आदिविद्रोही : आजादी और स्‍वाभिमान के संघर्ष की गौरव-गाथा

शीलभद्र

“यह किताब मेरी बेटी राशेल और मेरे बेटे जानथन के लिए है । यह बहादुर मर्दों और औरतों की कहानी है जो बहुत पहले रहा करते थे और जिनके नाम लोग कभी नहीं भूले । इस कहानी के नायक आजादी को, मनुष्‍य के स्वाभिमान को दुनिया की सब चीजों से ज्यादा प्यार करते थे और अपनी जिन्दगी को अच्छी तरह जिया, जैसे कि उसे जीना चाहिए – हिम्‍मत के साथ, आन-बान के साथ। मैंने यह कहानी इसलिए लिखी कि मेरे बच्‍चे और दूसरों के, जो भी इसे पढ़ें, हमारे अपने उद्विग्न भविष्य के लिए इससे ताकत पायें और अन्याय और अत्याचार के खिलाफ लड़ें, ताकि स्‍पार्टकस का सपना हमारे समय में सच हो सके ।” फास्ट ने ‘आदिविद्रोही’ के समर्पण में यही शब्‍द लिखे थे और यह संदेश है इस अमर कृति का अपने पाठकों के लिए।

आदिविद्रोही अर्थात प्रथम विद्रोही अर्थात वर्तमान युग और आने वाले तमाम युगों के विद्रोहियों का पुरखा अर्थात हमारा पुरखा। कौन था हमारा पुरखा? इतिहास के किस युग में वह पैदा हुआ? उसका जीवन कैसा था? वह समाज कैसा था जिसमें वह पला, बड़ा हुआ और संघर्ष किया? और तमाम दुनिया के मेहनतकश जो अपनी दो पीढ़ियों से पहले का नाम तक नहीं जानते, उस पुरखे को किस कारण जानते हैं और याद करते हैं और उसकी स्‍मृतियों को संजोये रखते हैं और उससे जीने और खूबसूरती से जीने और संघर्ष करने की प्रेरणा पाते हैं?

वह पुरखा था स्पार्टकस और उसी की कहानी को कहा है हावर्ड फास्‍ट ने । इतिहास जिसका प्रिय विषय है, अपने देश का इतिहास, अपनी जाति का इतिहास, और इतिहास उस अर्थ में नहीं जिस अर्थ में राजा-रानी की प्रणय कथा इतिहास होती है या लड़ाई में किसी राजा की हार-जीत इतिहास होती है या राजमहल में चलनेवाले षड्यंत्र इतिहास होते हैं, बल्कि इतिहास वह जो अपना स्रोत कोटि-कोटि साधारण जनों की क्रिया-शक्ति में पाता है, जिसकी दृष्टि राजा से अधिक प्रजा पर होती है और जो उन सामाजिक शक्तियों को समझने का प्रयत्न करता है जिनके अन्तरसंघर्ष से जीवन में प्रगति होती है। हावर्ड फास्ट के पास ऐसी ही तीक्ष्ण ऐतिहासिक दृष्टि है – और व्यापक भी, जो स्थान-काल किसी का भेद नहीं मानती, जिसके लिए दुनिया एक और अखंड है और यह सब भौगोलिक और राजनीतिक सीमाएं झूठी हैं और समय एक निरन्तर बहती हुई नदी है जिसमें भूत-भविष्य-वर्तमान नाम के कालखण्ड केवल अपने समझने की सुविधा के लिए बनाये गये हैं।

ऐसे एक और अखंड जगत में एक और अविच्छिन्न काल प्रवाह में वह प्राणी रहता है जिसका नाम मनुष्य है, जो सर्वसहा, मूर्त क्षमा पृथ्वी का पुत्र है, तेजः पुंज, दृढ़वती, धीमान, सत्याश्रयी, अक्रोधी, अशेष धैर्यवान है जो सब जानता है, सब समझता है, सब सहता है और सीमा का अतिक्रमण होने पर फिर एक रोज फूट पड़ता है। उसी को भूकम्प कहते हैं।

ऐसे ही भूकम्पों की, विद्रोहों की कहानी है स्पार्टकस की कहानी । जीवन उसके लिये न्याय के संघर्ष की गाथा है। और जहां भी न्याय के लिए संघर्ष होता है, स्पार्टकस का लहू गिरता है, कोई भी देश हो कोई भी काल हो। ईसा से 73 वर्ष पूर्व के रोम का वह एक गुलाम था, उस रोम का गुलाम जहां गुलामी की प्रथा अपने शिखर पर थी और लाखों गुलामों में से एक उस गुलाम ने उस पाशविक प्रथा को चुनौती देने का साहस और विवेक और अपने आप में पाया था।

