गोरखपुर विश्वविद्यालय के कुलपति की छात्र–विरोधी काली करतूतें

प्रशान्त

गोरखपुर विश्वविद्यालय पिछले कई वर्षों से अराजकताओं और अव्यवस्थाओं तथा भ्रष्टाचार का अड्डा बना हुआ है । शिक्षा का स्तर गर्त में चला गया है । हर छह महीने साल भर पर कुलपति बदलते रहते हैं । इन्हीं अव्यवस्थाओं के बीच इस सत्र में स्थायी कुलपति एन.एस. गजभिए की नियुक्ति हुई जो आई.आई.टी. कानपुर से आये हैं । जिससे छात्रों, कर्मचारियों तथा शिक्षकों को उम्मीद बँधी थी कि विश्वविद्यालय की तस्वीर बदलेगी । और कुलपति ने भी कहा कि हम विश्वविद्यालय को नयी ऊँचाई और पहचान दिलायेंगे । लेकिन सभी की आशाओं पर कुठाराघात करते हुए दो ही महीने के अन्दर कुलपति के एकतरफा और निरंकुश निर्णयों की बाढ़ सी आ गयी । नये सत्र की शुरुआत के पहले ही छात्रावासों को मरम्मत के नाम पर जबरिया खाली करा लिया गया । जिसमें न ही किसी छात्र से और न किसी कर्मचारी या छात्रावास प्रतिनिधियों से राय–मशविरा किये बिना एकतरफा तरीक़े से छात्र आन्दोलन के बावजूद पुलिस और पीएसी के बल पर छात्रावास खाली कराये गये । अब छात्रावास में मेस भी अनिवार्य कर दिया गया है । पूर्वांचल में ग़रीब तथा आम घरों से आने वाले जो छात्र पहले 500–600 रुपये में अपना खर्च चला लेते थे, अब एक हज़ार रुपया मासिक दे कर सड़ा–गला तथा अधपका खाना खायेंगे । यह सब करते वक़्त छात्र हित से ज़्यादा ठेकेदार हित हावी था । इस सत्र में कुलपति ने शासन की छात्र–विरोधी नीतियों से भी दो क़दम आगे जाते हुए शासन द्वारा निर्धारित सीटों को भी न भरकर एक काला कारनामा किया है । विदित हो कि गोरखपुर विश्वविद्यालय में कला, विज्ञान एवं वाणिज्य संकाय में स्नातक स्तर पर कुल 3,353 सीटें हैं, जिनमें से इस बार केवल 2,283 सीटों पर प्रवेश लिया गया है, शेष 1,070 सीटों को यह कहकर खाली छोड़ दिया गया है कि ‘न्यूनतम योग्यता’ रखने वाले विद्यार्थी ही नहीं मिले । बी.एससी. (गणित) की 352 सीटों में से महज़ 104 सीटों पर दाख़िला लिया गया है और 248 सीटें खाली रखी गयी हैं । बी.एससी. (बायो) में 251 सीटों में से 100 सीटें खाली हैं और बी.एससी. (कृषि) में तो 360 सीटों में से 314 सीटों को भरने से इन्कार कर दिया है । बी.एससी. (गृहविज्ञान) की सभी 40 सीटें ख़ाली छोड़कर विभाग को ही बन्द करने का इन्तजाम कर दिया गया है । बी.ए. की 1950 सीटों में से केवल 1,620 सीटें भरी गयी हैं और बी.कॉम. की 400 सीटों में से 362 सीटें भरी गयी हैं । इस पर कुलपति महोदय का तर्क है कि शिक्षा की गुणवत्ता को बनाये रखने के लिए ‘योग्य विद्यार्थियों’ को ही प्रवेश दिया गया है । कुलपति साहब को कौन बताये कि स्नातक में प्रवेश की न्यूनतम योग्यता इण्टरमीडिएट पास होती है । कट ऑफ़ अंकों का तर्क तब काम करता है जब सीटें कम हों और प्रवेशार्थी अधिक हों । लेकिन सीटों को ख़ाली रखने के लिए न्यूनतम अंकों का तर्क देना सरासर मनमानी है, दूसरी बात क्या गाँव–देहात में खेती–बाड़ी से लेकर तमाम दूसरी ज़िम्मेदारियों को उठाते हुए, बाढ़–सूखे का मुक़ाबला करते हुए