राष्ट्रीय दमन क्या होता है? भाषा के प्रश्न का इससे क्या रिश्ता है?
मार्क्सवादी-लेनिनवादी अवस्थिति की एक संक्षिप्त प्रस्तुति
अभिनव
यह प्रश्न आज कुछ लोगों को बुरी तरह से भ्रमित कर रहा है। कुछ को लगता है कि यदि किसी राज्य के बहुसंख्यक भाषाई समुदाय की जनता की भाषा का दमन होता है तो वह अपने आप में राष्ट्रीय दमन और राष्ट्रीय आन्दोलन का मसला होता है। उन्हें यह भी लगता है कि असम और पूर्वोत्तर के राज्यों में एन.आर.सी. उचित है क्योंकि यह वहाँ की जनता की राष्ट्रीय दमन के विरुद्ध “राष्ट्रीय भावनाओं की अभिव्यक्ति” है और इस रूप में सकारात्मक है। तमाम क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट साथियों को यह बात सुनने में अजीब लग सकती है लेकिन यह सच है! वाक़ई वामपन्थी दायरे में अस्मितावाद के शिकार कुछ लोग हैं, जो ऐसी बात कह रहे हैं। राष्ट्रीय प्रश्न पर ऐसे लोग बुरी तरह से दिग्भ्रमित हैं। इसलिए इस प्रश्न को समझना बेहद ज़रूरी है कि दमित राष्ट्रीयता किसे कहते हैं और राष्ट्रीय दमन का मतलब क्या होता है। इस प्रश्न पर लेनिन, स्तालिन और तुर्की के महान माओवादी चिन्तक इब्राहिम केपकाया ने शानदार काम किया है।
लेनिन और स्तालिन ने राष्ट्रीय प्रश्न पर मार्क्सवादी-लेनिनवादी समझ की बुनियाद रखी और उसके सार्वभौमिक सिद्धान्त पेश किये। वहीं केपकाया ने इन आम सिद्धान्तों को विकसित किया और तुर्की में कुर्द जनता के राष्ट्रीय दमन और इस विषय में वहाँ के संशोधनवादियों की आलोचना करते हुए राष्ट्रीय दमन के प्रश्न पर क्लासिकीय मार्क्सवादी-लेनिनवादी अवस्थिति को शानदार तरीक़े से पेश किया। आज पूरी दुनिया में मार्क्सवादी-लेनिनवादी राष्ट्रीय प्रश्न पर केपकाया के चिन्तन को इस पूरे प्रश्न पर मार्क्सवाद-लेनिनवाद की उन्नति के तौर पर स्वीकार करते हैं। आइए देखते हैं कि केपकाया इसके बारे में क्या कहते हैं।
“शफाक संशोधनवादियों के अनुसार, ये केवल कुर्दिश जनता है जो कि राष्ट्रीय दमन का शिकार है। यह राष्ट्रीय दमन का अर्थ ही नहीं समझने के समान है। राष्ट्रीय दमन वह दमन होता है जिसमें कि दमनकारी राष्ट्र के शासक वर्ग समूचे दमित, निर्भर और अल्पसंख्यक राष्ट्र को ही दमन का शिकार बनाते हैं। तुर्की में, राष्ट्रीय दमन प्रभुत्वशाली तुर्क राष्ट्र के शासक वर्ग द्वारा केवल कुर्द जनता का ही नहीं बल्कि समूचे कुर्द राष्ट्र का दमन होता है, और केवल कुर्द राष्ट्र का ही नहीं, बल्कि सभी अल्पसंख्यक राष्ट्रों का दमन होता है।”
केपकाया आगे लिखते हैं :
“केवल कुर्द जनता नहीं बल्कि समूचा कुर्द राष्ट्र इस राष्ट्रीय दमन के मातहत होता है, केवल बड़े ज़मीन्दारों और बेहद थोड़े बड़े पूँजीपतियों को छोड़कर। कुर्द मज़दूर, किसान, शहरी निम्न पूँजीपति वर्ग और साथ ही छोटे ज़मीन्दारों, सभी को राष्ट्रीय दमन का सामना करना पड़ता है।
“दरअसल, मूलभूत रूप में राष्ट्रीय दमन का असली निशाना अधीनस्थ और निर्भर राष्ट्र का पूँजीपति वर्ग होता है क्योंकि शासक राष्ट्रों के पूँजीपति और ज़मीन्दार देश की समूची सम्पदा और बाज़ार को बिना किसी चुनौती के हड़प लेना चाहते हैं। वे राज्य सत्ता को स्थापित करने का विशेषाधिकार अपने हाथों में रखना चाहते हैं। अन्य भाषाओं पर प्रतिबन्ध लगाकर, वे ‘भाषाओं की एकता’ लाना चाहते हैं, क्योंकि वह बाज़ार के लिए ज़रूरी होता है। दमित राष्ट्रीयता का पूँजीपति वर्ग और ज़मीन्दार वर्ग उनके इस मक़सद में एक महत्वपूर्ण बाधा होते हैं, क्योंकिे वे भी अपने बाज़ार पर अपना प्रभुत्व चाहते हैं और उसे नियंत्रित करना चाहते हैं और भौतिक सम्पदा और जनता के श्रम का ख़ुद शोषण करना चाहते हैं।
