेकिन जो पाठक टेरी ईगलटन के नाम से परिचित नहीं हैं, उन्हें हम संक्षेप में उनका परिचय देना चाहेंगे। टेरी ईगलटन आज दुनिया के शीर्ष मार्क्सवादी साहित्य आलोचकों में से एक हैं। हम कह सकते हैं कि 1970 के दशक से लेकर अब तक के समय में मुख्य रूप से तीन मार्क्सवादी आलोचकों ने मार्क्सवादी आलोचना के मानकों को निर्धारित करने का काम किया है : एजाज़ अहमद, फ्रेडरिक जेम्सन और टेरी ईगलटन। इसमें से ईगलटन ने न सिर्फ मार्क्सवादी आलोचना के नये मानक गढ़ने का रचनात्मक कार्य किया बल्कि मार्क्सवादी आलोचना के एक बेजोड़ शिक्षक का भी काम किया। विशेष रूप से लिटररी थियरी : एन इण्ट्रोडक्शन और मार्क्सिज़्म एण्ड लिटररी थियरी नामक उनकी रचनाएँ साहित्य के विद्यार्थियों और शोधकर्ताओं व शिक्षकों के बीच विशेष रूप से लोकप्रिय हैं। टेरी ईगलटन न सिर्फ साहित्य आलोचना के क्षेत्र में मार्क्सवादी हैं, बल्कि वे ब्रिटेन की त्रात्स्कीपन्थी पार्टी सोशलिस्ट वर्कर्स पार्टी के और फिर उसके बाद वर्कर्स सोशलिस्ट लीग के सक्रिय सदस्य भी रहे हैं। 1970 के बाद के चार दशकों में मार्क्सवादी आलोचना पर उन्होंने जो कुछ लिखा है, वह शानदार है। उनकी शैली सहज और सरल है और उनका पूरा लेखन बेहद सम्प्रेषणीय रहा है। लेकिन 2009 में नव-नास्तिकतावादियों के समूह के साथ र्इश्वर के प्रश्न पर चली बहस में टेरी ईगलटन के हस्तक्षेप ने एक मार्क्सवादी के रूप में उनकी पहचान पर कई प्रश्न चिन्ह खड़े कर दिए हैं।
इस बहस में टेरी ईगलटन ने ईश्वर के अस्तित्व और विशेष रूप से कैथोलिक ईसाई ईश्वर के अस्तित्व के बचाव के लिए जो तर्क दिये हैं, उसे देखकर लगता ही नहीं है कि यह वही टेरी ईगलटन हैं जिनकी रचनाओं की धार विश्व-प्रसिद्ध रही है; शक होने लगता है कि आप किसी और टेरी ईगलटन को पढ़ रहे हैं। वास्तव में, मुझे यही लगा था और फिर मैंने एक बार इस बात की पड़ताल की कि यह वही टेरी ईगलटन हैं। और यह पुष्ट होने पर काफ़ी अफ़सोस हुआ।
2008-09 में नव-नास्तिकतावादियों के एक समूह ने कई पुस्तकें लिखीं जिन्होंने वैज्ञानिक तर्कों और प्रमाणों के आधार पर ईश्वर के अस्तित्व को ख़ारिज किया। इन लेखकों में से एक को छोड़कर बाकी सभी स्वयं वैज्ञानिक हैं। इन लेखकों की पुस्तकें जल्दी ही अमेरिका और ब्रिटेन दोनों ही देशों में सर्वाधिक बिकने वाली पुस्तकें बन गयीं। विशेष रूप से रिचर्ड डॉकिंस की पुस्तक ‘दि गॉड डेल्यूज़न’ काफ़ी प्रसिद्ध हुई। यह पुस्तक भारत में भी काफ़ी लोकप्रिय हुई है और सम्भवतः कुछ पाठकों ने इसके बारे में सुना हो। इस समूह के अन्य सदस्य हैं सैम हैरिस, डेनियल डेनेट और क्रिस्टोफ़र हिचिंस। इनमें से पहले दो अमेरिकी हैं जबकि डॉकिंस और हिचिंस ब्रिटिश हैं। इनकी पुस्तकें आने और उनके बेहद लोकप्रिय हो जाने के ठीक बाद टेरी ईगलटन ने इनकी पुस्तकों की एक समीक्षा लिखी जो ‘लन्दन रिव्यू ऑफ़ बुक्स’ में प्रकाशित हुई। इस समीक्षा के साथ ही प्रसिद्ध ‘ईश्वर बहस’ (दि गॉड डिबेट) की शुरुआत हुई। इस बहस के बाद टेरी ईगलटन ने एक अलग पुस्तक ही लिख दी जिसमें उन्होंने ईसाइयत और कैथोलिकवाद का बचाव किया या शायद बचाव करने की एक दयनीय कोशिश की। इस पुस्तक का नाम है ‘रीज़न, फ़ेथ एण्ड रिवोल्यूशन’।
बहुत से पाठकों को आश्चर्य होगा (जो कि जायज़ है) कि कोई मार्क्सवादी ईश्वर का बचाव क्यों कर रहा है? स्वाभाविक बात तो यह होती कि अगर किसी गैर-मार्क्सवादी नास्तिक ने ईश्वर के अस्तित्व का खण्डन करते हुए कोई पुस्तक लिखी है तो एक मार्क्सवादी उसका समर्थन करता और यहीं से बात को आगे बढ़ाता और द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद तक ले जाता, जैसा कि मार्क्स ने अपने समय में किया था। फ़ायरबाख़ पर अपनी प्रसिद्ध ग्यारह थीसीज़ में मार्क्स ने जब लिखा था कि दार्शनिकों ने दुनिया की तरह-तरह से व्याख्या की है, जबकि सवाल इसको बदलने का है, तो वह किसी हेगेलवादी भाववादी की आलोचना नहीं कर रहे थे, बल्कि फ़ायरबाख़ के ग़ैर-द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की