जनता के पैसों से आपदा में अवसर का निर्माण करतीं वैक्सीन कम्पनियाँ

केशव आनन्द

एक लम्बे समय के शोध और वैज्ञानिकों की मेहनत के बाद कोविड-19 के वैक्सीन के सफ़ल परीक्षण की ख़बर ने तमाम लोगों को राहत की साँस दी। लेकिन जल्द ही यह भी खबर सामने आई कि दुनिया भर के तमाम देशों में वैक्सीन की भारी कमी हो रही है। कई देशों में आबादी के अनुपात में सरकार के पास वैक्सीन की मात्रा काफ़ी कम थी, जिसकी वजह से एक बड़ी आबादी इससे महरूम रही और कोरोना श्मशान में लाशों को निमन्त्रण देता रहा। इसका दोषारोपण पूरी तरीके से ख़राब कार्यपालिका पर मढ़ दिया गया और सरकार अपनी ज़िम्मेदारियों से मुक्त हो गई। लेकिन असल सवाल जो इसके पीछे छिपाया जा रहा है वह यह है कि वैक्सीन के शोध होने के बावजूद वैक्सीन निर्माण की गति इतनी धीमी क्यों रही है? मुनाफे पर टिकी इस पूँजीवादी व्यवस्था में लोगों की जान का भी सौदा किया जाता है। तमाम शोधों के पेटेण्ट, बड़ी फ़ार्मा कम्पनियों के हित में बने क़ानून और आज पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़े को सुनिश्चित करने वाली इन सरकारों की वजह से आज वैक्सीन की शोध के बावजूद आम आबादी का बड़ा हिस्सा वैक्सीन की कमी की वजह से कोरोना संक्रमण के ख़तरे का सामना कर रहा है।
वैक्सीन बनने की प्रक्रिया में देरी भी इस मुनाफ़ा केन्द्रित व्यवस्था की ही देन है। पूँजीवाद का मूल तर्क ही प्रतिस्पर्द्धा है। हर पूँजीपति उन क्षेत्रों में अपनी लागत कम करना चाहता है, जहां से उसके लिए मुनाफ़े की सम्भावना कम हो। दशकों से फ़ार्मा उद्योग द्वारा वैक्सीनों पर होने वाले अनुसन्धान को वरीयता में नीचे धकेल दिये जाने का काम जारी था, क्योंकि वैक्सीन यानी बीमारी की रोकथाम सम्बन्धी शोध में निवेश बड़ी फ़ार्मा कम्पनियों के लिए कम फ़ायदे का सौदा था। 21वीं सदी की शुरुआत से ही सार्स, मर्स, इबोला, नीपाह जैसी एक के बाद एक पैदा हो रही महामारियों के बीच वैक्सीन रिसर्च पर होने वाले निवेश की माँग को बड़ी फ़ार्मा कम्पनियाँ और पूँजीवादी सरकारें अनदेखा करती रहीं। अमेरिका की 18 बड़ी फ़ार्मा कम्पनियों में से 15 कम्पनियों ने अपना रिसर्च एंड डेवलपमेण्ट डिपार्टमेण्ट (R&D) बन्द कर दिया, क्योंकि इस पर उन्हें तात्कालिक मुनाफ़ा नहीं मिल रहा था। कोरोना के विस्फोट के बाद इन कम्पनियों को वैक्सीन के शोध के लिए सरकार की तरफ़ से बड़े-बड़े पैकेज दिये गये। सिर्फ़ मॉडर्ना वैक्सीन के निर्माण हेतु रिसर्च की शुरुआत करने से से लेकर उसे ख़रीदने तक, अमेरिकी सरकारी एजेंसियों ने कम्पनी को ढाई अरब डॉलर का भुगतान किया। अब जब मुनाफ़ा हो रहा है तो फ़ायदा कम्पनी का, और जब जोखिम लेने की बात आये, तो उसके लिए जनता के टैक्स का पैसा।
वैक्सीन के शोध के दौरान भी पूँजी की प्रतिस्पर्द्धा ने आम जनता का ही नुकसान किया। ज़ल्द से ज़ल्द वैक्सीन बनाकर अधिक मुनाफ़ा पीटने की होड़ में एक तरह की ही संक्रमण को रोकने के लिए अलग-अलग जगहों पर पानी की तरह पैसा बहाया गया। कम्पनियों ने रिसर्च डेटा एक-दूसरे से साझा करने की बजाय गुप्त रखा। ताकि शोध के सही होने पर इनके प्रतिद्वन्दी मुनाफ़ा न पीट पायें और बाज़ार में उनकी इजारेदारी क़ायम हो सके। इस पूरे प्रकरण में मुनाफे की अन्धी हवस के कारण आम जन तक वैक्सीन के पहुंचने का प्रश्न कहीं धूमिल हो गया। क्या यह बेहतर नहीं होता कि इन संसाधनों का इस्तेमाल मुनाफे के लिए गलाकाटू प्रतियोगिता के लिए नहीं बल्कि मानवता को कोविड महामारी से बचाने के लिए होता!