“ये वे शक्तिशाली आर्थिक कारक हैं जो दो राष्ट्रों के पूँजीपति और भूस्वामी वर्ग को एक दूसरे के विरुद्ध खड़ा कर देते हैं; यही कारण है कि शासक राष्ट्र के पूँजीपति व भूस्वामी वर्ग बिना रुके राष्ट्रीय दमन के अपने प्रयासों को जारी रखते हैं; इसी से यह सच्चाई सामने आती है कि राष्ट्रीय दमन का निशाना दमित राष्ट्र के पूँजीपति वर्ग और भूस्वामी वर्ग होते हैं।” (इब्राहिम केपकाया, 2014, ‘सेलेक्टेड वर्क्स’, निसान पब्लिशिंग, पृ. 106-7)
स्तालिन के इन शब्दों पर भी ग़ौर करें :
“दमित राष्ट्र का पूँजीपति वर्ग, जो कि हर अर्थ में दबाया गया है, वह नैसर्गिक तौर पर, आन्दोलन में कूद पड़ता है।”
स्तालिन ने यह भी बतालाया है कि जिन राष्ट्रों को भाषाई दमन का सामना करना पड़ता है, लेकिन वहाँ पर सामन्ती या औपनिवेशिक दमन अनुपस्थित है, वहाँ राष्ट्रीय आन्दोलन विकसित ही नहीं हो पाता है, और वह साइन बोर्डों की भाषा को लेकर छोटे-मोटे झगड़ों में तब्दील होकर रह जाता है, क्योंकि राष्ट्रीय दमन का सारतत्व किसान प्रश्न और/या औपनिवेशिकीकरण के प्रश्न से जुड़ा हुआ है। दोनों जुड़े हुए भी हैं क्योंकि साम्राज्यवादी देश अपने उपनिवेशों में कभी भी पूँजीवादी विकास को स्वस्थ तौर पर नहीं होने देता और वहाँ के दलाल पूँजीपति वर्ग और सामन्ती भूस्वामी वर्ग के साथ मिलकर वहाँ की अर्थव्यवस्था को अर्द्धसामन्ती बनाए रखता है क्योंकि यदि उपनिवेशों में स्वतंत्र पूँजीवादी विकास हुआ तो फिर वहाँ का पूँजीपति वर्ग बाज़ार पर अपने वर्चस्व के लिए राष्ट्रीय मुक्ति का झण्डा बुलन्द करता है, और जिस हद तक किसान व सर्वहारा वर्ग का राष्ट्रीय दमन होता है उस हद तक ये मेहनतकश वर्ग भी राष्ट्रीय आन्दोलन में शामिल होते हैं। स्तालिन के निम्न उद्धरण पर ग़ौर करें :
“सटीक तौर पर कहें तो संघर्ष पूरे के पूरे राष्ट्रों के बीच नहीं शुरू होता है, बल्कि प्रभुत्वशील देशों के शासक वर्ग और उन देशों के शासक वर्गों के बीच शुरू होता है जो कि पृष्ठभूमि में धकेल दिये गये हैं। यह संघर्ष आम तौर पर दमित राष्ट्रों के निम्न-पूँजीपति वर्ग और प्रभुत्वशाली राष्ट्रों के बड़े पूँजीपति वर्ग (चेक व जर्मन), या दमित राष्ट्रों के ग्रामीण पूँजीपति वर्ग और प्रभुत्वशाली राष्ट्रों के भूस्वामी वर्ग (पोलैण्ड में यूक्रेनी) के बीच होता है, या फिर दमित राष्ट्रों के समूचे ‘राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग’ और प्रभुत्वशाली राष्ट्रों के शासक कुलीन सामन्त वर्ग के बीच होता है (रूस में पोलैण्ड, लिथुआनिया और यूक्रेन)।”
आगे देखें, स्तालिन क्या कहते हैं :
“हर रूप में दबाया गया दमित राष्ट्र का पूँजीपति वर्ग नैसर्गिक तौर पर आन्दोलन में कूद पड़ता है। यह अपने ‘देशी लोगों’ से अपीलें करता है और ‘पितृभूमि’ के बारे में शोर मचाना शुरू कर देता है; यह दावा करते हुए कि उसका लक्ष्य ही पूरे राष्ट्र का लक्ष्य है। यह अपने ‘देशवासियों’ के बीच से…‘पितृभूमि’ के हितों में एक सेना खड़ी करता है। ‘लोग’ भी हमेशा उसकी अपीलों का जवाब न दें ऐसा नहीं होता; वे भी उसके झण्डे तले एकत्र होते हैं : ऊपर से दमन उन्हें भी प्रभावित करता है और उनके असन्तोष को भी बढ़ावा देता है।
“इस प्रकार राष्ट्रीय आन्दोलन शुरू होता है।
“राष्ट्रीय आन्दोलन की शक्ति इस बात से निर्धारित होती है कि राष्ट्र के व्यापक हिस्से, यानी कि मज़दूर और किसान वर्ग, किस हद तक इसमें हिस्सेदारी करते हैं।
“सर्वहारा वर्ग पूँजीवादी राष्ट्रवाद के झण्डे तले जाता है या नहीं यह वर्ग अन्तरविरोधों के विकास की मंज़िल पर, सर्वहारा वर्ग की वर्ग चेतना और उसके संगठन की मंज़िल पर निर्भर करता है। वर्ग-सचेत सर्वहारा का अपना परखा हुआ झण्डा है, और उसे पूँजीपति वर्ग के झण्डे तले जाने की कोई आवश्यकता नहीं है।
