फलस्तीनी मुक्ति संघर्ष के अमर गायक महमूद दरवेश नहीं रहे

आशीष

फलस्तीनी अवाम के दुख और पीड़ा को अपनी कविताओं के जरिये आवाज़ देने वाले जाने–माने कवि महमूद दरवेश का 9 अगस्त 2008 को निधन हो गया । वे 67 वर्ष के थे । जीवन भर मुक्ति–योद्धा की तरह जूझने वाला महमूद दरवेश महज कवि नहीं था । उसकी पहचान फलस्तीनी राष्ट्र की आज़ादी की चाहत रखने वाले अगुआ सिपाहियों में की जाती है ।

महमूद दरवेश का जन्म 13 मार्च 1942 को उक्का के अलबिखा में हुआ था । तब वह फलस्तीन का हिस्सा था । अब इजराइल में है । महमूद दरवेश की उम्र महज सात वर्ष की ही थी कि उनके प्यारे वतन पर यहूदीवादियों का कहर टूट पड़ा । ब्रिटिश साम्राज्यवादियों की काली करतूतों के चलते तमाम फलस्तीनियों को बेघरबार होकर जगह–जगह भागना पड़ा । 1948 में फलस्तीन की ज़मीन पर जबरिया एक नये यहूदी राज्य को पैदा किया गया जिसका नाम इजराइल है । आज यह एक आतंकवादी राज्य के रूप में मौजूद है । इसे हम अमेरिकी लठैत कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी । लाखों–लाख फलस्तीनियों की तरह महमूद दरवेश का परिवार भी अपनी जगह जमीन से उजड़ गया । अपने शहर से बेदख़ल होकर महमूद दरवेश का परिवार लेबनान में रहने लगा । वहीं उनकी बुनियादी तालीम की शुरूआत हुई । उनकी पढ़ाई–लिखाई सोवियत यूनियन में पूरी हुई । बचपन से ही महमूद दरवेश जिस आबो–हवा में पले–बढ़े उसका उनके ज़ेहन पर गहरा असर पड़ा । फलस्तीनियों की अपने राष्ट्र की मुक्ति की ख़ातिर कसमसाती मुठ्ठियाँ व यहूदीवादियों का सरेआम नंगनाच-ये वो नज़ारे थे जिन्हें देखते हुए महमूद दरवेश बड़े हुए । ऐसे में कोई नौजवान अपने आस–पास के हालात से कटा कैसे रह सका है और रह गया तो नौजवान कैसा ?

युवा दरवेश राजनीतिक गतिविधियों में शामिल होने लगे । वह इज़राइली कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बने । सार्वजनिक कविता पाठ करके दरवेश अवाम की मनोव्यथा को जुबान देने लगे । निर्वासितों की पीड़ा शब्दों में ढलने लगी । उन्होंने उम्मीद भरे शब्दों में बोलना शुरू किया कि अब तक का मानव समाज तमाम आततयियों को देख चुका है, उन्हें जमींदोज कर चुका है और इनका भी भविष्य वही होगा ।

अपनी जलती आँखों

और रक्तिम हाथों को बनाओ

रात जायेगी

कोई कैद : कोई जंजीर नहीं रहेगी

नीरो मर गया था रोम नहीं

वह लड़ा था अपनी आंखों से

एक सूखी हुई गेहूं की बाली के बीज

भर देंगे खेतों को

करोड़ोंकरोड़ हरी बालियों से

जनआन्दोलनों में भागीदारी व राजनीतिक सक्रियता के चलते महमूद दरवेश इज़राइली शासक वर्गों की नजरों में चुभने लगे । उनकी कवितायें भी दुश्मन की आँखों में आँखे डालकर सीधे बात जो कह रही थी । परिणामस्वरूप उनके साथ भी वहीं फार्मूला अपनाया गया जो किसी भी देश का शासक वर्ग जनता की जुबान बोलने वाले शख़्स के साथ अपनाता है । नज़रबन्दी । जेल की सलाखें । निर्वासन आदि–आदि । और अपने जीवन का बड़ा हिस्सा महमूद दरवेश ने निर्वासन में बिताया । इस प्रकार उनकी कविता का प्रमुख सरोकार बना ।

1987 में वे PLO की कार्यकारिणी में चुने गये । PLO (फलस्तीनी मुक्ति संगठन) की कार्यकारिणी में महमूद दरवेश का महत्व इसी से समझा जा सकता है कि 1988 में यासर अराफ़ात ने जो ऐतिहासिक ‘आज़ादी का घोषणापत्र’ पढ़ा था वह दरवेश का ही लिखा हुआ था । वे पी.एल.ओ.  की मासिक पत्रिका के सम्पादक और संगठन के रिसर्च डायरेक्टर भी रहे । लेकिन 1993 में ऑस्लो समझौते के विरोध में उन्होंने कार्यकारिणी से इस्तीफा दे दिया । उनकी निगाह में फलस्तीनी हूकूमत ने यह समझौता करके फलस्तीनी हितों को तिलांजलि दे दी थी ।

