जाति प्रश्न, मार्क्सवाद और डॉ. अम्बेडकर की राजनीतिक विरासत – सुधीर धवले को एक जवाब

अभिनव सिन्हा

(नवम्बर 2017 के ‘समयान्तर’ में श्री सुधीर धवले का करीबन सात हज़ार शब्दों का पेपर ‘जाति और भारत का इंक़लाब’ प्रकाशित हुआ था। श्री धवले के इस पेपर के उत्तर के रूप में इस आलेख को लिखा गया था। इसका एक बेहद संक्षिप्त रूप (करीब सवा पांच हज़ार शब्दों का) हमने ‘समयान्तयर’ को प्रकाशन हेतु भेजा था। किन्तु स्थानाभाव के कारण हमसे इसे और संक्षिप्त करने की माँग की गयी, जो हमारे लिए सम्भव न था। हम ‘समयान्त़र’ की सम्पादकीय विवशताओं को समझते हैं। चूँकि हमारे विचार में सुधीर धवले द्वारा उठाये गये मुद्दों पर बातचीत ज़रूरी है, इसलिए, इस आलेख के विस्तृत रूप को हम यहाँ प्रकाशित कर रहे हैं।) -सम्पादकीय टिप्पणी

सच बोलना क्रान्तिकारी होता है।

                                   – अन्तोनियो ग्राम्शी

नवम्बर 2017 के ‘समयान्तर’ में साथी सुधीर धवले का लेख ‘जाति और भारत का इंक़लाब’ पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ। इस लेख में कई गम्भीर प्रश्नों को उठाया गया है, जिनका उत्तर देना आज जाति-उन्मूलन की परियोजना और साथ ही भारतीय समाज के सामाजिक-आर्थिक व राजनीतिक ढाँचे के क्रान्तिकारी रूपान्तरण के लिए अनिवार्य है। यह स्वागत-योग्य बात है कि आज भारतीय राजनीतिक-बौद्धिक दायरों में इस प्रश्न पर संजीदगी से सोचने-विचारने के प्रयास हो रहे हैं। श्री धवले का लेख इन्हीं महती प्रश्नों  को उठाता है और इसके लिए वह बधाई के पात्र हैं। लेकिन अफ़सोस की बात है कि हमारी सहमति यहीं समाप्त हो जाती है। इसलिए नहीं कि उन्होंने हमारे तर्कों के विपरीत (या अनुकूल) तर्क रखे हैं, बल्कि इसलिए कि उन्होंने लगातार अन्तरविरोधी, अज्ञानतापूर्ण और तथ्यत: ग़लत बातें कहीं हैं और जो तथ्य रखे भी हैं उनकी मनमुआफिक और चयनपूर्ण रूप से प्रस्तुति की गयी है।

जो दूसरी बात आपको लेख पढ़ते ही कौंधती है वह यह है कि लेखक दो स्टूूलों पर बैठने के प्रयास में उसके बीच में गिर पड़ा है। वास्तव में, परस्पर विरोधी विचारधाराओं का समन्वय करने का प्रयास करने वाले लोगों के साथ ऐसा होना आम है। इस प्रयास में लेखक ने चयनपूर्ण तरीके से तथ्यों और तर्कों का चुनाव किया है और डॉ. अम्बेडकर की राजनीतिक विरासत के साथ जाने-अनजाने अन्याय किया है। चूँकि उन्हें  अम्बेडकर की राजनीतिक विचारधारा और मार्क्सवाद में कम-से-कम आंशिक तौर पर एक समन्वय स्थापित करना है, चूँकि उन्हें  ‘नीले आकाश में लाल सितारा’ उगाना है, चूँकि उन्हें ‘लाल सलाम’ और ‘जय भीम’ का मिश्रण करना है, इसलिए उन्होंने सुविधा के अनुसार डॉ. अम्बेेडकर के राजनीतिक विचारों और प्रयोगों के बारे में तथ्यों और तर्कों का चुनाव किया है।

आखिरी बात यह है कि जाति व्यवस्था के उद्गम और विकास के विषय में उन्होंने जो संक्षिप्त ब्यौरा पेश किया है उसमें इतनी ग़लतियाँ और विरोधाभास हैं, कि उन सभी का एक लेख में खण्ड‍न ही नहीं किया जा सकता है। चूँकि जाति के उन्मूलन का प्रश्न जाति के उद्भव और विकास को ऐतिहासिक तौर पर समझने के प्रश्न से नाभिनालबद्ध है, इसलिए जाति व्यवस्था के उद्गम, विकास और गतिकी के ऐतिहासिक ब्यौरों के मामले में सटीकता और तथ्यपरकता पर विशेष ज़ोर दिया जाना चाहिए।

उपरोक्त प्रश्नों को हम आज इसलिए नहीं उठा रहे हैं कि ये महज़ बौद्धिक, अकादमिक प्रश्न हैं। वस्तुत: ये प्रश्न आज के समय में जाति उन्मूलन के समूचे आन्दोलन के लिए केन्द्रीय महत्व के प्रश्न हैं। संक्षेप में कहें, तो मार्क्सवाद और डॉ. अम्बेडकर के राजनीतिक विचारों के बीच सम्बन्ध  का प्रश्न, जाति व्यवस्था के आज तक के इतिहास का प्रश्न और आज के दौर में जाति-विरोधी आन्दोलन के स्वरूप, तात्कालिक लक्ष्य और दूरगामी लक्ष्यों का प्रश्न।

वर्ण-जाति व्यवस्था के इतिहास के विषय में श्री सुधीर धवले के विचार

‘अगर तुम इतिहास पर गोली चलाओगे तो भविष्य तुम पर तोप से गोले बरसाएगा।’

                               – रसूल हमज़ातोव

लेख की शुरुआत में ही एक ऐसी बात कही जाती है, जिससे लेख की बाकी की अन्तरर्वस्तु मेल नहीं खाती है: ”भारत की जाति व्यवस्था सैंकड़ों साल बाद भी कुछ सतही बदलावों के बावजूद जस की तस खड़ी है।” (धवले, ‘जाति और भारत का इंक़लाब’, समयान्तनर, नवम्बर, 2017, पृ. 13) हालाँकि आगे इतिहास की चर्चा के समय जो तस्वीर पेश की जाती है, उसकी गम्भीर ग़लतियों को छोड़ भी दिया जाय तो इतना तो स्पष्ट  है कि जाति व्यवस्था में पिछले तीन हज़ार वर्षों में जो परिवर्तन आए हैं, वे केवल सतही तो कतई नहीं कहे जा सकते हैं। टुकड़ों-टुकड़ों में अन्य कई बातों का जिक्र किया गया है, जिनका खण्डन करना उपयोगी होता, लेकिन स्थानाभाव के कारण हम कर नहीं पाएंगे, मसलन ‘भारत की समाज व्यवस्था जाति पर आधारित है’, ‘दलितों की नज़र से जाति को देखना-समझना होगा’, वगैरह। ये कथन कम-से-कम त्रुटिपूर्ण तो माने ही जाएंगे। लेकिन हम सीधे जाति के इतिहास के विषय में सुधीर धवले के विवरण पर आते हैं।

जाति के इतिहास के विषय में हमें बताया जाता है कि प्राचीन भारत में जाति का इतिहास मिथकों की दरारों में दबा पड़ा है और यह हमें इसके बारे में सटीक तरीके से नहीं जानने देता। दुनिया के हर क्षेत्र/देश का प्राचीन इतिहास मिथकीय व साहित्यिक स्रोतों से ही निसृत करना पड़ता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि यह इतिहास सटीक नहीं होता। इतिहास-लेखन एक आधुनिक विधा है जिसकी शुरुआत ही आधुनिक काल में हुई। उससे पहले दरबारी लेखन हुआ करते थे, यात्रा-वृत्तान्त हुआ करते थे, साहित्यिक विवरण होते थे। व्य़वस्थित इतिहास-लेखन आधुनिक युग से ही शुरू होता है। इतिहासकारों ने आधुनिक युग की शुरुआत से लेकर अब तक विभिन्न विधियों से विभिन्न प्रकार के स्रोतों को विनिर्मित (डीकंस्ट्रक्ट) करना सीखा है। इन स्रोतों में पुरातात्विक व साहित्यिक स्रोतों से लेकर न्यूमिस्मैटिक स्रोत तक शामिल हैं। इन स्रोतों के विनिर्माण के आधार पर हमें आज वर्ण-जाति व्यवस्था के उद्गम, विकास और विस्तार के बारे में काफी हद तक सटीक जानकारी प्राप्त है। इसका यह अर्थ नहीं है कि इस विषय में हमारी समझदारी और विकसित नहीं हो सकती है। नये-नये स्रोतों और उनकी नयी वैज्ञानिक व्याख्याओं के साथ हमारी समझदारी और गहराई में जा रही है। लेकिन वर्ण-जाति व्यवस्था के उद्गम और विकास के कुछ बुनियादी पहलुओं के बारे में प्राचीन भारत के अग्रणी इतिहासकारों के बीच आम सहमति है।

भारत की जाति व्यवस्था की खासियत के बारे में बात करते हुए धवले कहते हैं कि विश्व के सभी समाजों में सामाजिक संस्तकरीकरण मौजूद था लेकिन भारत की विशिष्टता यह थी कि यहाँ इसे धार्मिक मान्यता प्राप्त थी। यह भी एक सटीक बात नहीं है। दुनिया के अन्य हिस्सों में भी प्राचीन धर्मों ने विभिन्न प्रकार की सामाजिक असमानताओं को मान्यता दी थी। धर्मों की ऐतिहासिक भूमिका अन्तिम विश्लेषण में हमेशा से यही रही है। मिसाल के तौर पर, प्राचीन यूनानी और रोमन धर्म, प्राचीन मिस्र के धर्म और इस दौर के अन्य बहुदेववादी धर्मों या कल्ट्स में सामाजिक असमानताओं को वैधीकरण दिया गया था। भारत में मामले जो बात विशिष्ट थी वह यह थी कि आरम्भिक वैदिक समाज में पैदा हुए श्रम विभाजन को धार्मिक व कर्मकाण्डीय तौर पर अश्मीभूत (ऑसिफाई) कर दिया गया। यह महज़ धार्मिक मान्यता नहीं, बल्कि एक प्रकार का जीवाश्मीकरण (फॉसिलाइज़ेशन) था और इसमें कर्मकाण्डीेय प्रकार्य की महती भूमिका थी। यदि हम यह कहते हैं कि दुनिया के अन्य  समाजों में धर्म ने सामाजिक असमानता को मान्यता प्रदान नहीं की तो हमें बताना पड़ेगा कि ये धर्म किस सामाजिक-आर्थिक व राजनीतिक प्रक्रिया के फलस्वरूप अस्तित्व में आए और उनका सामाजिक प्रकार्य क्या था? ज़ाहिर है, धवले इस विशिष्ट प्रकार की धार्मिक मान्यता के चरित्र को नहीं समझ पाए हैं और इसलिए यह दावा कर बैठे हैं कि सामाजिक असमानता को ऐसी धार्मिक मान्यता केवल भारत में प्राप्त हुई।