“जहाँ तक किसानों का प्रश्न है, तो राष्ट्रीय आन्दोलन में उनकी भागीदारी प्राथमिकतः दमनों के चरित्र पर निर्भर करती है। अगर दमन ‘ज़मीन’ को प्रभावित करते हैं, जैसा कि आयरलैण्ड में था, तो किसानों के व्यापक जनसमुदाय तत्काल राष्ट्रीय आन्दोलन के झण्डे तले गोलबन्द हो जाते हैं।”
आगे देखें :
“लेकिन, दूसरी ओर, मिसाल के तौर पर, जॉर्जिया में अगर कोई रूसी-विरोधी राष्ट्रवाद नहीं है तो इसका प्रमुख कारण यह है कि वहाँ कोई रूसी ज़मीन्दार वर्ग या रूसी बड़ा पूँजीपति वर्ग नहीं है जो कि जनसमुदायों के बीच इस राष्ट्रवाद को हवा दे सके। जॉर्जिया में, एक आर्मेनियाई-विरोधी राष्ट्रवाद है; लेकिन ऐसा इसलिए है क्योंकि अभी भी वहाँ एक आर्मेनियाई बड़ा पूँजीपति वर्ग है, जो छोटे और अभी भी सशक्त नहीं बने जॉर्जियाई पूँजीपति वर्ग पर अपनी वरीयता स्थापित करके उसे आर्मेनियाई-विरोधी राष्ट्रवाद की ओर धकेलता है।
“इन कारकों के आधार पर, राष्ट्रीय आन्दोलन या तो एक जन चरित्र अपनाता है और तेज़ी से बढ़ता है (जैसा कि आयरलैण्ड और गैलीशिया में हुआ) या फिर तुच्छ टकरावों में बदल जाता है, जो कि जल्द ही साइनबोर्डों को लेकर लड़ाइयों और ‘झगड़ों’ में बदल जाता है (जैसा कि बोहेमिया के छोटे शहरों में हुआ)” [कहना होगा कि ऐसा भारत में भी कुछ राज्यों में हुआ है, जैसा कि पंजाब में एक भूतपूर्व गैंगस्टर द्वारा साइनबोर्डों से हिन्दी मिटाने की मुहिम में देखा जा सकता है, हालाँकि कुछ राष्ट्रीय व भाषाई अस्मितावाद के शिकार “मार्क्सवादी” भी इसे “राष्ट्रीय भावनाओं की अभिव्यक्ति” मानते हैं! – लेखक] (स्तालिन, 1998, ‘मार्क्सवाद और राष्ट्रीय प्रश्न’, संकलित रचनाएँ, खण्ड-2, अंग्रेज़ी संस्करण, न्यू होराइज़न बुक्स, कोलकाता, पृ. 259-261)
इसी वजह से स्तालिन ने यह भी लिखा था, “यह ग़लती उसे (सेमिच को) एक और ग़लती की ओर ले जाती है, यानी इस बात से उसका इन्कार करना कि राष्ट्रीय प्रश्न अपने सार में वस्तुतः किसान प्रश्न ही है।” (स्तालिन, 1954, ‘यूगोस्लाविया में राष्ट्रीय प्रश्न के विषय में’, फ़ॉरेन लैंगुएजेज़ प्रेस, मॉस्को)
जो लोग समूचे राष्ट्रीय प्रश्न को ही शैक्षणिक और सांस्कृतिक मसलों पर सीमित कर देते हैं, स्तालिन ने उनकी भी कठोर आलोचना की है। यदि राष्ट्रीय दमन है, तो उसका समाधान राष्ट्रीय मुक्ति और राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति का कार्यक्रम ही कर सकता है। यदि कोई किसी राष्ट्रीयता को राष्ट्रीय दमन का शिकार मानता है, तो उसे उस राष्ट्रीयता के लिए राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति का ही सिद्धान्त देना होगा, न कि महज़ अपनी भाषा के स्कूलों का, सांस्कृतिक-भाषाई स्वायत्तता का। स्तालिन इसी सोच की आलोचना करते हुए लिखते हैं :
“बावर और रेनर जैसे ऑस्ट्रियाई सामाजिक-जनवादियों का मन्दबुद्धिपन इस तथ्य से ज़ाहिर होता है कि उन्हें राष्ट्रीय प्रश्न और सत्ता के प्रश्न के बीच का अविभाज्य सम्बन्ध नहीं समझ आता है, और इस तथ्य से कि वे राष्ट्रीय प्रश्न को राजनीति से अलग करने का प्रयास करते हैं और इसे सांस्कृतिक और शैक्षणिक प्रश्नों तक सीमित करने का प्रयास करते हैं और इस प्रक्रिया में वे साम्राज्यवाद और साम्राज्यवाद द्वारा ग़ुलाम बनाये गये उपनिवेशों जैसी ‘क्षुद्र बातों’ को भूल जाते हैं।” स्तालिन (‘अक्टूबर क्रान्ति और राष्ट्रीय प्रश्न’)
मैंने आपके सामने केपकाया और स्तालिन के ये लम्बे उद्धरण सिर्फ़ इसलिए पेश किये क्योंकि राष्ट्रीयता के प्रश्न और राष्ट्रीय दमन के अर्थ के विषय में ये मार्क्सवादी-लेनिनवादी अवस्थिति को इतने सटीक और सारगर्भित तरीक़े से पेश करते हैं, कि ज़्यादा कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन फिर भी कुछ बातें कहूँगा।
