फासीवाद को मात देने का रास्ता इंक़लाब से होकर जाता है चुनावी राजनीति से नहीं!

सनी

देश भर में सामाजिक तानेबाने के फासीवादीकरण की प्रक्रिया बढ़ती जा रही है। बीते साल इस प्रक्रिया को लक्षित करने वाली अहम घटनाएँ घटी हैं, इन घटनाओं से कुछ ज़रूरी सबक हासिल करना ज़रूरी है। राजमसन्द में अफराजुल को मुसलमान होने के नाते मारना और इस घटनाक्रम की वीडियो को मुसलमानों को चेताने के लिए सोशल मीडिया पर डालना; भीमा-कोरेगाँव की याददिहानी पर जातीय हिंसा; पहलू खान का क़त्ल और उसके कातिलों का अदालत के निर्देश पर एक-एक करके जेल से बरी होना; सुप्रीम कोर्ट का सभी अहम फैसलों को केंद्र में बैठी फासीवादी सरकार के पक्ष में देना; सत्ता से निष्पक्ष प्रतीत होने वाले सभी संस्थानों का फासीवादी राजनीति के मातहत आना अलग-अलग कोण से फासीवाद के विस्तारित होते खाके को खींचती हैं। हालाँकि गुजरात चुनाव में भाजपा की मुश्किल से हासिल की हुई जीत उतरती हुई मोदी लहर को दिखाती है परन्तु यह फासीवाद की अवनति कत्तई भी नहीं है। चुनाव में भाजपा की हार का फासीवाद के बढ़ते विस्तार में फर्क करना ज़रूरी है। हमें इनमें से महत्वपूर्ण घटनाओं का अध्ययन कर संघ की समाज में फैलती जड़ों का सटीक विश्लेषण करना होगा जिससे हम इसे नेस्तनाबूद करने की रणनीति बना सकें व चुनाव के जरिये फासीवाद को हारने के भ्रम में न उलझें।

गोएबेल्स-हिटलर के सबसे सक्षम छात्र हैं भारतीय फासीवादी

आम जन के बीच संघ के विस्तार में प्रचार की अहम भूमिका है। इस प्रचार ने निम्न मध्य वर्ग की कल्पना को बाँधने का काम किया है। सोशल मीडिया पर झूठी और साम्प्रदायिक ख़बरों के तानेबाने को संघ ने देश भर में फैलाया है। इस प्रचार में तमाम मीडिया घराने संघ के सहायक साबित हुए हैं। रिपब्लिक टीवी, टाइम्स नाउ, न्यूज़ एक्स जैसे तमाम न्यूज़चैनल खुलकर नरेन्द्र मोदी का गुणगान कर रहे हैं व हर किस्म के प्रतिरोध को राष्ट्र विरोधी आवाज़ में अपचयित कर रहे हैं। प्रचार के उपयोग व फासीवादी राजनीति के आम दाव-पेंच में भारतीय फासिस्ट गोएबल्स-हिटलर के सबसे सक्षम छात्र साबित हुए हैं। प्रचार के जरिये निम्न-मध्य वर्ग के टूटे सपनों से उपजे गुस्से को मुस्लिमों के प्रति नफरत में तब्दील करना व साथ ही प्रचार को भय के प्रसार के वास्ते इस्तेमाल किया है। इसका उदहारण राजमसन्द में शम्भू लाल रेगर द्वारा अफराजुल को मुस्लिम होने के नाते मौत के घाट उतारना और इसे देश के मुस्लिमों के लिए सबक के रूप में फैलाना है। इस घटना में शम्भू लाल ने संघी नेताओं द्वारा फैलाई जा रही नफरत को दोहराया जिसे वह लम्बे समय से व्हाट्सएप्प व अन्य सोशल मीडिया के  माध्यम से प्राप्त कर रहा था। सोशल मीडिया पर भयंकर दर से संघ अपने विचारों को फ़ैलाने का काम कर रहा है यह घटना उसकी ही फसल है। झूठी ख़बरों के तानेबाने के बरक्स आज हमें सच्चाई बताने के अपने माध्यम खड़े करने होंगे। आज जितना भी जनवादी स्पेस बचा हुआ है हमें अपनी पूरी शक्ति झोंककर सोशल मीडिया, जन मीडिया के जरिये, जन अभियानों के जरिये अपने विचारों को जनता के हर संस्तर तक पहुँचाना होगा। संघ के आज़ादी पूर्व गद्दारी के इतिहास को जनता के बीच ले जाने से लेकर भाजपा और संघ के नेताओं के भ्रष्टाचार, कूकृत्यों को जनता के बीच ले जाना चाहिए। इनकी स्त्री विरोधी, दलित विरोधी मानसिकता की पोल खोलनी होगी। दंगों की राजनीति का पर्दाफाश कर जनता की जुझारू जनएकजुटता का प्रचार प्रसार करना होगा। लवजिहाद, घर वापसी सरीखे अभियानों को अपने प्रचार के दम पर निष्फल बनाना होगा। राजमसन्द की घटना इनके प्रचार तंत्र की व्याप्त जड़ की ताकीद करती है।