एक तरीक़े से यह बग़ावत थी खुद अपने नेताओं की समझौतापरस्ती व कमज़ोरी के ख़िलाफ़, जिसका नया रूप सन् 2000 से फलस्तीनी नौजवानों के नये इंतिफादा के रूप में सामने आता है जो सात सालों से जारी नकली ‘‘शान्ति वार्ताओं’’ से ऊब चुके थे । ‘‘शान्ति वार्ताओं’’ के नाम पर लगातार इज़राइल उनकी जमीन हड़पता गया और वहां अवैध ‘‘बस्तियाँ’’ बसाता गया । ऐसे में फलस्तीनी अवाम जो आज संघर्ष का प्रतीक बन चुका है, कब तक पाखण्डपूर्ण आश्वासनों के सहारे बैठता । आखिर क्यों ?

फलस्तीन की 70 प्रतिशत आबादी 30 वर्ष से कम उम्र की है यानी नौजवान है, सपना देखती है । और सपने देखना नौजवान बने  रहने के लिए ज़रूरी है । उनसे उनके सपने छीन लिए गये हैं । फौजी बूटों तले जिनकी उम्मीद को कुचला जा रहा हो, जहाँ 60 प्रतिशत आबादी बेरोज़गार हो । वह चुपचाप बैठकर अपने कत्ल होने का इंतज़ार नहीं कर सकती । वह स्वतंत्र फलस्तीनी राष्ट्र का सपना देखती है । सपने को यथार्थ में बदलने की ख़ातिर संघर्षरत है । महमूर दरवेश के शब्दों में कहा जाये तो –

कब तक पैदा होते रहेंगे बच्चे

बगैर किसी देश के, बगैर बचपन के

वह सपने देखेगा अगर कोई सपना देख सके

और धरती विदीर्ण है

महमूद दरवेश की कविता दरअसल फलस्तीनी सपनों की कविता है । उनकी कविता अपने लोगों की आवाज़ है जो बेइंतहा तकलीफ़, निर्वासन, दहशत और उम्मीद और सपनों से रची गयी है । फलस्तीनी कविता के बारे में उनका कहना था कि इसका महत्व हमारी धरती के कण–कण से इसके घनिष्ठ सम्बन्ध में निहित है-इसके पहाड़ों, घाटियों, पत्थरों, खण्डहरों और यहाँ के लोगों के सम्बन्ध में जो अपने कंधों पर भारी बोझ और अपनी कलाइयों तथा आकांक्षाओं पर कसी जंज़ीरों के बावजूद सिर उठाकर आगे बढ़ रहे हैं । यही प्रतिरोध का तत्व फलस्तीनी जनता की पहचान है, महमूद दरवेश की कविता की पहचान है ।

महमूद दरवेश की ज़्यादातर कविताओं का अनुवाद दुनिया की अन्य भाषाओं में हो चुका है, जिसने अरबी भाषा की कविता को एक पहचान दिलायी है । वे 1970 में दिल्ली में आयोजित अफ्रो–एशियाई लेखक सम्मेलन में शामिल होने भारत भी आये थे । इस मौके पर उनके कृतित्व को लोटस पुरस्कार देकर सम्मानित किया गया था । उन्हें स्टालिन शान्ति पुरस्कार से पुरस्कृत किया जा चुका है । दरवेश की पूरी ज़िन्दगी और उनकी कविता फलस्तीनी मुक्ति संघर्ष से नाभिनालबद्ध है । उससे काटकर देख पाना कठिन है । हमें ऐसे बहादुर कवि पर नाज़ है ।

हम अरबी भाषा के इस महत्वपूर्ण हस्ताक्षर को याद करते हुए फलस्तीनियों के संघर्ष से एकजुटता जताना चाहते हैं । ऐसी ही प्रतिरोधी कविता जो जनमानस के दिल को आलोड़ित कर दे, हमारी ज़रूरत है । वह दुनिया के तमाम दबे–कुचले अवाम की साझी विरासत है । उनकी अपनी मुक्ति की आवाज़ है । ‘आह्वान टीम’ की ओर से महमूद दरवेश को श्रद्धांजलि देते हुए हम उनकी कुछ कविताएँ प्रस्तुत कर रहे हैं ।