यदि आपके सामने कोई किसी भी राष्ट्रीयता के दमन के प्रश्न को रखता है, तो सर्वप्रथम यह सवाल उठाइए कि क्या (उस राष्ट्रीयता के बड़े दलाल पूँजीपति वर्ग और सामन्ती ज़मीन्दार वर्ग के अतिरिक्त) वह समूचा राष्ट्र किसी अन्य राष्ट्र के शासक वर्गों द्वारा दमन का शिकार है? इसे इस रूप में भी समझ सकते हैं कि भारत और ‘तीसरी दुनिया’ के कई देशों की जनता को साम्राज्यवादी देशों का इज़ारेदार पूँजीपति वर्ग लूटता है, लेकिन इसकी वजह से ही ‘तीसरी दुनिया’ के ये देश दमित राष्ट्रीयता या नवउपनिवेश या अर्द्धउपनिवेश नहीं बन जाते, क्योंकि इन देशों का पूँजीपति वर्ग साम्राज्यवादी देशों के इज़ारेदार पूँजीपति वर्ग द्वारा दमित-शोषित नहीं है, बल्कि उसका ‘जूनियर पार्टनर’ है। यदि महज़ आम जनता के शोषण-उत्पीड़न के आधार पर राष्ट्रीय दमन माना जायेगा, तो फिर तथाकथित ‘तीसरी दुनिया’ के कई देश राष्ट्रीय दमन के शिकार उपनिवेश या अर्द्धउपनिवेश माने जायेंगे, जो कि यथार्थ के बिल्कुल विपरीत होगा। इसलिए कोई राष्ट्र दमित है या नहीं इसका सबसे प्रमुख आधार यह है कि दमनकारी राष्ट्र के शासक वर्गों द्वारा उस समूचे राष्ट्र का दमन होता है, जिसमें कि पूँजीपति वर्ग भी शामिल है। केवल दलाल वर्ग इस दमन के दायरे से बाहर होते हैं, यानी कि बड़ा व्यापारिक व नौकरशाह दलाल पूँजीपति वर्ग और सामन्ती भूस्वामी वर्ग। यदि ऐसा नहीं है तो वहाँ भाषाई दमन की समस्या हो सकती है (जिसके अपने ऐतिहासिक कारण हो सकते हैं), या कोई अन्य समस्या हो सकती है, लेकिन वह राष्ट्रीय दमन नहीं कहा जा सकता है। राष्ट्रीय दमन होने पर भाषा का भी दमन होना लाज़िमी है। लेकिन भाषा का दमन हर मामले में अपने आप में राष्ट्रीय दमन नहीं होता है। भारत में मार्क्सवादी-लेनिनवादी आन्दोलन के भीतर कुछ राष्ट्रीय अस्मितावादी हैं, जो पंजाबी भाषा के साथ अन्याय के आधार पर पंजाबी राष्ट्रीयता को भी एक दमित राष्ट्रीयता क़रार देते हैं। वे अगर वाक़ई में अपने आपको मार्क्सवदी-लेनिनवादी मानते हैं तो उन्हें भी यही सवाल पूछना चाहिए कि क्या पंजाब में कोई दलाल पूँजीपति वर्ग और सामन्ती भूस्वामी वर्ग है, जिसे छोड़कर समूचा पंजाबी राष्ट्र (पूँजीपति वर्ग समेत) किसी अन्य राष्ट्र के शासक वर्ग द्वारा दमन का शिकार है? यानी, क्या पंजाब का पूँजीपति वर्ग राष्ट्रीय दमन का शिकार है? यदि हाँ, तो उसकी सही-सही पहचान की जानी चाहिए। इसके अलावा यह भी बताया जाना चाहिए कि दमनकारी राष्ट्र कौन है जिसके शासक वर्ग इस राष्ट्रीय दमन को अंजाम दे रहे हैं? इसके बिना, यदि कोई राष्ट्रीय दमन की बात करते हुए पंजाबी राष्ट्र को दमित राष्ट्रीयता क़रार देता है, तो फिर वह पूँजीवादी राष्ट्रवादी अवस्थिति से ही सम्भव है, सर्वहारा अवस्थिति से क़तई नहीं। ऐसे लोगों को स्तालिन व इब्राहिम केपकाया का राष्ट्रीय प्रश्न पर जो कार्य है, उसे अवश्य पढ़ लेना चाहिए।
दूसरी बात यह कहूँगा कि जिस आधार पर ऐसे लोग राष्ट्रीय दमन का दावा कर रहे हैं, उसके अनुसार, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तेलंगाना, तमिलनाडु, आदि सभी ग़ैर-हिन्दीभाषी प्रदेश राष्ट्रीय दमन का शिकार हैं। ऐसे में, इन सभी राष्ट्रों के समक्ष जो राजनीतिक चरण है, वह है राष्ट्रीय मुक्ति का, यानी राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति का और भारत में क्रान्ति का या तो कोई अर्थ नहीं होगा या यह अर्थ होगा कि भारत की क्रान्ति भी जनवादी होगी और इन सभी राष्ट्रीयताओं की राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति का योग