आलोचना कर रहे थे। इस भौतिकवाद को मार्क्स चिन्तनशील भौतिकवाद (कण्टेम्प्लेटिव मटीरियलिज़्म) की संज्ञा देते हैं जो ईश्वर के खण्डन तक ही सीमित रह जाता है। मार्क्स तर्क देते हैं कि निश्चित रूप से पदार्थ जगत के प्राथमिक होने को सिद्ध कर, और पदार्थ से अलग किसी भी प्रकार की चेतना के अस्तित्व को ख़ारिज कर फ़ायरबाख़ ने दर्शन में एक क्रान्तिकारी योगदान किया। लेकिन वह यह नहीं समझ पाये कि पदार्थ जगत से निर्मित होने के बाद चेतना पलटकर क्रान्तिकारी व्यवहार (रिवोल्यूशनरी प्रैक्सिस) के ज़रिये पदार्थ जगत को बदल भी सकती है। यानी, जब क्रान्तिकारी चेतना मनुष्यों के किसी समूह में जड़ें जमा लेती है तो वह भी एक भौतिक शक्ति बन जाती है जो पदार्थ जगत की संरचना को बदल सकती है। यही क्रान्ति के विज्ञान का बुनियादी सबक था और यही था चिन्तनशील भौतिकवाद से द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद में संक्रमण। लेकिन कोई यह नहीं कह सकता कि फ़ायरबाख़ का कोई योगदान नहीं था। वास्तव में, फ़ायरबाख़ के योगदान के बिना मार्क्सवाद के विकास की ऐतिहासिक विशिष्टताएँ भी काफ़ी भिन्न रही होतीं। मार्क्स ने फ़ायरबाख़ के बिखरे भौतिकवाद को व्यवस्थित रूप दिया और द्वन्द्ववाद के साथ उसका संश्लेषण कर उसे एक शक्तिशाली विज्ञान में तब्दील किया। एक सच्चे मार्क्सवादी का गैर-द्वंद्वात्मक भौतिकवाद से यही रिश्ता हो सकता हैा लेकिन टेरी ईगलटन यहाँ कुछ और ही कर रहे हैं। आइये देखें कि वह क्या कर रहे हैं।
टेरी ईगलटन द्वारा नव-नास्तिकतावादियों की रचनाओं की आलोचना बेहद कमजोर, भोंड़ी, बुनियादी सवालों से बचते हुए आरोप-प्रत्यारोप करने वाली, अस्पष्ट और अहंकारी आलोचना है। बल्कि इसे आलोचना कहना भी उचित नहीं होगा। टेरी ईगलटन ने ईश्वर का एक दयनीय बचाव पेश किया है। इसके लिए उन्होंने अपनी सारी पाण्डित्यपूर्ण शैली, चुटीलापन, व्यंग्य करने की क्षमता और शब्दों की बाज़ीगरी को झोंक डाला है। लेकिन उनकी पुस्तक पढ़ने के बाद लगता है कि बेकार में ही इस उम्र में ईगलटन ने अपनी इतनी ऊर्जा ख़र्च कर दी! क्योंकि पाठक इसे पढ़कर बस आश्चर्य में कधें उचका सकता है। अपनी आलोचना की शुरूआत टेरी ईगलटन यहाँ से करते हैं: ‘‘कल्पना कीजिये कोई जीव विज्ञान पर लम्बी-चौड़ी बातें कर रहा है और इस विषय पर उसकी जानकारी सिर्फ ‘दि बुक ऑफ़ ब्रिटिश बड्र्स’ तक सीमित है, और आपको एक मोटा अन्दाज़़ा चल जायेगा कि धर्मशास्त्र पर रिचर्ड डॉकिंस को पढ़ना कैसा लगता है।” यह शुरुआती टिप्पणी ही ईगलटन के आगे की आलोचना के स्वर को निर्धारित कर देती है। ईगलटन का तुरूप का पत्ता इस बहस में यह है कि डॉकिंस व हिचिंस को धर्मशास्त्र का अच्छा ज्ञान नहीं है; उन्होंने ईसाई धर्म के महान सन्तों का अध्ययन नहीं किया है; उन्होंने बाइबिल भी ठीक से नहीं पढ़ी है; ऐसे में वह क्या जानें कि ईश्वर और धर्म क्या हैं? यह बेहद कमज़ोर तर्क है। पहली बात तो यह है डॉकिंस की पुस्तक धर्मशास्त्र पर नहीं है। यह ईश्वर के अस्तित्व को वैज्ञानिक तर्कों के आधार पर ख़ारिज करती है। इसका धर्मशास्त्रीय बहसों और ईसाई सन्तों की वाणी से कोई मतलब नहीं है। लेकिन ईगलटन अपनी समीक्षा और फिर अपनी पुस्तक में यही तर्क दोहराते रहते हैं। वे डॉकिंस, या फिर इस समूह के किसी भी सदस्य की रचनाओं में पेश एक भी तर्क को उत्तर नहीं देते हैं और लगातार अपना धर्मशास्त्र वाला कार्ड खेलने की कोशिश करते रहते हैं।