आगे यह कहा गया है कि भारत में सजातीय विवाह पर आधारित जातियों की स्थापना की बुनियाद में तमाम जनजातियों की मौजूदगी थी, जो कि भारत की अच्छी जलवायु, मृदा उर्वरता आदि के कारण अलग-अलग आत्म निर्भर जनजातियों के तौर पर बस गयीं; जबकि यूरोप की प्रतिकूल जलवायु में ऐसा नहीं हो सका जहाँ पर कि श्रमिकों के बड़े समूहों द्वारा ज़मीन पर काम करवाना एक बाध्यता थी, और इसलिए वहाँ दास व्यवस्था अस्तित्व में आयी। बकौल धवले, भारत में स्थिरीकृत कृषक जीवन शैली अपना चुकी अलग-अलग जनजातियाँ आर्य सभ्यता द्वारा विजित होने पर जातियों के रूप में हिन्दू समाज में शामिल हो गयीं। यह दावा धवले ने किस ऐतिहासिक शोध के आधार पर किया है, यह स्वयं एक शोध का विषय बन सकता है! वास्तव में, यूरोप में बड़े पैमाने पर श्रमिकों को शासक वर्ग खेती में लगाने लगा इसलिए दास प्रथा अस्तित्व  में नहीं आयी, बल्कि उस दौर में प्राचीन यूनानी व बाद में रोमन समाजों में आन्तरिक उत्पादन सम्बन्धों में परिवर्तन के साथ दास व्यवस्था के अस्तित्व में आने के कारण ही बड़े पैमाने पर दासों को खेती में लगाया जा सका। लेकिन धवले के लेख में तथ्य सिर के बल खड़े हो जाते हैं। प्राचीन यूनानी व रोमन दास व्यवस्था के बारे में पेरी एण्डरसन, मोज़ेज़ फिनले, जॉर्ज थॉमसन से लेकर डडली, पी.ए. ब्रण्ट तक के प्रामाणिक इतिहास-लेखन से इस बात को सिद्ध किया जा सकता है। सुधीर धवले के तर्क का यह नतीजा होगा कि भारत में तो वर्ण-जाति व्यवस्था पैदा होनी ही थी, क्योंकि यहाँ कि जलवायु और भौगोलिक परिस्थितियाँ ही ऐसी थीं! इसके अनुसार, जाति व्यवस्था भारतीय उपमहाद्वीप की विशिष्टता बन जाएगी, न कि सामाजिक संघर्षों के एक विशिष्ट रूप में घटित होने का परिणाम, जिसमें हमेशा ही अनिवार्यता और आकस्मिकता के बीच एक द्वन्द्व मौजूद होता है।

आर्यों और मूल जनजातियों के बीच के संघर्ष का विवरण देते हुए धवले कहते हैं कि इस संघर्ष और कृषि के विकास के साथ वर्ग समाज का विकास हुआ। इस विवरण में भी कई ग़लतियाँ हैं। पहली बार डी.डी. कोसाम्बी ने और बाद में अन्य  इतिहासकारों ने इस बात की ओर इशारा किया कि वैदिक आर्यों के आने के पहले ही आर्यों के प्रवासन की कुछ लहरें भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर-पश्चिमी भागों में बस चुकी थीं और ये वैदिक-पूर्व आर्य यहाँ के मूलनिवासियों (जिनमें सम्भवत: पतित हो चुकी हड़प्पा सभ्यता के कुछ तत्व भी शामिल थे) के साथ मिश्रित हो चुकी थी। जब वैदिक आर्य आये तो उनका टकराव इस मिश्रित आबादी के साथ हुआ, केवल मूल निवासी जनजातियों के साथ नहीं। इन मिश्रित जनजातियों को वैदिक आर्यों ने लम्बे संघर्ष में पराजित किया और कुछ जनजातियाँ बिना संघर्ष के वैदिक आर्य सभ्यता में सम्मिलित हो गयीं। विजित कबीले आगे चलकर शूद्र वर्ण का निर्माण करते हैं, जिनमें मिश्रित कबीलें, आर्य कबीले, और मूल निवासी कबीले शामिल थे। शूद्र वर्ण के निर्माण के साथ चतुर्वण्य व्यवस्था अस्तित्व में आयी, जिसका पहला सन्दर्भ ऋग्वेद के पुरुषसूक्त के दसवें मण्डल में मिलता है। लेकिन इस वर्ण व्यवस्था में अभी आज की वर्ण-जाति व्यवस्था की कोई भी बुनियादी चारित्रिक अभिलाक्षणिकता नहीं थी, जैसे कि आनुवांशिक श्रम विभाजन, सजातीय विवाह या अस्पृश्यता। इसलिए कोसाम्बी ने वर्ण व्यवस्था को उसके उद्भव के बिन्दु पर उस समय का वर्ग विभाजन कहा है। यह दौर प्रारंभिक वैदिक काल के उत्तरार्द्ध का दौर था। दूसरी बात यह है कि वर्ग समाज के उदय में मूल निवासी कबीलों की प्रमुख भूमिका नहीं थी, जैसा कि धवले कहते हैं। वास्तव में, कृषि के इस स्तर तक विकसित होने तक जिससे कि अधिशेष उत्पादन हो सके, वर्ग समाज का प्रादुर्भाव सम्भव ही नहीं था। यह सातवीं सदी ईसवी पूर्व में लोहे की खोज के बाद ही सम्भव हो सका। यही कारण था कि छठीं सदी ईसवी पूर्व से पांचवी सदी ईसवी पूर्व के बीच ही गंगा के मैदानों में वर्ग और राज्यसत्ता की उत्पत्ति हो सकी। इसके साथ ही एक वर्ग समाज का उदय हुआ, जो कि पुरुषसूक्त में वर्णित चतुर्वर्ण व्य‍वस्था में प्रतिबिम्बित हो रहा था। इसके पहले विजित कबीलों को या तो मार दिया जाता था और महज़ उनकी स्त्रियों को दास बनाया जाता था (हालाँकि तब इन स्त्रियों से उत्पन्न होने वाली सन्तानों को क्षत्रिय या ब्राह्मण वर्णों में बिना भेदभाव सम्मिलित कर लिया जाता था, क्योंकि अभी इस श्रम विभाजन का कर्मकाण्डीय अश्मीभूतीकरण सम्पन्न नहीं हुआ था) या फिर उन्हें वैदिक समाज में सम्मिलित कर लिया जाता था। पुरोहित ब्राह्मण्य संस्तर में शामिल हो जाते थे, योद्धा राजन्य संस्तर में और आम श्रमिक आबादी विस् संस्तर में। केवल अधिशेष उत्पादन और वर्ग समाज के आरम्भ के बाद ही इन विजित कबीलों को एक नये अधीनस्थ संस्तर शूद्र में रखा गया और चतुर्वर्ण व्यवस्था अस्तित्व में आयी, जो उस समय में वर्ग विभाजन को प्रतिबिम्बित कर रही थी। कोसाम्बी के अनुसार, अपने आरम्भ बिन्दु पर वर्ण स्वयं वर्ग थे जो आगे धार्मिक कर्मकाण्डीय अश्मीभूतीकरण के साथ आनुवांशिक श्रम विभाजन और सजातीय विवाह पर आधारित वर्ण व्यवस्था के रूप में सामने आये। लेकिन यह पूरी प्रक्रिया धवले के विवरण में बहुत-सी त्रुटियों के साथ आयी है। संक्षेप में जटिल ऐतिहासिक प्रक्रियाओं का विवरण देना स्वयं एक जटिल कार्य होता है, साथी धवले को इस उपक्रम में अधिक सावधानी बरतने की आवश्यकता थी। (जाति व्यवस्था के इतिहास के विषय में विस्तार से जानने के लिए देखें, https://redpolemique.wordpress.com/2014/01/18/historiography-of-caste-some-critical-observations-and-some-methodological-interventions/)

यह चतुर्वर्ण विभाजन धार्मिक-कर्मकाण्डीय तौर पर अश्मीभूत और जीवाश्मीकृत होता है, जिसके नतीजे के तौर पर वर्ण और वर्ग के बीच का अतिच्छादन एक संगति (करेस्पॉण्डेंस) के सम्बन्ध में तब्दील हो जाता है। इसके बाद, औपनिवेशिक दौर तक वर्ण-जाति समूहों और वर्ग समूहों में तो काफी हद तक अतिच्छादन बना रहा, लेकिन वर्ण-जाति और वर्ग के बीच का अतिच्छादन अब एक संगति और तंतुबद्धीकरण में तब्दील हो चुका था। इस संगति के सम्बन्ध के कारण वर्ग व्य‍वस्था में आने वाले किसी भी बड़े रूपान्तरण के साथ वर्ण-जाति व्यवस्था के ढाँचे में उथल-पुथल और परिवर्तन होते रहे हैं। धार्मिक संहिताओं से वर्ण-जाति व्यवस्था निगमित नहीं हो रही थी, बल्कि उत्पादन सम्बन्धों और वर्ग सम्बंन्धोंं से अति‍-निर्धारित हो रही वर्ण-जाति व्यवस्था धार्मिक संहिताओं को निर्धारित कर रही थी। यही कारण था कि सामंतवाद के उदय के साथ ब्राह्मण वर्ण-जाति में परिवर्तन आता है और जिस भूस्वामित्व को पहले के धार्मिक ग्रन्थों में उसके लिए वर्जित बताया गया था, नयी धार्मिक संहिताओं में वही भूस्वामित्व ब्राह्मणों के लिए वांछनीय हो गया। कारण यह था कि सामन्त‍वाद के दौर में हुए विनगरीकरण, विमौद्रीकरण और अर्थव्यवस्था के स्थानीयकरण के कारण पुरोहिती की सेवाओं के लिए ब्राह्मणों का मुद्रा या वस्तुओं की बजाय भूमि अनुदान के रूप में भुगतान करना क्षत्रिय व गैर-क्षत्रिय शासकों के लिए ज्यादा अनुकूल हो गया, क्योंकि भूमि समृद्धि का प्रमुख रूप बन चुकी थी। सामन्तवाद के उदय के पहले की धार्मिक संहिताओं में वस्तुओं के अतिरिक्त कोई भी अन्य उपहार स्वीकार करना ब्राह्मणों के लिए वर्जित था। लेकिन अब वस्तुओं का उपहार भिक्षा स्वीकार करने वाले ब्राह्मण निम्न कोटि के माने जाने लगे जबकि भूस्वािम ब्राह्मण उच्च श्रेणी के माने जाने लगे। उसी प्रकार शूद्र और वैश्य वर्ण में भी सोलह जनपदों व मौर्य शासन के दौरान परिवर्तन आये। चतुर्वर्ण व्यवस्था के बाहर कई जनजातियों के अन्त्यज जातियों के रूप में स्थापित होने के साथ और दूसरे नगरीकरण (पहला नगरीकरण हड़प्पा सभ्य्ता के दौरान हुआ था) के दौरान वैश्य व्यापार में चले गये, जबकि शूद्र अधीनस्थ किसानों के वर्ण के रूप में स्थारपित हो गये। जो वैश्य व्यापार में नहीं जा सके, उसकी अवस्थिति वर्ण पदानुक्रम में भी शूद्रों की हो गयी और जो शूद्र खेतिहर पेशे में नहीं आ सके, वे हीन शूद्र जातियों के रूप में दर्ज हो गये, जैसे कि चाण्डाल जाति। उसी प्रकार, चरवाहे समाज से खेतिहर समाज में संक्रमण की प्रक्रिया में चर्मकार जाति की अवस्थिति भी अवनति का शिकार हुई और वे अन्त्यज या हीन शूद्र माने जाने लगे। इस बात के सैंकड़ों प्रमाण उपस्थि‍त किये जा सकते हैं कि वर्ग व्यवस्था और उत्पादन सम्बन्धों में आने वाले परिवर्तनों के कारण वर्ण-जाति व्यवस्था में भी परिवर्तन आये। इसके लिए सुवीरा जायसवाल व रामशरण शर्मा ने गृहपति शब्द‍, असुर, दास व दस्यु शब्दों के बदलते अर्थों की जो व्याख्या की है, वह पढ़ने योग्य है।