होगी। यह कार्यदिशा बहुत तेज़ी से पार्टी के संघीय मॉडल और बुण्डवाद की तरफ़ जाती है। ऐसी ही बात भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन में एक समय में के. वेणु नामक एक व्यक्ति ने की थी। उनका राजनीतिक निर्वाण क्या हुआ, यह आप स्वयं ही सन्धान कर लें, हम कभी आगे उस पर विस्तार से लिखेंगे और मौजूदा अस्मितावादी रुझान से उसकी कुछ समानताओं की भी चर्चा करेंगे। ताज्जुब नहीं होगा कि आज जो लोग राष्ट्रीय व भाषाई अस्मितावादी विचलन के शिकार हैं, कल उनका हश्र भी वही हो। यह भी याद रखना चाहिए कि चोरी-छिपे कार्यदिशा को धीरे-धीरे बदलते जाने से कभी कोई विच्युति या विचलन दूर नहीं होता है, बल्कि नयी विच्युतियों और विचलनों को ही जन्म देता है, जो कालान्तर में क्रान्तिकारी मार्क्सवादी-लेनिनवादी अवस्थिति से प्रस्थान में भी तब्दील हो जाती है।
यह भी याद रखना ज़रूरी है, जैसा कि लेनिन ने कहा भी था, कि किसी बहुराष्ट्रीय देश में आम तौर पर सबसे बड़े भाषाई समुदाय की भाषा आर्थिक और ऐतिहासिक कारणों से सम्पर्क भाषा बन जाती है, बशर्ते कि राज्यसत्ता उसे थोपने का प्रयास न करे। जहाँ एक ओर हमें कहीं भी और किसी भी नागरिक पर किसी भी राज्य में कोई भी भाषा थोपने का विरोध करना चाहिए, वहीं हमें उस नैसर्गिक ऐतिहासिक प्रक्रिया का भी प्रतिक्रियावादी तरीक़े से विरोध नहीं करना चाहिए, जहाँ बिना किसी दबाव के कोई भाषा या चन्द भाषाएँ सम्पर्क भाषा के रूप में उभरें। लेनिन ने स्वयं बताया था कि किसी भी बहुराष्ट्रीय देश में आम तौर पर बहुसंख्यक भाषाई समुदाय की भाषा का पूँजीवादी विकास के साथ ही एक सम्पर्क भाषा के तौर पर उभरना एक नैसर्गिक ऐतिहासिक प्रक्रिया होती है। यदि राज्यसत्ता द्वारा इसे ज़बरन सम्पर्क भाषा बनाया जाये तो क़तई इसका विरोध किया जाना चाहिए। दूसरे, इस प्रकार थोपे जाने से इस भाषा का ही नुक़सान होता है, जैसा कि लेनिन ने रूसी भाषा के सन्दर्भ में दिखलाया भी। लेनिन ने दिखलाया कि यदि रूसी भाषा को थोपा नहीं जाता तो यह नैसर्गिक तौर पर समूचे रूसी बहुराष्ट्रीय राज्य में एक सम्पर्क भाषा के तौर पर उभरती और यदि स्विट्ज़रलैण्ड के समान ही वहाँ एक जनवादी राजनीतिक व्यवस्था होती तो यह अन्य भाषाओं के दमन या उनके पिछड़ने का कारण भी नहीं बनता। यदि ऐसे किसी राज्य में बिना किसी दबाव के कोई भाषा सम्पर्क भाषा के तौर पर उभरती है, तो इस स्वाभाविक ऐतिहासिक प्रक्रिया का विरोध करना ग़लत और प्रतिक्रियावादी है। यह कम्युनिस्टों का काम नहीं है। भारत में हमें हर प्रान्त में उस प्रान्त के बहुसंख्यक भाषाई समुदाय की भाषा में पढ़ने-लिखने व सरकारी कार्रवाई के उस समुदाय के अधिकार के लिए भी संघर्ष करना चाहिए और साथ ही उस प्रान्त में रहने वाले (प्रवासियों समेत) सभी लोगों पर बहुसंख्यक भाषाई समुदाय की भाषा को थोपे जाने का भी क़तई विरोध करना चाहिए। लेकिन हमारे भाषाई अस्मितावाद के शिकार साथी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के राज ठाकरे के पदचिह्नों पर चलते हुए यह भी कह रहे हैं कि प्रवासियों को उस राज्य के बहुसंख्यक भाषाई समुदाय की भाषा सिखायी जानी चाहिए, इस भाषा को सभी के लिए शिक्षा का बाध्यताकारी माध्यम बना दिया जाना चाहिए और इसे राज्य में रोज़गार की पूर्वशर्त बना दिया जाना चाहिए। ये सारी माँगे सर्वहारा-विरोधी और टटपुँजिया राष्ट्रवादी माँगें हैं। हमें हर प्रान्त में हरेक नागरिक के लिए उसकी मातृभाषा या उसकी पसन्द की भाषा में पढ़ने-लिखने व सरकारी कार्रवाई के हक़ के लिए संघर्ष करना चाहिए। कोई अगर इसे अव्यावहारिक मानता है, तो एक बार देख लेते हैं कि लेनिन इस विषय में क्या कहते हैं :