टेरी ईगलटन को ईसाई धर्मग्रन्थों का अच्छा ज्ञान है। इसका कारण यह है कि वह बचपन में एक कारमेल कॉन्वेण्ट में वेदी बालक (ऑल्टर बॉय) थे। उनका काम था ईसाई धर्मभिक्षुणियों को दरवाज़े से उस स्थान तक ले जाना जहाँ वे धर्मसेवा की सौगन्ध लेती हैं। उनकी हाल ही में प्रकाशित आत्मकथा का नाम भी उनके इसी शुरुआती पेशे से लिया गया है : ‘दि गेटकीपर’। ईगलटन एक ग़रीब परिवार में पैदा हुए थे। उनके कुछ भाईबहन गरीबी और भूख के कारण मर गए थे। लेकिन कैथोलिक चर्च की सहायता से वह स्वयं जीवित रहे और अध्ययन करते हुए कैम्ब्रिज के प्रतिष्ठित ट्रिनिटी कॉलेज में दाखि़ला लेने में कामयाब रहे। निश्चित रूप से ईगलटन असाधारण रूप से मेधावी थे और उनकी मेहनत की भी इसमें बहुत बड़ी भूमिका थी। लेकिन चर्च की सहायता के बिना वे शायद ही वहाँ तक पहुँच पाते। कैम्ब्रिज पहुँचने के बाद छात्र जीवन में वे मार्क्सवाद के सम्पर्क में आये। मार्क्सवाद से उनका परिचय कराने वाला और कोई नहीं बल्कि प्रसिद्ध मार्क्सवादी सांस्कृतिक विश्लेषक रेमण्ड विलियम्स थे। रेमण्ड विलियम्स एक वामपन्थी कैथोलिक समूह स्लैण्ट से परिचित थे। इस समूह की पत्रिका स्लैण्ट के पहले अंक की प्रस्तावना विलियम्स ने लिखी। यह समूह कैथोलिक आस्था और मार्क्सवाद में तालमेल करने की कोशिश करता था। टेरी ईगलटन भी इसी समूह से जुड़ गये, क्योंकि स्वयं उन पर भी कैथोलिक परवरिश का गहरा असर था। एक जगह ईगलटन ने कहा है कि ‘‘कैथोलिकवाद ने मुझे और कुछ नहीं तो हर प्रश्न पर गहराई और शक्ति के साथ सोचना सिखलाया।” यह एक मार्क्सवादी के लिए अजीब बयान है। पहली बात तो यह कि गहराई और शक्ति के साथ सोचने का गुर सीखने के लिए कैथोलिक होना ज़रूरी नहीं है। और दूसरी बात यह कि ईगलटन के इस दावे को सतही तौर पर नहीं लिया जा सकता; यानी कि वाकई कैथोलिकवाद ने ही उन्हें इस तरह से सोचना सिखलाया, यह महज़ एक दावा भी हो सकता है, जो ईगलटन चर्च के कर्ज से मुक्त होने के लिए कर रहे हों! कैथोलिक परवरिश और फिर चर्च की सहायता से जीवन में आगे बढ़ने के कारण ईगलटन की ईसाइयत और विशेष रूप से प्राचीन र्इसाइयत से विशेष लगाव हैा यह आगे लेख में स्पष्ट हो जाएगा। लेकिन इस बात का कोई आनुभविक प्रमाण नहीं है कि कैथोलिकवाद लोगों को गहराई और शक्ति से सोचना सिखाता है। उल्टे, आनुभविक प्रमाण तो इस बात का है कि कैथोलिकवाद लोगों को कूपमण्डूक और उल्लू बनाता है! इसलिए बड़े पैमाने पर ईगलटन के दावे के प्रमाणों की अनुपस्थिति में यह माना जा सकता है, कि इस बयान के कुछ अन्य प्रच्छन्न भावनात्मक कारण हो सकते हैं। स्लैण्ट समूह के अन्तिम दौर में ईगलटन एक कैथोलिक पादरी के भी सम्पर्क में लम्बे समय तक रहे और उनके शिष्य बने रहे। इसी समय ईगलटन मार्क्सवाद से भी परिचित हो रहे थे। उस पादरी की मृत्यु से पहले ईगलटन वामपन्थी राजनीति में भी सक्रिय हो चुके थे। इस दौरान ही उन्होंने अपनी पहली पुस्तक ‘टुवड्र्स ए न्यू लेफ्ट चर्च’ भी लिखी जिसमें कैथोलिक वामपन्थ की बुनियादी प्रस्थापनाओं को उन्होंने प्रस्तुत किया। उस पादरी की मृत्यु के बाद ईगलटन धर्म से विमुख हो गये और फिर उनकी रचनाओं में ईसाइयत या कैथोलिकवाद की थीम लम्बे समय तक नहीं आयी। 1976 से लेकर 2000 के पहले दशक के उत्तरार्द्ध तक ईगलटन ने मार्क्सवादी आलोचना सिद्धान्त को समृद्ध करने में उल्लेखनीय योगदान किया।
लेकिन उनके भीतर कैथोलिकवाद और ईसाइयत के प्रति रुझान कभी पूरी तरह समाप्त नहीं हो पाया था। कम-से-कम भावानात्मक और आत्मिक धरातल पर वह हमेशा इससे जुड़े रहे थे। और सम्भवतः जीवन के तृतीय चतुर्थांश की ओर बढ़ते हुए, मार्क्सवादी विज्ञान और दर्शन को आत्मसात न कर पाने के पाप का फल अब टेरी ईगलटन अपनी चार दशकों में कमायी गयी प्रतिष्ठा की स्वयं अपने हाथों से मिट्टी पलीद करके चुका रहे हैं! अब जबकि हम टेरी ईगलटन के ईश्वर-रक्षा अभियान के ऐतिहासिक कारणों को अत्यन्त संक्षेप में समझ चुके हैं, तो हम ईश्वर सम्बन्धी बहस की ओर वापस लौट सकते हैं।