सुधीर धवले का यह कहना कि सामन्तवादी व्यवस्था जाति व्यवस्था पर आधारित थी, त्रुटिपूर्ण है। वास्तव में, सामन्ती व्यवस्था ने भारतीय उपमहाद्वीप के अलग-अलग हिस्सों  में जो स्वरूप लिया, उसके अनुसार उसने जाति व्यवस्था को ढाला। यही कारण है दक्षिण भारत और उत्तर-पूर्वी भारत में जाति-वर्ण व्यहस्था में बीच के दो मध्यवर्ती वर्ण शुरुआत में थे ही नहीं, यानी वैश्य और क्षत्रिय। इन क्षेत्रों में जाति-वर्ण व्यवस्था का विस्तार बकायदा तब होता है, जबकि सामन्ती‍ व्य वस्था आ चुकी थी। दक्षिण भारत में किसानों के बीच से एक शासक वर्ग पैदा हो गया था और किसान राज्य अस्तिव में आ चुके थे। कृषि उस समय तक जाति-वर्ण व्यवस्था के उद्भव व विकास के मूल क्षेत्र (गंगा के मैदान व उत्तर-पश्चिमी प्रान्त) में शूद्र वर्ण का पेशा बन चुकी थी। इसलिए दक्षिण भारत की शासक वेल्लार जाति को ब्राह्मणों ने शूद्र वर्ण में तो स्थापित किया, लेकिन नवरचित संहिताओं में असत शूद्र और सत शूद्र में अन्तर कर दिया और सत शूद्र को ‘ब्राह्मणों के संरक्षक’ के रूप में परिभाषित किया, जो कि उत्तर भारत में क्षत्रियों के लिए इस्तेमाल की जाने वाली परिभाषा थी। यहाँ भी हम देख सकते हैं कि सामन्ती उत्पादन सम्बन्धों  में भारत के अलग-अलग हिस्सों में मौजूद वैविध्‍य के अनुसार जाति व्यवस्था ने अलग-अलग स्वरूप धारण किये। ब्राह्मणवाद सामन्तवाद के दौर में या मनुस्मृति रचे जाने के दौर में अस्तित्व में नहीं आया था, बल्कि शुद्धता और प्रदूषण के सिद्धान्त पर समाज में मौजूद वर्ग विभाजन को कर्मकाण्डीाय रूप से अश्मीभूत करने के विचारधारात्मरक उपकरण के तौर पर पहले से ही मौजूद था।

अस्पृश्य जातियों के उद्भव के विषय में धवले एक रहस्य  की बात करते हैं और फिर अम्बेडकर के ‘ब्रोकेन मेन’ (दलित) के सिद्धान्त का जिक्र करते हैं, जिसके अनुसार बुद्ध के दौर में तमाम जनजातियाँ, जिन्होंने बौद्ध धर्म को अपना लिया और गोमांस भक्षण को अपनाया, वे बौद्ध धर्म के हिन्दुओं के हाथों पराजय के बाद भी बौद्ध बनी रहीं और गोमांस भक्षण करती रहीं, और इसी वजह से उन्होंने ब्राह्मणों को और ब्राह्मणों ने उन्हें अपने बीच से बहिष्कृरत कर दिया; ब्राह्मणों ने उन पर अस्पृश्यता थोप दी। इस सिद्धान्त के बारे में धवले कुछ नहीं कहते हैं। वास्तव में, न तो अछूत जातियों का उद्भव इतिहासकारों के लिए आज कोई अबूझ पहेली है और न ही ऐतिहासिक प्रमाणों पर अम्बेडकर का सिद्धान्त सही ठहरता है। वास्तव में, बौद्ध धर्म ने गोमांस भक्षण की हिमायत की ही नहीं थी, उल्टे उसने तो जीव हत्या को ही ग़लत बताया था। दूसरी बात यह कि अछूत जातियों के पैदा होने की प्रक्रिया सामन्तवाद के उदय के काफी पहले शुरू हो चुकी थी। अस्पृश्यता पर बेहतरीन ऐतिहासिक शोध करने वाले प्रो. विवेकानन्द झा के अनुसार अस्पृश्यता के मूल सातवीं व छठीं सदी ईसवी पूर्व से देखे जा सकते हैं। दूसरी सदी ईसवी से लेकर छठीं सदी ईसवी तक अछूत जातियों की संख्या में वृद्धि होती रही और अस्पृयश्यता अपने चरम पर छठीं सदी से तेरहवीं सदी के बीच पहुँची। यह सामन्तवाद के पहले अस्तित्व में आ चुकी थी और सामन्तवाद के पतन के बाद भी मौजूद रही। यहाँ पर धवले के विवरण पर अनुराधा गाँधी के जाति-सम्बन्धी लेखन का स्पष्ट प्रभाव नज़र आता है, जिसमें जाति व्यवस्था  और अस्पृश्यता को सामन्तीं व्यवस्था के साथ जोड़ दिया गया है।

अम्बेडकर के इतिहास लेखन का सुधीर धवले ने सही तरीके से अध्ययन नहीं किया है। वे ‘कास्ट़: डेवलेपमेण्टस, जेनेसिस एण्ड मैकेनिज़्म’ नामक अम्बेंडकर के पेपर का सन्दर्भ देते हैं। उनका कहना है कि अम्बेडकर के अनुसार ब्राह्मणों ने या मनु ने जाति व्यवस्था् को पैदा नहीं किया था, बल्कि समाज ने उसे स्वयं ही अंगीकार कर लिया था। यह विवरण सटीक नहीं है। अम्बेडकर ने इस पेपर में कहा है कि जाति का आधार सजातीय विवाह की व्यजस्था है, जो मूलत: ब्राह्मणों की परम्परा थी। ब्राह्मणों ने इसे समाज पर थोपा नहीं बल्कि समाज में अपनी परम्पराओं और मूल्यों की श्रेष्ठता के बोध को स्थापित कर दिया, जिससे कि बाकी समाज भी उसका अनुसरण करने लगा। इस पेपर में अम्बेडकर ने समाजशास्त्री  गैब्रियल टार्डे के ‘सामाजिक अनुसरण’ के सिद्धान्त  को लागू करने का प्रयास किया है। लेकिन फिर प्रश्न यह उठता है कि यदि ब्राह्मण जाति व्यवस्था के विकास के पहले से ही मौजूद थे, तो ब्राह्मणों को किसने पैदा किया था? इस प्रश्न का जवाब 1916 में न तो अम्बेडकर ने दिया था, न ही आज सुधीर धवले के समान अम्बेडकर के इस सिद्धान्त का अनुमोदन के साथ उद्धृत करने वाले अन्य लोग देते हैं।

जाति व्य‍वस्था में पहले बड़े प्रहार के रूप में लेख में इस्लामिक शासन को देखा गया है। यह बात भी सत्य से बहुत दूर है। वास्तव में, जाति व्यवस्था को पहले दिल्ली सल्तनत और फिर मुगलिया हुक्मरानों ने अपने अनुसार सहयोजित किया। इसका सबसे प्रातिनिधिक उदाहरण यह है कि चौदहवीं सदी में दिल्ली सल्तनत के एक शासक ने एक फरमान जारी किया जिसमें बंगाल की एक क्षत्रिय जाति की पदावनति कर उसे वैश्य जाति में तब्दील कर देने का आदेश दिया गया था। एक मुसलमान शासक को जाति व्यवस्था के पदानुक्रम से क्या लेना था? जब अरब आक्रांताओं के सेनापति ने सिन्ध में जाति व्यवस्था को देखा तो उनके सेनापति ने कहा कि ऐसी चीज़ उनके पास होनी चाहिए थी! वास्तव में, धवले का यह तथ्य  भी ग़लत था कि शुरू में केवल निम्न जातियों के लोग इस्लाम में धर्मान्तरित हुए और बाद में जब उच्च जाति के लोग भी राजनीतिक लाभ के लिए मुसलमान बने तब इस्लाम में जाति व्य‍वस्था पैदा हो गयी। वास्तव में, उच्च व निम्न दोनों ही जातियों के लोग (हालाँकि निम्न जातियों से कुछ ज्यादा) शुरू से ही स्वेच्छा या बल-प्रयोग से धर्मांतरित हुए और इस्लामी शासकों के लिए भी जाति व्यवस्था  शुरू से ही शोषण, उत्पी ड़न और दमन का उतना ही पुख्ता हथियार बनी। इस विषय में इरफ़़ान हबीब का एक लेख ‘भारतीय इतिहास में जाति’ पढ़ने योग्य है।

धवले दावा करते हैं कि इस्लामिक शासन एक आधुनिक सामन्ती व्यवस्था लेकर आया, दस्तकारों के गिल्ड़ की व्यवस्था लेकर आया और उसने शहरीकरण किया, जिससे जाति टूटी। इसमें पहला दावा आंशिक रूप से सही है, हालाँकि उसे आधुनिक सामन्तीं व्यवस्था की बजाय निरंकुश राजशाही के सिद्धान्त पर आधारित सामन्ती  व्यवस्था कहा जाय तो बेहतर होगा। लेकिन दूसरे और तीसरे दावे बिल्कुल ग़लत हैं। पहली बात तो यह है कि दस्तकारों के गिल्डों की व्यवस्था ने जाति व्यवस्था को कमज़ोर नहीं किया बल्कि मज़बूत किया और नयी दस्तकार जातियों को स्थापित और रूढ़ बनाया। दूसरी बात यह कि हर प्रकार का शहरीकरण जाति को कमज़ोर नहीं करता, केवल पूँजीवादी शहरीकरण ऐसा करता है। अन्यथा सोलह जनपदों या मौर्यकाल में हुए शहरीकरण के दौरान भी जाति व्यवस्था कमज़ोर होनी चाहिए थी, जबकि वह मज़बूत हुई। यहाँ धवले डॉ. अम्बेडकर की शहरीकरण के जाति व्यवस्था पर प्रभाव वाली बात को भी नहीं समझ पाए हैं और मार्क्स द्वारा शहरीकरण के जाति व्यवस्था पर प्रभाव वाली बात को भी नहीं समझ पाए हैं। औद्योगीकरण, रेलवे और आधुनिकीकरण के आधार पर होने वाला शहरीकरण ही जाति को कमज़ोर कर सकता है, न कि प्राक्-पूँजीवादी दस्तीकारी उत्पापदन के आधार पर होने वाला शहरीकरण।

