कोरोना महामारी और ध्वस्त चिकित्सा व्यवस्था के बीच जलती और दफ़्न होती इंसानी लाशें

सम्पादकीय

कोरोना महामारी की दूसरी लहर हमारे देश के लाखों लोगों के लिये मौत का ऐसा भयानक ताण्डव बनकर आई जिसे कोई भी इंसाफ़पसन्द इंसान कभी नहीं भूल पाएगा। ऑक्सीज़न, दवा, बेड के लिये चारों ओर भयंकर अफ़रा-तफ़री मची हुई थी। लोग तड़प-तड़पकर मर रहे थे। तीमारदारी में लगे मरीज़ों के परिजन, दोस्त, शुभचिन्तक अपने माँ, बाप, भाई-बहन, बेटा-बेटी, रिश्तेदार, दोस्त को बेबस अपनी आँखों के सामने मौत के मुँह में जाते देख रहे थे। मौत की सूचनाएँ बारिश की तरह बरस रहीं थीं और हर इंसान इस आतंक के साये में जी रहा था कि अबकी बारी किसकी है? गाँवों, कस्बों और शहरों के ग़रीबों-मेहनतकशों के लिये श्मशान और क़ब्रिस्तान तक ठीक से मुहैया नहीं थे, स्वास्थ्य सुविधाओं की तो बात करना ही बेमानी है। पूरा देश लाशों के जलने की गन्ध और रुदन से भर गया। कितनों की मौत तो ऐसे हुई कि अभी साथ ही निकले थे और बस हमेशा के लिये गायब हो गये! लेकिन मौत का ताण्डव यहीं तक नहीं था। लाशें गंगा में सड़कर ऊपर आ गईं, लाशों को कुत्तों और सुअरों ने नोच-नोचकर खाया। नदियों के किनारे अनगिनत लाल चुन्नियों को देखकर ऐसा लगता है जैसे उनके नीचे दबी लाशें हमारी ओर देख रही हैं।
इस वीभत्स और भयानक मंज़र के लिये क्या केवल कोरोना ज़िम्मेदार है? क्या इतनी मौतें केवल कोरोना से हुईं? कतई नहीं! कोरोना महामारी को इस स्थिति तक पहुँचाने के लिये वर्तमान फ़ासिस्ट मोदी सरकार ज़िम्मेदार है जो इंसानों के लिये कोरोना से भी कई गुना ज़्यादा घातक है। इस स्थिति के लिये आज़ादी के बाद से तथाकथित लोकतन्त्र की सभी रहनुमा चुनावी पार्टियाँ और उनकी स्वास्थ्य नीतियाँ ज़िम्मेदार हैं। वायरल संक्रमण प्रकृति और मनुष्य की अन्तर्क्रिया के दौरान अनिवार्य रूप से पैदा होते ही हैं। वे मनुष्यों के बीच बीमारी के रूप में भी फैलते हैं। लेकिन वे महामारियों का रूप अक्ससर पूँजीवादी मुनाफ़ाखोर व्यवस्थाा के कारण लेते हैं। निश्चित तौर पर, यदि देश में एक सुचारू स्वास्थ्य व्यवस्था होती तो मौतों की संख्या को घटाया जा सकता था। लेकिन हमारे देश में स्वास्थ्य व्यवस्था को मुनाफ़ाखोरी की भेट चढ़ा दिया गया है। इसका नतीजा देश की जनता को कोरोना महामारी के दौरान भुगतना पड़ा। इस स्थिति के लिये अन्ततः मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था ज़िम्मेदार है जो आम इंसान के जीवन के अलावा बीमारी और मौत तक से मुट्ठीभर धनपशुओं के लिये सिक्के ढालती है।
सबसे पहले तो ये जानना ज़रूरी है कि कैसे फ़ासिस्ट मोदी सरकार ने इस महामारी को इस भयानक अंजाम तक पहुँचाया! कोरोना की पहली लहर के समय से देखा जाय तो इस फ़ासिस्ट मोदी सरकार ने नमस्ते ट्रम्प, थाली बजवाने, बिना किसी योजना के लॉकडाउन लगाकर करोड़ों मज़दूरों को सड़कों पर धकेलने जैसी मूर्खताओं से कोरोना को फैलाने का ही काम किया था। कोरोना की पहली लहर उतरने पर जब दुनिया के तमाम देश भविष्य में ऐसी किसी स्थिति के दुबारा आने (जिसकी बहुत ज़्यादा सम्भावना थी और वैज्ञानिकों द्वारा लगातार चेतावनी दी जा रही थी) पर बचाव की तैयारी कर रहे थे तो मोदी कोरोना पर फ़तह हासिल करने का विजयोत्सव मना रहा था। जब कोरोना की दूसरी लहर शुरू हुई तो बेशर्मी और बर्बरता की सारी हदें पार करके भाजपा के सभी फ़ासिस्ट सूरमा बंगाल चुनाव में भीड़ इकट्ठा कर रहे थे। लोगों की धार्मिक भावनाओं का फ़ायदा उठाने के लिये कुम्भ का आयोजन करवाया जा रहा था। इतना ही नहीं, जब चारों ओर लोग बड़े पैमाने पर मर रहे थे तब भी उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव कराये गये। जिससे न केवल संक्रमण गाँवों में तेज़ी से फैला अपितु ड्यूटी पर लगाए गये हज़ारों कर्मचारी मौत के मुँह में झोंक दिये गये।