आदिविद्रोही मानव सभ्यता के इतिहास में उस युग की कहानी है जिसे दास युग के नाम से जाना जाता है। मानव अपनी आदिम अवस्था से आगे बढ़ चुका था। समाज वर्गों में विभाजित हो चुका था। बहुसंख्यक शोषित जनसमुदाय पर अंकुश रखने हेतु राज्य व्यवस्थित रूप ले चुका था। उत्पादन में वृद्धि के साथ-साथ उत्पादन के कार्यों में मानव श्रम की बढ़ती हुई भूमिका के फलस्वरूप पहले के आपसी कबीलाई युद्धों में जहां पराजित शत्रुओं को मार दिया जाता था वहां अब उन्हें गुलाम बना लिया जाने लगा था। इसके साथ ही निरन्तर बढ़ते हुए करों से बदहाल छोटे-छोटे कृषक अपनी खेती योग्य जमीन के टुकड़ों से बेदखल हो गुलामों में तब्दील हो रहे थे और जमीन के छोटे-छोटे टुकड़ों पर हजारों-हजार एकड़ की जागीरें खड़ी होती जा रही थीं। इन जागीरों में सैकड़ों-हजारों की संख्या में गुलाम काम करते थे और जानवरों से भी बदतर जीवन बिताते थे।

गुलाम समाज का सर्वोच्च रूप तत्कालीन रोम था और रोम एक साम्राज्य था, गणतंत्र था। गणतंत्र यानी राज्य व्यवस्था का प्रबन्ध चुने हुए प्रतिनिधियों के हाथ में था यानी राज्य व्यवस्था बहुत कुछ वर्तमान युग की जनतांत्रिक प्रणाली जैसी थी- एक महत्वपूर्ण अन्तर था, तत्कालीन समाज के गुलामों का नागरिक अधिकारों से ही नहीं सामान्य मानवीय अधिकारों से भी वंचित होना। यह गणतन्त्र कैसा होता है इस हकीकत को आदिविद्रोही का एक पात्र सिनेटर ग्रैकस अत्यन्त साफगोई के साथ व्यक्त करता है। उसी के शब्दों में, “…देखो हम लोग एक गणतंत्र में रहते हैं। इसका मतलब है कि बहुत से लोग ऐसे हैं जिनके पास कुछ भी नहीं है और मुठ्ठी भर लोग ऐसे हैं जिनके पास बहुत कुछ है।… वे लोग जिनके पास बहुत कुछ है उनको अपनी सम्पत्ति की रक्षा करनी होती है और इसलिए वे जिनके पास | कुछ भी नहीं है उनको तुम्हारे और मेरे और हमारे अच्छे मेजबान ऐण्टोनियस की सम्पत्ति के लिए जान देने को तैयार रहना चाहिए। गुलाम हमको पसन्द नहीं करते इसलिए गुलाम हमारी रक्षा गुलामों से नहीं कर सकते इसलिए बहुत से लोग जिनके पास गुलाम नहीं हैं उनको हमारे लिये जान देने को तैयार रहना चाहिए ताकि हम अपने गुलाम रख सकें। रोम के पास ढाई लाख सैनिक हैं। इन सैनिकों को विदेशों में जाने के लिए तैयार रहना चाहिए कि मार्च करते-करते इनके पैर घिस जायें, कि वे गन्दगी में और गलाजत में रहें, कि वे खून में लोट लगायें-ताकि हम सुरक्षित रहें, आराम से जिन्दगी बितायें और अपनी व्यक्तिगत सम्पत्ति को बढ़ायें। जब ये सैनिक स्पार्टकस से लड़ने गए तो इनके पास ऐसी कोई चीज न थी जिसकी कि वे रक्षा करते जैसी कि गुलामों के पास थी।… वे किसान जो गुलामों से लड़ते हुए मारे गये, सेना में उनके होने का सबसे पहला कारण यह है कि जागीरदारों ने उनको उनके खेतों से खदेड़ दिया है। गुलामों को लेकर जो बड़ी-बड़ी जागीरें चलती थीं, जिनमें बड़े पैमाने पर खेती होती थी उन्होंने उन किसानों को एकदम भिखमंगा बना दिया है, ऐसा भिखमंगा जिसके पास जमीन का एक टुकड़ा भी नहीं, और मजा यह है कि इन्हीं जागीरों की हिफाजत के लिए वे किसान जान देते हैं। सच बात तो यह है कि उन गुलामों को (यदि वे विजयी होते हैं) हमारे इस रोमन सैनिक की बड़ी सख्त जरूरत होगी क्योंकि जमीन जुताई के लिए गुलाम खुद काफी न होंगे। जमीन इतनी काफी होगी कि सबको पूरी पड़ जाय। मगर तब भी वह अपने ही सपनों को नष्ट करने के लिए लड़ने को चला जाता है। किसलिए?” हां किस लिए?