अंग्रेजी शासन को पहले सुधीर धवले जाति व्यवस्था पर सबसे बड़ी चोट क़रार देते हैं और फिर बाद में लिखते हैं कि अंग्रेजी शासन ने न तो जाति व्यवस्था को बदला और न ही उसे छुआ! आप हैरत में पड़ जाते हैं। अंग्रेजी शासन के तीन प्रभावों की वे बात करते हैं : पहला है जाति आधारित जनगणना आदि के शुरुआत के जरिये जाति को रूढ़ बनाना; दूसरा, नौकरशाही, शिक्षा, सेना, पुलिस आदि में पश्चिमी ढाँचे को लाकर जाति को कमज़ोर करना; और तीसरा, उद्योग और रेलवे आदि के द्वारा एक मज़दूर वर्ग को पैदा करके जाति को कमजोर करना। सबसे अहम प्रभाव जो अंग्रेजी शासन ने दलित आबादी के ऊपर डाला उसे धवले भूल गये। यह प्रभाव अंग्रेजों द्वारा लागू की गयी तीन भूराजस्व प्रणालियों: स्था्यी बन्दोबस्त , रैयतवाड़ी बन्दोबस्त और महालवाड़ी बन्दोनबस्त का है। इनमें से पहले बन्दोबस्त ने सवर्ण जमींदारों को जमीन का वैधिक-न्यायिक मालिक बनाया, दूसरे और तीसरे बन्दो‍बस्त ने उच्च मध्यम व मध्यम किसान जातियों तथा सवर्णों को ज़मीन का मालिक बनाया। पहली बार ज़मीन में निजी सम्पत्ति को औपचारिक वैधिक रूप दिया गया और साथ ही दलित की भूमिहीनता पर भी एक दीर्घकालिक सील लगा दी गयी। दलितों में आज तक मौजूद भूमिहीनता को सुदृढ़ ढाँचागत रूप देने का काम वास्तव में अंग्रेजी भूराजस्व बन्दोबस्त ने किया जो कि औपनिवेशिक दौर में दलितों के सामन्ती शोषण-उत्पीड़न का प्रमुख आधार बना रहा।

दूसरी बात यह कि अंग्रेजों ने सेना और पुलिस में दलितों की भर्ती पर 1893 में ही रोक लगा दी थी, क्योंकि ब्राह्मणों ने इसका विरोध किया था; वैसे भी यह भर्ती पूरे भारत में नहीं बल्कि कुछ प्रेसीडेंसियों के कुछ क्षेत्रों में ही की जा रही थी, वह भी बड़े सीमित पैमाने पर। तीसरी बात यह कि शिक्षा में भी दलितों को दिया गया अधिकार वास्तव में आगे छीन लिया गया था। यही कारण था कि अय्यंकली को केरल में दलितों के सरकारी स्कूलों में शिक्षा के लिए आन्दोलन लड़ना पड़ा। बेहद कम जगहों पर दलित बच्चों को यह हक़ मिला था और जहाँ औपचारिक तौर पर मिला भी था वहाँ ब्राह्मणों व अन्य सवर्ण हिन्दुओं के विरोध के कारण स्वयं अंग्रेज प्रशासक इसे लागू नहीं करते थे। मिशनरियों के शिक्षा-सम्बन्धी कार्य का असर बेहद सीमित था। इस विषय में आनन्द तेलतुम्बेडे का दृष्टिकोण सन्तुंलित है। अगर इसका कोई वास्तविक प्रभाव पड़ा होता तो 1947 में लगभग 90 फीसदी दलित अशिक्षित न होते। हाँ, यह ज़रूर हुआ था कि सीमित औद्योगिक विकास और रेलवे के कारण जाति व्यवस्था की दो पंजियाँ, यानी आनुवांशिक श्रम विभाजन और छुआछूत कमज़ोर पड़े थे। लेकिन ये अंग्रेजी शासन की अपनी ज़रूरतों के लिए किये गये कामों से पैदा हुए उपोत्पाद थे। लुब्बेलुबाब यह कि अम्बेडकर के दावे के विपरीत अंग्रेजी शासन का प्रभाव दलित आबादी पर मूलत: और मुख्य त: नकारात्म‍क था। अन्त में, साथी धवले भी यही कहते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि डॉ. अम्बेडकर की आलोचना करते दिखे बिना आलोचना करने का प्रयास किया गया है।

डॉ. अम्बेडकर के राजनीतिक विचारों व प्रयोगों के विषय में साथी धवले के विचार

”किसी ग़लती को अखण्डित छोड़ना बौद्धिक बेईमानी है।”

                               – कार्ल मार्क्स

पेरियार को सुधीर धवले के लेख में ब्राह्मणवाद के विरुद्ध मध्यवर्गीय प्रतिक्रिया कहकर एक प्रकार से ख़ारिज कर दिया गया है। निश्चित तौर पर, पेरियार के आन्दोालन का चरित्र प्रगतिशील मध्यवर्गीय चरित्र था और अपने मध्यवर्गीय चरित्र के कारण ही बाद में वह अपने तमाम रैडिकल तत्वों  के बावजूद द्रविड़ अस्मिता के आन्दोलन में परिणत हो गया। लेकिन अम्बेडकर के आन्दोलन को भी कोई श्रमिक वर्गीय आन्दोलन नहीं कहा जा सकता। अम्बेडकर जीवनपर्यन्त ड्यूईवादी व्यवहारवाद पर अमल करते रहे, जो कि स्वयं एक मध्यमवर्गीय लिबरल पूँजीवादी विचारधारा ही थी। फुले के बारे में ज्यादा वैधता के साथ यह कहा जा सकता है कि उनका आन्दोलन एक निम्नवर्गीय और किसान-वर्गीय जाति-विरोधी आन्दोलन के करीब पड़ता था। इसीलिए, ब्राह्मणवाद की ‘गुलामगीरी’ में की गयी शानदार व्यंग्यात्मक आलोचना में अंग्रेजों को दलितों के मसीहा के तौर पर देखने से अपनी यात्रा की शुरुआत करने वाले ज्योतिबा फुले 1880 के दशक में ‘किसान का कोड़ा’ में यह लिखने पर पहुँच गये थे कि अंग्रेजों और ब्राह्मणों का खून एक है। व्यवहार से फुले यह समझने के करीब पहुँच चुके थे कि अंग्रेजी औपनिवेशिक सत्ता का चरित्र ब्राह्मणवाद के साथ जुड़ा हुआ है। लेकिन अम्बेडकर जीवनपर्यन्त कभी इस नतीजे तक नहीं पहुँचे। इसका मूल उनकी राजनीतिक विचारधारा व्यवहारवाद में है।

सुधीर धवले लिखते हैं कि अम्बेडकर महाड़ और नासिक के आन्दोलन के साथ सुधारवाद से आगे आ गये थे क्योंकि अब वे हिन्दुओं से सीधे टकराव तक जा रहे थे। इसके साथ अगर यह भी बताया गया होता कि महाड़ सत्याग्रह अन्त में सत्याग्रह के तौर पर हुआ ही नहीं और नासिक में भी अम्बेडकर राज्यसत्ता से किसी भी प्रकार के टकराव को टालते रहे, तो बेहतर होता। महाड़ आन्दोलन में वास्तव में क्या हुआ था, यह आनन्द तेलतुम्ब‍डे की हालिया पुस्तक ‘महाड़: दि मेकिंग ऑफ फर्स्ट  दलित रिवोल्ट’ से स्पष्ट‍ हो जाता है। इस पुस्तक में नासिक के आन्दोलन का विवरण भी है, जिसमें अम्बेडकर पुलिस सिपाहियों द्वारा दलितों पर रथ को खींचने के प्रयास के बाद हुए हमले के बाद औपनिवेशिक प्रशासन को पत्र लिखकर कहते हैं कि वे उस समय तैनात पुलिस अधिकारी पर कार्रवाई की माँग  नहीं करते, वे केवल हिन्दू सिपाहियों पर कार्रवाई की माँग करते हैं! ज़ाहिर है कि पुलिस सिपाही कभी भी अंग्रेज अधिकारी के आदेश के बिना दलितों पर हमला नहीं करते। लेकिन सरकार से टकराव किसी भी कीमत पर टाला जाना चाहिए! यही कारण है कि अम्बेेडकर ने दिसम्बर 1927 में महाड़ सत्याग्रह को वापस ले लिया था। तेलतुम्बडे अपनी पुस्तक में दिखलाते हैं कि सत्याग्रह के पहले ही वे कोलाबा के डीएम के समक्ष सत्याग्रह न करने की बात को स्वी़कार कर चुके थे। इसके बाद सत्याग्रह में वे बार-बार सत्याग्रह करने के प्रतिकूल परिणामों के बारे में लोगों को बताते रहे और अन्त‍ में इसे व्यापक जनसमुदायों की इच्छा के विपरीत वापस ले लिया; कारण यह था कि यह स्पष्ट हो चुका था कि सत्याग्रह का नतीजा सरकार से टकराव में सामने आयेगा। वास्तव में, महाड़ में, तेलतुम्बड़े के शब्दों, में एक दलित विद्रोह ही हुआ था। इस दलित विद्रोह को सुधारवाद और व्यवहारवाद के दायरे में सीमित करने का कार्य अम्बेडकर ने किया था। आनन्द तेलतुम्बडे का यह कहना बिल्कुल सत्य है कि अगर पहले महाड़ सम्मेलन (मार्च, 1927) के दौरान दलितों ने अपने ऊपर हुए हमले का जवाब दे दिया होता तो दलित मुक्ति के लक्ष्य  को दूरगामी तौर पर लाभ ही होता और अगर महाड़ सत्याग्रह (दिसम्बर, 1927) के समय सत्याग्रह वाकई हुआ होता तो भी ज्यादा से ज्या‍दा सरकार दलित प्रदर्शनकारियों को हिरासत में लेती, और फिर उन्हें कुछ मुकदमे लगाने आदि के बाद छोड़ देने के अलावा अंग्रेज सरकार के पास कोई रास्ता नहीं होता। लेकिन इन दोनों ही मौकों पर व्यापक मेहनतकश दलित आबादी को ‘सड़कों की रैडिकल लड़ाई’ (जिसकी धवले बार-बार हिमायत करते हैं) की ओर जाने से अम्बेडकर ने ही रोका। धवले यदि आनन्द तेलतुम्बडे की पुस्तक (जो कि महाड़ आन्दोलन पर हुआ अब तक का सर्वश्रेष्ठ शोध है) ठीक से पढ़ते तो महाड़ और नासिक के बारे में ऐसा आधारहीन दावा न करते।