दस–दस, पन्द्रह–पन्द्रह मील साइकिल चला कर पढ़ने जाने वाले विद्यार्थियों और पढ़ाई के अच्छे माहौल, कोचिंग तथा महँगी किताबों सहित तमाम सुविधाओं से लैस विद्यार्थियों को एक ही तराज़ू से तौला जा सकता है ? कुलपति तथाकथित गुणवत्ता और योग्यता का वही पुराना और घिसा–पिटा तर्क पेश कर रहे हैं जिसके नाम पर बीस वर्ष पहले लागू की गयी नयी शिक्षा नीति के तहत देश भर में लाखों सीटों में कटौती की गयी । फ़ीसों में कई गुना की बढ़ोत्तरी की गयी और इस तरह मज़दूरों–किसानों तथा निम्न मध्‍यवर्ग से आने वाले आम घरों के बच्चों के लिए उच्च शिक्षण संस्थानों के दरवाज़े एक–एक कर बन्द किये जा रहे हैं । यह तो ऐसे ही है जैसे कि कुछ लोगों को ट्रैक पर पहले ही आगे खड़ा कर दिया जाये और कुछ के पैरों में अलग–अलग आकार के पत्थर बाँधकर कहा जाये कि दौड़ो, जो आगे रहेगा उसे उच्च शिक्षा का पुरस्कार मिलेगा! तीसरी बात, अगर उन्हें शिक्षा की ‘गुणवत्ता’ की इतनी ही चिन्ता है, तो गोरखपुर सहित तमाम विश्वविद्यालयों में ‘पेड सीटों’ के ख़िलाफ़ आवाज़ क्यों नहीं उठाते ? इस क़दम का व्यापक विरोध होने पर कुलपति महोदय अब सफ़ाई दे रहे हैं कि जिन विद्यार्थियों का विश्वविद्यालय में दाख़िला नहीं हो सका है उन्हें महाविद्यालयों में ‘एडजस्ट’ करने की कोशिश की जायेगी । यानी गुणवत्ता की ज़रूरत केवल विश्वविद्यालय को है, महाविद्यालयों में गुणवत्ता का कोई मतलब नहीं है । कुलपति महोदय ने एक क़दम और आगे बढ़ते हुए सांध्‍यकालीन कक्षाओं को भी समाप्त कर दिया । सांध्‍यकालीन कक्षाओं में शिक्षा के गिरते स्तर, अव्यवस्था तथा स्रोत–संसाधनों की कमी का रोना रोते हुए यह काम किया है । इस वजह से भी हज़ारों छात्रों में निराशा फैल गयी, जो यह आस लगाये बैठे थे कि सांध्‍यकालीन कक्षाओं में प्रवेश लेकर अपनी उच्च शिक्षा को बरकरार रख पायेंगे । लेकिन यहाँ यह सवाल उठता है कि जब स्रोत संसाधनों की कमी थी तो इसके पहले के कुलपतियों ने सांध्‍यकालीन कक्षाओं को बन्द क्यों नहीं किया ? दूसरे, स्रोत–संसाधनों के मद में जो करोड़ों रुपये सालाना मिलते हैं उसका विश्वविद्यालय क्या करता है ? अब तक ज़रूरी स्रोत–संसाधनों की पूर्ति के लिए सरकार से मांग क्यों नहीं की गयी ? और सबसे अहम सवाल यह है कि इन सारी बद्तर स्थितियों के लिए विश्वविद्यालय प्रशासन जिम्मेदार है या छात्र ? विश्वविद्यालय के प्रशासनिक अधिकारियों और कुलपतियों की अकर्मण्यता के नतीजे छात्र क्यों भुगतें ? विश्वविद्यालय प्रशासन अगर चाहता तो छात्र हितों को देखते हुए सांध्‍यकालीन कक्षाओं को चलाते हुए भी स्रोत–संसाधन की कमी को पूरा कर सकता था । इससे छात्रों का नुकसान तो हुआ ही, साथ ही उन कर्मचारियों तथा शिक्षकों की नियुक्ति भी ख़तरे में पड़ गयी जो विशेष तौर पर सांध्‍यकालीन कक्षाओं के लिए ही भर्ती किये गये थे । इन छात्र विरोधी कारनामों की बानगी पिछले दिनों ही देखने को मिल गयी । जब विश्वविद्यालय में यह सब कारनामे हो रहे थे, तभी कुशीनगर ज़िले के तरकुलवा थाना क्षेत्र के एक छात्र सोनू (22 वर्ष) की आत्महत्या की ख़बर