इस सरकार ने आपराधिक लापरवाही के मामले में दुनिया की तमाम बर्बर पार्टियों से कई क़दम आगे बढ़ झण्डे गाड़े हैं। यह इससे समझा जा सकता है कि हमारे देश में ऑक्सीज़न का सबसे अधिक उत्पादन ओडिशा या झारखण्ड जैसे पूर्वी राज्यों में होता है। इस ऑक्सीज़न को देश के विभिन्न कोनों तक पहुँचने में हज़ारों किलोमीटर का सफ़र तय करना पड़ता है। दूसरे, लिक्विड या तरल ऑक्सीज़न को क्रायोजनिक कण्टेनर में ही एक जगह से दूसरी जगह तक ले जाया जा सकता है। इन क्रायोजनिक कण्टेनरों की संख्या बहुत सीमित है। इन कण्टेनरों को बढ़ाने का कोई इन्तज़ाम नहीं किया गया। इसी तरह गुजरात के गाँधीधाम के एसईज़ेड में देश के कुल दो-तिहाई ऑक्सीज़न सिलेण्डर बनते हैं। सरकार की लापरवाही की इन्तहाँ ये थी कि औद्योगिक ऑक्सीज़न सिलेण्डर के निर्माण की इकाइयों पर पाबन्दी लगाने वाले आदेश में इन सिलेण्डर निर्माता इकाइयों को भी शामिल कर लिया गया। नतीजा सिलेण्डरों के लिये अफ़रा-तफ़री मची रही। सरकार अपने कारख़ानों पर ताला लटका कर विदेशों से भीख माँग रही थी या दोगुने-चौगुने दाम पर सिलेण्डर खरीद रही थी। लेकिन 18-18 घण्टे काम करने की लफ़्फ़ाज़ी करने वाली मोदी सरकार के आपराधिक निकम्मेपन का अभी अन्त नहीं है। 25 अप्रैल के बाद से कई देशों ने हवाई जहाज़ पर लादकर भारत को ऑक्सीज़न सिलेण्डर, ऑक्सीज़न कंसण्ट्रेटर्स, वेण्टिलेटर समेत कई ज़रूरी सामान भेजे। एक अमेरिकी पत्रकार द्वारा अपने सरकार से यह पूछने पर कि उनके करदाताओं के पैसे से अमेरिकी सरकार ने सहायता के तौर पर जो सामान दिल्ली भेजा था उसका क्या हुआ? जब अमेरिकी सरकार ने भारत सरकार को कोंचा तो पता चला कि एक हफ़्ते तक सरकार एसपीओ (स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीज़र) नहीं बना पाई थी, जिसकी वजह से सारा सामान हवाई अड्डों पर ही पड़ा रहा और लोग दम तोड़ते रहे। बंगाल चुनाव में जनता का पैसा पानी की तरह बहाने के अलावा बंगाली वोटों को लुभाने के लिये बांग्लादेश को 12 लाख वैक्सीन भेज दी गयी जबकि अपने देश के लोगों के लिये वैक्सीन नहीं है। इसी तरह वैक्सीन निर्माण को पेटेण्ट के अन्तर्गत रखने के कारण कुछ कम्पनियाँ तो ज़रूर अकूत मुनाफ़ा पीटेंगी लेकिन देश के लोगों का वैक्सीनेशन बहुत ही धीमी प्रक्रिया में हो रहा है। इसके लिये इन्तज़ार करना पड़ रहा है और लम्बी-लम्बी लाइनें लग रही हैं। इस महामारी में भी मोदी ने अपने असली आकाओं की सेवा में कोई कोताही नहीं बरती है। अदार पूनावाला की सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इण्डिया कम्पनी को सरकार द्वारा वैक्सीन बनाने के लिये सारे सरकारी नियमों में ढील देकर 3000 करोड़ रुपये और भारत बायोटेक को 1500 करोड़ का सरकारी अनुदान दिया गया। कहा गया था कि ये दवाइयाँ मुफ़्त दी जायेंगी। लेकिन अब इनको 780 और 1420 में रुपए में बेचा जा रहा है। यह भी रफ़ायल की तरह बहुत बड़ा घोटाला है। ‘विस्टा प्रोजेक्ट’ तो इस मोदी सरकार को इतिहास के सबसे बर्बर, निरंकुश और मानवद्रोही सरकार की श्रेणी में खड़ा कर देती है। जब चारो ओर मौत का हाहाकार मचा था, जब देश के करोड़ों मेहनतकश रोटी के लिये जूझ रहे थे, तब भी फ़ासिस्ट मोदी सरकार ने 20000 करोड़ की लागत वाले इस ‘सेंट्रल विस्टा विकास परियोजना’ पर पैसा पानी की तरह बहाना बन्द नहीं किया उल्टे इसके निर्माण कार्य को ‘आवश्यक सेवा’ तक घोषित कर दिया गया ताकि दिल्ली में जारी लॉकडाउन के दौरान भी काम होता रहे। जबकि इन पैसों से 100-100 करोड़ के 200 अस्पताल बनवाए जा सकते थे। हज़ारों करोड़ के ठेके संघियो के खास पूँजीपतियों को दिये जा चुके हैं। इसके पहले भी पीएम केयर के पैसों का कोई हिसाब नहीं है। लेकिन विस्टा प्रोजेक्ट संघियों और इस फ़ासिस्ट सरकार की बर्बरता और भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा स्मारक है।
हम देख सकते हैं कि मोदी सरकार ने वो सब किया जो नहीं करना चाहिए और वो सब कुछ नहीं किया जो करना चाहिए था। सरकार क्या-क्या कर सकती थी जिससे इतनी भयावह स्थिति न बनती, आइये देखते हैं! सरकार द्वारा क्रायोजनिक कण्टेनर के अलावा अस्पतालों के अन्दर ऑक्सीजन सप्लाई करने के लिये ज़रूरी बुनियादी ढाँचे का निर्माण, हज़ारों करोड़ वाले सेण्ट्रल विस्टा जैसे प्रोजेक्ट पर अनाप-शनाप ख़र्च करने की जगह उसका इस्तेमाल डॉक्टर-नर्स की भर्ती करने में, क्वारण्टाइन सेण्टर बनाने में, ख़ाली पड़े इमारतों, होटलों, स्टेडियम में बेड व चिकित्सा सुविधा का इन्तज़ाम करने में किया जा सकता था। स्पेन जैसे पूँजीवादी देश तक ने इस महामारी से लोगों की जीवनरक्षा के लिये तमाम प्राइवेट अस्पतालों का राष्ट्रीकरण कर उन्हें सरकारी नियन्त्रण में ले लिया और सभी के लिये एक समान इलाज की व्यवस्था की। इसी तरह हमारे देश में भी समूची स्वास्थ्य व्यवस्था का राष्ट्रीकरण करके, उसे सरकारी नियन्त्रण में लाकर सभी के लिये निःशुल्क और एक समान दवा-इलाज की व्यवस्था कर इस स्थिति की भयंकरता को कम किया जा सकता था। लेकिन आम जनता की चिताओं पर अपने लिये आरामगाह बनवाने वाली इस हत्यारी फ़ासिस्ट सरकार से कोई उम्मीद मूर्खता होगी। कफ़न तक में घोटाला करने वाले इस सरकार के नेता-मन्त्रियों ने इस महामारी के वक़्त भी जीवनरक्षक दवाइयों की कालाबाज़ारी करने में कोई कमी नहीं की। गौतम गम्भीर जहाँ दिल्ली स्थित अपने आवास पर रेमिडिसिविर को ऊँचे दामों पर बेचने में व्यस्त थे, वहीं बिहार में भाजपा के सांसद राजीव प्रताप रूडी के घर के आगे 60 एम्बुलेंस बरामद की जा रही थीं।