डॉ. अम्बेडकर के साथ यह अन्याय होगा कि उन्हें  किसी न किसी रूप में मार्क्सवाद के करीब लाने का प्रयास किया जाय। अगर वे जीवित होते तो ऐसे उपक्रमों का विरोध करने वाले पहले व्यक्ति होते। उनकी ड्यूईवाद व्यवहारवाद में गहरी आस्था थी, जिसके निम्न बुनियादी गुण हैं : पहला, प्रकृति और समाज में हर परिवर्तन क्रमिक होता है, उसमें छलांगें नहीं लगतीं; दूसरा, हर परिवर्तन ऊपर से सरकार द्वारा लाया जाता है, क्योंकि सरकार ‘सर्वाधिक तार्किक अभिकर्ता’ और ‘महान मध्यस्थकर्ता’ होती है; तीसरा, जनता द्वारा ‘नीचे से’ बल प्रयोग से किया जाने वाला कोई भी प्रयोग व्यर्थ (वेस्टफुल) होता है क्योंकि इसमें हिंसा होती है; चौथा, सरकार द्वारा ऊपर से किये जाने वाले परिवर्तनों के अलावा समाज में व्यक्ति से व्यक्ति के बीच का पार्थक्य और असमानता ‘सोशल एण्डॉहस्मोंसिस’ (मूलत: इसका अर्थ है परस्पर समतापूर्ण अन्तर्क्रिया) के द्वारा समाप्त हो सकता है, जिसके लिए एक मानवतावादी धर्म की आवश्यकता है, जो कि सामाजिक आचार संहिता का कार्य करे; पाँचवा, सरकार के निर्णयों को प्रभावित करने के लिए बुद्धिजीवी वर्ग को सरकार के नीति-निर्माण को प्रभावित करना होता है । जिसने भी अम्बेडकर की बुनियादी रचनाएँ पढ़ी हैं, वह इन पाँचों गुणों को उनके विचारों में देख सकता है। आप महाड़ सम्मेलन में उनके भाषण को पढ़ें, या नासिक आन्दोलन के समय प्रशासन को लिखे गये उनके पत्र को पढ़ें, या फिर संविधान सभा में उनके द्वारा दिये गये भाषणों को पढ़ें, आपको ड्यूईवादी व्यवहारवाद की अनुगूँज सतत् सुनायी देगी।

धवले कहते हैं कि यह कहना ग़लत होगा कि डॉ. अम्बेडकर ने जाति उन्मूलन की बात नहीं की। ऐसा कौन कहता है, यह वे नहीं बताते! मूल प्रश्न यह है कि उन्होंने जाति के उन्मूलन का कोई रास्ता पेश किया या नहीं। क्या ‘जाति का उन्मूलन’ पुस्तिका में कोई रास्ता दिया गया है? धवले खुद ही स्वीकार करते हैं कि ऐसा नहीं है। इस रचना में अम्बेडकर कहते हैं कि हर समाज में बुद्धिजीवी वर्ग प्रमुख वर्ग होता है और चूँकि हिन्दू  समाज के बुद्धिजीवी वर्ग की भूमिका ब्राह्मण निभाते हैं, इसलिए वे जाति के उन्मूलन पर कभी राज़ी नहीं होंगे, और अन्य गैर-दलित भी जाति के उन्मूलन पर राज़़ी नहीं होंगे। ऐसे में, उनके अनुसार धर्मान्तरण एकमात्र रास्ता बचता है। लेकिन धर्मान्तरण के विषय में ही अम्बेडकर ने एक स्थान पर दलितों से पूछा है कि क्या तुम्हें लगता कि तुम्हारे ईसाई बन जाने से तुम्हें  गाँव के कुँए से पानी पीने दिया जायेगा? फिर अम्बेेडकर स्वयं ही जवाब देते हैं कि नहीं! यानी वे भी जानते थे कि धर्मान्तरण से जाति से मुक्ति नहीं मिलने वाली है। यही कारण है कि उन्होंने धर्मान्तंरण पर विचार और फैसला तो 1927 से 1930 के दशक की शुरुआत में ही ले लिया था, लेकिन वे धर्मांतरित हुए 1956 में, मृत्यु  के ठीक पहले। क्योंकि यह उनका अन्तिम हताश कदम था।

धवले यह भी नहीं बताते कि अम्बेडकर ने धर्मान्तरण के लिए जिस पहले धर्म पर विचार किया था वह क्यों और किसकी सलाह पर किया था। वह उन्होंने हिन्दू महासभा के नेता मूंजे की सलाह पर किया था। इसके लिए अम्बेडकर ने दलितों को यह तर्क दिया था कि सिख धर्म अपनाकर वे केवल हिन्दू धर्म के दायरे से बाहर जाएंगे लेकिन हिन्दू सभ्यता के दायरे के भीतर रहेंगे, इसलिए उन्हें  सिख धर्म अपनाना चाहिए। केवल जब अम्बेडकर को यह स्पष्ट हो गया कि मास्टर तारा सिंह के नेतृत्व में जट्ट सिख दलितों के धर्मांतरण के विरुद्ध हैं व धर्मांतरित हो चुके दलितों के साथ सिख धर्म में भी बदस्तूर अत्याचार हो रहे हैं और जब ब्रिटिश सरकार ने धर्मांतरित दलितों को अलग धार्मिक समुदाय का अंग मानने से इंकार कर दिया, तब अम्बेडकर ने सिख धर्म में धर्मांतरण का विचार छोड़ दिया। क्या इसे धवले द्वारा तथ्यों की चयनपूर्ण प्रस्तुति नहीं माना जाना चाहिए?

संविधान के विषय पर एक जगह सुधीर धवले लिखते हैं कि उन्होंने उन्नत जनवादी मूल्यों वाला संविधान बनाया। एक अन्य स्थान पर वह लिखते हैं कि संविधान बनाने में अम्बेडकर अपने इच्छित कार्य को नहीं कर पाए। दूसरी बात आंशिक तौर पर सच है, हालाँकि अम्बेडकर द्वारा मंत्री पद और सरकार त्यागने का एकमात्र कारण हिन्दू कोड बिल पर प्रतिक्रियावादी हिन्दू नेताओं द्वारा किया गया प्रतिरोध नहीं था, बल्कि यह भी था कि अम्बेडकर श्रम मन्त्रालय चाहते थे, ताकि बुर्जुआ जनवादी सुधार कर सकें। पहली बात पर निश्चित तौर पर संदेह किया जा सकता है, क्योंकि संविधान 1935 के ‘गवर्नमेण्टर ऑफ इण्डिया एक्ट’ का ही संशोधित रूप था और तमाम दमनकारी धाराओं को उसमें सम्मिलित किया गया था। यह भूलना नहीं चाहिए कि आपातकाल लगाने का प्रावधान संविधान में शुरू से था। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि संविधान में पहले सम्पत्ति का अधिकार मूलभूत अधिकार के तौर पर शामिल था, जिसे कि बाद में मूलभूत अधिकारों से हटाया गया था। ये सब अम्बेडकर द्वारा निर्मित संविधान में ही था।

एक स्थान पर ‘स्टेट एण्ड  माइनॉरिटीज़’ के बारे में धवले कहते हैं कि इस रचना में ‘राज्य द्वारा समर्थित समाजवाद’ की अम्बेडकर ने हिमायत की थी। पहली बात तो यह है कि ‘राज्य द्वारा समर्थित समाजवाद’ या ‘राजकीय समाजवाद’ एक मिस्नोमर (अंतरविरोधी संज्ञा) है। जो कार्यक्रम अम्बेडकर ने प्रस्तावित किया था वह और कुछ नहीं बल्कि ‘लेबर पार्टी ऑफ ब्रिटेन’ व फेबियन पार्टी के आर्थिक कार्यक्रम की एक बुरी प्रतिलिपि थी और कुछ मायने में उससे भी पिछड़ी हुई थी। अम्बेडकर ने बाद में कुंजीभूत उद्योगों में से भी कुछ को निजी हाथों में देने की वकालत की थी।

धवले कहते हैं कि संविधान ने औपचारिक तौर पर अस्पृश्यता को खत्म कर एक योगदान किया लेकिन चूँकि अस्पृश्यता का मूल सामाजिक-आर्थिक सामन्ती व्यवस्था में था और उसे ”हिलाने-डुलाने” के लिए संविधान में कुछ नहीं किया गया। बकौल धवले, अम्बेडकर इस सामन्ती सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था पर चोट करना चाहते थे। यह भी मनमुआफिक तथ्यों को पेश करना है। यह सच है कि अम्बेेडकर सामन्तवादी व्यवस्था का विरोध करते थे। लेकिन उसके नाश के लिए भी वे कोई क्रान्तिकारी या रैडिकल कदम उठाने के हिमायती नहीं थे। क्या  साथी धवले यह जानते हैं कि अम्बेडकर ने बिना मुआवज़ा जागीरों और सामन्ती ज़मीनों की ज़ब्ती का विरोध किया था? अगर वे नहीं जानते, तो एक वाम अम्बेडकरवादी के तौर पर उन्हें जानना चाहिए और अगर जानते हैं, तो यहाँ पर उसका जि़क्र न करना बौद्धिक आचार के अनुसार उचित प्रतीत नहीं होता। क्या, उन्हेंे पता है कि जिन सामन्ती रजवाड़ों को भारतीय संघ में मिलाया गया उन्हें प्रिवी पर्स देने का सुझाव अम्बेडकर का था? यदि संविधान और उसके निर्माण में डॉ. अम्बेडकर की भूमिका की चर्चा होनी चाहिए तो सम्पूर्णता में होनी चाहिए, सिर्फ हिन्दू् कोड बिल के आधार पर नहीं।

धवले अम्बेडकर के लिए नयी विचारधारात्मक पहचान निर्मित करने का प्रयास करते हैं। उनका कहना है कि फुले और अम्बेडकर जातिगत पहचान के हिमायती नहीं थे, लेकिन ‘वर्ग अन्तरविरोध की अवधारणा के निर्माण के प्रारम्भिक चरण’ में वे जातिगत पहचान से बच नहीं सके। पहली बात तो इस विषय में फुले और अम्बेडकर का नाम एक साथ नहीं लिया जा सकता है। दूसरी बात फुले के विषय में यह बात आंशिक तौर पर लागू होती है। तीसरी बात, अम्बेेडकर के विषय में यह बात लागू नहीं होती है। जिस समय, धवले के अनुसार, अम्बेडकर वर्गीय राजनीति की ओर संक्रमण कर रहे थे, यानी इण्डिपेण्डेण्ट लेबर पार्टी के समय, उस समय में भी डॉ. अम्बेडकर अपने भाषणों और साक्षात्कारों में अन्तरविरोधी बातें कह रहे थे क्योंेकि इण्डिपेण्डेण्ट लेबर पार्टी उनके लिए, मूलत: और मुख्यअत:, पूना पैक्ट के बाद के दौर में पैदा हुई राजनीतिक परिस्थिति में लागू की जाने वाली एक राजनीतिक रणनीति थी। मिसाल के तौर पर, यदि आप डॉ. अम्बेडकर पर हाल में आई क्रिस्टोफर जेफरलोट की पुस्तक ‘डॉ. अम्बेडकर एण्ड अनटचेबिलिटी’ पढ़ें तो आप पाते हैं कि 1937 में ही अम्बेडकर कहते हैं कि भारतीय समाज के विश्लेषण में वर्ग उपयोगी श्रेणी नहीं है और जाति का उत्पादन के सम्बन्धों तक पहुँच से कोई लेना-देना नहीं है। यानी, आईएलपी का घोषणापत्र वह कह रहा था जो कि पूना पैक्ट के बाद की चुनावी रणनीति के अनुसार उपयोगी था, और डॉ. अम्बेडकर इस समय भी वह कह रहे थे जिस पर उनका भरोसा था। इसलिए ज़बरन डॉ. अम्बेडकर को मार्क्सवादी या अचेतन मार्क्सवादी बनाने का प्रयास नहीं किया जाना चाहिए। यह उनकी राजनीतिक विरासत के साथ भी अन्याय होगा।