इस गणतंत्र में स्वयं अपने जैसे लोगों की भूमिका बताते हुए ग्रैकस एक बार पुनः बेलाग तरीके से अपनी बात कहता है, “…राजनीतिज्ञ ही इस उलटे-सीधे मकान को खड़ा रखनेवाला सीमेण्ट हैं। उच्चवंशों वाले स्वयं इस काम को नहीं कर सकते। पहली बात तो यह कि उनका सोचने का ढंग तुम्हारे जैसा है और रोम के नागरिकों को यह बात पसन्द नहीं है कि कोई उनको, भेड़-बकरी कहे। भेड़-बकरी वे नहीं हैं – जैसा कि एक न एक दिन तुम्हारी समझ में आयेगा। दूसरी बात यह कि इस उच्चवंशीय व्यक्ति को इस साधारण नागरिक के बारे में कुछ भी नहीं मालूम। अगर यह चीज बिलकुल उसी पर छोड़ दी जाये तो यह ढांचा एक दिन में भहरा पड़े। इसलिए वह मेरे जैसे लोगों के पास आता है। वह हमारे बिना जिंदा नहीं रह सकता। जो चीज नितान्त असंगत है हम उसके अन्दर संगति पैदा करते हैं। हम लोगों को यह बात समझा देते हैं कि जीवन की सबसे बड़ी सार्थकता अमीरों के लिए मरने में है। हम अमीरों को समझा देते हैं कि उन्हें अपनी दौलत का कुछ हिस्सा छोड़ देना चाहिए ताकि बाकी को वे अपने पास रख सकें। हम जादूगर हैं। हम भ्रम की चादर फैला देते हैं। और वह ऐसा भ्रम होता है जिससे कोई बच नहीं सकता। हम लोगों से कहते हैं, जनता से कहते हैं- तुम्हीं शक्ति हो। तुम्हारा वोट ही रोम की शक्ति और कीर्ति का स्रोत है। सारे संसार में केवल तुम्हीं स्वतंत्र हो। तुम्हारी स्वतंत्रता से बढ़कर मूल्यवान कोई भी चीज नहीं है, तुम्हारी सभ्यता से अधिक प्रशंसनीय कुछ भी नहीं है। और तुम्हीं उसका नियंत्रण करते हो, तुम्हीं शक्ति हो, तुम्हीं सत्ता हो। और तब वे हमारे उम्मीदवारों के लिए वोट देते हैं। वे हमारी हार पर आंसू बहाते हैं, हमारी जीत पर खुशी से हँसते हैं और अपने ऊपर गर्व अनुभव करते हैं और अपने को दूसरों से बढ़ा-चढ़ा समझते हैं, क्योंकि वे गुलाम नहीं हैं। चाहे उनकी हालत कितनी ही नीचे गिरी हुई क्यों न हो, चाहे वे नालियों में ही क्यों न सोते हों, चाहे वे तलवार के खेल और घुड़दौड़ के मैदानों में सारे-सारे दिन लकड़ी की सस्ती-सस्ती सीटों पर ही क्यों न बैठे रहते हों, चाहे वे अपने बच्चों के पैदा होते ही उनका गला क्यों न घोंट देते हों, चाहे उनकी बसर खैरात पर ही क्यों न होती हो… । और, सिसेरो यह मेरी विशेष कला है। राजनीति को कभी तुच्छ न समझना।”

उबाऊ हो जाने का खतरा उठाते हुए भी इतना लम्बा उद्धरण देने का हमारा उद्देश्य यही था कि हमारा पाठक निर्वाचित प्रतिनिधियों की व्यवस्था को उसके ‘सही’ रूप में देख पाये और वर्तमान परिस्थितियों से मिलान कर सके। अब हम उपन्यास की मुख्य कथावस्तु का जिक्र करेंगे।