इस फ़ासिस्ट सरकार ने अपने अपराधों को छुपाने के लिये एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा दिया। जब लोगों की लाशों से श्मशान अटे पड़े थे, जब ऑक्सीज़न के लिये अफ़रा-तफ़री मची थी और 24-24 घण्टे लाइन में लगने के बाद भी लोगों को ऑक्सीज़न नहीं मिल पा रही थी तब फ़ासिस्ट योगी कह रहा था कि- ऑक्सीज़न की कोई कमी नहीं है। कोरोना से होने वाली मौतों को यूएपीए लगाने की धमकी और तमाम तिकड़मों का इस्तेमाल कर छुपाने की पूरी कोशिश की गयी। जो अस्पताल नहीं जा सके या नहीं पहुँचे उनको तो छोड़ दीजिए, जो कोविड पॉजिटिव की रिपोर्ट लेकर अस्पताल में दाखिल हुए उनकी मौत तक को डेथ सर्टिफिकेट में कार्डिएक अरेस्ट या मल्टी ऑर्गन फेल्योर दिखा दिया गया। सरकारी आँकड़ों का सच्चाई से कोई लेना-देना नहीं है। श्मशान और कब्रिस्तान कम पड़ जाने, नदियों के किनारे दफ़न और नदियों में तैरती लाशों के अलावा कई अख़बारों में डेथ सर्टिफिकेट के आधार पर जारी किए गये आँकड़े सरकार के कुकर्मों का भाण्डा फोड़ देते हैं। सरकार के मुताबिक़ कोरोना की पहली और दूसरी लहर में हुई कुल मौतों का आँकड़ा 15 मई तक केवल 2 लाख 70 हज़ार था। जबकि 22 जून तक सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़ 3 लाख 86 हज़ार 7 सौ तेरह मौतें कोरोना से हुईं। अब ज़रा देखें कि एक्सपर्ट्स इस सन्दर्भ में क्या बताते हैं? डेटा साइण्टिस्ट और मिशिगन यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर डॉ भ्रमार मुखर्जी और कुछ एक्सपर्ट्स की स्टडी के मुताबिक़ भारत में 15 मई तक 12 लाख से अधिक मौतें हो चुकी थी। कोरोना वायरस के खिलाफ लड़ाई में सीरो सर्वे (सीरो सर्वे में ब्लड सीरम का टेस्ट कर पता लगाया जाता है कि किसी इंफेक्शन के प्रति एंटीबॉडीज बनी हैं या नहीं। इससे न केवल संक्रमण की व्यापकता का पता लगता है, बल्कि इसकी रोकथाम में भी ये मदद करते हैं। जिलों और हाई-लो रिस्क ग्रुप्स में भी सीरो सर्वे से मदद मिलती है।) एक अहम हथियार था। लेकिन दूसरी लहर में नया सीरो सर्वे नहीं हुआ है। ‘द हिन्दू’ की रिपोर्ट के मुताबिक़, दिल्ली में अप्रैल में शुरू हुआ छठा सीरो सर्वे अभी तक पूरा नहीं हो पाया है। दिल्ली सरकार के एक अधिकारी से प्राप्त जानकारी के आधार पर रिपोर्ट में बताया गया है कि- कोविड के बढ़ते केसों की वजह से इसे रोक दिया गया। अधिकारी के मुताबिक़-“सरकार ने करीब 11 हजार सैम्पल कलेक्ट किए और 6-7 दिन बाद कोविड के मामले बढ़ने के कारण इसे रोक दिया गया। अमेरिका के जाने-माने अख़बार ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने अपनी एक स्टडी में दावा किया है कि मौत और संक्रमण के वास्तविक आँकड़े भारत सरकार के आँकड़ों से कहीं ज़्यादा हैं। स्टडी के मुताबिक़, कम से कम भी मानें तो भारत में कोरोना से 27 मई तक 6 लाख मौत और 40.42 करोड़ लोग संक्रमित हो चुके थे। इन रिपोर्टों के अलावा अब उन आँकड़ों पर गौर किया जाय सरकार की सारी चार सौ बीसी उजागर कर देते हैं। मध्य-प्रदेश में जन्म-मृत्यु का हिसाब रखने वाले ‘सिविल रजिस्ट्रेशन सिस्टम’ (सीआरएस) के मुताबिक़ 2021 में जनवरी से मई के बीच 2019 में जनवरी से मई के बीच के मुक़ाबले 1.9 लाख ज़्यादा मौतें हुई हैं। जबकि सरकार ने जनवरी से मई 2021 के बीच सिर्फ 4461 कोविड मौतों की जानकारी दी है। इसी तरह दैनिक भास्कर के 28 ब्यूरो प्रमुख और 46 संवाददाताओं ने राजस्थान में श्मशान से आँकड़े जुटाने के अलावा सरपंच, ग्राम पंचायत या जनप्रतिनिधि से मौतों के आँकड़े क्रेस चेक किया तो सरकार के आँकड़ों के मुताबिक़ 36000 गाँव में 3918 मौतों की तुलना में 1 अप्रैल से 20 मई तक केवल 512 गांवों में 14000 मौतों का पता चला। इसी तरह गुजरात के 5 बड़े शहरों में 71 दिनों के भीतर 45211 डेथ सर्टिफिकेट जारी हुए। 