अब आते हैं वैक्सीन के पेटेण्ट पर। कोविड वैक्सीन के शोध होने के बाद भी अब तक भारत में केवल तीन कम्पनियाँ वैक्सीन बना रही हैं। क्योंकि इन दो कम्पनियों के पास ही वैक्सीन का पेटेण्ट है। इसका मतलब बाकी कम्पनियां वैक्सीन नहीं बना सकतीं, क्योंकि क़ानूनन पेटेण्ट सिर्फ़ दो कम्पनियों के ही पास है। और इन्हीं दो कम्पनियों को लोगों की बीमारियों और तकलीफों पर सरकार ने मुनाफ़ा पीटने की आज़ादी दी है। इसके बाद वैक्सीन की बिक्री पर भी सरकार ने निजी अस्पतालों को खुला हाथ दे दिया। 19 अप्रैल को लाई गई “उदारीकृत टीकाकरण नीति” ठीक इसी बात को सुनिश्चित करती है कि निजी अस्पतालों का मुनाफ़ा बना रहे। इसके बाद ये अस्पताल वैक्सीन को मनमाने दाम पर बेच रहे थे। पहले सरकार वैक्सीन की क़ीमतें तय करती थी, जो उनके लिए सामान्य मुनाफ़ा सुनिश्चित करती थीं। लेकिन अब ये मनमानी क़ीमतों पर मुनाफ़े कमा रही थीं। राज्यों को भी “स्वायत्तता” देने के नाम पर केन्द्र सरकार ने उन्हें वैक्सीन की खरीदने की भी “स्वायत्तता” दे दी, जिसका खामियाजा यह हुआ कि कई राज्य जैसे झारखण्ड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ जैसे राज्य पर्याप्त वैक्सीन नहीं खरीद पाए। क्योंकि बड़ी फ़ार्मा कम्पनियों को बस केन्द्र सरकार से सौदा करने में दिलचस्पी थी।
जब इस नीति की पूरे देश भरमें थू-थू होनी शुरू हो गई तब सरकार को मजबूरन जनता के किए कुछ रियायतें देनी पड़ी। 7 जून, 2021 को राष्ट्र के नाम अपने सन्देश में मोदी ने घोषणा की कि अब सरकार 50% के बजाय 75% वैक्सीन खरीदेगी, और 18 वर्ष से ऊपर के सभी युवाओं का टीकाकरण करेगी। हालाँकि सरकार ने अभी भी 25% हिस्सा निजी अस्पतालों के लिए बचाकर रखा है। ताकि ये अस्पताल अपना मुनाफ़ा कमा सकें और इस रूप में सरकार ने एक बार फिर कॉरपोरेट के प्रति अपनी वफ़ादारी साबित की है। ग़ौरतलब है कि जितनी वैक्सीन इन निजी अस्पतालों द्वारा खरीदी जाती है, असल में उतनी लोगों तक पहुँच भी नहीं पाती। इण्डियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक 19 अप्रैल, 2021 के 2 महीने के बाद तक क़रीब 1.2 करोड़ वैक्सीन निजी अस्पतालों द्वारा खरीदी गई, जिसमें से केवल 22 लाख लोगों को ही यह डोज़ लगाया गया।
आज चिकित्सा के बाज़ारीकरण का खामियाजा आम जनता भुगत रही है। “आपदा को अवसर में” बदलने वाले ये मुनाफ़ाखोर पूँजीपति लोगों की लाश का सौदा करके भी मुनाफ़ा कमाने की होड़ में रहने को तैयार रहते हैं। आज हर संजीदा इंसान को इसके खिलाफ़ आवाज़ उठाने की ज़रूरत है। आज हमें इन सरकारों से यह माँग करनी चाहिए कि समूची स्वास्थ्य व्यवस्था का राष्ट्रीकरण किया जाए। वैक्सीन के पेटेण्ट को हटाकर इसके उत्पादन में तेज़ी की जाए, और 100% टीकाकरण की ज़िम्मेदारी यह सरकार ले, ताकि हर व्यक्ति का समय रहते टीकाकरण किया जाए।
इन सब के साथ ही साथ हमें यह भी समझने की ज़रूरत है कि कोरोना का महामारी में तब्दील होना, समय रहते इसके टीके का न बन पाना, टीका बनने के बाद टीकाकरण का न हो पाना, इन सब की जड़ में एक ही समस्या है, वह है मुनाफ़े पर टिकी यह पूँजीवादी व्यवस्था। जब तक चिकित्सा से लेकर तमाम चीज़ों के पीछे मुनाफा खड़ा होगा, तब तक इन लुटेरों को इंसानों की जान से ज़्यादा मुनाफ़ा निचोड़ने की परवाह अधिक होगी।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मार्च-जून 2021

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