तारीख़ सभी साम्राज्यवादियों की मुश्तरक़ा दुश्मन है…. और तारीख़ जनता बनाती है!
अभिनव
इतिहास से पता नहीं शासक वर्ग इतना डरते क्यों हैं! यह बात सिर्फ भारत के शासक वर्ग पर लागू नहीं होती। जब भाजपा के नेतृत्व में राजग सरकार थी तो हमने बार–बार इस मुद्दे पर लिखा था कि किस तरह भगवा ब्रिगेड देश के इतिहास को तोड़ने–मरोड़ने और विकृत करने का काम कर रही थी। लेकिन हाल ही में नियाल फर्गुसन और उनके तरह के ब्रिटिश अकादमीशियनों ने, जिन्हें नियोकॉन (नियोकन्जर्वेटिव- नवरूढ़िवादी) चिन्तक कहा जा रहा है, ने उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद का जो नया भाष्य प्रस्तुत करना शुरू किया है, उससे साफ जाहिर होता है कि सर्वसत्तावादियों, साम्राज्यवादियों, उपनिवेशवादियों, अंधराष्ट्रवादियों और फासीवादियों की इतिहास से “भूमण्डलीय” शत्रुता है। बात सिर्फ़ भारत की नहीं है।
हाल ही में ब्रिटेन के अकादमिक दायरों में राज्य के संरक्षण में इस बात पर “चर्चाएँ” शुरू हुईं कि ‘एम्पायर’ उतना बुरा भी नहीं था जितना इसे बताया जाता है। वह तो एक दयालु, तर्कसंगत, न्यायप्रिय और उदार शासन प्रणाली था। इसी ने तो पूरब की आँखें खोली और उसे जनतंत्र, न्यायशीलता, मुक्त व्यापार, स्वतंत्र बाजार और सहनशीलता जैसी नेमतों के बारे में सिखाया। वरना तो एशिया और अफ्रीका के भुच्चड़–जंगली उसी तरह लबादा और छाल लपेटकर अतीत की गुफा में पड़े रहते! तो हम एशियाइयों और अफ्रीकियों को तो ब्रिटेन, फ्रांस, हॉलैण्ड, पुर्तगाल और स्पेन जैसी साम्राज्यवादी ताक़तों का (और आज के समय में मध्य–पूर्व और ईरान के “जंगलियों” को अमेरिकी साम्राज्यवादियों का) शुक्रिया अदा करना चाहिए कि उन्होंने हमें इंसान बनाया और जनवाद सिखाया!
हाल ही में नवरूढ़िवादी इतिहासकारों को ब्रिटेन में आधिकारिक सरकारी इतिहासकारों का दर्जा दे दिया गया है। चैनल 4 और बीबीसी जैसे प्रतिष्ठित चैनलों पर इस तरह के कार्यक्रम शुरू किये गए हैं जो इन नवरूढ़िवादियों के भोंपू का काम कर रहे हैं। इसमें चैनल 4 पर आने वाला कार्यक्रम वॉर ऑफ दि वर्ल्ड्स सबसे अधिक चर्चित हो रहा है। इन कार्यक्रमों में और इन बौद्धिकों की किताबों में उपनिवेशवाद को गुलामी, लूट, अकाल, भ्रष्टाचार, बंधुआ मजदूरी, गरीबी, नरसंहार, और विस्थापन की कहानी की बजाय एक विकास के एक दयालु मिशन के रूप में चित्रित किया जा रहा है जिसमें यदा–कदा थोड़ी बहुत “अतियाँ” हो गईं और एकाध दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएँ घट गईं। ये किताबें नस्लवाद को भी नये सिरे से स्थापित कर रही हैं और नये सिरे से ‘व्हाइट मेंस बर्डेन’ के सिद्धान्त को स्थापित कर रही हैं। इनमें श्रीमान फर्गुसन कहते हैं कि आदमी अपनी नस्ल और अपने समुदाय के लोगों पर कम यकीन करता है और ‘दि अदर’ (यानी कि जो भी उसके लिये ‘दूसरा’ होता है) पर उसके यकीन करने की सम्भावना अधिक होती है। यहाँ तक कहा गया है कि राजनीतिक रूप से ‘सही’ सत्ता तो अक्सर दमन करती ही है। जनता मूर्ख जो होती है। उसे अनुशासित करने के लिए दमन एक ‘सिविलाइजर’ का काम करता है। मिल और मैकाले से अलग शब्दों में फर्गुसन वही बात कह रहा है जो मिल और मैकाले ने कही थी ; पश्चिमी साम्राज्यवाद स्वतंत्रता, जनतंत्र, और समृद्धि लाता है और “आदिम सभ्यताओं और संस्कृतियों” को इसकी जरूरत है।