28 अप्रैल को देश में 20.68 लाख टेस्ट हुए थे तब संक्रमण दर 18.7 प्रतिशत थी, जबकि 8 मई को टेस्ट घटाकर 14.66 लाख कर देने के बावजूद संक्रमण दर 26.7 प्रतिशत थी। इसी तरह जिस दिन कानपुर में 476 लाशें जलीं और लाशों की संख्या बहुत अधिक होने के चलते टोकन सिस्टम लागू करना पड़ा, उस दिन भी सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़ केवल 3 मरीज़ो की कोरोना से मौत दिखाई गयी थी। इसी तरह उत्तर प्रदेश में फ़ासिस्टों ने चुनाव में जिन कर्मचारियों को झोंक दिया था उसमें 1600 से ज़्यादा कर्मचारियों की मौत हुई है। लेकिन जब उत्तर प्रदेश सरकार ने खूब डागा-बाजा बजाकर चुनाव ड्यूटी में मरे सरकारी कर्मचारियों को मुआवजा देने का ऐलान किया तो सरकार के मुताबिक़ बहुत ज़ोर लगाने के बाद भी कुल 45 कर्मचारी ही सरकार के मानक में आ पाये। हमारे देश में टेस्ट जितने कम हो रहे थे, गाँवों-कस्बों और शहरों के ग़रीब लोग बिना टेस्ट, बिना अस्पताल पहुँचे, जिस तरह गुमनाम मौत मर रहे थे! आदि को ध्यान में रखते हुए अनुमान लगाया जाय तो सरकार के मुताबिक़ कोरोना से होने वाली मौतों से कई-कई गुना ज़्यादा मौतों के आँकड़े हमारे सामने आएंगे। अभी हाल ही में आर्टिकल-14 के रिपोर्टर्स द्वारा हासिल किये गयेगये आँकड़ों के मुताबिक़ यूपी के 24 जिलों में 31 मार्च, 2021 के बाद के नौ महीनों के दौरान कोविड-19 की मौत के आधिकारिक आँकड़ों से 43 गुना ज्यादा मौतें हुई हैं। आर्टिकल-14 के रिपोर्टर ने इस दस्तावेज़ को राइट टू इनफार्मेशन एक्ट, 2005 के तहत हासिल किया है। जिसमें बताया गया है कि ग़ैर महामारी के दौरान यानी 1 जुलाई, 2019 और 31 मार्च, 2020 के बीच इन 24 जिलों में तकरीबन 1,78,000 मौतें हुईं। उसी दौरान 2020-2021 में इन मौतों में 110% की वृद्धि हो गयी जो बढ़कर 3,75,000 हो गयी यानी कि 1,97,000 की बढ़त। गोयबल्स को झूठ बोलने में मीलों पीछे छोड़ने वाली फ़ासिस्ट भाजपा सरकार ऐसी सरकार है जो पहले लोगों को बेमौत मरने देगी, फिर मौतों को छुपा देगी, फिर खूब प्रचार करेगी कि उसने लोगों को बचा लिया। इतना ही नहीं, इससे चुनाव जीतने के बाद सबके खाते में 15 लाख डालने वाली, 20 हज़ार करोड़ का सेण्ट्रल विस्टा बनवाने वाली, चुनाव में अरबों रुपयों का वारा-न्यारा करने वाली फ़ासिस्ट भाजपा सरकार को कोरोना से मरने वालों को कोई भी मुआवजा देने से मुकरने में भी आसानी हो जाती है। हालाँकि सरकार मुआवज़ा तो उन्हें भी देने के लिये तैयार नहीं है जो सरकार के मुताबिक़ मरे हैं।
इन फ़ासिस्टों के इस बर्बर, आपराधिक कृत्य को ज़रा भी इंसाफ़ की भावना और देखने की क्षमता रखने वाला व्यक्ति मरते दम तक नहीं भूल सकता। लेकिन हमें ये भी ज़रूर देखना चाहिए कि अन्य चुनावबाज़ पार्टियाँ अपने राज्यों में इस वक़्त क्या कर रही थीं? राजस्थान और दिल्ली जैसे ग़ैर भाजपाई राज्यों, जहाँ क्रमश: कांग्रेस और आम आदमी पार्टी सता में है, की स्थिति अन्य राज्यों की तरह ही दर्दनाक थी। मौतों की संख्या कम दिखाने, दवा, ऑक्सीज़न, बेड आदि के मामले में इन सरकारों के वही कारनामे थे जो केन्द्र में और भाजपा शासित राज्यों में भाजपा के थे। आम आदमी के नाम पर ढोंग करने वाली आम आदमी पार्टी ने श्मशान जानबूझकर शाहाबाद डेरी जैसी मज़दूर बस्तियों की ओर बनवाये क्योंकि इनके लिये मज़दूरों की जान सस्ती है। कोरोना के कहर को कम दिखाने के लिये टेस्टिंग कम कर दी। ग़ौरतलब है कि दिल्ली में 28 अप्रैल को जहाँ प्रति 10 लाख आबादी पर 4423 टेस्टिंग करवायी जा रही थी, वहीं 9 मई तक प्रति दस लाख पर टेस्टिंग घटाकर 3327 कर दी गयी। लेकिन इसके बावजूद भी कोरोना से संक्रमण की दर बढ़ गयी थी। बिना तैयारी और उचित प्रबन्ध के लॉकडाउन लगा देने से आम मेहनतकश का धन्धा बन्द हो जाने से जीविका का संकट पैदा हो गया था। बहुत देर से राशन कार्ड धारकों और पाँच हफ्ते बाद ग़ैर राशन कार्ड धारकों को राशन देना तय किया गया। लेकिन कई दिन बाद भी प्रतिदिन एक सेण्टर पर 50-100 लोगों को ही राशन दिया जा रहा था। इसी तरह राजस्थान सरकार के ‘जन अनुशासन पखवाड़ा’ के ढोंग के पीछे लोग बीमारी और भुखमरी के शिकार हो रहे थे।
हक़ीक़त ये है कि आज़ादी के बाद से ही विभिन्न चुनावी मदारियों ने वर्तमान समय तक आते-आते सार्वजनिक स्वास्थ्य तन्त्र को इस क़दर मुनाफ़े की भेंट चढ़ाया और बर्बाद किया कि कोरोना महामारी से पहले भी लोगों को सरकारी ढाँचे के अन्दर ढंग की चिकित्सा सुविधा मिल पाना मुश्किल था। जबकि कोरोना महामारी के संकट के समय पहले से जर्जर चिकित्सा तन्त्र भहरा के गिर गया। आइये देखते हैं कि फ़ासिस्टों के आने के पहले सरकारों का सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली को लेकर क्या रवैया था?