आदिविद्रोही की कथावस्तु को यदि संक्षेप में कहा जाय तो दिखाई देता है कि ईसा पूर्व रोम के गुलाम समाज में जारी वर्ग संघर्ष, जिसमें परस्पर विरोधी वर्ग आपस में टकराते हैं, क्रिया-प्रतिक्रिया की प्रक्रिया के जरिये इतिहास को त्वरान्वित करते हैं, समग्रता में अत्यन्त तीखे रूप में इस उपन्यास की अन्तर्वस्तु हैं। भिन्न-भिन्न वर्गों के भिन्न-भिन्न प्रतिनिधि हैं जो अपने-अपने वर्गों की तमाम अभिलाक्षणिक विशिष्टताओं के साथ रंगमंच पर उपस्थित होते हैं और अपनी वर्गीय घृणा, क्रोध, प्रेम, पीड़ा, आशा, निराशा जैसी स्वाभाविक मानवीय भावनाओं द्वारा पाठक को उद्वेलित करते हैं। गुलामों के प्रतिनिधि के रूप में जहां एक ओर स्पार्टकस, डेविड, क्रिक्सस, गैनिकस और वारिनिया जैसे पात्र हैं, वहां गुलामों के रस-रक्त पर खड़ी ऐशगाहों के स्वामी वर्ग का प्रतिनिधित्व क्रेसस, एण्टोनियस, केयस और एक दूसरे स्तर पर ग्रैकस और सिसेरो जैसे पात्रों के जरिये होता है। इस उपन्यास की सर्वाधिक सशक्त उपलब्धि यही है कि वर्ग समाज का मानव जैसा है वैसा वह सशरीर इस कृति में उपस्थित है–वह न देवता है और न ही राक्षस । वह मात्र अपनी वर्गीय विशिष्टताओं का प्रतिनिधि माना है। इसीलिए जहां पाठक, एक ओर उपन्यास के केन्द्रीय पात्रों को आशा, निराशा, घृणा, प्रेम, क्रोध, पीड़ा का एहसास करता है, संवेदना के स्तर पर उपन्यास के पत्र के साथ जीता है, वहीं इसके लिए दोषी कोई इंसान नहीं है-एक समूची व्‍यवस्था है जो अमानवीय है, पाशविक है, बर्बर है। समूचा आक्रोश उसी दस्था के विरुद्ध पैदा होता है।

उपन्यास का आरम्भ उस समय होता है जब वह समूचा घटनाचक्र, जो इसकी मुख्य कथावस्तु है, घट चुका है उपन्यास के अधिकांश भाग फ्लैशबैक में है और ऐसे पात्रों के द्वारा, जो घटनाक्रम के प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष साक्षी रह चुके हैं, घटनाचक्र पाठक तक पहुंचता है। गुलामों के प्रचण्ड क्रोध का प्रथम सागर-ज्वार अब तक दबाया जा चुका है । इस महान यज्ञ में हजारों गुलाम अपने को होम कर चुके हैं और उनमें से छ: हजार चार सौ बहत्तर रोम से कापुआ जाने वाले राज्य मार्ग पर सलीबों पर झूम रहे हैं। महान रोम की सड़कें, जो इस देश के वैभव और समृद्धि की सूचक हैं, एक बार फिर यात्रियों के लिए खोल दी गयी हैं। सर्वत्र शांति है और ऐसे समय में एक कुलीन रोमन घराने के युवा भाई-बहन केयस क्रैसस और हेलेना और हेलेना की सहेली क्लादिया रोम से कापुआ की यात्रा पर निकले हैं। यद्यपि गुलामों का वह प्रथम युद्ध समाप्त हो चुका है, गुलाम खेत रहे फिर भी अभिजातों के मनो-मस्तिष्क पर अभी भी उन गुलामों का प्रेत लगातार हावी है, सभी जगह वे ही चर्चा का विषय हैं और निपुण और चतुर अभिजात दार्शनिकों द्वारा इस युद्ध के इतिहास को मिटाने के लाख प्रश्नों के बावजूद उनका हौव्वा अभी तक कायम है। कापुआ तक की यात्रा के दौरान हमारे युवा रोमन कुलीन यात्री बीच-बीच में दो-तीन स्थानों पर रात्रि-विश्राम करने के लिए ठहरते हैं। ऐसा ही एक स्थान है विला सलारिया जो केयस के मामा एण्टोनियस की जागीर है। यहां उनकी भेंट तत्कालीन रोम की तीन प्रमुख रोमन हस्तियों के साथ होती है- सिनेटर ग्रैकस जो रोमन सीनेट के अत्यन्त प्रभावशाली लोगों में से एक है, सेनापति क्रैसस जिसके नेतृत्व में हुए युद्ध में गुलाम पराजित हुए और एक युवा प्रशासनिक अधिकारी सिसेरो जिसकी प्रतिभा का लोहा वरिष्ठ रोमन अभिजातों द्वारा भी माना जाता था। इसी स्थान पर उपन्यास में स्पार्टकस का प्रवेश होता है और पाठक को उस महान गुलाम योद्धा के जीवन की एक झलक मिलती है।

