धरती पर जीवन का उद्भव और उद्विकास (इवोल्यूशन)

सनी सिंह

इन्सान और उसका समाज धरती पर जन्मा है और उसने प्राकृतिक शक्तियों को काबू में किया है। हमारी धरती खुद हमारे सितारे सूरज का टुकड़ा है और कार्ल सैगन के शब्दों में धरती पर जन्मा इन्सान सितारों की धूल ही है। वही सितारे जिनकी टिमटिमाहट छतों पर दिलों को सुकून देती है। भले ही वह रोशनी किसी ख़त्म हो चुके सितारे की हो, क्योंकि जो आसमान हम रात में देखते हैं वह और कुछ नहीं बल्कि उन सितारों की रोशनी के हम तक पहुँचने में हुई देरी से उभरता चित्र है। इन बुझे हुए और निरन्तर जल रहे सितारों का जीवन से क्या वास्ता?

प्रसिद्ध सोवियत कवि मयाकोव्स्की ने एक जगह कहा है कि कोई तो अर्थ होता होगा तारों के जलने का और किसी को तो होती होगी इनकी ज़रूरत। यह प्रश्न मानवता के समक्ष आदिम काल से मौजूद है कि सितारों की दुनिया और हमारी दुनिया के बीच क्या सम्बन्ध है? धरती पर मौजूद पेड़-पौधों से लेकर नदी, पहाड़, जंगल ज़मीन का मनुष्य से क्या वास्ता है? मनुष्य अपने उद्भव पर आदिकाल से चिन्तन करता रहा है। आधुनिक काल में प्राकृतिक विज्ञान ने अपने विकासक्रम में इस सवाल पर तरह-तरह के धार्मिक मकड़जालों को हटाकर साफ़ कर दिया है। इतिहास में पहले सितारों और धरती पर भौतिक वस्तुओं की गतिकी के अध्ययन से साफ़ नज़र होने के बाद इन्सान ने जैव जगत और अपने उद्गम का वैज्ञानिक विश्लेषण किया। जीवन के रूपों के बदलाव को उद्विकास (इवोल्यूशन) कहते हैं और यह सवाल जीवन की उत्पत्ति से जुड़ा हुआ है। जीवाश्म, डीएनए और क्लैडिस्टिक्स के अध्ययन से जीवन के रूपों और उनके उद्विकास के नियमों को जाना गया है। 19वीं शताब्दी में जाकर ही उद्विकास और जीवन के उद्भव पर विज्ञान निर्णायक कदम उठा सका। कोपरनिकस ने सौर मण्डल को धर्म की बेड़ियों से काट तर्क के क्षेत्र में प्रवेश कराने का रास्ता खोला। जीव जगत में यह क़दम 19वीं शताब्दी में उठ सका या यूँ कहें कि यह तभी ही उठ सकता था। डार्विन के सिद्धान्त के लिए जिन प्रेक्षणों की ज़रूरत थी उनका भौतिक व वैचारिक आधार न्यूटन, गैलीलियो के बाद लायल ने ग्रहों और तारों व खुद धरती की सतह की गति के नियमों की पड़ताल के ज़रिये किया। 19वीं शताब्दी में ऊर्जा के रूपान्तरण के सिद्धान्त और कोशिका की खोज हो चुकी थी। लायल ने धरती की परतों और उनके कम्पन व उसकी भिन्नताओं और उनके विकास के विज्ञान को भूगर्भशास्त्र के रूप में स्थापित किया। इन सभी खोजों ने पुराने दर्शन जगत की बेड़ियों को काट विज्ञान के लिए यह नज़रिया साफ़ किया कि इन्सान से लेकर ब्रह्माण्ड जगत की समस्त अस्तित्वमान और ख़त्म हो चुकी सत्ताएँ पदार्थ जगत का हिस्सा हैं और वे निरन्तर बदलाव में हैं। इन बदलावों का अध्ययन ही प्राकृतिक विज्ञान में यांत्रिकी भौतिकी, रसायन शास्त्र व अन्य विशिष्ट विषयों को पैदा करता है।