ईगलटन का मानना है कि चूँकि डॉकिंस धर्मशास्त्र में पारंगत नहीं हैं इसलिए वह ईश्वर के अस्तित्व के बारे में कुछ नहीं बोल सकते हैं। यह एक विचित्र तर्क है। एक फन्तासी के खण्डन के लिए उस फन्तासी द्वारा रची गयी तमाम उप-फन्तासियों को पढ़ने की क्या आवश्यकता हो सकती है? किसी फन्तासी के बारे में यह सिद्ध करने के लिए कि वह फन्तासी ही है, आपको उसे यथार्थ, इतिहास और विज्ञान के प्रमाणों के सामने खड़ा करना होता है। फन्तासी ख़ुद ही बोल पड़ती है कि मैं फन्तासी हूँ। डॉकिंस ने यही किया। और इसके लिए ही ईगलटन डॉकिंस से बेहद नाराज़ हैं। क्योंकि उनके बचपन का प्रिय कैथोलिकवादी ईसाई धर्म भी विज्ञान की झाड़ू की चपेट में आ गया! अब कोई तर्क तो है नहीं! इसलिए धर्मशास्त्र का कार्ड खेलने के अलावा बेचारे ईगलटन के पास कोई चारा भी नहीं था! ज़रा कुछ तर्कों पर गौर कीजिए। टेरी ईगलटन कहते हैं कि आपको धर्म और धर्मशास्त्र को तार्किक मेधा के अन्तर्ज्ञानी (इण्ट्यूटिव) और आत्मगत (सब्जेक्टिव) धरातलों के ज़रिये समझना पड़ता है। यानी कि ईश्वर को तथाकथित प्रत्यक्ष तर्क और विज्ञान से नहीं समझा जा सकता है; उसे अपने अन्तर्ज्ञान से अनुभव करना पड़ता है, जो कि आत्मगत होता है। इसमें तार्किक मेधा शब्द ईगलटन ने बेवजह घुसेड़ दिया है। इस शब्द को हटा दें तो उनका वाक्य कोई अर्थ पैदा करता है। अन्यथा, यह एक अर्थहीन वाक्य है। इसलिए अगर इस ‘तार्किक मेधा’ के काँटे को हटा दें तो ईश्वर से आपका अपने अन्तर्ज्ञान और आत्मगत बोध से मिलन हो सकता है!! ईगलटन दावा करते हैं कि डॉकिंस व अन्य नास्तिक वैज्ञानिकों के तर्क प्रत्यक्षवादी हैं और प्रत्यक्षवाद (पॉजि़टिविज़्म) को 20वीं सदी नाले में बहा चुकी है। प्रत्यक्षवाद मर चुका है, जबकि ईसाई धर्म थॉमस एकीनास से लेकर कीर्केगार्द तक विकसित हो रहा है, फल-फूल रहा है! इसमें नए नए सिद्धान्तों का इज़ाफ़ा हो रहा है! यह एक ऐसा मुर्खतापूर्ण तर्क है जिसका जवाब देने की न तो इसमें से किसी नास्तिक वैज्ञानिक ने आवश्यकता समझी और न ही हम ऐसी कोई आवश्यकता समझते हैं!
ईगलटन नव-नास्तिकतावादियों के तर्कों का जवाब देने में दयनीय रूप से असफल रहते हैं। इसीलिए वह अपनी पुस्तक ‘रीज़न, फ़ेथ एण्ड रिवोल्यूशन’ में एक नये चरित्र की रचना करते हैं : डिचिंस (डॉकिंस+हिचिंस)! और फिर वह इस नए प्राणी डिचिंस पर टूट पड़ते हैं। ईगलटन पहले बिना किसी प्रमाण के इस बेचारे डिचिंस पर अभियोग पर अभियोग लगाते हैं और फिर अधार्मिक होने के लिए उसे जमकर कोड़े लगाते हैं! यह एक काफी अच्छी योजना थी। चुँकि डिचिंस एक काल्पनिक प्राणी है, इसलिए न तो वह अपनी सफ़ाई में कुछ कह सकता है और न ही पलटकर ईगलटन को कोड़े लगा सकता है। इसलिए बिना किसी जवाबी हमले के डर के डिचिंस के बहाने ईगलटन नास्तिकता पर हमला बोल सकते हैं! योजना अच्छि थी, लेकिन किसी वीडियो गेम के लिए! आप अपने विरोधी का स्वयं चयन करते हैं और फिर उसे धुन डालते हैं! सबकुछ ठीक है; बस दिक्कत यह है कि यह सब काल्पनिक है!
ईगलटन कुछ नये सिद्धान्त भी प्रतिपादित करते हैं। वह कहते हैं कि आज की दुनिया में प्रबोधनकाल में प्रस्तुत उपकरणात्मक तर्क (Instrumental Reason) साम्राज्यवाद का पक्षधर बन चुका है। नास्तिकता का आज पूँजीवाद के साथ गहरा सम्बन्ध है। पूँजीवाद के मानवद्रोही होने का एक स्रोत नास्तिकता में भी है। ईगलटन आगे दलील देते हैं कि आज की दुनिया में मानवीय मूल्यों की दो प्रमुख शरणस्थलियाँ हैं, साहित्य और धर्म। विज्ञान और तर्क के प्रति ईगलटन के पास सिर्फ अवहेलना और अपमान है। एक मार्क्सवादी द्वारा ऐसे बर्ताव को त्रासदी की श्रेणी में रखा जाये, या कामदी की श्रेणी में, इसके लिए तो ईगलटन जैसे किसी धुरन्धर साहित्य आलोचक की शरण में ही जाना पडे़गा! प्रत्यक्षत:, ईगलटन ने सभी सच्चाइयों को सिर के बल खड़ा कर दिया है। वास्तव में, उपकरणात्मक तर्क की आलोचना का काम ईगलटन को उत्तर-आधुनिकतावादियों के लिए छोड़ दिया जाना चाहिए (जिनसे कि वह ख़ुद भी बेइन्तहाँ नफ़रत करते हैं और एक जगह उन्होंने उत्तरआधुनिकतावाद को एक बीमार मज़ाक की संज्ञा भी दी है)। लेकिन यहाँ तो ईगलटन ख़ुद एक बीमार मज़ाक करते नज़र आ रहे हैं। पूँजीवाद और नास्तिकता का अपवित्र गठबन्धन? विज्ञान और तर्क का साम्राज्यवाद के साथ गठजोड़? यह तो हद है! ईगलटन कहते हैं कि ‘आई बिलीव टू अण्डरस्टैण्ड!’ (मैं आस्थावान हूँ ताकि मैं समझ सकूँ!) लेकिन मार्क्सवाद तो बताता है कि जब आदमी समझ नहीं पाता तब वह आस्थावान हो जाता है! ईगलटन कहते हैं कि आस्था का होना मानवीय होने के लिए जरूरी है। लेकिन क्या इतिहास गवाह नहीं है कि आस्था ही मानव इतिहास में सबसे अमानवीय कृत्यों का कारण बनी है? क्या हम गुजरात को भूल सकते हैं? या हम होलोकॉस्ट को भूल सकते हैं? क्या हम आज के इस्लामोफ़ोबिया को नज़रअन्दाज़़ कर सकते हैं? मज़ेदार बात तो यह है कि ईगलटन आज के इस्लामोफ़ोबिया के लिए भी नास्तिकों को दोषी ठहराते हैं! इसका कोई विश्लेष्ण पेश करना वह जरूरी नहीं समझते। इसका बस एक आधार है। चूँकि आज विज्ञान का इस्तेमाल पूँजीवाद-साम्राज्यवाद अपने हितों के लिए कर रहे हैं, इसलिए गड़बड़ी विज्ञान और तार्किकता में ही है! यह भी एक ऐसा मूर्खतापूर्ण तर्क है जिसका जवाब देने की अब कोई आवश्यकता नहीं है। पूँजीवाद न सिर्फ विज्ञान और उसकी खोजों का मुनाफ़े के लिए आदमखोर तरीके से इस्तेमाल कर रहा है, बल्कि आध्यात्मिकता और धर्म का भी वह ऐसा ही इस्तेमाल कर रहा है। इसमें आध्यात्मिकता और धर्म का इस्तेमाल ज़्यादा घातक है क्योंकि इसका इस्तेमाल जनता के नियन्त्रण और उसकी चेतना को कुन्द और दास बनाने के लिए किया जाता है। विज्ञान और तर्क में तो पूँजीवाद-विरोधी एक प्रवृत्ति अन्तर्निहित होती है, क्योंकि पूँजीवाद स्वयं एक बेहद अतार्किक और अवैज्ञानिक व्यवस्था है। इसलिए पूँजीवाद व्यावहारिक विज्ञान की सभी नेमतों का इस्तेमाल तो करना चाहता है, लेकिन विज्ञान और तर्क की रोशनी को जनता के व्यापक तबकों तक पहुँचने से रोकने या उसे विकृत रूप में जनता के आम जनसमुदायों में पहुँचाने के लिए हर सम्भव प्रयास करता है।
ईगलटन चारों नव-नास्तिकतावादियों में से सिर्फ दो को चुनते हैं, जो कि ब्रिटिश हैं और कैम्ब्रिज में उनके साथ थे। बाकी दो अमेरिकी नव-नास्तिकतावादियों के बारे में ईगलटन कुछ खास नहीं कहते। मानो कि यह ब्रिटिश विद्वानों का आपसी मामला हो। उसमें भी ईगलटन डॉकिंस के प्रति विशेष रूप से हमलावर रुख़ अख्तियार करते हैं, क्योंकि डॉकिंस एक वैज्ञानिक हैं और एक वैज्ञानिक के रूप में ही वह धर्म की सत्ता पर हमला करते हैं, जो कि निश्चित रूप से धर्म और ईश्वर की सेहत के लिए विशेष रूप से हानिकारक है। इसीलिए वह ईगलटन का मुख्य निशाना बने हैं। दूसरी ओर, हिचिंस इस पूरे ग्रुप के एकमात्र ऐसे सदस्य हैं जो साहित्य के अध्यापक हैं। इसलिए हिचिंस के प्रति ईगलटन ने कुछ उदार शब्द भी कहें हैं और उन्हें अपने हास्यास्पद हमले का प्रमुख निशाना नहीं बनाया है। वह कहीं-कहीं हिचिंस को पाला बदल लेने की अपील करते नज़र आते हैं, ख़ास तौर पर जहाँ वह हिचिंस और डॉकिंस की शैलियों के फ़र्क को बताते हुए जताते हैं कि क्यों विज्ञान शैतानी शक्ति है और क्यों साहित्य इंसानी शक्ति है! लेकिन ईगलटन इस पूरे प्रयास में और हास्यास्पद बन गए हैं। एक बात यहाँ बता देना मौजूँ होगा। जब ईगलटन इराक युद्ध के खि़लाफ़ प्रचार और प्रदर्शन कर रहे थे, तो उस समय मानवीयता के गुणों से लैस होने की सम्भावना रखने वाले, और साहित्य अध्येता क्रिस्टोफ़र हिचिंस उनके साथ नहीं आये और उन्होंने बुश-ब्लेयर का नियो-कंज़रवेटिव खेमा चुन लिया था। जबकि, शैतानी वैज्ञानिक रिचर्ड डॉकिंस ने इराक़ युद्ध विरोध में बढ़-चढ़ कर हिस्सेदारी की थी। ईगलटन के अन्तरविरोध इस बहस में खत्म होने का नाम ही नहीं लेते हैं।
डॉकिंस व अन्य से ‘‘निपटने’‘ और फ़ारिग होने के बाद टेरी ईगलटन उस काम में लगते हैं, जो उन्हें शायद सबसे ज़्यादा पसन्द है और अगर वह साहित्य आलोचक न बनते तो शायद वही काम करतेः धर्मोपदेश और धर्म-व्याख्या! टेरी ईगलटन का प्राचीन कैथोलिक ईसाइयत के प्रति प्रेम उमड़ पड़ा है। और इस कदर कि उन्होंने येशू को कम्युनिस्ट बनाने की कोशिश तक कर डाली है। ईसा एक मूर्तिभंजक, क्रान्तिकारी, अराजकतावादी और सर्वहारा है! ईगलटन दावा करते हैं कि ईसा आज के तमाम अतिवामपंथियों से ज्यादा वामपंथी थे। यहाँ तक कि ईसा के पुनर्जन्म के बारे में भी ऐसे बात की गयी है, मानो वह वाकई हुआ हो! इस पर भी ज्यादा कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है। पाठक स्वयं ही समझ सकते हैं कि स्थिति क्या है!