दरअसल, आज एंग्लो–अमेरिकी साम्राज्यवाद जो कर रहा है, उसके लिए उसे तमाम ‘जस्टिफायर्स’ की जरूरत है। फिलिस्तीन, इराक, अफगानिस्तान, लेबनान, सीरिया आदि में सभ्य बनाने के नाम पर जो नरसंहार, बलात्कार, अपमान और गरीबी थोपी जा रही है उस पर अपने देश की नयी पीढ़ी और तमाम शान्तिप्रिय और जनवादी विचारों के लोगों को सहमत करने के लिए अमेरिका और ब्रिटेन की सत्ताओं को ऐसी शिक्षा, मीडिया, किताबों आदि की जरूरत है जो लोगों को यह बताएँ कि यह तो एक सभ्य बनाने का अभियान है जो ‘प्राच्य निरंकुशता’ को ख़त्म करके पूरब की जनता के लिए भी जनतंत्र लाएगाय जैसे इराक’ में और अफगानिस्तान में बुश प्रशासन लाया है!
इसके लिए ये विद्वान (!! ? ?) तमाम तथ्यों पर पर्दा डाल रहे हैं। निकोलस डर्क्स, माइक डेविस, महमूद ममदानी, कैरोलिन एल्किंस जैसे तमाम पश्चिमी इतिहासकारों ने अपनी रचनाओं में पुख्ता सबूतों के साथ इस बात को प्रमाणित किया है कि पश्चिमी साम्राज्यवाद ने अगर पूरब को कुछ दिया है तो वह है गरीबी, पिछड़ापन, दरिद्रता, विकलांग जनवाद, अधूरी स्वतंत्रता, जाति और धर्म का बँटवारा, एक ऐतिहासिक कुण्ठा, और नरसंहार। ये तो तमाम रैडिकल चिन्तक हैं। जोसेफ कॉनरेड जैसे उदारवादी तक इतिहास के इस पुनर्लेखन को एक घिनौना, शैतानी और बेशर्म झूठ कह रहे हैं।
फर्गुसन और एन्ड्रयू रॉबर्ट्स जैसे नवसाम्राज्यवादी इतिहासकाकरों का कहना है कि पश्चिमी साम्राज्यवाद ने अच्छा शासन दिया और करना सिखाया। आइये जरा इस दावे की पड़ताल करें। ब्रिटिश राज की पहली एक सदी में पिछले 2000 साल के समय से ज़्यादा अकाल पड़े जिसमें सिर्फ़ 1896 से 1900 तक 2 करोड़ से ज़्यादा लोगों की मौत हो गई। माइक डेविस ने अपनी किताब लेट विक्टोरियन होलोकॉस्ट्स में पूरे सबूतों के साथ इस बात को साबित किया है कि इसमें से एक भी अकाल ऐसा नहीं था जिसे टाला न जा सकता हो। बल्कि बंगाल का प्रसिद्ध अकाल तो जानबूझकर अनाज की कमी न होने के बावजूद पैदा किया गया। माइक डेविस ने इन अकालों को साम्राज्यवाद–निर्मित अकाल और आपदा कहा है। औपनिवेशिक युद्धों के लिए संसाधन जुटाने के लिए ज़्यादा उत्पादन करने वाले क्षेत्रों का सारा अतिरिक्त उत्पादन निचोड़ लिया गया और वहाँ अकाल पैदा किया गया। वहाँ के प्रशासक हमें यह माल्थसवादी सिद्धान्त देते हुए मिलते हैं कि यह अकाल तो अच्छा है और हमें इसे और लम्बे समय तक खींचना चाहिए क्योंकि यह अतिरिक्त आबादी का सफाया कर रहा है। यह था अंग्रेजों का ‘गुड गवर्नेंस’!