ख़ैर, कोशिका और उद्विकास की खोज ने पदार्थ जगत से जीवन के उद्भूत होने पर मुहर लगा दी। चेतना पदार्थ जगत का ही एक गुण है इसे 19वीं शताब्दी के जीववैज्ञानिकों ने पुष्ट कर दिया। निश्चित ही उद्विकास के सिद्धान्त पर और जीवन के उद्भव पर समझ और गहरी होनी बाक़ी थी। आज 21वीं शताब्दी में हम डार्विन से आगे बढ़ चुके हैं, परन्तु वैज्ञानिको की जमात का एक हिस्सा विज्ञान जगत की नई खोजों की दुव्याख्या करके जीवन के उद्भव के सवाल और पदार्थ जगत को रहस्यमयी बना रहे हैं। क्वाण्टम इण्टेंगलमेन्ट पर हुए प्रयोगों पर शोध का ज्विंलिंगर सरीख़े वैज्ञानिक मूल्यांकन कर बता रहे हैं कि ‘सूचना’ आदिकाल से मौजूद है जिसके ज़रिये पदार्थ अस्तित्व में आता है व इस तरह वे चेतना के पदार्थ से पहले मौजूद होने की बात कहते हैं। पेनरोज़ भी शिद्दत से ऐसे भ्रम फैला रहे हैं। हाकिंग हालाँकि प्रगतिशील कहे जायेंगे और कई जगह उन्होंने ईश्वर पर चोट की है, परन्तु इसके बावजूद उनके चिन्तन में मौजूद संशयवाद से भाववादी दर्शन को काफ़ी जगह मिल जाती है। दूसरी तरफ़ वैज्ञानिकों का एक बड़ा हिस्सा ऐसा भी है जो कि भौंडे भौतिकवादी दृष्टिकोण से प्रस्थान करता है और यांत्रिक व रिडक्शनिस्ट नज़रिये से भौतिकवादी दुनिया को गतिहीन बना देता है और यदि गति स्वीकार करता भी है, तो उसके लिए बदलाव एकरेखीय और क्रमिक होता है। डॉकिंस नास्तिक हैं और नास्तिकता का प्रचार करते हैं लेकिन उनका दर्शन भौंडा भौतिकवादी दर्शन है । जीन में इन्सान के गुणों द्वारा तय होना बताकर वे असल में रिडक्शनिज़्म का सहारा लेते हैं और समाज की बुराइयों और अच्छाइयों को जीन में अपचयित कर देते हैं। मतलबी (सेल्फ़िश) जीन्स के ज़रिये वे सामाजिक डार्विनवाद के नये संस्करण पेश करते हैं मौजूदा व्यवस्था में ग़ैर-बराबरी को सही ठहराते हैं। साथ ही वे डार्विन की भी जो व्याख्या पेश करते हैं वह छलाँग के ज़रिये विकास की जगह क्रमिक विकास को मानते हैं। खुद को प्राकृतिक दार्शनिक कहने वाले डॉकिंस सरीख़े कई भौंडे भौतिकवादी हैं जो लगातार ही विज्ञान जगत में धुँध फैला रहे हैं। यह एक आम परिघटना है।

आज फिर से विज्ञान को अधिक रहस्यवादी और अज्ञात में दैवीय शक्तियों को घुसाने के चलते वैज्ञानिक अन्धे रास्तों में भटक रहे हैं। वहीं सामाजिक ग़ैरबराबरी को वैज्ञानिक सिद्धान्तों का जामा पहनाने के प्रयास भी किये जा रहे हैं । यह बुर्जुआ विचारधारा का भी संकट है जिसकी अभिव्यक्ति डॉकिन्स और ज्विंलिंगर सरीख़े लोग करते हैं। मानसिक श्रम और शारीरिक श्रम के बीच मौजूद ऐतिहासिक दीवार, ज्ञान और व्यवहार के बीच दरार, व शासक वर्ग के सचेतन प्रयास की वजह से भ्रमित दर्शनों को विज्ञान जगत में अभिव्यक्ति मिलती है। नज़रिये की यह अन्धता वैज्ञानिकों को बन्द दरवाज़ों पर सिर पटकने के लिए अभिशप्त करती है। वहीं विज्ञान व्यवस्थागत तौर पर गतिरोध का शिकार है। इसके पीछे मूल कारण वैचारिक अन्धता नहीं बल्कि व्यवस्थागत संकट है। बड़े शोध संस्थान से लेकर कॉलेजों तक विज्ञान में निवेश मुनाफ़े के आधार पर होता है। शोध भी मुनाफ़े की शर्त पर ही होता है। विज्ञान पूँजी की पूँछ पकड़कर चलने को मजबूर है। वहीं मुनाफ़ा-आधारित व्यवस्था युद्धों को जन्म देती है जिसमें विज्ञान, जो खुद एक उत्पादक शक्ति है, वह दुनिया के कोने-कोने में उत्पादक शक्तियों को तबाह करती है। इन दोनों कारणों के चलते ही विज्ञान जगत संकट का शिकार है।