स्पार्टकस एक ग्लैडिएटर था। प्राचीन रोम में ग्लैडिएटर उन गुलामों को कहा जाता था जिन्हें रोमन अभिजातों के मनोरंजन हेतु अखाड़े में एक दूसरे से लड़ाया जाता था। तत्कालीन रोम में यह खेल अत्यन्त लोकप्रिय था और दास जिनकी इच्छाएं गुलाम थीं, जिनकी जिन्दगी कैद थी, वे जानवरों की तरह लड़कर और एक दूसरे की जान लेकर अपने स्वामियों का मनो-विलास करने के लिए विवश थे। स्वामियों के पास तमाम हक थे। वे गुलामों के पांव में बेड़ियां पहनाते थे और उनके ऐन्द्रिक भोग की वस्तु गुलाम स्त्रियां अपने बच्चों तक से महरूम थीं क्योंकि एक गुलाम की बाजार में कीमत होती थी और गुलाम बच्चे भी, भले ही कुछ कम सही फिर बाजार में बिक्री योग्य वस्तु होते थे। और गुलामों के पास कोई हक नहीं थे। ग्लैडिएटर गुलाम होते थे जिनमें, एक अखाड़े के मालिक लैण्टुलस बाटियाटस के शब्दों में, तीखा जहर होता था, जो लड़ सकते थे, जो गुस्सा करना जानते थे। और सिर्फ एक जगह थी जहां इस तरह के आदमी मिल सकते थे। और वह जगह थी खानें, तांबे की खानें, सोने की खानें। वे ऐसी जगह से आते थे जिसके मुकाबले सेना भी स्वर्ग थी, जागीर पर काम करना भी स्वर्ग था। और यहां तक की फांसी भी मुक्ति। स्पार्टकस कोरू था यानी तीन पीढ़ियों का गुलाम। गुलाम के बेटे का बेटा। तब स्पार्टकस एक ग्लैडिएटर था–लैण्टुलस वाटियाटस के अखाड़े का एक ग्लैडिएटर जिसने उसे नूबिया की सोने की खान से खरीदा था। नूबिया जो शायद धरती पर एक नर्क थी। इससे भिन्न नरक और हो भी क्या सकता था। नरक वहां आरम्भ होता है जहां जीवन के सीधे-सादे आवश्यक व्यापार भी यन्त्रणा बन जाते हैं। नूबिया की खानों की झुलसती गर्मी में दिन भर नौ सेर वजनी हथौड़े से सोना निकालने वाले इन गुलाम मजदूरों का राशन पानी था- सेर भर से कुछ कम पानी दिन में दो बार। मगर ऐसी खुश्क जगह में गर्मी शरीर का जितना पानी सुखा डालती थी उसको पूरा करने में यह दो सेर पानी काफी नहीं होता था और धीरे-धीरे उन गुलामों के शरीर का पानी सूखता चला जाता था और अगर दूसरी चीजें उनकी जान नहीं लेती थीं तो इस पानी की कमी से आगे-पीछे उनका गुर्दा खराव हो जाता था और जब गुर्दे का दर्द इतना ज्यादा बढ़ जाता था कि वे काम नहीं कर सकते थे तो उन्हें खदेड़ कर बाहर रेगिस्तान में पहुंचा दिया जाता था ताकि वहीं पर वे मर जायें। | तो ऐसी जगह से आया था स्पार्टकस ! वह जानता था कि आदमी का जन्म जीने के लिए होता है और इसलिए वह जीता था। वह ऊपर से देखने में तो भेड़ जैसा था मगर उसके भीतर एक आग थी जिसका आदर अखाड़े का हर ग्लैडिएटर करता था। एक हब्‍शी ग्लैडिएटर ने एक दिन एक विद्रोह किया। व्यक्तिगत विद्रोह और मारा गया। अन्य ग्लैडिएटरों को सबक सिखाने के लिए एक दूसरे काले आदमी को बल्लमों से मार दिया गया और तब, जब उनमें से एक गैनिकस ने कहा कि अगर आदमी को मरना हो तो वह इससे अच्छी तरह से भी मर सकता है, स्पार्टकस को एहसास होना शुरू हुआ कि उसे क्या करना चाहिए, या शायद यह कहना बेहतर होगा कि इतने दिनों से जो चेतना उसके अन्दर थी वह कड़ी पड़कर एक वास्तविकता बन गयी। वह वास्तविकता अभी आरम्भ ही हो रही थी, वह वास्तविकता उसके लिए कभी आरम्भ से अधिक कुछ न होगी, उसका अन्त या अनन्ता का विस्तार तो उस भविष्य तक होना था जिसका अभी जन्म नहीं हुआ है, मगर उस वास्तविकता का सम्बन्ध उन सब बातों से था जो उस पर और उसके आस-पास के आदमियों पर गुजरी। और तव प्रारम्भ हुआ वह भूकम्प, वह विद्रोह जो लगातार चार वर्षों तक रोम की सर्वशक्तिमान सत्ता को कंपकंपाता रहा और जो तात्कालिक तौर पर दबा अवश्य दिया गया लेकिन जिसने तब से लेकर अब तक कभी अभिजात स्वामियों की मदोन्मत्त सत्ता को अपनी शक्तिशाली ठोकरों से चूर किया तो कभी श्रमरक्त की आभा लूट कर दमकते रत्नजटित-मुकुटों को धूल में मिलाया और यह सिलसिला आज भी जारी है। रोम ने अपनी पहली सेना भेजी और स्पार्टकस के नेतृत्व में गुलामों ने समूची सेना को काट डाला। एकमात्र जीवित व्यक्ति एक सैनिक था जो गुलामों के संदेशवाहक के रूप में रोम की सर्वोच्च सीनेट में वापस पहुंचा। और उसी के मुख से सर्वप्रथम रोम के प्रभुओं के सम्मुख स्पार्टकस शब्द का उच्चारण हुआ। उसका संदेश सुना गया। उस समय से अब तक के युग में होने वाले प्रत्येक संघर्ष में यही संदेश गुंजता रहा है, “हम कहते हैं कि दुनिया तुम लोगों से तंग आ चुकी है, तुम्हारी उस सड़ी हुई सीनेट और तुम्हारे इस सड़े हुए रोम से तंग आ चुकी है। दुनिया उस तमाम दौलत और तमाम शान-शौकत से तंग आ चुकी है जो तुमने हमारे खून और हमारी हड्डी से निचोड़ा है। दुनिया कोड़ों का संगीत सुनते-सुनते तंग आ चुकी है।… शुरू में सब लोग बराबर थे और शान्ति से रहते थे और जो कुछ उनके पास था उसे आपस में बांट लेते थे। मगर अब दो तरह के लोग हैं, एक मालिक और एक गुलाम। मगर हमारी तरह के लोग तुम्हारी तरह के लोगों से ज्यादा हैं, बहुत ज्यादा। और हम तुमसे मजबूत हैं, तुमसे अच्छे हैं, तुमसे नेक हैं। इन्सानियत के पास जो कुछ अच्छा है वह हमारा है। हम अपनी औरतों की इज्जत करते हैं और संग-संग दुश्मन से लड़ते हैं। मगर तुम अपनी औरतों को वेश्या बना देते हो और हमारी औरतों को मवेशी। हमारे बच्चे जब हमसे छिनते हैं तो हम रोते हैं और हम अपने बच्चों को पेड़ों के बीच छिपा देते हैं ताकि हम उन्हें कुछ और दिन अपने पास रख सकें, मगर तुम तो बच्चों को उसी तरह पैदा करते हो जिस तरह मवेशी पैदा किये जाते हैं। तुम हमारी औरतों से अपने बच्चे पैदा करते हो और उन्हें ले जाकर सबसे ऊंची बोली बोलने वाले के हाथ गुलामों के हाट में बेच देते हो। तुम आदमियों को कुत्तों में बदल देते हो और उन्हें अखाड़े में भेजते हो ताकि वे तुम्हारी तफरीह के लिए एक दूसरे के टुकड़े-टुकड़े कर डालें । तुम्हारी वे श्रेष्ठ रोमन महिलाएं हमको एक दूसरे की हत्या करते देखती हैं और अपनी गोद के कुत्तों को प्यार से सहलाती जाती हैं और उन्हें एक से एक नफीस चीजें खाने को देती हैं। कितने जलील हो तुम