आज़ादी के बाद से अब तक भारत में स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति को जानने के लिये हमें इस पूरे समय को दो हिस्सों में बाँट सकते हैं। पहला 1947 से 1980 के दशक के अन्त तक का, यानी नवउदारवादी नीतियों के लागू होने से पहले का समय और दूसरा 1990 के बाद से अब तक का, यानी नवउदारवादी नीतियों के लागू होने का समय।
नवउदारवाद के पहले का समय (1947 से 1990)-आज़ादी के बाद भारत के पूँजीपति वर्ग के प्रतिनिधि नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार की सबसे पहली प्राथमिकता पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों को स्थापित करना और देश में औद्योगिक विकास की आधारशिला तैयार करना था। चूँकि उस समय भारत का पूँजीपति वर्ग इतना कमज़ोर था कि वह अपने बूते बुनियादी और अवरचनात्मक उद्योगों का तानाबाना खड़ा नहीं कर सकता था, इसलिये नेहरू सरकार ने आम लोगों की बचत का इस्तेमाल करके औद्योगिक विकास की आधारशिला तैयार करने की योजना बनायी। राजकीय पूँजीवाद के इस मॉडल के लिये लोगों की रज़ामन्दी लेने के लिये इसे “समाजवाद” का नाम दिया गया। लेकिन इस छलावे की पोल इसी से खुल जाती है कि जहाँ समाजवादी देशों ने औद्योगिक विकास और कृषि उत्पादकता में वृद्धि के साथ ही साथ शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों को भी शुरू से ही प्राथमिकता में रखा, वहीं भारत में शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्र कभी भी भारतीय शासकों की प्राथमिकता में नहीं रहे। शिक्षा और स्वास्थ्य पर उतना ही ध्यान दिया गया जितना पूँजीवादी विकास की न्यूनतम आवश्यकता थी। संविधान बनाने वाली संविधान सभा की बहसों में भी स्वास्थ्य जैसे मूलभूत अधिकार को तवज्जो नहीं दी गयी। संविधान सभा के कुछ सदस्यों ने स्वास्थ्य को मूलभूत अधिकार का दर्जा देने का प्रस्ताव रखा था, परन्तु संविधान सभा का बहुमत इसके ख़िलाफ़ था और इसीलिये संविधान में स्वास्थ्य को मूलमूत अधिकार के अध्याय में नहीं बल्कि राज्य के नीति निर्देशक तत्वों वाले अध्याय में रखा गया।
आज़ादी के ठीक पहले बनी भोरे कमेटी ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा की एक विस्तृत योजना तैयार की थी, जिसमें पूरी आबादी को नि:शुल्क स्वास्थ्य सेवाएँ प्रदान करने का प्रावधान था। परन्तु आज़ादी के बाद इस कमेटी की रिपोर्ट को ठण्डे बस्ते में डाल दिया गया। आज़ादी के बाद अस्तित्व में आयी सभी पंचवर्षीय योजनाओं में भी मुख्य ज़ोर पूँजीवादी विकास सुनिश्चित करने वाले क्षेत्रों पर ही रहा और शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल, आवास जैसे क्षेत्रों को परिधि पर ही स्थान मिला। 1950 और 1960 के दशकों में स्वास्थ्य के नाम पर जो निवेश किया भी गया उसका अधिकांश हिस्सा मलेरिया, चेचक, तपेदिक, मिर्गी, फ़ाइलेरिया और हैज़ा जैसी महामारियों पर नियन्त्रण पाने में ख़र्च किया गया। उस समय गाँवों से लेकर क़स्बों और शहरों तक स्वास्थ्य केन्द्रों का तानाबाना खड़ा करने की ज़रूरत थी, परन्तु उस पर कोई ध्यान नहीं दिया गया।
शुरू से ही बजट का बहुत कम हिस्सा स्वास्थ्य क्षेत्र को आवण्टित किया जाता था, लेकिन 1965 के बाद से स्वास्थ्य बजट का आधे से भी ज़्यादा ख़र्च परिवार नियोजन के मद में किया जाने लगा क्योंकि अब स्वास्थ्य के क्षेत्र में सबसे बड़ी प्राथमिकता जनसंख्या नियन्त्रण हो गयी थी। इस नयी प्राथमिकता का स्वास्थ्य सेवाओं के विकास पर बहुत नकारात्मक असर पड़ा। 1983 में देश में पहली बार एक ‘राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति’ बनायी गयी जिसमें सार्वभौमिक, समग्र प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं का लक्ष्य रखा गया। परन्तु इस लक्ष्य को पूरा करने के लिये आवश्यक तन्त्र व निवेश की ग़ैर-मौजूदगी में यह ज़ुबानी जमाख़र्च ही बनकर रह गया।