टेरी ईगलटन ईसा, ईसाई धर्म और उसकी संस्थाओं का एक अनैतिहासिक विवरण देते हैं। इस विवरण का वास्तविकता, तथ्यों और प्रमाणों से कोई लेना देना नहीं है। र्इसा के जीवन के बारे में आज कोई विशेष ऐतिहासिक प्रमाण मौजूद नहीं हैं। कहना तो यह चाहिए कि ऐसे किसी चरित्र की ऐतिहासिकता ही अभी कठघरे में है। हाँ, हम ईसाई समुदाय के प्रारम्भिक इतिहास के बारे में कुछ जानते हैं। और जो हम जानते हैं उससे उस समुदाय या उसके धर्म में कुछ भी अराजकतावादी, मूर्तिभंजक, विद्रोही नज़र नहीं आता। यह प्रारम्भिक ईसाई समुदाय काफ़ी कुछ वैसा है जैसा कि मैक्स वेबर ने अपनी प्रसिद्ध रचना प्रोटेस्टेण्ट ऐथिक्स एण्ड दि राइज़ ऑफ़ कैपिटलिज्म में बताया है। निश्चित रूप से, वेबर की यह थीसिस बिल्कुल ग़लत है कि प्रोटेस्टेण्ट आचार और संस्कृति ने पूँजीवाद को जन्म दिया। वास्तव में मामला उल्टा था। पूँजीवाद के उदय ने एक ऐसे समुदाय को जन्म दिया जो वैसा था जैसा कि वह था। लेकिन अभी मसला यह नहीं है। प्रारम्भिक ईसाई समुदाय उद्यमियों, कुशल कारीगरों और दुकानदारों का एक समुदाय था जो रोमन साम्राज्य में कॉन्स्टैण्टीन द्वारा ईसाईकरण के बाद फलफूल रहा था। यह वह समूदाय था जो प्राचीन नगर राज्यों के पुराने कुलीन वर्गों के बरक्स एक किस्म की व्यवस्था और नये किस्म के राज्य की नुमाइन्दगी कर रहा था। ईसाई समुदाय और धर्म के टेरी ईगलटन के चित्रण में कुछ भी ऐतिहासिक नहीं है। यह बाइबिल की व्याख्यात्मक टिप्पणी के समान है, जो किसी ऐसे कैथोलिक पादरी ने की हो जो वामपन्थ के प्रति रुझान या हमदर्दी रखता हो।
अन्त में, ईगलटन एक बात जोड़ देते हैं ताकि पाठक उनकी किताब को एक बहुत बड़ा चुटकुला न समझ लें। अन्त में वह बोलते हैं कि नयी ईसाईयत पूँजीवाद और शासक वर्गों का उपकरण बन गयी है। लेकिन वह फ़ौरन तर्जनी उठाकर बताते हैं कि यह वास्तविक ईसाईयत नहीं है। यह बुरी ईसाईयत है। अच्छी ईसाईयत पुरानी कैथोलिक ईसाईयत है। और डॉकिंस और हिचिंस को उस ईसाईयत के धर्मग्रन्थों को पढ़ना चाहिए! इस तरह मामला अच्छे धर्म बनाम बुरे धर्म या अच्छा ईश्वर बनाम बुरा ईश्वर पर आकर रुकता है। यह एक काफ़ी पुराने वाकये की याद दिलाता है। एक दौर में, ऑट्ज़ोविस्ट दार्शनिकों, बोग्दानोव, अन्स्र्ट माख़ और नियत्शे के प्रभाव में आकर गोर्की और लुनाचास्र्की के सिर पर भी ईश्वर-निर्माण का भूत सवार हुआ था। यह ईश्वर पुराने धार्मिक ईश्वर से भिन्न होगा, जो कि बुरा ईश्वर है। इसलिए एक अच्छा ईश्वर बनाया जाना चाहिए! लेनिन ने इस विचार की धज्जियाँ उड़ाते हुए लुनाचार्स्की और गोर्की की तीखी आलोचना और उनके कुतर्कों को खण्डित करते हुए मार्क्सवाद की ऐसे रहस्यवाद, अज्ञेयवाद और धार्मिकता से हिफ़ाज़त की, जो तमाम ऑट्ज़ोविस्ट दार्शनिक नवकाण्टवाद के रूप में मार्क्सवाद में घुसाने की कोशिश कर रहे थे। मेरे विचार में ईगलटन मार्क्सवाद के प्रकाण्ड विद्वान हैं और उन्होंने उन तर्कों को निश्चित तौर पर पढ़ा होगा। लेकिन जैसा कि मैंने पहले ही कहा है, यहाँ प्रश्न तर्क का है ही नहीं! टेरी ईगलटन भावुक होकर ईसाईयत के ऋण से उऋण होना चाहते हैं। बाल्ज़ाक कि एक प्रसिद्ध कहानी है ‘नास्तिक का यज्ञ’ जिसमें एक नास्तिक अपने एक प्रिय की मौत पर नास्तिक होने के बावजूद उसे एक श्रद्धांजलि के तौर पर उसकी आखि़री इच्छा के अनुसार एक यज्ञ आयोजित कराता है। टेरी ईगलटन की ईश्वर रक्षा इससे कुछ मिलती-जुलती प्रतीत होती है। लेकिन पूरी वैसी भी नहीं है। क्योंकि टेरी ईगलटन के मन में धर्म और ईश्वर के प्रति कुछ वास्तविक भावनाएँ भी हो सकती हैं। हाल ही में, एक साक्षात्कार में जब उनसे पूछा गया कि क्या वह ईश्वर के अस्तित्व में भरोसा करते हैं, तो उन्होंने गोलमोल जवाब दिया और कहा कि इंसान एक साथ दो आस्थाएँ रख सकता है। उनका इशारा मार्क्सवाद और ईसाई धर्म की तरफ़ था। ईश्वर के अस्तित्व के बारे में राय पूछे जाने पर वह हमेशा मुस्करा देते हैं, या कन्धे उचका देते हैं, जिसका आप कोई भी मतलब निकाल सकते हैं! लेकिन इन सभी विचित्र भाव-भंगिमाओं के बावजूद टेरी ईगलटन का असतत् मार्क्सवाद छिप नहीं पाया है। वास्तव में टेरी ईगलटन साहित्य आलोचना में मार्क्सवाद का एक विश्लेषण के उपकरण के रूप में इस्तेमाल करने में माहिर हैं, और यह काम वह शानदार तरीके से करते हैं। लेकिन वास्तविक जीवन में उनका