फर्गुसन एण्ड कं. बात करती है सहिष्णुता की। मुशीरुल हसन, उर्वशी बुटालिया, सुमित सरकार जैसे तमाम इतिहासकारों ने अपनी रचनाओं में दिखलाया है कि ब्रिटिश राज ने भारत में जातीय और धार्मिक पहचानों को स्थापित करने का और उसे बार–बार रेखांकित करने का काम किया। कई इतिहासकार तो यहाँ तक कहते हैं कि साम्प्रदायिकता एक ‘ब्रिटिश निर्मिति’ है। भारत के बँटवारे के दौरान 1 करोड़ लोग मारे गए। अफ्रीका में तमाम कबीलों का नरसंहार किया गया। घाना में ‘कोको बॉयकॉट आन्दोलन’ का दमन किया गया। केन्या में ‘माऊ माऊ आन्दोलन’ का खूनी दमन वहाँ के लोग अभी तक नहीं भूले हैं। जलियाँवाला बाग में 1200 शान्तिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे लोगों का नरसंहार किया गया । केन्या में लाखों गिकयू लोगों का नरसंहार किया गया। यह था सहिष्णु, न्यायप्रिय, स्वतंत्रताप्रिय ब्रिटिश शासन!
ऐसा नहीं है कि इतिहास के साथ ऐसा बलात्कार करने की साजिश कोई नयी बात है। अमेरिकी साम्राज्यवाद के भोंपू चैनल डिस्कवरी, नेशनल जियोग्राफिक और हिस्टरी चैनल तो इतिहास के साथ दुराचार करने का प्रयास लगातार ही करते रहते हैं। और अमेरिकी इस बेशरमी को अंजाम देने में ब्रिटिश से आगे हैं। लेखन के मामले में भी जो आइडिया ब्रिटिश लोगों को अभी आया है वह अमेरिकी सैमुएल हटिंगटन (क्लैश और सिविलाइजेशंस) को बहुत पहले ही आ गया था। तो अमेरिका तो इस मामले में पहले से ही इतिहास को साम्राज्यवादी जहर से भरने के काम में लगा हुआ है। वहाँ के स्कूलों में भी ऐसा ही इतिहास पढ़ाया जाता है। वहाँ के लोगों को इस बात पर सहमत करने की पूरी कोशिश लगातार जारी रहती है कि अमेरिका तो दुनिया को जनतंत्र सिखाने और सभ्य बनाने के मिशन में लगा हुआ है!
यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि साम्राज्यवाद ने एशिया और अफ्रीका के प्राकृतिक और मानव संसाधनों की जो लूट मचाई वह इतिहास में अद्वितीय है। पश्चिम ने हमें सिविलाइज नहीं किया है। बल्कि यह कहना चाहिए कि पश्चिम में सभ्यता, जनवाद, आजादी, समानता, भ्रातृत्व आदि के सिद्धान्त पैदा करने का अतिरिक्त समय वहाँ के लोगों को पूरब से लूटी गई भौतिक सम्पदा के कारण मिल पाया। ब्रिटेन का औद्योगीकरण भारत से होने वाली लूट के कारण हो पाया। यही बात फ्रांस, स्पेन, पुर्तगाल और उनके उपनिवेशों के बारे में भी कही जा सकती है। यह सच है कि पश्चिम में प्रबोधन और नवजागरण के कारण तमाम मुक्तिदायी विचारों ने जन्म लिया। लेकिन ऐसा इसलिए नहीं हुआ कि हम नस्ली तौर पर कमजोर हैं और वे नस्ली तौर पर श्रेष्ठ। नस्ली श्रेष्ठता और हीनता के तमाम सिद्धान्त विज्ञान ने गलत साबित कर दिये हैं। आज पश्चिम का जो शानदार विकास हुआ है उसके पीछे बहुत बड़ा कारण एशिया और अफ्रीका की साम्राज्यवादी लूट है। इस बात को तथ्यों और आँकड़ों से भी सिद्ध किया जा सकता है लेकिन इसकी इजाजत स्थानाभाव के कारण हमें नहीं है और आगे कभी हम इसपर विस्तार से लिखेंगे।
इतिहास को तोड़ने–मरोड़ने की यह साजिश क्यों की जाती है ? बात यह नहीं है कि हम सही तथ्यों को रखकर आज के यूरोपीय लोगों को शर्मिन्दा करना चाहते हैं और उन्हें अपराध–बोध से ग्रस्त करा देना चाहते हैं। बात यह है कि कोई भी कौम जो अपने इतिहास को आलोचनात्मक दृष्टि से देखना भूल जाती है, वह परिवर्तन की सम्भावना से नि:श्शेष हो जाती है। पश्चिमी साम्राज्यवाद के अपराधों की भर्त्सना करने का अर्थ यह नहीं है कि हम प्राच्य निरंकुशता और सर्वसत्तावादी सरकारों का समर्थन कर रहे हैं। निश्चित रूप से दोनों की आलोचना एक साथ की जा सकती है और दरअसल सिर्फ़ एक की आलोचना ईमानदारी रहते सम्भव भी नहीं है। कोई भी ईमानदार और इंसाफपसन्द व्यक्ति एक की आलोचना करते हुए दूसरे की आलोचना करने से अपने आपको रोक भी नहीं सकता। और तो और इन दोनों के बीच परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध भी है। क्या तालिबान और अलकायदा तथा अमेरिकी साम्राज्यवाद के बीच सम्बन्ध नहीं है ? क्या ब्रिटिश साम्राज्यवाद और भारतीय साम्प्रदायिक अंधराष्ट्रवाद के उदय के बीच सम्बन्ध नहीं है ? क्या इजरायली जियनवाद और अमेरिकी साम्राज्यवाद और मध्य–पूर्व में धार्मिक कट्टरता के उदय के बीच सम्बन्ध नहीं है ? इन मुद्दों पर बहुत कुछ लिखा गया है और आज दुनिया के लोग अच्छी तरह जानते हैं कि पूँजीवाद–साम्राज्यवाद सबसे असभ्य ताकत है जो न्याय, सुशासन, सभ्यता, समृद्धि, संस्कृति या जनतंत्र नहीं ला सकती है। यह अगर कुछ दे सकता है तो वह है भुखमरी, तबाही, कारपेट बॉम्बिंग, लूट, अभाव, दरिद्रता, पिछड़ापन, गृहयुद्ध, बेरोजगारी, पर्यावरण की बरबादी, मानव निर्मित आपदाएँ, बन्धुआ श्रम और युद्ध।
इसलिए जरूरत यह है कि इतिहास को विकृत करने वाली ताकतों के पीछे के इरादे को समझा जाय। चाहे वह ताकतें अमेरिकी हों, ब्रिटिश हों, भारतीय हों, या अरब हों। तारीख़ सभी साम्राज्यवादियों की मुश्तरक़ा दुश्मन है। और तारीख़ जनता बनाती है।
आह्वान कैम्पस टाइम्स, जुलाई-सितम्बर 2006
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