इस प्रकार नवउदारवाद के पहले के दौर में स्वास्थ्य सेवाओं की जो नींव तैयार की गयी थी, वह बेहद कमज़ोर थी। गाँवों और पिछड़े इलाक़ों में तो स्वास्थ्य सेवाओं की हालत और भी ख़राब थी। अर्थव्यवस्था में राज्य का दख़ल था, लेकिन स्वास्थ्य के क्षेत्र में यह दख़ल बहुत सीमित था। हालाँकि उस समय अभी निजी अस्पतालों की अन्धी लूट नहीं शुरू हुई थी और ख़ासकर शहरों के सरकारी अस्पतालों में ग़रीबों और आम आदमी को अपेक्षाकृत थोड़ा बेहतर इलाज उपलब्ध हो जाता था। दवाओं के मूल्य पर अभी भी सरकार का काफ़ी नियन्त्रण रहता था, पेटेण्ट क़ानूनों की ग़ैर-मौजूदगी में तमाम जेनेरिक दवाएँ सस्ते दामों पर मिल जाती थीं।
उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के लागू होने के बाद का समय (1990 से अब तक)-1990 के बाद के समय की कहानी ये है कि 1980 के दशक की शुरुआत तक आते-आते भारत का पूँजीपति वर्ग इतना ताकतवर हो चुका था कि उसकी ज़रूरत को ध्यान में रखते हुए जो पब्लिक सेक्टर खड़ा किया गया था उसे भी उसने अपनी खुली लूट के अड्डे में तब्दील करने के लिये सरकार पर दबाव बनाना शुरू कर दिया था। 1990-91 में जिस कांग्रेस सरकार ने पूँजीपतियों की ज़रूरतों को ध्यान रखते हुए पब्लिक सेक्टर खड़ा किया, उसी कांग्रेस सरकार ने पूँजीपतियों की वर्तमान जरूरतों को ध्यान रखते हुए पब्लिक सेक्टर को निजी हाथों की भेंट चढ़ाने की उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों को अमल में लाया। एक बार फिर यह बात साफ़ हो गयी कि पूँजीवादी लोकतन्त्र में सरकार और कुछ नहीं केवल पूँजीपति वर्ग के हितों की मैनेजिंग कमेटी होती है, फिर वो चाहे जिस चुनावबाज़ पार्टी के नेतृत्व में बने। वैसे तो भारत में स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में निजी क्षेत्र आज़ादी के बाद से ही मौजूद रहा है, परन्तु 1990 के बाद शुरू हुए नवउदारवादी दौर में निजी क्षेत्र का दख़ल कई गुना बढ़ गया। नवउदारवाद के पिछले तीन दशकों के दौरान गाँवों से लेकर क़स्बों और शहरों तक निजी अस्पतालों का एक विराट तन्त्र खड़ा हुआ है जिसका एकमात्र मक़सद लोगों की बीमारियों का लाभ उठाकर ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा पीटना है। इस दौर में अस्पतालों के साथ ही प्राइवेट क्लीनिक, पैथोलॉजी, फ़ार्मेसी आदि का भी एक तानाबाना खड़ा हुआ है जो ग़रीबों को चूस-चूस कर फल-फूल रहा है। विडम्बना तो यह है कि स्वास्थ्य सेवाओं के नाम पर लोगों को लूट रही इन संस्थाओं को जनता के पैसे से सब्सिडी दी जाती है। मेडिकल की पढ़ाई के नाम पर मुनाफ़ा पीट रहे तमाम निजी मेडिकल कॉलेजों को भी जनता की गाढ़ी कमाई से सब्सिडी दी जाती है। दवा और वैक्सीन बनाने वाली तमाम कम्पनियों को भी कारख़ाना लगाने के लिये सरकार सब्सिडी देती है। कोरोना के मामले में भी यही हुआ, ये अलग बात है कि जनता को ही वैक्सीन की कमी का सामना करना पड़ रहा है। जनता को दी जाने वाली सब्सिडी में भारी कटौती की गयी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत में स्वास्थ्य के मद में होने वाले खर्च का 67.78 प्रतिशत लोगों की जेब से निकलता है, जबकि इस मामले में वैश्विक औसत 17.3 प्रतिशत का है। स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में आये बदलावों की एक अहम विशेषता राज्य द्वारा स्वास्थ्य सेवाओं में की गयी लगातार कटौती रही है। इस पूरे दौर में स्वास्थ्य पर किया जाने वाला ख़र्च सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 1 प्रतिशत के आसपास ही रहा है। इसके अलावा नवउदारवाद के दौर में स्वास्थ्य के क्षेत्र में लोगों को डराकर निजी बीमा कम्पनियों का भी धन्धा फल-फूल रहा है।
नवउदारवादी दौर की एक अन्य विशेषता दवा की क़ीमतों पर से सरकार का घटता नियन्त्रण है। 1994 में आये ‘ड्रग प्राइस कण्ट्रोल ऑर्डर’ के तहत अधिकांश दवाओं की क़ीमतों पर सरकारी नियन्त्रण हटा दिया गया। विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यू.टी.ओ) के ‘ट्रेड रिलेटेड इण्टेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स’ के आने के बाद भारत सरकार ने भी 1970 के ‘पेटेण्ट एक्ट’ में 2005 में संशोधन कर दिया। 2005 से पहले पुराने एक्ट के चलते भारत में सस्ती जेनेरिक दवाओं के उत्पादन में कुछ हद तक छूट थी जो किसी हद तक देश की ग़रीब जनता को सस्ती दवाएँ मुहैया कराने में मददगार थी। परन्तु 2005 के बाद दवा का बाज़ार देशी-विदेशी दवा कम्पनियों द्वारा मुनाफ़ा पीटने के लिये पूरी तरह से खोल दिया गया। यही वजह है कि अब दवा की क़ीमतें आसमान छू रही हैं।