और जिन्दगी को तुमने कितना गन्दा बना दिया है। इन्सान जो भी सपने देखता है उन सबका तुम माखौल उड़ाते हो। इन्सान के हाथ की मशक्कत का और उसके माथे से गिरे हुए पसीने की बूंद का। तुम्हारे अपने नागरिक सरकार के दिये हुए टुकड़ों पर जीते हैं और अपना दिन सरकस और अखाड़े में गुजारते हैं। तुमने इन्सान की जिन्दगी को एक मजाक बना दिया है और उसकी सारी खूबसूरती लूट ली है। तुम मारने के लिये मारते हो और खून को बहता देख कर तुम्हारी तफरीह होती है। तुम नन्हें-नन्हें बच्चों को अपनी खानों में रखते हो और उनसे इतना काम लेते हो कि वे कुछ ही महीनों में मर जाते हैं। और यह जो सारी दौलत तुमने इकट्ठा की है वह सारी दुनिया की चोरी कर के। मगर अब ये चीज नहीं चल सकती।… अपनी सीनेट से जाकर कहो कि अपनी फौजें हमारे खिलाफ भेजें और हम उन फौंजों को भी उसी तरह काट कर गिरा देंगे जैसे कि हमने इस फौज को काट कर गिराया है और तुम्हारी फौजों के हथियार से हम अपने आपको लैस करेंगे। सारी दुनिया औजार को सुनेगी– और हम सारी दुनिया के गुलामों से चिल्ला कर कहेंगे, उठो और अपनी जंजीर तोड़ दो।… और फिर एक रोज हम तुम्हारी अमरावती पर धावा करेंगे, तुम्हारी अमर नगरी रोम पर और तव वह अमर न रह जायेगी।… और फिर हम रोम की दीवारें गिरा देंगे। और तब हम उस इमारत में आयेंगे जहां तुम्हारी सीनेट बैठती है और हम उनकी उन ऊंची-ऊंची शानदार सीटों पर से उनको घसीट कर बाहर निकालेंगे और उनके चोगे चीर देंगे ताकि वे नंगे खड़े हो जायें, और उस हालत में, उसी नंगी हालत में उनके ऊपर फैसला किया जा सके, उसी तरह जैसा सदा हमारे संग किया गया है। मगर हम उनके साथ पूरा-पूरा न्याय करेंगे और न्याय से जो कुछ उनका प्राप्य होगा वह उनको देंगे।… तब हम आज से अधिक सुन्दर नगर बसायेंगे, साफ-सुथरे खूबसूरत नगर जिनमें दीवारें न होंगी जहां मानवता शान्ति से और सुख से रह सकेगी।”