“लेकिन हमसे पूछा जा सकता है कि सेण्ट पीटर्सबर्ग में 48,076 स्कूली बच्चों में एक जॉर्जियन बच्चे के हितों को समान अधिकारों के आधार पर सुरक्षित किया जाना क्या सम्भव है? और हमें जवाब देना चाहिए कि जॉर्जियाई ‘राष्ट्रीय संस्कृति’ के आधार पर सेण्ट पीटर्सबर्ग में एक विशेष जॉर्जियाई स्कूल की स्थापना करना असम्भव है, और यह कि ऐसी योजनाओं की वकालत करना जनता के बीच ज़हरीले विचारों के बीज बोने के समान है।
“लेकिन हम किसी नुक़सानदेह चीज़ का बचाव नहीं कर रहे होंगे, या किसी असम्भव चीज़ के लिए संघर्ष नहीं कर रहे होंगे, अगर हम यह माँग करते हैं कि उस बच्चे को उसी सरकारी स्कूल में ही जॉर्जियाई भाषा, जॉर्जियाई इतिहास, आदि पर व्याख्यान मिलने चाहिए, कि उसे केन्द्रीय पुस्तकालय से जॉर्जियाई पुस्तकें मिलने का प्रावधान होना चाहिए, और यह कि राज्यसत्ता को एक जॉर्जियाई शिक्षक रखने के लिए योगदान देना चाहिए, वग़ैरह।…यह वास्तविक जनवाद तभी हासिल हो सकता है, जबकि सभी राष्ट्रीयताओं के मज़दूर एकजुट हों।” (लेनिन, ‘रूसी स्कूलों में विद्यार्थियों की राष्ट्रीयता’)
यानी महाराष्ट्र में कन्नड़ छात्रों के लिए सरकारी स्कूलों में कन्नड़ शिक्षक, बिहार, यूपी, मध्यप्रदेश के छात्रों के लिए हिन्दी शिक्षक, पंजाब में यूपी, बिहार, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ के बच्चों के लिए हिन्दी शिक्षक, उड़ीसा के बच्चों के लिए उड़िया शिक्षक मुहैया कराने की माँग एक सही सर्वहारा माँग है, न कि इन बच्चों पर मराठी या पंजाबी थोप देने (“सिखाने”) की माँग। इन प्रदेशों में इन बच्चों का जीवन, उनका आर्थिक-राजनीतिक क्रिया-व्यापार यदि उनसे यह माँग करेगा कि वे मराठी या पंजाबी सीखें, तो वे बिना किसी बाध्यताकारी नियम या दबाव के ये भाषाएँ सीखेंगे, जैसा कि लेनिन ने बताया था। अब आप स्वयं राष्ट्रीय व भाषाई अस्मितावादियों द्वारा इस प्रश्न पर अपनायी जा रही अवस्थिति से लेनिन की अवस्थिति की तुलना कर सकते हैं। इन राष्ट्रीय व भाषाई अस्मितावाद के विचलन के शिकार साथियों की अवस्थिति को जानने के लिए आप यह लिंक देख सकते हैं जिसमें हमने उनकी समूची अवस्थिति को सप्रमाण प्रस्तुत किया है : https://www.facebook.com/notes/3314490178567267 और https://www.facebook.com/notes/3325215700828048/.
तीसरी बात, ऐसे लोग यह भी कह रहे हैं कि उत्तर-पूर्व के राज्यों में एनआरसी का समर्थन और नागरिकता संशोधन क़ानून का विरोध वहाँ की “राष्ट्रीय अस्मिता को ख़तरे” और “राष्ट्रीय दमन” के कारण हो रहा है। इसके बारे में भी ठीक ऊपर दिये गये लिंक में आपको सन्दर्भ मिल जायेगा और ऐसा वे अपनी पत्र-पत्रिकाओं में लिख भी रहे हैं। या तो इन लोगों ने उत्तर-पूर्व के राज्यों का इतिहास ढंग से नहीं पढ़ा है, या फिर वे अपनी राष्ट्रीय कट्टरतावादी कार्यदिशा को वैध ठहराने के लिए हवा में तीर चला रहे हैं। ये दोनों ही मसले क्या हैं, इन्हें ठीक से समझ लेना चाहिए। पहली बात तो यह है कि नागरिकता संशोधन क़ानून का विरोध पूरे देश में हो रहा है, और असम समेत उत्तर-पूर्व के भी कई राज्यों में हो रहा है। लेकिन पूर्वोत्तर के तमाम राज्यों में इस विरोध के दो हिस्से हैं। एक हिस्सा तो वह है जो कि सही कारणों के लिए सीएए का विरोध कर रहा है। यानी कि वह हिस्सा जिसका मानना है कि किसी भी सेक्युलर राज्य को नागरिकता देने के लिए किसी भी धर्म को आधार नहीं बनाना चाहिए और पीड़ित व उत्पीड़ित लोगों को, यदि वे पनाह माँगें तो मानवतावादी आधार पर नागरिकता व पनाह देनी चाहिए, जैसाकि कई यूरोपीय देशों, ऑस्ट्रेलिया वग़ैरह में है भी। हर देश में कम्युनिस्टों को अन्तरराष्ट्रीयतावादी, जनवादी और सेक्युलर