फासीवाद को पहचान की राजनीति के जरिये नहीं हराया जा सकता है

इस घटना की पड़ताल करना अन्य नज़रिए से भी ज़रूरी  है। आज तमाम प्रगतिशील संगठन वैचारिक दिवालियेपन के चलते हिंदुत्व के बरक्स दलित-मुस्लिम एकता की बात करते हैं। परन्तु इस घटना ने इस विचार के खोखलेपन को उजागर कर दिया है। रेगर खुद दलित जाति से आता है। यह घटना संघ की दलित व आदिवासी जातियों को हिन्दू धर्म के अंतर्गत लाने व दंगों में इस्तेमाल करने की रणनीति को दिखलाती है जिसे वे गुजरात में लागू कर चुके हैं। 2002 गुजरात के नरसंहार में मुस्लिम बस्तियों के हमलावरों में भीड़ का बड़ा हिस्सा दलित जातियों व आदिवासी जातियों का था। दलित योद्धाओं के मिथक गढ़कर उन्हें हिन्दू संस्कृति में सोखने का प्रयास संघ लम्बे समय से कर रहा है। राजस्थान के राजमसन्द की घटना इस राजनीति का ही प्रतीक है। पहचान की राजनीति को व्यवहार में उतारकर हम जनता को कमज़ोर करेंगे और उसे हिस्सों में विभाजित करेंगे। संघी जनता को जिन पहचानों में बाँट देना चाहते हैं हम दलित -मुस्लिम अस्मिता आधारित एकता की बात कर अन्य पहचानों को मजबूत करेंगे व अंततः संघ की फासीवादी राजनीती के लिए भरण पोषण का काम करेंगे।

दलित-मुस्लिम अस्मिता आधारित एकता बरक्स हिंदुत्व की बात करना जनआन्दोलन के लिए एक आत्मघाती कदम है। वर्गीय एकजुटता की जगह दलित अस्मिता के आधार पर खड़े आन्दोलन चरमरा कर गिरेंगे या दक्षिणपन्थी राजनीति की गोद में जा बैठेंगे। पाटीदार आन्दोलन, मराठा आन्दोलन और जाट आन्दोलन आर्थिक संकट के दबाव में उठ खड़े हुए अस्मिता आधारित आन्दोलन हैं जो जनता के रोष को अस्मिता आधारित बँटवारे में अपचयित कर देते हैं और पूँजीवादी व्यवस्था के कारण पैदा हुई बेरोज़गारी, गरीबी और महंगाई पर पर्दा डाल देते हैं। सबसे ज़रूरी सबक यह है कि फासीवाद को पहचान की राजनीति के जरिये नहीं हराया जा सकता है बल्कि यह इससे और मजबूत होगा।

कथित रूप से भीमा-कोरेगाँव में ब्रिटिश हुकूमत के मातहत हुए पेशवा से युद्ध में दलित सैनिकों की सैन्य टुकड़ी की जीत को पेशवा बनाम दलित बनाकर पेश करना इस आत्मघाती कदम का ही नतीजा है। इस प्रयोजन के बाद हुई हिंसा ने भी पेशवा या मराठा बनाम दलित का रूप देने में संघी ब्रिगेड सफल हुई। इन फासीवादी ब्रिगेड को वर्ग के आधार पर संगठित जाति-विरोधी आन्दोलन ही हरा सकता है।