अख़बारों में प्रकाशित हुई, जिसका कारण स्नातक में प्रवेश न मिलना था । ऐसे ही कितने  ग़रीब छात्रों की पढ़ाई इन नीतियों की भेंट चढ़ जा रही है । सांध्‍यकालीन कक्षाओं की समाप्ति शिक्षा में व्याप्त भ्रष्टाचार के तंत्र को उजागर करती है । निजी महाविद्यालयों के प्रबन्धकों की तरफ़ से पिछले सत्र से ही विश्वविद्यालय के प्रशासनिक अधिकारियों पर यह दबाव पड़ रहा था कि सांध्‍यकालीन कक्षाओं को समाप्त करें, क्योंकि सांध्‍यकालीन कक्षाओं के समाप्त हो जाने से यहाँ आये गाँवों के छात्र अपने गाँवों–कस्बों के आसपास कुकुरमुत्तों की तरह उग आये महाविद्यालयों में ही पढ़ेंगे और वहाँ पर मोटी–मोटी फ़ीस देंगे । शायद इन्हीं प्रबन्धकों की इच्छा का ख़याल करते हुए कुलपति साहब को सांध्‍यकालीन कक्षाओं की गुणवत्ता का भी ख़याल आ गया । प्रोफ़ेसर एन.एस. गजभिए के इन काले कारनामों से आपको लग रहा होगा कि यह कुलपति वाक़ई हिटलर है । ऐसा नहीं है साथियो! गजभिए साहब सिर्फ़ आम छात्रों, कर्मचारियों के लिए ही हिटलर हैं । बाक़ी प्रशासनिक अधिकारियों, मोटी–मोटी तनख़्वाह पाने वाले प्रोफ़ेसरों आदि के लिए बहुत ही अच्छे कुलपति और प्रशासक हैं । अभी ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजनाओं के प्रस्तावों के लिए ग्यारह सितम्बर से चौदह सितम्बर के बीच यू.जी.सी. की टीम आयी थी । इस टीम की आवभगत, सेवा–सत्कार और घूमने और ठहरने के मद में लाखों रुपये ख़र्च किए गए । इतना ही नहीं कुलपति अपने तथा अपने प्रिय पात्रों की विशेष सुविधाओं पर विश्वविद्यालय के लाखों रुपये फूँक रहे हैं । यह कहानी सिर्फ गोरखपुर विश्वविद्यालय की ही नहीं है । पूरे देश में 1987 की नयी शिक्षा नीति के बाद लगातार सीटों की कटौती, फ़ीसों की बढ़ोत्तरी तथा नये–नये निरंकुश निर्णय लेकर आम छात्रों को कैम्पसों से बाहर किया जा रहा है । 1991 की नयी आर्थिक नीति के बाद तो शिक्षा को एक महँगा बाज़ारू माल बनाया जा रहा है । पेड सीटों तथा प्रवेश परीक्षाओं के नये–नये बैरिकेड खड़े किये जा रहे हैं । दूसरी तरफ, छात्र संघर्षों को कुन्द करने के लिए नये–नये छात्र विरोधी नियम–क़ानून बनाये जा रहे हैं । छात्र संघों को सुधारने के नाम पर लिंगदोह कमेटी के द्वारा छात्र संघों को नख–दन्त विहीन कर दिया गया है । छात्र संघों को लगातार प्रतिबन्धित किया जा रहा है । कैम्पसों में पूँजीवादी चुनावबाज़ पार्टियों के पिछलग्गू छात्र संगठनों ने छात्र राजनीति को एम.पी.-एम.एल.ए. बनने का ट्रेनिंग सेण्टर बना रखा है । क्रान्तिकारी छात्र राजनीति आज बिखरी हुई है या अधिकांश कैम्पसों में न के बराबर है । 1991 से आर्थिक नीतियों का जो बुलडोज़र चल रहा है, यह सब उससे अलग नहीं है । आम छात्रों को यह बात समझनी होगी तथा कैम्पस की अपनी लड़ाई को आम जनता के संघर्षों से जोड़ना होगा । तभी जाकर ऐसे जन–विरोधी, छात्र–विरोधी हिटलरों का सामना किया जा सकता है ।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, अक्‍टूबर-दिसम्‍बर 2008

 

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