अब हम इस पर आते हैं कि अम्बेडकर ने ‘इण्डिपेण्डेण्ट लेबर पार्टी’ क्योंकि बनायी थी और 1935-36 में ही क्यों  बनायी थी, उसके पहले क्यों नहीं और साथ ही कुछ समय बाद उन्होंने इस ”वर्गीय” रणनीति को छोड़कर अस्मिता-आधारित रणनीति क्यों अपना ली और ‘शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन’ क्यों बना लिया। धवले का कहना है आईएलपी का निर्माण वर्गीय राजनीति को ओर उनका शिफ्ट था। लेकिन इस विषय पर हुए कई शोध यह दिखलाते हैं कि पूना पैक्ट में सेपरेट इलेक्टोरेट की बजाय आरक्षित सीट पर सहमत होने के बाद एक पहचान-आधारित दल के आधार पर चुनाव लड़ने का कोई अर्थ नहीं था। नतीजतन, एक मास-आधार वाली पार्टी बनाने का निर्णय लिया गया और इसीलिए आंशिक तौर पर ब्रिटिश लेबर पार्टी की तर्ज़ पर अम्बेडकर ने आईएलपी का निर्माण किया। जब पहले ही चुनाव में आईएलपी का प्रदर्शन बेहद ख़राब रहा तो फिर अम्बेडकर वापस एक दलित नेता की पहचान की ओर वापस लौटते हैं। इसी दौर में, क्रिप्स मिशन भी अपना काम कर रहा था। अम्बेडकर ने एक बार फिर से न केवल सेपरेट इलेक्टोरेट की माँग उठायी बल्कि यह भी माँग उठायी कि दलितों के अलग गाँव बसाए जाएँ और इन गाँवों में गैर-दलित के प्रवेश पर शुल्के लगाए जाएँ। यही नहीं, उन्होंने एक अंग्रेज़ अधिकारी बेवरली निकोलस को पत्र लिखकर कहा कि अंग्रेज़ जाने से पहले ये अलग गाँव जरूर बसाकर जाएँ और इसके लिए उन्हेंे अगर दलितों का बलपूर्वक प्रवासन भी कराना पड़े तो उन्हें करवाना चाहिए! इन्हीं विचारों के आधार पर आईएलपी को छोड़कर डॉ. अम्बेडकर ने फिर से दलित पहचान वाला एक संगठन एससीएफ बनाया, हालाँकि यह भी असफल रहा। इसका एक कारण यह भी था कि आज़ादी से ठीक पहले वायसराय की काउंसिल में रहना और ब्रिटिश सरकार के युद्ध प्रयास में सहायता करने के कारण अम्बेडकर आम जनता से कट गये थे। देशव्यापी स्तर पर किसी भी मानक से उस समय अम्बेडकर से ज्यादा दलित आबादी कांग्रेस और फिर कम्युनिस्टों के साथ थी। इसके लिए कोई भी व्यक्ति ऐतिहासिक स्रोतों की जाँच कर सकता है। लेकिन धवले डॉ. अम्बेडकर की बदलती चुनावी रणनीति के विषय में विस्तार में जाने और उसके कारण बताने की बजाय कहते हैं कि ”राजनीतिक अपरिहार्यताओं के कारण” वर्गीय राजनीति की ओर अपने संक्रमण को अम्बेडकर ने छोड़ दिया! वे राजनीतिक अपरिहार्यताएँ क्या थीं, इस पर सुधीर धवले ने मौन धारण कर लिया है। अम्बेडकर को मार्क्सरवाद के करीब लाने के इस व्यर्थ प्रयास से न तो अम्बेडकरवाद को कोई लाभ है और न ही मार्क्सतवाद को, और यह बौद्धिक ईमानदारी का परिचायक भी नहीं है।

सुधीर धवले के अनुसार ‘स्टेट्स एण्ड  माइनॉरिटीज़’ के लेखन के बाद डॉ.अम्बेडकर को स्टेट्समैन के रूप में देखा जाने लगा और फिर उन्हें संविधान बनाने की जिम्मेेदारी दी गयी। यह भी त्रुटिपूर्ण ब्यौ‍रा है। कांग्रेस और अन्य राजनीतिक धाराएँ पहले से ही अम्बेडकर को एक स्टेट्समैन के तौर पर ही देखती थीं। सच्चाई यह थी कि 1946 के बाद डॉ. अम्बेडकर हाशिये पर चले गये थे क्योंकि आईएलपी और एससीएफ दोनों की ही रणनीतियाँ बुरी तरह से असफल हो चुकी थीं। एक तरह से प. बंगाल में अपनी एक सीट खाली कर कांग्रेस उन्हें वापस मुख्य धारा में ले आयी और संविधान के मसौदे को तैयार करने वाली समिति में रखा। इसके लिए डॉ. अम्बेडकर अपने संविधान सभा के भाषणों में बार-बार कांग्रेस को धन्यवाद देते हुए भी दिखते हैं, हालाँकि इसी कांग्रेस के बारे में एक बार उन्होंने कहा था कि कोई आत्मसम्मान वाला व्यक्ति कांग्रेस के साथ सहयोग-सहकार नहीं कर सकता है। कारण यह था कि अम्बेडकर ने सरकार के साथ हमेशा सहयोग-सहकार की नीति ही अपनायी क्योंकि उनके ड्यूईवादी व्यवहारवादी दर्शन के अनुसार यही सही था, जो यह कहता था कि सरकार सबसे तार्किक अभिकर्ता और महान मध्यस्थ‍कर्ता होती है। पहले महाड़ सम्मेलन में ही अम्बेडकर ने अपने भाषण में कहा था कि ”सरकार सबसे प्रमुख और ताकतवर संस्था होती है। सरकार जैसा सोचती है, चीज़ें वैसे ही घटित होती हैं।” (देखें, आनन्दभ तेलतुम्बडे, ‘महाड़: दि मेकिंग ऑफ फर्स्ट दलित रिवोल्ट’, आकार प्रकाशन) इसलिए सरकार में चाहे अंग्रेज़ हों या कांग्रेस, अम्बेडकर उसके साथ सहयोग की नीति पर अमल करते हैं।

धवले दावा करते हैं कि डॉ. अम्बेडकर मार्क्सवाद के मानवतावाद को स्वीकार करते हैं, हालाँकि उन्हें ‘मार्क्सवाद के क्रान्ति के रास्ते’ पर आपत्ति थी। यह भी ग़लत दावा है। यदि आप ‘बुद्ध और मार्क्स’ पढ़ें तो दो बातें साफ हो जाती हैं: एक बात यह कि डॉ. अम्बेंडकर ने यह पुस्तक लिखने से पहले मार्क्सवाद की एक भी मौलिक पुस्तक का अध्ययन नहीं किया था (मिसाल के तौर पर, वे कहते हैं कि मार्क्स का कहना था कि ‘दुनिया की व्याख्या करने की कोई ज़रूरत नहीं है, सवाल इसे बदलने का है’ और यह कि मार्क्स द्वारा ‘पूँजी’ लिखने के सत्तर साल बाद रूस में क्रान्ति हुई; ज़ाहिर है, अम्बेेडकर ‘पूँजी’ को ‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र’ से गड्डमड्ड कर बैठे थे); दूसरी बात यह स्प‍ष्ट होती है कि अम्बेडकर का मानना था कि मार्क्सवाद में जो भी सही है, वह बुद्ध पहले ही कह चुके थे और जो भी नया है वह ग़लत है (जैसे वर्ग अधिनायकत्व और ‘हिंसात्मतक क्रान्ति’ का सिद्धान्त, आदि); इसलिए अम्बेडकर का मार्क्सवाद के प्रति नज़रिया दुराव का था। यही कारण था कि उन्होंने मार्क्सवाद का ‘सुअरों का दर्शन’ भी कहा था। ऐसे में, ज़बरन मार्क्सवाद को डॉ. अम्बेडकर पर थोपना न सिर्फ ग़लत है, बल्कि अनैतिक भी है। आखिरी बात यह है कि डॉ. अम्बेडकर को ‘क्रान्ति के मार्क्सवादी रास्ते’ पर आपत्ति नहीं थी, जैसा कि सुधीर धवले कहते हैं, बल्कि उन्हें  क्रान्तिकारी परिवर्तन की अवधारणा पर ही आपत्ति थी, जो कि उन्होंने ड्यूईवादी व्यवहारवाद से सीखा था। किसी भी व्यवहारवादी के समान डॉ. अम्बेडकर में विचारधारा के प्रति एक आम शत्रुता मौजूद थी। व्यवहारवाद मानता है कि कोई भी आम सिद्धान्त या विचारधारा नहीं हो सकती, केवल वैज्ञानिक पद्धति होती है; ड्यूई के अनुसार, यह वैज्ञानिक पद्धति होती है प्रगतिवादी प्रयोगवाद (प्रोग्रेसिव एक्सपेरिमेण्टेशन), दूसरे शब्दों  में, ट्रायल एण्ड एरर। पिछले प्रयोगों की असफलता का आलोचनात्मक मूल्यांकन करना बेकार है क्योंकि ड्यूई के अनुसार ‘अतीत वर्तमान के निर्माण में कोई भूमिका नहीं निभाता’। इसलिए अम्बेडकर भी पूरे जीवन प्रयोग करते रहे। लेकिन उनकी एक विचारधारा थी। चाहे वे उसके प्रति सचेत हों या न हों। यह विचारधारा व्यवहारवाद थी, जो कि एक विशिष्ट प्रकार का संवैधानिक उदारवादी सुधारवाद है और कुछ नहीं।

सुधीर धवले ने डॉ. अम्बेडकर के राजनीतिक विचारों और प्रयोगों का जो लेखा-जोखा पेश किया है, वह न केवल तथ्यत: और तर्कश: ग़लत है, बल्कि वह अम्बेडकरवाद और मार्क्सवाद के बीच समन्वय स्थापित करने के लिए अम्बेडकरवाद का मार्क्सवादी और मार्क्सवाद का अम्बेडकरवादी विनियोजन करता है। जहाँ तक विचारधारा का प्रश्न है, मार्क्सवादी विचारधारा और  अम्बेडकरवादी विचारधारा में कोई सेतु नहीं बन सकता है। इसका यह अर्थ नहीं है कि तमाम मार्क्सवादी संगठनों और अम्बेडकरवादी संगठनों में ठोस मुद्दों पर मुद्दा-आधारित एकता नहीं बन सकती है। ऐसी एकता बनती भी है और बननी भी चाहिए। लेकिन यह संयुक्त मोर्चा एक मुद्दा आधारित मोर्चा है न कि विचारधारात्माक समन्वय। ऐसा समन्वय करने का प्रयास दो स्टूलों पर एक साथ बैठने का प्रयास करने के समान है; जो ऐसा करेगा वह दोनों स्टूलों के बीच में गिरेगा।

स्वतन्त्र्योत्तर भारत के विषय में सुधीर धवले के विचार: हाफ-बेकेड, हाफ-थॉट

”कठमुल्लावादी….किसी चीज का ठोस रूप में अध्ययन करने के लिए अपने मस्तिष्क का इस्तेमाल नहीं करते, और अपने लेखन व भाषणों में वे हमेशा अन्तर्वस्तु से रिक्त  पिटे-पिटाये जुमलों का इस्तेलमाल करते हैं…”