कुछ अन्य आँकड़े देश के स्वास्थ्य सुविधाओं की पूरी पोल पट्टी खोल कर रख देते हैं। ‘मेडिकल काउंसिल ऑफ इण्डिया’ के पास वर्ष 2017 तक पंजीकृत कुल 10.41 लाख डॉक्टर थे। इनमें से सरकारी अस्पतालों में केवल 1.2 लाख डॉक्टर थे, शेष डॉक्टर निजी अस्पतालों में निजी प्रैक्टिस करते हैं। ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ के मानक के मुताबिक़ प्रति 1000 व्यक्तियों पर 1 डॉक्टर होना चाहिए। लेकिन हमारे देश में 11082 व्यक्तियों पर केवल 1 डॉक्टर है। स्वास्थ्य सेवा सुलभ होने के मामले में भारत दुनिया के 195 देशों में 154वें पायदान पर है। यहाँ तक कि यह बांग्लादेश, नेपाल, घाना और लाइबेरिया से भी पीछे है।
इन तथ्यों की रोशनी में अगर हम कोरोना के इस पूरे दौर में होने वाली मौतों की बात करें इन मौतों में बहुत बड़ी संख्या ऐसी मौतों की है जिसे डंके की चोट पर इस फ़ासिस्ट भाजपा सरकार, आज़ादी के बाद विभिन्न चुनावबाज़ पार्टियों की स्वास्थ्य नीति और मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा किया जाने वाला ‘क़त्ल’ कहना चाहिए। ये फ़ासिस्ट इतने बर्बर और मानवद्रोही हैं कि पहली लहर के उतार के समय की तरह इस बार भी कोरोना से जंग जीतने या वैक्सीन लगवा देने का सेहरा अपने माथे पर बाँधने से चूकने वाले नहीं हैं। फ़ासिस्ट भाजपा सरकार और संघ परिवार को अभी भी विश्वास है कि वो लोगों की असहनीय पीड़ा को साम्प्रदायिकता और अन्धराष्ट्रवाद की लहर से भुलवा देंगे। फ़ासिस्ट संघ परिवार और भाजपा ने इस दिशा में शुरुआत कर भी दी है। हरियाणा के मेवात में 25 साल के जिम ट्रेनर आसिफ़ की पीट-पीटकर हत्या, बाराबंकी जिले के रामसनेही घाट तहसील में सौ साल पुरानी मस्जिद ढहा देने और अभी हाल ही त्रिपुरा में साम्प्रदायिक उन्मादियों द्वारा तीन मुस्लिमों की पीट-पीटकर की जाने वाली हत्या इसके चन्द उदाहरण हैं। लेकिन हमें अपने ज़िन्दा इंसान होने का सबूत देना है। हमें असमय छीन लिये गये अपने लोगों, असहाय हुए बच्चों, चारों ओर जलती और दफ़्न होती लाशों, नदियों में बहती लाशों और कुत्तों और सुअरों द्वारा उन्हें नोच-नोचकर खाने के वीभत्स दृश्यों को कभी नहीं भूलना है। हमें अपनी आत्मा खरोंचते रहना है और इन फ़ासिस्टों समेत मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था को दफ़्न करने की तैयारी हर सम्भव हद तक तेज़ कर देना है। अपने गुस्से को एक योजनाबद्ध कार्यदिशा में बदल देना है।
सबसे पहले तो हमें मौजूदा संकट और आम आबादी से निरन्तर दूर हो रही स्वास्थ्य सेवाओं के मद्देनज़र पूरी स्वास्थ्य व्यवस्था को तत्काल सरकारी नियन्त्रण में लाने, सभी को एक समान सार्वभौमिक और निःशुल्क स्वास्थ्य सेवाएँ प्रदान करने और स्वास्थ्य के अधिकार को मूलभूत अधिकार घोषित करने, निजी अस्पतालों, पैथोलॉजी लैबों, दवा कम्पनियों, वैक्सीन फ़ैक्टरियों और चिकित्सा-सामग्री निर्माण उद्योगों के राष्ट्रीकरण करने, कोरोना वैक्सीन को पेटेण्ट से मुक्त करने, डॉक्टरों व स्वास्थ्यकर्मियों की बड़े पैमाने पर तत्काल भर्ती करने, ज़रूरतमन्द परिवारों को निःशुल्क राशन और आर्थिक सहायता दिये जाने, कोविड के अलावा अन्य मरीज़ों के उचित इलाज की व्यवस्था किए जाने, सभी सफ़ाई कर्मियों, अस्पताल कर्मियों, घरेलू कामगारों आदि को स्वास्थ्य सम्बन्धी सुरक्षा देने, लॉकडाउन के कारण बेरोज़गारी का सामना कर रहे सभी लोगों को तत्काल आर्थिक सहायता दिये जाने, कोरोना से हुई मौतों की असली संख्या जानने के लिये जाँच कमेटी गठित करने और उनको मुआवज़ा देने जैसी माँगों को लेकर देश भर में व्यापक प्रचार में जुट जाना होगा। हमें एक-एक इंसान तक पूरी सच्चाई ले जानी है।