फासीवाद और चुनाव

मौजूदा दौर में फासीवाद के खिलाफ मजदूर वर्ग को संगठित करने के प्रयास में क्रान्तिकारियों की रणनीति का दिवालियापन सबसे अधिक चुनावी राजनीति के व्यवहार में दिखता है। इसका ताजा उदहारण गुजरात चुनाव है। इस चुनाव में कांग्रेस को जिताने के लिए भारत के संसदीय वामपन्थ और तमाम प्रगतिशील बुद्धिजीवियों ने एड़ी चोटी का जोर लगा दिया। उनके लिए फासीवाद को चुनाव में लड़कर हराया जाना सम्भव प्रतीत होता है। भारत के इन ”क्रान्तिवीरों” को अपने हिरावल के तौर पर कांग्रेस के साहबजादे राहुल गाँधी नज़र आ रहे हैं। इस समझदारी ने काफी भ्रम पैदा किया है। राजमसन्द जैसी घटनाओं पर महज टोकन विरोध करने के बाद घरों में बैठ जाने वाले मध्य वर्गीय ”क्रान्तिकारी योद्धाओं” को 2014 के बाद से सिर्फ चुनाव के जरिये फासीवाद को हराने का सपना दिख रहा है। गुजरात चुनाव में हार के बाद कईं लोगों को सदमा लगा पर कईं अभी भी बावरे होकर इस रणनीति को 2019 में पुनः लागू करने की सोच रहे हैं। गुजरात चुनाव का विस्तार से विश्लेषण कर हमें चुनाव के जरिये फासीवाद को हराने का गुलाबी सपना देखने वालों से अलग आज नौजवानों के आगे एक स्पष्ट रास्ता तय करने का आह्वान करना होगा।

  गुजरात और हिमाचल प्रदेश चुनाव के नतीजे आ चुके हैं। भारत के बड़े पूँजीपति वर्ग ने असमाधेय ढाँचागत संकट में धंसी पूँजीवादी व्यवस्था में अपने मुनाफे को बचाए रखने के लिए भाजपा के विकल्प को चुना है। यह बात तब स्पष्ट हो गयी थी जब चुनावी नतीजे के शुरूआती रुझानों में कांग्रेस के बढ़त लेने पर शेयर बाज़ार ने गिरावट दर्ज करवाई और भाजपा के जीतने पर उठान दर्ज किया। इस साल कानूनी चन्दे में भी भाजपा को 89 प्रतिशत मिलना यह साफ़ करता है कि मौजूदा दौर में पूँजीपति वर्ग को भाजपा सरकार की ज़रूरत है। यह बात सर्वविदित है कि गुजरात में भाजपा के खिलाफ जन-असन्तोष मौजूद था। परन्तु इसके बावजूद भी भाजपा सरकार बनाने में कामयाब रही है। 182 सीटों में से 99 सीटें जीतकर सत्ता में से पहुँची भाजपा को इस चुनाव के दौरान हाँफना पड़ा। गुजरात के विकास मॉडल के नाम पर वोट माँगने की जगह मोदी ने खुलकर साम्प्रदायिक ज़हर फैलाया और आँसू बहाए। इस चुनाव में कांग्रेस ने एक हद तक भाजपा को चुनौती दी है। राजनीतिक विकल्प न होने के चलते कांग्रेस को चुनने के इलावा जनता के पास कोई चारा नहीं है। संसदीय वाम पार्टियाँ कांग्रेस की पूँछ पकड़कर फासीवाद को हराने का भ्रम अभी भी पालकर बैठे हुई हैं और इनसे अभी और कोई उम्मीद नहीं की जा सकती है।