जुड़ाव या तो त्रात्स्कीपन्थियों से रहा और या फिर सामाजिक-जनवादियों से। वह कल्याणकारी राज्य की नीतियों का भी समर्थन करते रहे हैं। वास्तव में, जब उन्होंने कहा था कि ईसा आज के वामपन्थियों से ज़्यादा वामपन्थी थे, तो हो न हो उनके मन में अपना ही ख़याल रहा होगा! कम-से-कम मेरे मन में तो सबसे पहला नाम उन्हीं का आया! कहा जा सकता है कि टेरी ईगलटन एक सतत् मार्क्सवादी नहीं हैं। राजनीतिक तौर पर, वह त्रात्स्कीपन्थ के करीब रहे हैं जो मार्क्सवाद की आगमनात्मक पद्धति की बजाय निगमनात्मक पद्धति का अनुसरण करता है और निष्क्रियतावादी शेखचिल्लीवाद और दुस्साहसवाद का शुरू से शिकार रहा है। साहित्य आलोचना में उन्होंने शुरुआत एक कैथोलिक वामपन्थी के तौर पर की, उसके बाद उनका झुकाव अल्थूसरवादी पियेर मशेरी की तरफ़ रहा; 1983 आते-आते वह फूको से भी थोड़ा प्रभावित हो चुके थे; मनोविश्लेषण और नारीवाद का प्रभाव भी 1980 के दशक के समाप्त होते-होते उन पर साफ़ तौर पर देखे जा सकते हैं; यह सच है कि उनकी प्रमुख वैचारिक धुरी मार्क्सवाद ही रही, लेकिन यह आलोचना के क्षेत्र में भी एक सतत् मार्क्सवाद नहीं था, बल्कि तमाम विजातीय विचार सरणियों से प्रभावित मार्क्सवाद है।
अब उस पृष्ठभूमि को भी संक्षेप में जान लिया जाये जिसमें टेरी ईगलटन ने धर्मध्वजा रक्षा का बीड़ा उठाया है, तो बात पूरी तरह से साफ़ हो जायेगी। टेरी ईगलटन के ये नवीनतम कदम एक विशिष्ट परिवर्तन से प्रेरित हैं। यह परिवर्तन साम्राज्यवादी देशों की सत्ताओं की प्रणाली में आये एक परिवर्तन से कहीं न कहीं जुड़ा हुआ है। नियोकंज़र्वेटिव रणनीति में कुछ बदलाव आये हैं जिनका प्रभाव पूरे शैक्षणिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक जगत की संस्थाओं, व्यक्तियों और परम्पराओं पर पड़ा है। यह परिवर्तन है बुश के समय के कट्टरतावाद से एक दिखावटी उदारवाद की ओर संक्रमण। इस संक्रमण की एक विशेषता है सिंक्रेटिज़्म। सिंक्रेटिज़्म का शाब्दिक अर्थ है कई विचारधाराओं का मिश्रण। अमेरिका में आज जो सिंक्रेटिस्ट रुझान है, उसका मकसद है यह दिखलाना कि विज्ञान की आधुनिकतम खोजों और धर्म के सिद्धान्तों में कोई अन्तरविरोध नहीं है; बल्कि ये एक-दूसरे के पूरक होते हैं क्योंकि एक सत्य तक पहुँचने के दो अलग-अलग रास्ते धर्म और विज्ञान मुहैया कराते हैं! यह वही बकवास है जो हिन्दुस्तान के आधुनिक हिन्दुत्ववादी भी करते हैं। और यह अमेरिका में भी उतनी ही उबाऊ बकवास है जितनी की हिन्दुस्तान में। सिंक्रेटिस्ट प्रवृत्ति विज्ञान और धर्म के बीच टक्कर को रोकती है, जबकि पुरानी कट्टरवादी प्रवृत्ति विज्ञान की कोई परवाह नहीं करती थी। एक देश के राष्ट्रपति के सपने में ईसा प्रकट होते थे और कहते थे कि आतंक पर युद्ध छेड़ दो और वह देश युद्ध छेड़ देता था! अब वह दौर नहीं है। राज्यसत्ता के काम करने के तरीके में कुछ बदलाव आये हैं। अब हर चीज़ के लिए विज्ञान और धर्म दोनों की सहमति माँगी जाती है। और इस प्रवृत्ति के मज़बूत होने के साथ ही उन संस्थाओं के दिन बहुर गये जो इसी मकसद से बनायी गयी हैं कि धर्म और विज्ञान के बीच बेमेल मेल कराया जाये। ऐसी ही एक संस्था है टेम्पलटन फ़ाउण्डेशन। यह संस्था धर्म के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करने वालों को पुरस्कार से नवाज़ती है। अब देखिये इस पूरे सन्दर्भ में टेरी ईगलटन का प्रवेश कैसे होता है। टेरी ईगलटन ने पिछले वर्ष अमेरिका की अपनी यात्रा की शुरुआत एक हार्वर्ड क्लब के बुक फ़ोरम से की। ज़रा तुक्का मारिये कि इस पूरे आयोजन की फ़ण्डिंग किसने की? जी हाँ, टेम्पलटन फ़ाउण्डेशन ने। इसके बाद टेरी ईगलटन ने अपनी एक पुस्तक में एक कनाडाई मूल के कैथोलिक चाल्र्स टेलर की तारीफ़ों के पुल बाँधते हुए उनकी पुस्तक ‘दि सेक्युलर एज’ को एक अद्वितीय उपलब्धि बताया। अब सोचिये कि चाल्र्स टेलर कौन हैं? इन्हें टेम्पलटन ग्रैण्ड प्राइज़ से नवाज़ा गया है जिसमें 15 लाख डॉलर दिये जाते हैं! यह किसी भी व्यक्ति को दिया जाने वाला सबसे बड़ा पुरस्कार है! और बताइए ज़रा हमें अभी तक पता भी नहीं था। पिछली बार का टेम्पलटन पुरस्कार किन्हीं बिली ग्राहम को मिला था जिन्होंने फ़रिश्तों पर एक पुस्तक लिखी है! अब ईगलटन ने धर्म रक्षा का जो नेक काम किया है, तो वह भी यह पुरस्कार पाने की उम्मीद कर सकते हैं!