वैज्ञानिकों का विभ्रम मीडिया चैनल व पॉपुलर पल्प फ़िक्शन के रूप में आम जनता के मानस पर ट्रिकल डाउन प्रभाव छोड़ता है। भारत जैसे उत्तर-औपनिवेशिक पिछड़े पूँजीवादी देश में तो यह परिघटना और साफ़ देखने को मिलती है। भारत जैसे समाजों में सामन्ती मूल्य मान्यताओं के अवशेष आज भी बरकरार हैं, बल्कि उनका पूँजीवादी व्यवस्था ने तन्तुबद्धीकरण (आर्टिकुलेशन) किया है। कूपमण्डूकता और अन्धविश्वास हमारे समाज की पोर-पोर में समायी हुई है। इसरो से लेकर बड़े शोध संस्थानों में वैज्ञानिक अन्धविश्वासी होते हैं। आज भारत की सत्ता में बैठे संघी सोशल मीडिया, गोदी मीडिया, बस्ती से लेकर वैज्ञानिक मंचों तक अन्धविश्वास फैला रहे हैं और भारत की रीढ़विहीन वैज्ञानिकों की क़ौम महज़ काग़ज़ी प्रतिरोध कर चुप बैठी है।

इस लेख को लिखने का मक़सद यह उद्घाटित करना है कि वैज्ञानिक जगत में विचारधारात्मक धुन्ध मौजूद है जिसे साफ़ किये जाने की ज़रूरत है। इस लेख के ज़रिये हम धरती पर जीवन के उद्भव और उद्विकास पर द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी अवस्थिति पेश करेंगे। पृथ्वी पर जीवन का उद्भव कैसे हुआ यह सवाल विज्ञान का सवाल तो है ही, साथ ही दर्शन के जगत में अस्तित्व मीमांसा के प्रश्न पर भी यह सही समझदारी बनाता है। धरती पर जीवन की शुरूआत का जवाब भौतिकवादी दर्शन से ही सही दिया जा सकता है। उद्विकास और मानव के उद्भव के कुछ प्रश्नों पर भी आज बहसें जारी हैं। यह स्वाभाविक ही है। विज्ञान के सामने हमेशा एक क्षितिज होता है जिसे वह भेदता है और नए प्रश्नों और संदेहों का क्षितिज विज्ञान की प्रगति के साथ और आगे बढ़ जाता है। यही उसका द्वन्द्ववाद है। परन्तु आज विज्ञान द्वारा हासिल मुक़ामों पर भी धूल की परत चढ़ाई जा रही है। और ऐसे में यह महत्वपूर्ण कार्यभार बनता है कि उसे खोने न दिया जाये। 19वीं शताब्दी जिन प्रश्नों को सुलझा चुकी है उसपर दार्शनिक चाशनी डुबोकर नए रहस्यवादी विमर्श किए जा रहे हैं। 19वीं शताब्दी में लायल की भूविज्ञान की खोज, डार्विन की बीगल जहाज की यात्रा और हैकेल द्वारा धार्मिक पण्डों की बकवास का विरोध- यह वह काल है जब आधुनिक जीवविज्ञान ने जन्म लिया। इससे पहले की शताब्दियों में कोपरनिकस, गैलीलियो, न्यूटन और अन्य लागों ने ब्रहमाण्ड में सितारों, आकाशगंगाओं के बारे में समझदारी साफ़ की थी। पूरे भौतिक जगत के अस्तित्व में आने की और गुज़रते जाने की एक प्रक्रिया के रूप में तस्वीर खींची जा रही थी। विज्ञान ने कोशिका की खोज के ज़रिये, ऊर्जा के रूपान्तरण से विकास की खोज के ज़रिये प्रकृति की द्वन्द्वात्मकता को सत्यापित किया। जीवाश्मों का अध्ययन और जीवन के रूपों का अध्ययन 19 वीं शताब्दी में विकसित होता है और इन्सान अपने उद्गम पर पहली बार वैज्ञानिक नज़रिया हासिल करता है।