                                           – माओ

आज़ादी के बाद के भारत के बारे में भी सुधीर धवले के विचार परस्पर विरोधी हैं। कहीं वह भारत को अर्द्धसामन्ती अर्द्धऔपनिवेशिक कहते हैं तो कहीं उसे पूँजीवादी कहते दिखायी देते हैं। मिसाल के तौर पर, वह लिखते हैं कि दलाल पूँजीपति वर्ग की पूँजी और साम्राज्यवादी पूँजी के गठजोड़ से पूँजीवादी विकास हुआ। यह एक गज़ब का सूत्रीकरण है। दलाल पूँजीपति वर्ग स्वभाव से ही वाणिज्यिक व नौकरशाह पूँजीपति वर्ग होता है। औद्योगिक व वित्तीय पूँजीपति वर्ग दलाल हो ही नहीं सकता, क्योंकि उसे स्वयं बाज़ार व निवेश के अवसरों की आवश्यकता होती है। ऐसे में, दलाल पूँजीपति वर्ग साम्राज्यवाद के साथ गठजोड़ बनाकर पूँजीवादी विकास नहीं करेगा, बल्कि पूँजीवादी विकास को अवरुद्ध करेगा। एक औद्योगिक-वित्तीय पूँजीपति वर्ग ही साम्राज्यवाद के ‘जूनियर पार्टनर’ के तौर पर पूँजीवादी विकास को अंजाम दे सकता है। लेकिन उस सूरत में भारत अर्द्धसामन्ती अर्द्धऔपनिवेशिक नहीं रहेगा! जैसा कि आप देख सकते हैं, धवले की तर्कप्रणाली में भयंकर अन्तरविरोध हैं।

एक स्थान पर धवले लिखते हैं कि भारत में पूँजीवाद ने जाति व्यवस्था को खत्म नहीं किया क्योंंकि यह ”विकृत पूँजीवाद” है जिसका विकास ब्राह्मणवाद के साथ गठजोड़ करके हुआ है। यानी, कोई ”स्वस्थ पूँजीवाद” होता तो वह जाति व्यवस्था को समाप्त कर देता! ‘स्वस्थ से स्वस्थ पूँजीवाद’ ने क्या अमेरिका और यूरोप में नस्लावाद को खत्म किया? किसी शोषक अल्पसंख्या के शासन से यह उम्मीद करना ही व्यर्थ है कि वह जाति व्यवस्था का नाश करेगी क्योंकि हर शोषक अल्पसंख्या शोषित बहुसंख्या को खण्ड-खण्ड में तोड़कर और उनका बर्बर उत्पीड़न करके ही अपने शासन को दीर्घजीवी बना सकती है और इस काम में जाति व्यवस्था ने भारत में सभी हुक्मरानों को बेमिसाल हथियार दिया है। भारत में अल्पसंख्यक शोषकों का कोई भी शासन जाति व्यवस्था  का अन्त नहीं कर सकता। केवल मेहनतकश बहुसंख्या का शासन ही जाति व्यावस्था पर प्राणान्ताक चोट कर सकता है। जाति व्यवस्था अपने आपमें कोई सामन्ती चीज़ नहीं है, जिसे श्री धवले का ”स्वस्थ‍ पूँजीवाद” खत्म कर देता। हम एक प्राक्-सामन्तीे जाति व्यवस्था, सामन्ती जाति व्यवस्था़ और पूँजीवादी जाति व्यवस्था की बात कर सकते हैं। किसी भी शोषक अल्पसंख्या के शासन के मातहत भारत के इतिहास में हर नयी उत्पादन व्यवस्था ने जाति व्यवस्था को अपनी जरूरतों के अनुसार ढाला है, चाहे शासक हिन्दू  हों, मुसलमान, या ब्रिटिश।

जाति व्य‍वस्था की विशिष्टता का जिक्र करते हुए धवले थोड़ा ज्यादा दूर चले जाते हैं और यह दावा कर बैठते हैं कि भारत का मज़दूर वर्ग समाँगी (होमोजीनियस) नहीं था, जबकि यूरोप का मज़दूर वर्ग समाँगी था। यूरोप के इतिहास या आज के यूरोप की स्थिति के विषय में कोई भी समझदारी रखने वाला व्यक्ति ऐसा बचकाना दावा नहीं करेगा। यदि मार्क्स की ‘पूँजी’ को ही पढ़ें तो स्पष्ट हो जाता है कि यूरोप का मज़दूर वर्ग कभी भी समाँगी नहीं था। उसी प्रकार, अगर आप यूरोपीय मज़दूर वर्ग के आन्दोलन का इतिहास पढ़ें तो पूरे यूरोप में प्रवासी मज़दूरों, काले मज़दूरों, आदि के साथ नस्लीय या क्षेत्रीय अन्तरविरोध के आधार पर हमेशा ही वहाँ पहचान की राजनीति को भड़काया गया है। धवले का दावा केवल उनके अज्ञान को दिखलाता है।

‘जय भीम’ और ‘लाल सलाम’ के समन्वय का प्रश्न

”वे नहीं जानते कि कहाँ बैठें, और दो स्टूलों के बीच बैठने का प्रयास करते हैं, एक से दूसरे स्टूल पर उछलते हैं, और कभी दाएँ तो कभी बाएँ गिरते हैं।”

                               – लेनिन

इसके बाद, धवले ‘जय भीम’ और ‘लाल सलाम’ को मिश्रित करने का नारा देते हैं और इन दोनों पक्षों से ऊपर उठकर एक शिक्षक की स्थिति में आकर नसीहत देते हैं कि दोनों पक्षों को अपनी गलतियाँ ठीक करके ‘सड़क की लड़ाई’ में एक हो जाना चाहिए। जब कोई ‘जय भीम’ या ‘लाल सलाम’ का नारा लगाता है, तो ये महज़ शब्द नहीं होते, बल्कि विचारधारात्मक प्रतीक बन जाते हैं। ‘जय भीम’ कहने का अर्थ यह नहीं कि कोई बस ‘अम्बेडकर की जय’ कह रहा है। इसका अर्थ है कि वह अम्बेडकर की विचारधारा को अपना रहा है। उसी प्रकार जब कोई ‘लाल सलाम’ कहता है तो यह महज़ कोई जुमला नहीं है, बल्कि मार्क्सवादी विचारधारा को आत्मसात करना है। अब प्रश्न यह उठता है कि क्या मार्क्सवादी विचारधारा और अम्बेडकर की राजनीतिक विचारधारा में कोई समन्वय सम्भव है? अम्बेडकर का ड्यूईवादी  व्यवहारवाद राज्यसत्ता के विरुद्ध जाने को किसी भी सूरत में ग़लत मानता है क्योंकि राज्य सत्ता/सरकार समाज में ‘सबसे तार्किक अभिकर्ता’ है। जिन्होंने भी अम्बेडकर के राजनीतिक लेखन को पढ़ा है और राजनीतिक प्रयोग को जानते हैं, वे जानते हैं कि अम्बेडकर इस सिद्धान्त से कभी नहीं डिगे। इसके विपरीत, मार्क्सवाद का मानना है कि समाज में परिवर्तन की प्रक्रिया क्रमिक विकास और गुणात्मक छलांग दोनों के ज़रिये चलती है और समाज में कोई क्रान्तिकारी परिवर्तन बिना बल प्रयोग के नहीं आता (बल प्रयोग के सिद्धान्त और ‘हिंसा से प्रेम’ में फर्क है, जिसके विस्तार में हम यहाँ नहीं जा सकते हैं) और कोई भी शोषणकारी उत्पीड़नकारी सामाजिक-आर्थिक सम्बन्ध बिना राज्य सत्ता और उसके बल प्रयोग के बिना नहीं टिके रह सकते। राज्यसत्ता एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग पर हिंसा का ही उपकरण है। लेकिन हिंसा का विरोध करने वाले ड्यूईवादी व्यवहारवाद को राज्य की हिंसा नहीं दिखायी देती, उसे केवल जनता द्वारा सामूहिक तौर पर अपनी मुक्ति के लिए बल प्रयोग पर आपत्ति है। अम्बेडकर भी इसी सोच के हामी हैं। एक लिबरल बुर्जुआ दर्शन होने के नाते ड्यूईवादी व्यवहारवाद, यानी अम्बेडकरवादी राजनीतिक विचारधारा के ऐसा मानने पर हमें न तो कोई ताज्जुब होना चाहिए और न ही कोई शिकायत। लुब्बेलुबाब यह कि विचारधारा के स्तर पर मार्क्सवाद और अम्बेडकरवाद में कोई समन्वय सम्भव ही नहीं है और इसलिए ‘जय भीम’ और ‘लाल सलाम’ को भी मिलाया नहीं जा सकता है।

धवले यह भी नसीहत देते हैं कि दलितों को साथ लेना बहुत ज़रूरी है (सम्भ्वत: वे इसीलिए ‘लाल सलाम’ और ‘जय भीम’ को मिलाने की इतनी वकालत कर रहे हैं)। हम भी मानते हैं। लेकिन उन्हें  विचारधारात्मक समझौते, झूठ और तुष्टीकरण के ज़़रिये नहीं बल्कि एक सही वर्ग कार्यदिशा और विचारधारा पर जागृत, गोलबन्द और संगठित करने की ज़रूरत है। हमने अभी तक तो यह नहीं देखा है कि ‘जय भीम’ और ‘लाल सलाम’ को मिलाने के बीच के रास्ते , झूठ और तुष्टीकरण से दलित आबादी किसी संगठन के साथ आयी है। यदि किसी को ‘जय भीम’ सुनकर ही किसी के साथ जाना होगा, तो वह ठेठ अम्बेडकरवादी संगठनों के ‘जय भीम’ को सुनकर उसके साथ जायेगा, आपके पास क्यों आयेगा? इस प्रकार की सोच न सिर्फ विचारधारात्मक तौर पर ग़लत है, बल्कि व्यावहारिक तौर पर भी मूर्खतापूर्ण है।

सच यह है कि आज एक सही वर्ग कार्यदिशा पर एक वर्ग आधारित जाति विरोधी आन्दोलन खड़ा करने की आवश्यकता है। एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से साहस के साथ डॉ. अम्बेडकर के राजनीतिक दर्शन और विचारधारा की आलोचना रखने की आवश्यकता है, जिससे कि जाति-विरोधी आन्दोलन को भीतर से खा रहे व्यवहारवाद, अर्जीबाज़ी और सुधारवाद से निजात पायी जा सके। लेकिन ऐसा करने का साहस सुधीर धवले नहीं कर पाते। वे बीच का रास्ता निकालने के गोल चक्कर में ही घूमते रह जाते हैं। वे अस्मितावाद की आलोचना रखते हैं, लेकिन उनका संगठन रिपब्लिकन पैंथर्स भीमा कोरेगाँव की लड़ाई के 200 वर्षों पर दलित अस्मितावाद को बढ़ावा देने के लिए एक मिथक गढ़ता है। आप कहेंगे कि एक मार्क्सवादी तो ऐसा ही कहेगा! लेकिन हमारे अलावा आनन्द तेलतुम्बडे ने भी यही कहा है और उन्होंने यह बिल्कुल सही कहा है कि इस प्रकार अस्मितावादी मिथक निर्माण से आज दलित मुक्ति की परियोजना को नुकसान ही पहुँच रहा है।