दूसरे, कोरोना के इस पूरे दौर में फ़ासिस्ट भाजपा के हत्यारे, आपराधिक चरित्र के बावजूद हमें ये नहीं भूलना है कि कांग्रेस, सपा, बसपा, आम आदमी पार्टी जैसी तमाम चुनावबाज़ पार्टियों के हाथ भी लोगों के ख़ून से सने हैं। स्वास्थ्य सम्बन्धी मामलों के अलावा अन्य सभी जन विरोधी नीतियों को लागू करने और मुट्ठी भर पूँजीपतियों की सेवा करने के मामले में भाजपा समेत सभी पार्टियों में आपसी सहमति है। हाँ, संघ परिवार का राजनीतिक मुखौटा भाजपा, फ़ासिस्ट संघ परिवार के द्वारा लम्बे समय में तैयार किए गये देशव्यापी काडर व सैकड़ों संस्थाओं के चलते, आर्थिक संकट के भँवर में फँसे पूँजीपति वर्ग की सबसे चहेती बनी हुई है। लेकिन अगर किसी तरह भाजपा की जगह अन्य चुनावबाज पार्टियाँ भी सत्ता में आ जायेंतो भी इससे जनता के पक्ष में स्वास्थ्य, शिक्षा, रोज़गार जैसे मामलों में कोई विशेष फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला है। अतीत का अनुभव भी इसी की गवाही देता है। इसलिये जनता को अपनी ताक़त पर भरोसा करना होगा और अपने संगठनों का निर्माण करना होगा। हमें देश के गाँवों, कस्बों, शहरों में लोगों से बनी जन स्वास्थ्य अधिकार कमेटियों का निर्माण शुरू कर देना चाहिए। ताकि तृणमूल स्तर से स्वास्थ्य के अधिकार को लेकर एक लम्बी लड़ाई संगठित की जा सके।
और आख़िरी बात, कि जब तक पूँजीवादी व्यवस्था रहेगी, जब मुट्ठी भर पूँजीपतियों के हाथों में देश के सभी संसाधन रहेंगे, जब तक पूँजीपतियों के पैसों से इनके हित के प्रबन्धन करने वाली पार्टियाँ लोकतन्त्र के ड्रामे के तहत सरकार बनाती रहेंगी या पक्ष-विपक्ष का खेल खेलती रहेंगी, तब तक जनता को स्वास्थ्य जैसा कोई भी बुनियादी अधिकार नहीं हासिल होगा। इसका आख़िरी समाधान एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण है जिसमें देश के सभी प्राकृतिक और भौतिक संसाधनों पर, राज-काज की मशीनरी व सभी फ़ैसलों पर आम जनता का नियन्त्रण हो और उत्पादन का मक़सद मुनाफ़ा नहीं बल्कि लोगों की ज़रूरत को पूरा करना हो। या संक्षेप में कहें तो हमें एक समाजवादी व्यवस्था के लिये अपनी जान लगा देनी होगी। इसी व्यवस्था के लिये लड़ते हुए और इसका सपना लिये हुए ही शहीद-ए-आज़म भगत सिंह 23 साल की छोटी सी उम्र में शहीद हो गये थे। मौजूदा व्यवस्था का ध्वंस और मानवकेन्द्रित व्यवस्था का निर्माण इसलिये भी अनिवार्य हो गया है कि मुट्ठी भर पूँजीपतियों की मुनाफ़े की अन्धी हवस ने न केवल आम इंसान को सिक्का ढालने के औज़ार में तब्दील कर दिया है, उसकी मानवीय गरिमा को रौंदते हुए तमाम बुनियादी सुविधाओं से दूर किया है, बल्कि पूरी पृथ्वी को ज़हर से भर दिया है। इनके कारख़ानों से निकलने वाला तरह-तरह के कचरे ने जल-थल-नभ को प्रदूषण से भर दिया है। पूरा पर्यावरण, पारिस्थितिक तन्त्र बहुत तेज़ी से क्षरित हो रहा है। ग्लेशियरों का पिघलना, ग्लोबल वार्मिंग, ओज़ोन परत का क्षरण, बहुत सारे प्राणियों का लुप्त हो जाना इसी पूँजीवादी व्यवस्था के पाप हैं। कोरोना के अलावा पता नहीं कितने वायरस इस धरती से मनुष्यता को ही मिटा देने के लिये तैयार बैठे हैं। पूँजीवाद मनुष्यता को मिटा दे या पूँजीवाद को मिटाकर मनुष्यता को बचा लिया जाय, तय हमें करना है!

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,मार्च-जून 2021

'आह्वान' की सदस्‍यता लें!

 

ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीआर्डर के लिए पताः बी-100, मुकुन्द विहार, करावल नगर, दिल्ली बैंक खाते का विवरणः प्रति – muktikami chhatron ka aahwan Bank of Baroda, Badli New Delhi Saving Account 21360100010629 IFSC Code: BARB0TRDBAD

आर्थिक सहयोग भी करें!

 

दोस्तों, “आह्वान” सारे देश में चल रहे वैकल्पिक मीडिया के प्रयासों की एक कड़ी है। हम सत्ता प्रतिष्ठानों, फ़ण्डिंग एजेंसियों, पूँजीवादी घरानों एवं चुनावी राजनीतिक दलों से किसी भी रूप में आर्थिक सहयोग लेना घोर अनर्थकारी मानते हैं। हमारी दृढ़ मान्यता है कि जनता का वैकल्पिक मीडिया सिर्फ जन संसाधनों के बूते खड़ा किया जाना चाहिए। एक लम्बे समय से बिना किसी किस्म का समझौता किये “आह्वान” सतत प्रचारित-प्रकाशित हो रही है। आपको मालूम हो कि विगत कई अंकों से पत्रिका आर्थिक संकट का सामना कर रही है। ऐसे में “आह्वान” अपने तमाम पाठकों, सहयोगियों से सहयोग की अपेक्षा करती है। हम आप सभी सहयोगियों, शुभचिन्तकों से अपील करते हैं कि वे अपनी ओर से अधिकतम सम्भव आर्थिक सहयोग भेजकर परिवर्तन के इस हथियार को मज़बूती प्रदान करें। सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग करने के लिए नीचे दिये गए Donate बटन पर क्लिक करें।