उद्विकास और जीवन का उद्गम

मनुष्य की प्रजाति होमो होमो सेपिएन्स सहित तमाम प्रजातियाँ विकसित हो रही हैं। मनुष्य का उद्भव एक ऐसी प्रजाति से हुआ जो अब विलुप्त हो चुकी है। जैव जगत में तमाम प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं और आज का जीव जगत वैसा नहीं है जैसे यह पहले था। वायरस, बैक्टिरिया, लंगूर से लेकर केकड़ा सभी प्रजातियाँ पहले मौजूद प्रजातियों से विकसित होकर अस्तित्व में आई हैं। कई प्रजातियाँ एक ही प्रजाति से फूट कर पैदा हुई हैं जैसे पेड़ के तने से कई शाखाएं निकलती हैं। समुद्र की गहराई से लेकर रेगिस्तान की तपिश में जीवन अपनी विविधता के साथ मौजूद है। जीवन की इस विविधता की इकाई प्रजाति है। एक प्रजाति के जीवों के बीच भी अन्तर मौजूद होते हैं जबकि समानता आनुवंशिकता के कारण दिखती है। समानता और अन्तर का द्वन्द्व आनुवंशिकता और अनुकूलन के द्वन्द्व के रूप में उभरकर आता है। आज धरती पर नई प्रजातियों के साथ ही कई ऐसी प्रजातियाँ भी मौजूद हैं जो बेहद पुरानी हैं और कई प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं। समुद्र की लहरों में बहकर आती सीपियाँ, जेली फिश की भिन्न प्रजातियों से लेकर गौरेया, कियारियों में मौजूद गिरगिट और रेगिस्तान के कैक्टस अलग प्राकृतिक परिस्थिति में रहते हैं और यह अपनी परिस्थितियों को भी अलग तरीके से प्रभावित करते हैं। जीवन के ही विकासक्रम में मानव का उद्भव हुआ जिसका मष्तिष्क उसे अन्य प्रजातियों से अलग करता है। मानव ने श्रम की प्रक्रिया से पर्यावरण व अपने बीच भौतिक अंतरक्रिया को समझा और सचेतन तौर पर उसका इस्तेमाल किया। जीवन की आंतरिक गति को उसका पर्यावरण (जो कि कुल मिलाकर बेहद जटिल और निरन्तर परिवर्तनीय है) प्रभावित करता है और जीवन पलटकर इस बाह्य जगत को प्रभावित करता है। जीवजगत की सभी प्रजातियों में मानव न सिर्फ़ पर्यावरण को प्रभावित करता है अपितु वह जिस कदर प्रकृति को बदलता व प्रभावित करता वह कोई अन्य जीव नहीं कर सकता है। इस अर्थ में कहा जा सकता है कि मनुष्य ही वास्तव में पर्यावरण को पलटकर प्रभावित करता है जबकि अन्य जीव इसके अनुसार खुद को अनुकूलित करते हैं। वैसे देखा जाये तो बेहद सूक्ष्म स्तर पर असल में हर जीव अपने पर्यावरण को जैविक तौर पर प्रभावित करता है मसलन मकड़ी जाला बनाती है, चिड़िया घोसला बनाती है और ऊदबिलाव बाँध बनाते हैं। परन्तु ये उनकी नैसर्गिक जैविक क्रियाएँ है और इसके लिए वे सचेतन योजना नहीं बनाते हैं। परन्तु मनुष्य किसी कार्य को करने से पहले अपने दिमाग़ में उस कार्य की परिकल्पना कर उसे अंजाम देता है। इस अर्थ में मनुष्य जीवजगत की विशिष्ट प्रजाति बन जाता है। परन्तु मनुष्य और उसका समाज प्रकृति का ही विस्तार है। डार्विन ने मनुष्य और अन्य जीवों के उनके पर्यावरण के बीच सम्बन्ध को यांत्रिक तौर पर व्याख्यायित किया था। उनके अनुसार प्रकृति जीव का प्राकृतिक चयन करती है परन्तु उपरोक्त चर्चा से साफ़ है कि जीव भी पर्यावरण को प्रभावित कर उसका एक प्रकार से ‘चयन’ करता है। डार्विन से पहले जीवविज्ञान धर्मशास्त्रों के अवलोकन में ही समझा जाता था।