ईगलटन द्वारा नास्तिकता पर हमले के बाद से तमाम धार्मिक संगठनों ने हर जगह उनके लिए लाल कालीन बिछा दी है। इसका कारण यह है कि सिंक्रेटिस्ट प्रवृत्ति के संगठनों के लिए ईश्वर पर किया जाने वाला कोई भी हमला या जनता के बीच किसी का नास्तिक होना कोई ख़ास मायने नहीं रखता। लेकिन अगर कोई वैज्ञानिक प्रमाणों और तथ्यों समेत धर्म को और ईश्वर के अस्तित्व को ख़ारिज करता है, तो ये लोग तिलमिला उठते हैं। इसका कारण यह है कि सिंक्रेटिस्ट प्रवृत्ति का मकसद ही विज्ञान से धर्म के लिए सहमति लेना है। ऐसे में अगर कोई वैज्ञानिक धर्म और ईश्वर की बखिया उधेड़ने लगे तो आप अन्दाज़़ा लगा सकते हैं कि सिंक्रेटिस्ट प्रवृत्ति का अनुसरण करने वालों की क्या प्रतिक्रिया होगी। यही कारण है कि डॉकिंस पर ईगलटन द्वारा किये गये हमले ने ईगलटन को सिंक्रेटिस्ट ईसाइयों का चहेता बना दिया है। और एक मार्क्सवादी द्वारा नास्तिकता पर हमला? इससे बेहतरीन चीज़ ईसाईयत या किसी भी धर्म के ईश्वर के लिए क्या हो सकती है? इसलिए ज़ाहिर है, ईगलटन को लपक लेने के लिए सारे धार्मिक संस्थाओं और संस्थानों में होड़ सी मच गयी है।
अब देखिये कि टेरी ईगलटन और क्या करते हैं। 2008 में वह टेरी लेक्चर देते हैं (इस ‘टेरी’ का टेरी ईगलटन से कोई सम्बन्ध नहीं है)। टेरी लेक्चरशिप की स्थापना 1905 में हुई थी। इसका मकसद है विज्ञान और धर्म के सत्यों को मिश्रित कर एक नये मानवीय, व्यापक और शुद्ध धर्म की रचना करना। और टेरी ईगलटन यहाँ 2008 में क्या करने आते हैं? नास्तिकता पर हमला! कुछ बताने की ज़रूरत नहीं है, स्थिति ख़ुद ही साफ़ है।
बहस और इस बहस के व्यापक सन्दर्भों से चीज़ें साफ़ हैं। टेरी ईगलटन के मार्क्सवाद का चरित्र भी साफ़ है। यहाँ मेरा मकसद टेरी ईगलटन द्वारा मार्क्सवादी आलोचना में किये गये काम को कम करना कतई नहीं है। मेरा कहना सिर्फ इतना है कि यहाँ मार्क्सवाद महज़ विश्लेषण का एक उपकरण है, जैसे कि तमाम अकादमिकों के लिए होता है। और जहाँ टेरी ईगलटन राजनीतिक रूप से सक्रिय हैं, वहाँ वह टोनी क्लिफ़ के ब्राण्ड के त्रात्स्कीपन्थी हैं। त्रात्स्कीपन्थ अपने पैस्सिव रैडिकलिज़्म के लिए ही जाना जाता है और अंग्रेज़ी में उसके लिए एक और शब्द भी चलता है ‘बिग माउथेड एम्प्टी टॉकिंग’। निजी जीवन के धरातल पर और एक विश्वदृष्टि के धरातल पर मार्क्सवाद को अपनाने में कई स्थानों पर ख़ाली स्थान छूटे रह गये हैं। टेरी ईगलटन द्वारा ईश्वर की रक्षा में लिखी गयी किताब और उनके द्वारा लिखी गयी समीक्षा भावनात्मक रूप से व्यथित एक ऐसे व्यक्ति द्वारा बोले गये अर्थहीन शब्दों के एक ढेर के समान है, जिसके पिता को गाली दे दी गयी हो! हम बस उम्मीद कर सकते हैं कि टेरी ईगलटन अपने इन विचलनों के बारे में सोचेंगे। यहीं कह सकते हैं कि ईश्वर टेरी ईगलटन को सद्बुद्धि दे!
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-जून 2011
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