हमें इस चुनावी नतीजे से दो बातें समझ लेनी चाहिए। पहली बात तो यह कि भाजपा को चुनाव में हराने का दम अभी कांग्रेस में नहीं है। इस चुनाव में चुनाव आयोग ने जिस तरह खुलकर भाजपा का पक्ष लिया है उससे ईवीएम मशीन के हैक होने की सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता है। खैर जो नतीजे हमारे सामने हैं उससे इस वोट के आधार पर अगर हम निष्कर्ष निकालें तो यह साफ़ है कि ग्रामीण आबादी के बीच भाजपा सरकार की साख घट रही है और कुल मिलाकर मोदी की लहर नीचे आ रही है। चुनाव के नतीजों को अगर तमाम कोणों से देखें तो इसके सार तक पहुँचा जा सकता है। सबसे पहले तो यह कि चुनाव में भाजपा को सबसे ज्यादा चुनौती ग्रामीण क्षेत्र में मिली जहाँ कांग्रेस ने इस चुनाव में 2012 के मुकाबले बढ़त बनायी है उसका सबसे बड़ा हिस्सा सौराष्ट्र क्षेत्र से आता है। इस इलाके में 70 प्रतिशत ग्रामीण आबादी रहती है तथा यही क्षेत्र पाटीदार बहुल भी है। कांग्रेस ने पाटीदारों की आबादी के 20 प्रतिशत से ज्यादा आबादी वाली सीटों पर भी पिछले साल के मुकाबले बढ़त पायी है। शहर की आबादी के अन्दर कांग्रेस भाजपा के आधार को नहीं तोड़ पायी है। वहीं इस चुनाव में करीब 10 सीटों पर भाजपा का कांग्रेस से जीत का फासला 900 वोटों से ज्यादा नहीं था और इनमें से ज़्यादातर सीटों पर नोटा को मिलें वोटों की संख्या इस फासले से ज्यादा थी। भाजपा के प्रति असंतोष को कांग्रेस झुका पाने में असफल रही है। शहरी आबादी में मध्यवर्गीय आबादी ने नोटबन्दी और जीएसटी की मार झेलकर भी मोदी की नीतियों को स्वीकारा है। इस आबादी के ऊपर मोदी के घड़ियाली आँसू और साम्प्रदायिक ज़हर ने भी असर किया जिसका आधार आरएसएस के लम्बे ज़मीनी काम के जरिये खड़ा किया गया है। चुनाव के दौरान संघ का व्यापक तंत्र भाजपा की बूथ स्तर की कमेटियों की मदद करता है जो कांग्रेस तमाम पैसा लगाकर भी हासिल नहीं कर सकती है।

गुजरात चुनाव में भारी जनअसंतोष के बावजूद भी कांग्रेस भाजपा को हारने में सक्षम नहीं हुई। हालाँकि यह बात भी गौर करने लायक है कि चुनाव में राहुल गाँधी ने भी खुद को शिव-भक्त और जनेऊधारी हिन्दू भी बताया। इस पर भी तमाम संसदीय वामपन्थी इसे राजनीति के नियम बताकर राहुल गाँधी को धर्मनिरपेक्ष और गरीबों का पक्षधर बताने में जुटे रहे। हालाँकि वे इतिहास के सबक से कुछ सीखना नहीं चाहते हैं, आज़ादी के बाद का इतिहास बताता है कि कांग्रेस ने ही संघ की राजनीति को फलने-फूलने  के लिए खाद पानी दिया और उसे बाकायदा मदद भी की है। हल्की केसरिया लाइन को लागू कर सामाजिक तानेबाने को साम्प्रदायिक तौर पर बाँटने का काम किया है। वे यह भूल जाते हैं कि कांग्रेस की सरकार ने ही बाबरी मस्जिद परिसर में राम की मूर्ति रखवाई थी। वे भूल जाते हैं कि दंगों की राजनीति को चुनावी रोटी सकने के लिए लम्बे समय से कांग्रेस इस्तेमाल करती हुई आई है। कांग्रेस की इस राजनीति के ऊपर फल-फूल कर ही भाजपा का चुनावी अभियान आगे बढ़ा है। इस चुनाव में कांग्रेस के राहुल गाँधी मन्दिर में घण्टा बजा रहे थे और हिन्दू वोट को जीतने का प्रयास किया। परन्तु कांग्रेस के हर अवस्थिति के दक्षिण में भाजपा खड़ी हो सकती है। नरेन्द्र मोदी ने विकास का भोंपू छोड़कर इस बार अपने प्रचार में पाकिस्तान और धर्म का इस्तेमाल किया मसलन ‘अहमद पटेल को पाकिस्तान मुख्यमंत्री बनाना चाहता है’, कांग्रेस के नेताओं की पाकिस्तान के साथ मीटिंग हुई सरीखी बातें अपने भाषण में बोली। मन्दिर में घंटा बजाने और खुद को पक्का हिन्दू साबित करने वाली राजनीति से अंततः भाजपा ही मजबूत होगी।