सभी धर्मों के शास्त्रों में जीवन के उद्भव को ईश्वरीय कारनामा बताया जाता है। परन्तु 19वीं शताब्दी के अन्त तक यह समझदारी बदल गयी। वैज्ञानिक इस बात से सहमत थे कि प्रकृति जीवन के अस्तित्व में आने से पहले से मौजूद है। पाश्चर से लेकर हक्सली और हैकल के ज़रिये जीवविज्ञान स्थापित हो रहा था। लायल ने भूगर्भशास्त्र के विज्ञान का आधार रखा जिसने जीवविज्ञान के लिए राह खोलने का काम किया। धरती की सतहों और परतों के बनने और ख़त्म होने की वैज्ञानिक प्रक्रिया ने ही जीवन के उद्भव के सिद्धान्तों के लिए आधारशिला रखने का काम किया। पहले जीवन के रूपों को स्थैथिक माना जाता था। इसे लैमार्क और डार्विन के साथ 19वीं शताब्दी के कई वैज्ञानिकों ने चुनौती दी। सबसे महत्वपूर्ण क़दम डार्विन ने उठाया और उन्होंने यह दर्शाया कि जीवन के रूप बदलते हैं और यह बदलाव नियमों से बँधा है। डार्विन ने हर प्रजातियों में अन्तर और साथ ही एक प्रजाति के जीवों में अन्तर को रेखांकित किया। इस अन्तर को उन्होंने वैरिएशन कहा। जीव और उसके शावक में यह अन्तर कम होता है, हालांकि शावकों के बीच भी वैरिएशन मौजूद होते हैं। इसे ही आनुवंशिकता कहते हैं कि जीव अपने गुण अपने शावक को देते हैं। यह प्रक्रिया भी एककोशिकीय जीव और बहुकोशिकीय जीव जैसे मनुष्य में अलग तरीके से होती है। आनुवंशिकता और वैरिएशन का द्वन्द्व ही प्रजातियों के विस्तृत जटिल झुरमुट के विकास को नियम में बाँधता है।

डार्विन ने पर्यावरणीय, अन्तरजातीय, सजातीय प्रतियोगिता के ज़रिये प्राकृतिक चयन को उद्विकास का आधार बताया जिसके अनुसार प्रजातियों में क्रमिक बदलाव आते हैं। हालाँकि आज यह सिद्ध हो चुका है कि बदलाव सिर्फ़ क्रमिक नहीं बल्कि छलाँग के रूप में भी होते हैं। साथ ही जीवों में केवल प्रतियोगिता नहीं बल्कि सहयोगिता भी होती है। जीव, डार्विन की व्याख्या अनुसार, एटमाइज़्ड इंडिविजुअल न होकर ग्रुप व तमाम तरह से आपसी सम्बन्धों का एक व्यापक तानाबाना खड़ा करते हैं। हाँ, निश्चित ही इन सभी प्रक्रियाओं में जो अधिक ‘फिट’ होगा वह जिंदा रहता है। डार्विन की कमज़ोरियों की चर्चा पर हम आगे आयेंगे। डार्विन ने उद्विकास के पीछे जीवन के आन्तरिक कारण को उद्घाटित किया। उनके अनुसार कोई जीव अपने गुण अपने बच्चों में कुछ परिवर्तनों के साथ थमाता है। इन गुणों में परिवर्तन के पीछे डार्विन ने आनुवांशिक तत्वों को बताया जिनकी आपसी मिलावट से ही बच्चों के गुणों में मामूली परिवर्तन आते हैं। आज जीवविज्ञान इस बुनियादी समझदारी से आगे विकसित हो चुका है। डार्विन के कई तर्क ग़लत साबित हुए हैं। डार्विन उद्विकास के पीछे कार्यरत प्रेरक शक्तियों को, कार्य-कारण सम्बन्धों को समझने में और कुल मिलाकर पद्धति में यांत्रिक/अधिभूतवादी रहते हैं। लेकिन डार्विन का योगदान यह रहा कि उन्होंने जीवन के विकास में किसी भी दैवीय शक्ति के लिए हमेशा के लिए दरवाज़ा बन्द कर दिया।