मानकों से ऐसे किसी भी नागरिकता क़ानून का समर्थन करना चाहिए जो कि हर प्रकार के सताए गये और पीड़ित लोगों को अपने देश में आने की आज्ञा देता है, उन्हें पनाह देता है और उन्हें नागरिकता देता है। यह क़तई सही माँग है। सीएए की हमारी मुख़ालफ़त इस बात पर निर्भर नहीं करती है कि बाहरी लोगों को नागरिकता क्यों दी जा रही है (जैसा कि असम व कुछ पूर्वोत्तर राज्यों के कट्टरपन्थी व प्रवासी-विरोधी अन्धराष्ट्रवादी कर रहे हैं), बल्कि इस आधार पर निर्भर करती है कि नागरिकता देने में धर्म के आधार पर या नस्ल के आधार पर या किसी भी क़िस्म की फ़िरकापरस्ती के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए। जिन कम्युनिस्टों को इतनी सीधी सी बात समझ में नहीं आती है, उन्हें कम्युनिज़्म के सिद्धान्त तो पढ़ने की बुरी तरह से दरकार है ही, साथ ही उन्हें जनवाद और मानवतावाद के भी बुनियादी सिद्धान्तों में अपना प्रशिक्षण करने की आवश्यकता है। यहीं से हम दूसरे प्रकार के कट्टरपन्थी अन्धराष्ट्रवादियों पर आते हैं। दूसरा हिस्सा वह है जो कि इन राज्यों के राष्ट्रीय आन्दोलन में सक्रिय कट्टरतावादी (chauvinist) और प्रवासी-विरोधी (xenophobic) हिस्सा है। इस बाद वाले धड़े का सीएए-विरोध इस चीज़ पर टिका हुआ है कि इस क़ानून के द्वारा हिन्दू प्रवासियों को नागरिकता देने से असम व कुछ अन्य पूर्वोत्तर राज्यों की राष्ट्रीय अस्मिता ख़तरे में पड़ जायेगी और वहाँ के संसाधनों पर ज़्यादा दबाव पड़ जायेगा। इस पूरे अतार्किक आधार पर साथी आनन्द सिंह ने एक बहुत ही अच्छा लेख लिखा है, जिसे आप ‘आह्वान’ के मौजूदा अंक में पृष्ठ सं. 80 पर पढ़ सकते हैं। इसी प्रकार, एनआरसी का इस राष्ट्रवादी कट्टरपन्थी धड़े द्वारा समर्थन भी इसी आधार पर टिका है कि इसके ज़रिये सभी “ग़ैर-क़ानूनी प्रवासियों” की पहचान करके उन्हें बाहर किया जा सकेगा। पूर्वोत्तर में मौजूद इन कट्टरपन्थी व प्रवासी-विरोधी तत्वों द्वारा सीएए का एक ग़लत आधार पर विरोध और एनआरसी का समर्थन समझा जा सकता है, हालाँकि जिन लोगों ने आल असम स्टूडेण्ट्स यूनियन की शुरुआत की थी और एनआरसी की सर्वप्रथम माँग की थी, वे भी आज इस बात को समझ रहे हैं कि यह माँग ही ग़लत थी और दुश्मन प्रवासी नहीं हैं, बल्कि भारतीय राज्यसत्ता और पूँजीवादी तंत्र है। लेकिन मार्क्सवादी-लेनिनवादी आन्दोलन के भीतर भी कुछ राष्ट्रीय कट्टरपन्थ के शिकार तत्व हैं, जिन्हें पूर्वोत्तर के कट्टरपन्थी राष्ट्रवादियों से हमदर्दी महसूस होती है, क्योंकि उन्हें अपने राष्ट्रीय कट्टरपन्थ और भाषाई अस्मितावाद को सही ठहराना है। बस दिक़्क़त यह है कि राष्ट्रीय अस्मितावाद और कट्टरपन्थ की दुनिया में आने में उन्होंने काफ़ी देर कर दी, यहाँ पहले से ही काफ़ी भसड़ है! असम में सीएए के विरोध और एनआरसी के समर्थन के पीछे वहाँ के आन्दोलन में मौजूद एक कट्टरपन्थी और प्रवासी-विरोधी धड़े पर मैं साथी आनन्द के लेख को पढ़ने का आग्रह करूँगा। (पृष्ठ सं. 80)
आख़िरी बात हम लेनिन के कुछ विचारों के साथ कहेंगे। लेनिन ने सबसे पहले यह सवाल पूछा कि कम्युनिस्टों को किन सूरतों में राष्ट्रीय आन्दोलन में शामिल होना चाहिए और उन्हें नेतृत्व देना चाहिए। इसका पहला जवाब तो यही था कि जब वास्तव में उपरोक्त पैमानों पर राष्ट्रीय दमन हो रहा हो। और दूसरा जवाब यह था कि जहाँ कहीं जनसमुदाय राष्ट्रीय दमन के विरुद्ध अपनी मुक्ति के लिए संघर्ष नहीं कर रहे हैं, यानी कि जहाँ सम्पूर्ण अर्थों में राष्ट्रीय दमन है ही नहीं, वहाँ पर राष्ट्रीय आन्दोलन की स्थापना करना और राष्ट्रीय भावनाएँ जगाना कम्युनिस्टों का काम नहीं है। लेनिन लिखते हैं कि पहली बात तो यह कि राष्ट्रीय दमन के विरुद्ध केवल राष्ट्रीय मुक्ति व राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति का कार्यक्रम ही वाजिब है न कि भाषाई, शैक्षणिक व सांस्कृतिक स्वायत्तता का कार्यक्रम, जैसा कि हमारे देश के राष्ट्रीय व भाषाई अस्मितावादी विचलन के शिकार कुछ साथी कह रहे हैं। लेनिन जो दूसरी बात कहते हैं, वह यह है, जिस पर ख़ास तौर पर ग़ौर करने की आवश्यकता है :