और सेनायें भेजी गयीं। पांच बार महान रोम की महान सेनायें इस गुलाम विद्रोह को कुचलने गयीं। लेकिन सव खेत रहीं। इन गुलामों जैसे आदमियों से कौन कभी लड़ा होगा। मगर तब जब क्रिक्सस के नेतृत्व में बीस हजार गुलाम योद्धा मारे जा चुके थे। अन्ततः लिसिनियस क्रैसस के नेतृत्व में रोमन फौजों ने स्‍पार्टकस के साथियों को पराजित कर दिया। जो गुलाम कैदी बनाये गये उनको बाद में सलीबों पर टांग दिया गया। स्पार्टकस की वह खूबसूरत साथिन वारिनिया, जो उस समय गर्भवती थी, बच निकलती है और क्रैसस और ग्रैकस जैसे प्रभावी लोगों के हाथ पहुंचती हुई अन्त में दूर आल्पस की पहाड़ियों के निकट एक गांव में एक किसान के साथ रहने लगती है। जहां उसका पुत्र, जिसका नाम उसने स्पार्टकस रखा है, जन्म लेता है। समय गुजरता है, शोषण के अनिवार्य परिणाम स्वरूप एक बार फिर विद्रोह उठ खड़े होते हैं। कथाएं लोक कथाएं बन जाती हैं और लोककथाओं ने प्रतीकों का रूप ले लिया मगर उत्पीड़कों के विरुद्ध उत्पीड़ितों का युद्ध-बराबर चलता रहा। यह एक ऐसी लौ थी जो कभी तेज जलती और कभी मद्धिम मगर बुझी कभी नहीं–और स्पार्टकस का नाम मरा नहीं। यह, रक्त की परम्परा नहीं, मिले-जुले संघर्ष की परम्परा थी।