डार्विन से अगला कदम मेंडल ने उठाया। मेंडल के सिद्धान्त के अनुसार एक जीव अपने बच्चों में जिन ‘ट्रेट’ यानी शारीरिक गुणों (फ़िनोटाइप कैरेक्टरस्टिक्स) को प्रदान करता है वह जीन पर निर्भर करते हैं। मेंडल ने डार्विन की इस अवधारणा को ग़लत साबित किया कि आनुवांशिक गुण पैनजैनेसिस के ज़रिये शावक में जाते हैं। मेंडल के अनुसार जीन की प्रकृति कण सरीख़ी होती है और हर पृथक जीन अलग गुण को व्याख्यायित करती है। हालाँकि आज यह अवधारणा विकसित हो चुकी है जिसपर हम आगे आयेंगे। मेंडल ने इस अवधारणा को सिद्ध करने के लिए 8000 से अधिक मटर के पौधों पर शोध किया। 20वीं शताब्दी में जीन की पहचान हुई जिससे वैरिएशन और नैचुरल सेलेक्शन को समझने का आधार मिल गया। जैनेटिक थ्योरी जो डार्विन के फ्रेमवर्क को मुख्यत: समाहित कर लेती है वह मॉडर्न सिंथेसिस कहलाती है। इसके बरक्स आधुनिक एक्सटेंडेड एवोल्यूशनरी सिंथेसिस का सैद्धान्तिक फ्रेमवर्क उद्विकास की अधिक संतुलित व्याख्या करता है। इस फ्रेमवर्क में द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया है जहाँ प्रजातियों में क्रमिक प्रक्रिया से ही नहीं बल्कि छलाँग के ज़रिये भी बदलाव होते हैं। हम इस पर लेख की तीसरी कड़ी में बात करेंगे जब हम डार्विन, मेंडल और लैमार्क की अवधारणाओं पर विस्तार से चर्चा करेंगे।

डार्विन से भी पहले लैमार्क ने कहा था कि प्रजातियों का उद्विकास होता है। हालाँकि उन्होंने कहा कि एक जीव अपने पर्यावरण के अनुरूप ढलने का प्रयास करता है और इस प्रकार से ही एक प्रजाति दूसरी प्रजाति में तब्दील हो जाती है। जैसे जिराफ़ ऊँचे पेड़ से पत्तियाँ खाने का प्रयास करता है तो उसकी गर्दन लम्बी हो जाती है। यह बदलाव जो एक जीव ने अर्जित किये हैं वह सन्तानों में चले जाते हैं। परन्तु यहाँ ऐसा प्रतीत होता है कि जिराफ़ के अपने प्रयासों ने और परिस्थितियों ने उसे ढाल दिया है। साथ ही वे जीव जो प्रयास कर रहे थे उनकी सन्तानें भी पर्यावरण में अधिक फिट होंगी। परन्तु डार्विन ने इसे ग़लत बताया और कहा कि लम्बे और छोटे जिराफ़ वैरियेशन के कारण होते हैं और चूँकि लम्बे जिराफ़ ही पत्ती तक पहुँच सकते थे, इसलिए वे ही बच पाते हैं। डार्विन मुख्यत: इस बहस में सही साबित हुए। डार्विन के सिद्धान्त के अनुसार एक जीव अपने जीवन काल में जो पर्यावरण के अनुरूप बदलाव करता है और जो गुण हासिल करता है वह उसकी सन्तानों में नहीं जाते हैं। जीवों में बदलाव का कारण वैरिएशन है जोकि जीव की सभी सन्तानों में होता है। इनके कारणों पर हम आगे विस्तारपूर्वक बात करेंगे। 1930 के दौर में यह व्याख्या हुई कि आनुवंशिकता के बुनियादी तत्व जीन होते हैं। जीवन की हर प्रजाति का हर जीव एक-दूसरे के अधिक समान होता है और दूसरी प्रजाति के जीव से अधिक असमान होता है। इस समानता और अन्तर का मापक जीन ही होता है। इन समानताओं और अन्तरों की एकता ही जीवन को व्याख्यायित करती है। यह अन्तर बदली हुई पर्यावरण की परिस्थितियों में बदलते फ़िनोटाइप (शारीरिक गुणों का कुल समुच्चय) जोकि जीनोटाइप (आनुवांशिक जीनों का कुल समुच्चय) और पर्यावरण के अन्तरसम्बन्ध पर निर्भर करता है। जीनोटाइप, फ़िनोटाइप के मतलब को हम आगे विस्तारपूर्वक समझाएंगे। जीवन और उसके उद्विकास को केवल डार्विन और मेंडल की अवधारणाओं के फ्रेमवर्क में नहीं समझा जा सकता है।

