लिंगदोह समिति का सच सामने है और हमारे कार्यभार भी…
संपादकीय
हमने ‘आह्वान’ के पिछले अंकों में कई बार लिखा है कि लिंगदोह कमेटी के सुझावों का असली मकसद क्या है । यह पूरे कैम्पस के विराजनीतिकरण की साज़िश का एक हिस्सा है । इस समिति के सुझाव, जिनके एक हिस्से को उच्चतम न्यायालय अब कानून का रूप दे चुका है, इतने भले और ईमानदार प्रतीत होते हैं कि आम मध्यवर्ग के छात्र और उनके अभिभावक इसका समर्थन करते हैं । यह कमेटी अपनी रिपोर्ट में छात्र राजनीति में मौजूद अपराध, गुण्डागर्दी और असामाजिक तत्वों पर काफी चिन्ता व्यक्त करती है और कहती है कि प्रशासन को इसे रोकने के लिए सख़्त कदम उठाने होंगे । इसके लिए आगे कई सुझाव देते हुए समिति कहती है कि छपे हुए पोस्टरों और पर्चों को प्रतिबन्धित कर दिया जाना चाहिए, चुनाव प्रचार का ख़र्च 5000 रुपये तक सीमित कर दिया जाना चाहिए, चुनाव प्रचार के लिए आख़िरी 5 दिन दिये जाने चाहिए, और इन नियमों के मामूली उल्लंघन होने पर भी उम्मीदवार की उम्मीदवारी को रद्द कर दिया जाना चाहिए । इसके अतिरिक्त, चुनाव में खड़े होने वाले उम्मीदवार की अकादमिक उपस्थिति कम से कम 75 प्रतिशत होनी चाहिए क्योंकि तमाम लोग सिर्फ़ राजनीतिक करने के लिए दाख़िला लेते हैं और पूरे कैम्पस का माहौल ख़राब करते हैं । किसी भी सीधे–सादे छात्र व नागरिक को ये अनुशंसाएँ एकदम तर्कसंगत लगेंगी । इसका कारण यह है कि इस बात में कोई सन्देह नहीं है कि कैम्पस में गुण्डागर्दी है, राजनीति में भ्रष्टाचार है, तमाम छात्र संगठनों द्वारा चुनावों में बेहिसाब ख़र्च किया जाता है, और पूरी राजनीति का लम्पटीकरण किया जाता है । इस अपराधीकरण और लम्पटीकरण से पूरे कैम्पस का अकादमिक माहौल चैपट होता है और आम छात्रों को इसका ख़ामियाजा भुगतना पड़ता है । नतीजतन, आम छात्रों का एक विचारणीय हिस्सा यह सोचता है कि इससे तो बेहतर है कि छात्र संघ चुनाव ही न हों । या फिर वह चाहता है कि इसके भ्रष्टाचार और अपराधीकरण पर लगाम लगाने के लिए लिंगदोह कमेटी के सुझावों जैसे कड़े कदमों पर अमल किया जाना चाहिए । यह एक प्रकार का विराजनीतिकरण है । घटिया, भ्रष्ट और अपराधी किस्म की छात्र राजनीति से ऊबे हुए आम छात्र राजनीति से ही विमुख होने लगते हैं और राजनीति को ही सारी फसाद की जड़ समझ बैठते हैं । इस बात पर ग़ौर करना ज़रूरी है कि वे कौन–से छात्र संगठन हैं जो इस किस्म के अपराधीकरण और भ्रष्ट आचरण के ज़िम्मेदार हैं ? सभी छात्र अच्छी तरह से जानते हैं कि ये सभी छात्र संगठन इस या उस चुनावी पार्टी के पिछलग्गू हैं । चाहे वह कांग्रेस, भाजपा जैसी शुद्ध पूँजीवादी पार्टियाँ हों या फिर संसदीय वामपंथी पार्टियाँ, इन सबके छात्र संगठन कैम्पस में मौजूद हैं और पूरी छात्र राजनीति को इन्होंने विधायक और सांसद बनने का प्रशिक्षण केन्द्र बना रखा है । जिस किस्म की राजनीति इन छात्र संगठनों की आका पार्टियाँ केन्द्र और राज्यों में कर रही हैं वैसी ही राजनीति ये छात्र संगठन कैम्पस में करते हैं और इसी राजनीति की नर्सरी में वे अपने नये रंगरूटों का प्रशिक्षण और भर्ती करते हैं ।