अपनी इसी मिथक निर्माण की रणनीति के तहत सुधीर धवले डॉ. अम्बेेडकर के बारे में भी एक मिथक निर्माण में लगे हुए हैं। मिसाल के तौर पर, उनका यह दावा कि अम्बेडकर जाति के नाश के लिए सामन्तवाद को उखाड़ फेंकने के लिए क्रान्तिकारी वर्ग संघर्ष की बात कर रहे थे, इतिहास के तथ्यों  के साथ दुराचार है। अम्बे‍डकर के लेखन या उनके प्रयोगों का कोई भी यह मतलब निकाल ही नहीं सकता है। हमने ऊपर इस बाबत तथ्य भी दिये हैं।

सुधीर धवले आंख खोल देने वाला खुलासा करते हैं कि क्रान्ति किसी एक तरह से ही नहीं आयेगी! हमें लगता है यह आकाशवाणी के समान स्पष्ट तथ्य है। लेकिन विडम्बना की बात यह है कि सुधीर धवले राजनीतिक तौर पर उस राजनीतिक कार्यदिशा के करीब हैं जो भारत में चीनी क्रान्ति करने पर आज भी अड़े हुए हैं! धवले की ‘पूर्ण जनवादी क्रान्ति’ की बात इन्हीं ‘टाइम कैप्सूल’ में कैद रह गये क्रान्तिकारियों की बातों के करीब पड़ती है। लेकिन इससे भी अहम बात यह है कि क्रान्ति चाहे कितने भी विविध रूपों में सामने आये, उसकी एक सामान्यता (जनरैलिटी) या सार्वभौम गुण (यूनीवर्सैलिटी) भी होता है। क्रान्ति हर सूरत में राज्यसत्ता के ध्वंस और नयी राज्य सत्ता के निर्माण का नाम है और इसमें बल प्रयोग (जो कि हिंसा का समानार्थी नहीं है) होना अपरिहार्य है क्योंकि एक वर्ग स्वेच्छा से सत्ता दूसरे वर्ग को नहीं देता। इस सार्वभौमिक अर्थ को गोल करके क्रान्ति के सम्भावित वैविध्य्पूर्ण रास्तों की बात करना भ्रामक हो सकता है। शायद ‘क्रान्ति के विशिष्ट रास्तें’ से धवले का यह अर्थ है कि भारत में मार्क्सवाद और अम्बेडकरवाद में समन्वय करना पड़ेगा। अव्वलन तो यह सम्भव नहीं है और अगर ऐसा करने के लिए द्रविड़ प्राणायाम किया गया तो क्रान्ति के इस सार्वभौमिक अर्थ का ही लोप हो जायेगा और परिणामस्वरूप पैदा होने वाली ”क्रान्ति” की अवधारणा में कुछ भी क्रान्तिकारी नहीं रह जायेगा।

अन्त में सुधीर धवले वाम आन्दोलन और दलित आन्दोलन की एकता का नारा देने के बावजूद उनके बीच एक दीवार खड़ी कर देते हैं, मानों वे दो अलग-अलग, पृथक चीजें हों। उनके अनुसार, मज़दूर आन्दोलन में वामपन्थी नेतृत्व और दलित आन्दोलन में अम्बेडकरवादी नेतृत्व और इन दोनों आन्दोलनों के बीच एक योगात्मक एकता! हमारा कहना है कि आज दलित आन्दोेलन या दलित संगठन की बजाय जाति-विरोधी आन्दो‍लन और जाति-विरोधी संगठन की बात की जानी चाहिए और इनके भीतर व्यवहारवाद और अस्मितावाद के विरुद्ध संघर्ष किया जाना चाहिए। दलित आबादी को धवले एक ऐसी टेरीटरी बना देते हैं, जो क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों की पहुँच से बाहर हो जाती है और उस पर अम्बेडकरवादियों का एकाधिकार है। ऐसे में कम्युकनिस्ट क्रान्तिकारियों के पास जो बचा रह जाता है वह है अम्बेडकरवादी दलित आन्दोलन से योगात्मनक एकता बनाना! यह न सिर्फ सुधीर धवले की समझौतापरस्त और मौकापरस्तक समझदारी है, बल्कि यह ग़लत और अव्यवहारिक भी है।

हमारी समझ है कि अम्बेडकरवादी दलित आन्दोलन से एकता और संघर्ष दोनों ही होगा। विचारधारात्मक प्रश्न पर संघर्ष और ठोस मुद्दों पर मुद्दा-आधारित एकता। साथ ही, कम्युनिस्टों को अपने जाति-विरोधी संगठन और आन्दोलनों को खड़ा करना होगा जो कि व्यवहारवाद और अस्मितावाद पर नहीं बल्कि एक क्रान्तिकारी वर्ग-आधारित जाति-विरोधी आन्दोलन को खड़ा करे। ऐतिहासिक तौर पर, कम्युनिस्टों ने अपने कठमुल्लापन और लकीर की फकीरी करने के कारण जाति प्रश्न को उसकी ऐतिहासिकता में समझने में चूक की और नतीजतन जाति प्रश्न के समाधान का कोई सही कार्यक्रम भी वे नहीं सुझा पाए। उनकी यह विचारधारात्मक कमज़ोरी भारत में क्रान्ति का एक सही कार्यक्रम न पेश कर पाने और वामपन्थी दुस्साहसवाद और दक्षिणपन्थी अवसरवाद के विचारधारात्मक भटकावों, विच्युतियों, विचलनों और प्रस्थानों के रूप में भी सामने आती रही। जाति प्रश्न कोई अकेला प्रश्न नहीं था, जिस पर कि भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन ने एक सही कार्यक्रम पेश करने में नाकामयाबी हासिल की। कहने की ज़रूरत नहीं है कि हम 1925 से 1951 की भाकपा और 1967 से अब तक के मार्क्सवादी-लेनिनवादी कम्युनिस्ट आन्दोलन की बात कर रहे हैं, संशोधनवादी भाकपा, माकपा और भाकपा (माले) लिबरेशन की नहीं। लेकिन इन विचारधारात्मक कमज़ोरियों के बावजूद क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन ने 1951 के पहले भी और 1967 के बाद भी दलित खेतिहर आबादी को उनके जीवन के सबसे अहम और ज्वलन्त सवालों पर संगठित किया, जातिगत अपमान के विरुद्ध लड़े और कुर्बानियाँ दीं। तथ्यत: बात करें तो कहीं ज्यादा दलितों ने किसी भी अन्य झण्डे  के मुकाबले लाल झण्डे के तहत लड़ाइयाँ लड़ी हैं और कुर्बानियाँ दी हैं। ऐसे में, ‘‍दलित आन्दोेलन’ और ‘वामपन्थी आन्दोलन’ के बीच किसी योगात्मक एकता की बात करना भी क्या अस्मितावाद और अनैतिहासिक दृष्टिकोण नहीं है?

निस्सन्देह, क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों को बिना किसी विचारधारात्मक समझौते और सरेण्डरिज्म के बिना जाति प्रश्न को मार्क्सवादी-लेनिनवाद दृष्टिकोण से समझना चाहिए और उसके उन्मूलन का एक लघुकालिक और दीर्घकालिक कार्यक्रम उपस्थित करना चाहिए और ऐसे कई अर्थपूर्ण और रचनात्मक प्रयास हुए हैं और हो भी रहे हैं। इस प्रक्रिया में हमारी मिट्टी में बहुत से ऐसे प्रतीक हैं, जिन्हें अपनाया जा सकता है। इसका पैमाना केवल और केवल यह हो सकता है कि कौन से जाति-विरोधी योद्धा और आन्दोलन व्यवस्था-विरोध की तरफ आगे बढ़े; जो यह समझ गये कि जाति उन्मूलन का प्रश्न केवल सामाजिक परिवर्तन या सामाजिक क्रान्ति का प्रश्न नहीं है, बल्कि राज्य सत्ता का प्रश्न; है क्योंकि राज्यसत्ता के अवलम्ब के बिना कोई भी उत्पीड़नकारी सामाजिक सम्बन्ध अपने आपको दीर्घकाल तक बनाये नहीं रह सकता है। इस श्रेणी में अय्यंकली अग्रणी शख्सियत हैं जिन्हें आज का क्रान्तिकारी जाति-विरोधी आन्दो‍लन अपने एक प्रतीक के तौर पर अपना सकता है, क्योंकि वे राज्यसत्ता के विरोध में खड़े थे और उन्होंने जाति अन्त की लड़ाई में कभी राजकीय लीगैलिटी की परवाह नहीं की। फुले भी अपने जीवन के अन्त की ओर अधिक से अधिक सत्ता-विरोधी रुख अपना रहे थे। इसे समझने के लिए हण्टर आयोग के समक्ष फुले की गवाही और ‘किसान का कोड़ा’ विशेष रूप से पढ़ने योग्य हैं। इसके अलावा, दलितों और आदिवासियों के अपने विद्रोह रहे हैं जिन्होंने बल प्रयोग के साथ व्यवस्था पर चोट की। ऐसे विद्रोहों के नायकों को आज के जाति-विरोधी आन्दोलन के प्रतीकों के तौर पर अपनाया जा सकता है।

डॉ. अम्बेडकर के दो बुनियादी योगदान थे: दलित आबादी में आत्मगरिमाबोध को स्थापित करने में योगदान और साथ ही दलित प्रश्न को राष्ट्रीय आन्दोलन के एजेण्डा पर प्रमुखता के साथ स्थापित करने में योगदान। लेकिन उनकी व्यवहारवादी विचारधारा उन्हें कभी भी राज्यसत्ता के विरुद्ध जाने की आज्ञा नहीं देती थी। वे कभी भी जनता के द्वारा सामूहिक बलप्रयोग का समर्थन नहीं करते थे। यह विचारधारात्मक तौर पर उनके लिए निषिद्ध था। ऐसे में, क्याे आज के दौर में, उनके योगदानों के बावजूद उनकी विचारधारा जाति-विरोधी आन्दोलन के लिए उपयोगी होगी? क्या‍ राज्यसत्ता और सरकार के विरुद्ध गये बगैर जातिवाद और ब्राह्मणवाद के विरुद्ध संघर्ष किया जा सकता है? ऐसा वह ही मान सकता है जो राज्यसत्ता को वर्गेतर और इसीलिए जाति से इतर मानता हो। हमें नहीं लगता कि ऐसा है। (अम्बेडकर के योगदानों व उनके मूल्यांकनों के लिए देखें: https://redpolemique.wordpress.com/2017/05/04/caste-question-marxism-and-the-political-legacy-of-b-r-ambedkar/)

अन्त में यही कहा जा सकता है कि जाति के प्रश्न को समझना और उसके हल का रास्ता निकालना भारत में इंक़लाब का एक बुनियादी सवाल है। लेकिन इसके लिए विचारधारात्माक स्पष्टपता और दृढ़ता की आवश्यकता है, न कि सुधीर धवले-ब्राण्ड विचारधारात्मक सारसंग्रहवाद, अवसरवाद और तुष्टिकरण की। लेनिन के शब्दों में, ‘दो स्टूलों पर एक साथ बैठने का प्रयास करने के चक्कर में उसके बीच में गिर पड़ना’ न सिर्फ अवांछनीय है, बल्कि मूर्खता भी है और इससे न सिर्फ अब तक कुछ हासिल नहीं हुआ है, बल्कि नुकसान ही हुआ है।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,जनवरी-फरवरी 2018

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