अगर फिलहाल कुछ बातें निचोड़ के तौर पर कहें तो जीव के शारीरिक गुण (फ़िनोटाइप) केवल जीन से नहीं तय होते हैं। वह पर्यावरण से अन्तरक्रिया में भी अपने गुण हासिल करता है। परन्तु ये गुण जीनोटाइप द्वारा सीमित (कन्सट्रेंड) होते हैं। गुण की अभिव्यक्ति परिमाणात्मक तौर पर जीन में होती है। गुण परिमाण में अभिव्यक्त होता है और परिमाण गुण में तब्दील होता है। यहाँ द्वन्द्ववाद का नियम खुद को बेहद सरल रूप में अभिव्यक्त करता है। यह होगा ही। इस अन्तरविरोध के विकसित होने, उसके तीव्र होने व नए में तब्दील होने की प्रक्रिया को समझने के लिए हमें इस अन्तरविरोध के उद्भव को समझना होगा।

किसी भी जीव का आन्तरिक विकास पर्यावरण से जीवन के लिए आवश्यक तत्वों को सोखकर मेटाबोलिज़्म के ज़रिये होता है। यह मेटाबोलिज़्म ही जीव को विकसित करता है और यही इसे मृत्यु तक लेकर जाता है। यह जीवन के सभी रासायनिक तत्वों की क्रिया जिसमें बड़े तत्वों का टूटना और छोटे रासायनिक तत्वों से बड़े रासायनिक तत्वों का बनना जारी रहता है। मेटाबोलिज़्म जीवन की परिभाषा में ज़रूरी है। यह एक जीव के भीतर जीवन और मृत्यु के अंतरविरोध का विकास ही है। जीवन की प्रक्रिया का अन्तरविरोध यही है कि जीवन अजैविक तत्वों को जीवन के तत्वों में तब्दील करता है। इस अन्तरविरोध का उद्भव ही जीवन के उद्भव के वक़्त होता है। इसलिए जीवन के उद्भव को समझना एक ज़रूरी कार्यभार बन जाता है। पुरानी प्रजातियों, जिनसे आज की प्रजातियाँ विकसित हुई हैं, के जीवित जीवाश्म मौजूदा प्रजातियाँ हैं। जीवन के सभी रूपों में बुनियादी रासायनिक यौगिक और उनकी संरचना में समानता होती है। इसलिए हम पहले जीवन की उत्पत्ति पर सही समझ बनाएंगे ताकि उद्विकास को ठीक तरीके से समझा जा सके। लेख के अगले हिस्से में हम इस प्रश्न पर ही विस्तारपूर्वक बात करेंगे कि जीवन की उत्पत्ति किस प्रकार हुई।

(अगले अंक में जारी)

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,जुलाई-अक्‍टूबर 2020

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