“(आत्मनिर्णय का) हमारा कार्यक्रम केवल उन मामलों पर लागू होता है, जहाँ (अलग होने के लिए) ऐसा एक आन्दोलन अस्तित्वमान है।” (लेनिन, ‘राष्ट्रों के आत्मनिर्णय का अधिकार’)
लेनिन ने यहाँ एक बेहद अहम बात कही है जिस पर बहुत क़रीबी से ग़ौर किये जाने की ज़रूरत है। कम्युनिस्ट राष्ट्रवादी नहीं होते हैं, बल्कि वे दमित राष्ट्रीयता की राष्ट्रीय मुक्ति के समर्थक होते हैं, उसके लिए लड़ते हैं और उस लड़ाई को सर्वहारा नेतृत्व देने का प्रयास करते हैं। यदि कहीं पर सही मायने में राष्ट्रीय दमन है ही नहीं, तो भी, विशेष तौर पर एक बहुराष्ट्रीय देश में तमाम राष्ट्रों के टटपुँजिया वर्गों की राजनीति का एक हिस्सा होता है, जो कि राष्ट्रीय दमन की बात करता रहता है। सही मायने में राष्ट्रीय दमन क्या है, इसके बारे में हम ऊपर स्तालिन और केपकाया के विचारों के ज़रिये अपनी बात कह चुके हैं। कई बार कई कम्युनिस्ट शक्तियाँ भी इस प्रकार की टटपुँजिया राष्ट्रवादी राजनीति के असर में आ जाती हैं। यदि कहीं सही मायने में राष्ट्रीय दमन नहीं है और जनता के व्यापक जनसमुदाय किसी राष्ट्रीय मुक्ति के संघर्ष में आन्दोलित ही नहीं हैं, तो यह कम्युनिस्टों का कार्य नहीं होता है कि वह “राष्ट्रीय भावनाएँ” जगायें। लेनिन की उपरोक्त पूरी रचना ही पढ़ने योग्य है। इससे राष्ट्रीय प्रश्न पर बहुत से भ्रम दूर हो जाते हैं।
अन्त में, यही कहना चाहिए कि यदि कोई राष्ट्रीय दमन का मसला उठाता है, तो उसे उपरोक्त पैमानों पर जाँचा जाना चाहिए। क्या किसी राष्ट्रीयता का पूँजीपति वर्ग और उसके समेत समूची राष्ट्रीयता दमित है? यदि नहीं, तो वह राष्ट्र दमित राष्ट्र नहीं है। बेशक, उस राष्ट्र की भाषा के सामने दमन या संकट की स्थिति हो सकती है और कम्युनिस्ट उसके विरुद्ध भाषाई समानता के लिए संघर्ष भी करेंगे, लेकिन वह राष्ट्रीय दमन नहीं होता है। लेकिन भाषा के प्रश्न पर भी संघर्ष अस्मितावादी और कट्टरतावादी ज़मीन से होगा तो यह मज़दूर वर्ग की एकजुटता (जो वास्तव में एक तथ्य हो सकती है, या फिर एक सम्भावना सम्पन्नता, लेकिन इससे हमारे तर्क पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है) को ही नुक़सान पहुँचायेगा, जैसा कि हमारे देश में राष्ट्रीय व भाषाई अस्मितावाद के शिकार कुछ मार्क्सवादियों-लेनिनवादियों की कार्यदिशा से होने का पूरा ख़तरा मौजूद है। दूसरी बात, यदि हम किसी राष्ट्रीयता के दमन की बात कर रहे हैं तो हमें दूसरी बात यह भी बतानी पड़ेगी कि किस राष्ट्र के शासक वर्ग इस राष्ट्रीय दमन को अंजाम दे रहे हैं। तीसरी बात, भाषा के प्रश्न पर और भाषाई दमन के प्रश्न पर सही मार्क्सवादी अवस्थिति का अर्थ क्या है। इन्हीं तीन प्रश्नों पर मैंने संक्षेप में यहाँ क्रान्तिकारी मार्क्सवाद-लेनिनवाद की अवस्थिति को स्तालिन, केपकाया और लेनिन के विचारों की मदद से पेश किया है। आगे जल्दी ही भारत में राष्ट्रीय प्रश्न पर और भाषा के प्रश्न पर विस्तृत शोध निबन्ध के साथ अपनी बात रखूँगा, हालाँकि ‘आह्वान’ के मौजूदा अंक में उस अवस्थिति के कई नुक़्ते कुछ आलोचनात्मक निबन्धों में भी मौजूद हैं।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,मार्च-अप्रैल 2020
'आह्वान' की सदस्यता लें!
आर्थिक सहयोग भी करें!