नतीजे के तौर पर, हमारे सामने आज की छात्र राजनीति मौजूद है जिससे आम छात्र ऊबा और थका हुआ है । ऐसे में, लिंगदोह कमेटी इस राजनीति को साफ़ करने के नाम पर तमाम ऐसे सुझाव पेश करती है जो बेहद मुफ़ीद नज़र आते हैं । कथित रूप से इनका लक्ष्य छात्र राजनीति को अपराध और भ्रष्टाचार से मुक्त कराना होता है । छात्रों की एक बड़ी आबादी इसका समर्थन करती है । हमने पहले के अंकों में लिखा है कि लिंगदोह कमेटी के सुझावों का असली निशाना ये अपराधी, भ्रष्ट और चुनावी छात्र संगठन नहीं हैं बल्कि वे क्रान्तिकारी छात्र संगठन हैं जो छात्र राजनीति को एक क्रान्तिकारी मोड़ देने की क्षमता रखते हैं । इन सुझावों का चुनावी पार्टियों के छात्र संगठनों पर कोई असर नहीं होने वाला है । हाल ही में कई कैम्पसों में हुए चुनावों में यह बात साबित भी हो गई । इन चुनावी छात्र संगठनों ने उसी तरह से चुनाव लड़ा जिस तरह से वे हमेशा लड़ते आए हैं । जमकर पैसा बहाया गया, गुण्डों की रैलियाँ निकाली गईं, छपे हुए पर्चों और पोस्टरों से पूरे कैम्पस को पाट दिया गया, जमकर शराब बहायी गयी, और वे तमाम काम किये गये जिन पर लिंगदोह कमेटी ने त्यौरियाँ चढ़ाईं थीं और मुँह लाल किया था ।
लिंगदोह कमेटी के सुझाव दरअसल इन छात्र संगठनों के बीच प्रचलित एक लोकप्रिय चुटकुला बन चुके हैं । इसका जमकर मखौल उड़ाया जाता है और इसका टिशू पेपर की तरह इस्तेमाल करके फेंक दिया जाता है । लेकिन लिंगदोह कमेटी की रिपोर्ट को विश्वविद्यालय प्रशासन पूरी सख़्ती के साथ उन क्रान्तिकारी छात्र संगठनों के ऊपर लागू करता है जिनका किसी चुनावी पार्टी से कोई लेना–देना नहीं होता है और जो शहीदे–आज़म भगतसिंह के विचारों को मानते हुए छात्र राजनीति को एक क्रान्तिकारी मोड़ देना चाहते हैंय जो छात्र संघ को क्रान्तिकारी छात्र राजनीति का एक मंच बनाना चाहते हैं और इसे चुनावी लग्गू–भग्गुओं से मुक्त कराना चाहते हैं ।
लिंगदोह कमेटी का दूसरा लक्ष्य था कि पूँजीवादी राजनीति से लोगों के उठते विश्वास को बचाना । जो लोग पूँजीवादी राजनीति को एक नौटंकी और फिक्स्ड मैच मानने लगे थे उनमें नये सिरे से यह आस्था पैदा करना ज़रूरी था कि ‘नहीं, इस खेल के कुछ नियम होते हैं और इनका पालन सभी के लिए अनिवार्य है!’ यह भ्रम केवल कुछ समय के लिए पैदा किया जा सकता है । क्योंकि लिंगदोह कमेटी के सुझावों का क्या हश्र हुआ है, यह तो सबके सामने ही है ।
कुल मिलाकर यह पूँजीपति शासक वर्ग की एक साज़िश है कि व्यापक छात्र आबादी का विराजनीतिकरण कर दिया जाय, कैम्पस को क्रान्तिकारी छात्र राजनीति से बचा कर रखा जाय, छात्र राजनीति को कुछ दिखावटी नियमों के पालन के साथ विधायक–सांसद बनने का प्रशिक्षण केन्द्र बने रहने दिया जाय और क्रान्तिकारी शक्तियों को कैम्पस के भीतर पैठने न दिया जाय ।
जो भी छात्र इस बात को समझते हैं उन्हें ज़रूरत है कि वे आगे आएँ और छात्र राजनीति में एक क्रान्तिकारी विकल्प खड़ा करें, संघर्ष करते हुए शासक वर्गों की इस साज़िश को सफल न होने दें और छात्र राजनीति को व्यापक आम जनता के संघर्षों और आन्दोलनों से जोड़ते हुए भगतसिंह और उनके साथियों के बताये रास्ते पर आगे बढ़ें । शिक्षा और रोज़गार के बुनियादी अधिकार के संघर्ष को आज छात्र राजनीति का बुनियादी सवाल बनाने की ज़रूरत है और छात्र आन्दोलन को युवाओं की उस भारी आबादी से जुड़ने की ज़रूरत है जो आज बेरोज़गार घूम रही है, शिक्षा के अधिकार से वंचित है और कल–कारखानों में मज़दूर बनकर खट रही है । एक क्रान्तिकारी छात्र–युवा आन्दोलन ही वह चीज़ है जिसकी आज सबसे अधिक ज़रूरत है । कैम्पस के भीतर छायी हुई चुप्पी को भी इसी रास्ते से तोड़ा जा सकता है और छात्र राजनीति को एक क्रान्तिकारी मोड़ दिया जा सकता है ।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, अक्टूबर-दिसम्बर 2008
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