दूसरी बात यह कि अगर कांग्रेस आगामी चुनाव जीत भी जाती है तो हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि कांग्रेस बड़ी पूँजी का प्रतिनिधित्व करने वाली बुर्जुआ पार्टी है, यह भाजपा की नीतियों को न तो उलटने वाली है न उनकी रफ़्तार कम करेगी। और सड़क पर संघ और उसके अनुषांगिक संगठन मूल मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए इस तरह ही कहर बरपाते रहेंगे। फासीवाद 2014 भाजपा की सरकार का बनाना नहीं है।

हमें आगामी संघर्षों के लिए चुनाव के जरिये फासीवाद को परास्त करने के भ्रम को बिलकुल साफ़ कर लेना चाहिए। फासीवाद को चुनाव से नहीं हराया जा सकता है। फासीवाद का जन्म इसी संसदीय गणतंत्र के खोल के भीतर से हुआ है, समय को वापस कर इसे वापस इस खोल में नहीं डाला जा सकता है। इसे जीव विज्ञान के उदाहरण से समझा जा सकता है। कुकुन में से निकले नुकसानदायक कीट को पैरों के नीचे कुचल कर ही ख़त्म किया जा सकता है। परन्तु भारत के तमाम वामपन्थी बुद्धिजीवी वक्त को उलट कर नेहरु काल के ‘समाजवाद’ को लाना चाहते हैं। यह बात 2004 और 2009 के चुनाव से साफ़ हो चुकी है जब यही सारे वामपन्थी विचारक लोग फासीवाद की हार का जश्न मना रहे थे तब इनकी सोच के विपरीत  भाजपा 2014 में ज्यादा वोटों के साथ सत्ता पर पहुँची। हमें यह समझना होगा कि फासीवाद निम्न मध्य वर्ग का आन्दोलन है जिसे काडर आधारित फासीवादी पार्टी नेतृत्व देती है। इसे क्रान्तिकारी पार्टी के नेतृत्व में संगठित काडर आधारित मजदूर आन्दोलन ही परास्त कर सकता है। हमें फासीवाद से लड़ने में इस सबक को बिलकुल याद रखना होगा।

हमारे सामने चुनौतियाँ और स्पष्ट रास्ता!

मौजूदा दौर में घटित घटनाओं में तमाम प्रगतिशील ताकतों द्वारा गलत रणनीति को लागू करने से फासीवाद की लड़ाई में नुकसान हुआ है। इन परिघटनाओं से हमें यह नकारात्मक शिक्षा मिलती है कि फासीवाद का मुकाबला किस प्रकार नहीं किया जा सकता है। पहला यह कोई प्राच्य या प्राक आधुनिक परिघटना नहीं है जिसे आधुनिकता के पाठ से ख़त्म किया जा सकता हो बल्कि यह एक आधुनिक परिघटना है जो पूँजीवाद के सड़ने से पैदा हुई है। इसे संविधान की दुहाई देकर सरकार के उपक्रमों पर भरोसा रखकर नहीं हराया जा सकता है। इस लड़ाई में अस्मिताओं के आधार पर लड़ाई लड़ने की राजनीति हर हमेशा हमारी लड़ाई को कमजोर करेगी और फासीवादियों को मजबूत करेगी। फासीवाद को वर्ग आधारित संघर्ष के जरिये ही परास्त किया जा सकता है। दूसरा, फासीवाद को चुनाव के जरिये नहीं हराया जा सकता है। भाजपा फासीवादी संगठन संघ का महज चुनावी मोर्चा है। फासीवाद को मजदूर आन्दोलन के तूफ़ान के जरिये ही नेस्तनाबूद किया जा सकता है। जहाँ आज फासीवादियों ने अपनी खंदकें खोदी हुई है वहाँ हमें पहुँचना होगा। जहाँ फासीवादी अपनी बात को पर्चों के जरिये, मीडिया के जरिये सोशल मीडिया के जरिये लेकर जा रहा है हमें भी अपनी बात को मजदूरों, छात्रों और निम्न मध्य वर्ग में लेकर जान होगा। अभियानों के जरिये, सेमिनारों, आन्दोलनों के जरिये आज हमें अपना जोर लगाकर इस खरपतवार को उखाड़ फेंकना होगा। l

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,जनवरी-फरवरी 2018

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