कवितायें

एक आदमी के बारे में

उन्होंने उसके मुंह पर जंजीरे कस दी

मौत की चट्टान से बांध दिया उसे

और कहा– तुम हत्यारे हो

उन्होंने उससे भोजन, कपड़े और

अण्डे छीन लिए

फेंक दिया उसे मश्त्यु–कक्ष में

और कहा– चोर हो तुम

उसे हर जगह से भगाया उन्होंने

प्यारी छोटी लड़की को छीन लिया

और कहा– शरणार्थी हो तुम

शरणार्थी

अपनी जलती आंखों

और रक्तिम हाथों को बताओ

रात जायेगी

कोई कैद, कोई जंजीर नहीं रहेगी

नीरो मर गया था रोम नहीं

वह लड़ा था अपनी आंखों से

एक सूखी हुई गेहूं की बाली के

बीज भर देंगे खेतों को

करोड़ों– करोड़ों हरी बालियों से

शोक गीत

हमारे देश में

लोग दुखों की कहानी सुनाते हैं

मेरे दोस्त की

जो चला गया

और फिर कभी नहीं लौटा

उसका नाम………………

नहीं उसका नाम मत लो

उसे हमारे दिलों में ही रहने दो

राख की तरह हवा उसे बिखेर न दे

उसे हमारे दिलों में ही रहने दो

यह एक ऐसा घाव है जो कभी भर नहीं सकता

मेरे प्यारो, मेरे प्यारे यतीमों

मुझे चिन्ता है कि कहीं

उसका नाम हम भूल न जायें

जाड़े की इस बरसात और आंधी में

हमारे दिल के घाव कहीं सो न जाये

मुझे भय है ।

उसकी उम्र ………….

एक कली जिसे बरसात की याद तक नहीं

चांदनी रात में किसी महबूबा को

प्रेम का गीत भी नहीं सुनाया

अपनी प्रेमिका के इंतजार में

घड़ी की सुइयां तक नहीं रोकी

असफल रहे उसके हाथ दीवारों के पास उसके लिए

उसकी आंखें उददाम इच्छाओं में कभी नहीं डूबीं

वह कभी किसी लड़की को चूम नहीं पाया

वह किसी के साथ नहीं कर पाया इश्कबाजी

अपने जिन्दगी में सिर्फ दो बार उसने आहें भरी

एक लड़की के लिए

पर उसने कभी कोई खास ध्यान ही नहीं दिया उस पर

वह बहुत छोटा था

उसने उसका रास्ता छोड़ दिया

जैसे उम्मीद का

हमारे देश में लोग उसकी कहानी सुनाते हैं

जब वह दूर चला गया

उसने माँ से विदा नहीं ली

अपने दोस्तों से नहीं मिला

किसी से कुछ कह नहीं गया

एक शब्द तक नहीं बाल पाया

ताकि कोई भयभीत न हो

ताकि उसकी मुंतजिर माँ की

लम्बी रातें कुछ आसान हो जायें

जो आजकल आसमान से बातें करती रहती है

और उसकी चीजों से

उसके तकिये से, उसके सूटकेस से

बेचैन हो–होकर वह कहती रहती है

अरी ओ रात, ओ सितारों, ओ खुदा, ओ बादल

क्या तुमने मेरी उड़ती चिड़िया को देखा है

उसकी आंखें चमकते सितारों सी है

उसके हाथ फूलों की डाली की तरह है

उसके दिल में चांद और सितारे भरे हैं

उसके बाल हवाओं और फूलों के झूले हैं

क्या तुमने उस मुसाफिर को देखा है

जो अभी सफर के लिए तैयार ही नहीं था

वह अपना खाना लिए बगैर चला गया

कौन खिलायेगा उसे जब उसे भूख लगेगी

कौन उसका साथ देगा रास्ते में

अजनबियों और खतरों के बीच

मेरे लाल, मेरे लाल

अरी ओ रात, ओ सितारे, ओ गलियों, ओ बादल

कोई उसे कहो

हमारे पास जवाब नहीं है

बहुत बड़ा है यह घाव

आंसुओं से, दुखों से और यातना से

नहीं बर्दाश्त नहीं कर पाओगी तुम सच्चाई

क्योंकि तुम्हारा बच्चा मर चुका है

माँ,

ऐसे आंसू मत बहाओ

क्योंकि आंसुओं का एक स्रोत होता है

उन्हें बचाकर रखो शाम के लिए

जब सड़कों पर मौत ही मौत होगी

जब ये भर जायेंगी

तुम्हारे बेटे जैसे मुसाफिरों से

तुम अपने आंसू पोंछ डालो

और स्मृतिचिह्न की तरह सम्भालकर रखो

कुछ आंसुओं को

अपने उन प्रियजनों के स्मृतिचिह्न की तरह

उन शरणार्थियों के स्मृतिचिह्न की तरह

जो पहले ही मर चुके हैं

माँ अपने आंसू मत बहाओ

कुछ आंसू बचाकर रखो

कल के लिए

शायद उसके पिता के लिए

शायद उसके भाई के लिए

शायद मेरे लिए जो उसका दोस्त है

आंसुओं की दो बूंदें बचाकर रखो

कल के लिए

हमारे लिए

हमारे देश में

लोग मेरे दोस्त के बारे में

बहुत बातें करते हैं

कैसे वह गया और फिर नहीं लौटा

कैसे उसने अपनी जवानी खो दी

गोलियों की बौछारों ने

उसके चेहरे और छाती को बींध डाला

बस और मत कहना

मैंने उसका घाव देखा है

मैंने उसका असर देखा है

कितना बड़ा था वह घाव

मैं हमारे दूसरे बच्चों के बारे में सोच रहा हूँ

और हर उस औरत के बारे में

जो बच्चागाड़ी लेकर चल रही है

दोस्तो, यह मत पूछो वह कब आयेगा

बस यही पूछो

कि लोग कब उठेंगे

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, अक्‍टूबर-दिसम्‍बर 2008

 

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