समूचे उपन्यास में पात्र अपनी वर्गीय विशिष्टताओं के अनुरूप आचरण करते हैं और पाठक के सम्मुख यह स्पष्ट हो जाता है कि वर्ग समाज में मात्र वर्ग संषर्घ को छोड़ कर अन्य कोई भी चीज शाश्वत नहीं है। प्रेम जैसा स्वाभाविक मानवीय भाव परस्पर विरोधी वर्गों के लिए नितान्त भिन्न परिभाषा लेकर उभरता है। जहां एक ओर क्रैसस के लिए वारिनिया का प्रेम स्वर्ण भूषणों से खरीदा जा सकने योग्य पण्य है, ग्रैकस के लिये कृतज्ञता है वहीं स्पार्टकस के लिये वह मात्र समानता है। वारिनिया और उसके मध्य सिवाय प्रेम के अन्य किसी चीज का आदान-प्रदान नहीं होता है। जहां रोम के धनकुबेर गुलाम विद्रोह को कुचलने के बाद वन्दी गुलामों को सलीवों पर टांग देते हैं वहीं एक बार जव रोमनों को बन्दी बनाने के बाद स्पार्टकस उन्हें ग्लैडिएटरों की तरह एक दूसरे से लड़ने का आदेश देता है तो उसी के निकटतम सहयोगी डेविड ने कहा था, “जो उनके लिये ठीक है वह कभी हमारे लिये ठीक नहीं हो सकता।” स्पार्टकस डेविड, क्रिक्सस, गैनिकस और वारिनिया मानवता में जो कुछ पवित्रतम है उसके जीवन्त चित्र हैं, दूसरी ओर केयस, हेलेना, क्लादिया, एण्टोनियस, सिसेरो, कैसस तमाम विद्रूपताओं, विकृतियों और मानसिक विकारों से ग्रस्त हैं। उनमें से सर्वोत्तम ग्रैकस भी भीतर से ग्रस्त है। एक ऐसा वर्ग जो समूचे समाज की छाती पर भारी पहाड़ की तरह हावी था जो समूचे समाज को रोगग्रस्त किये हुए था उसे एक दिन जाना ही था और आखिर एक दिन महान रोम की प्राचीरें उन योद्धा गुलामों के पदाघातों के सम्मुख टिक न सकीं उनको गिरना ही पड़ा।

मानव सभ्यता की इस मंजिल में सम्पत्ति की व्यवस्था ने जीवन के प्रांगण में जन्म लिया और उसकी अन्धी हवस ने दासों और दास स्वामी अभिजातों के रूप में समाज को विभाजित कर दिया। एक ओर जहां विकास की इस नई मंजिल में मनुष्य ने प्रकृति के विरुद्ध नई-नई जीतें हासिल की, विज्ञान, कला, संस्कृति के क्षितिज का नया विस्तार किया वहीं जिन दासों ने अपने श्रम और रक्त के निचोड़ से सड़के बनाई अट्टालिकायें खड़ी कीं, खानों से सोना निकाला, धरती की सतह पर अनाज उगाये वे गुलाम ही रहे। आजादी का गला घोंटने के लिये मानव समाज के भीतर से ही जन्मे अंधेरे के स्वामियों की सत्ता के विरुद्ध गुलामों ने कई-कई बगावतें की और अन्ततः रोमन प्राचीरों को अपने आवेगमय उफान से ध्वस्त करते हुए उनके ध्वंसावशेषों पर नये युग की शुरुआत के नये इतिहास के शिलालेख डाले।

लेकिन फास्ट की कृति में यह विद्रोह असफल रहा है, यह संघर्ष स्थूल भौतिक दृष्टि से पराजित होता है और उसके नायक सलीव पर टांग दिये जाते हैं, मैदान में खेत रहते हैं। तब भी उन विद्रोही संघकारियों, योद्धाओं की अन्तिम विजय में हमारी आस्था कभी नहीं खोती और पुस्तक समाप्त करने पर मन जहां उदासी से भरा होता है वहां उस उदासी में और सब कुछ होने के बावजूद निराशा का रंग नहीं होता। संघर्ष की असली पराजय आत्मा की पराजय है और सभी श्रेष्ठ मानवतावादी कलाकारों की भांति हावर्ड फास्ट के यहां भी आत्मा कभी पराजित नहीं होती, उसका अजेय स्वर कभी मन्द नहीं पड़ता। दास युग के बाद भी वह आदिविद्रोही, वह स्पार्टकस वह हमारा पुरखा लौटा है और बार-बार लौटा है, करोड़ों की संख्या में लौटा है जहां-जहां भी न्याय और स्वाभिमान और स्वतंत्रता के लिये संघर्ष हुए हैं और रक्त बहा है। स्पार्टकस वहां मौजूद रहा है “मैं विद्रोही हूं। मैं रण क्लांत हो चुका हूं। फिर मैं उसी दिन शान्त होऊंगा जिस दिन उत्पीड़ित लोगों के क्रन्दन से यह आकाश यह वायुमण्डल गुंजित हो जाना बन्द हो जायेगा।”

आह्वान कैम्‍पस टाइम्‍स,अक्‍टूबर दिसम्‍बर 1999 

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