जल्लिकुट्टी आन्दोलन: लूट की अर्थनीति और दोगलेपन की राजनीति का विरोध

मिनाक्षी

जनवरी 2017 ने तमिलनाडु में पोंगल के तत्काल बाद एक अल्पकालिक लेकिन राज्यव्यापी आन्दोलन की लहर उठती दिखी। फसल कटने के बाद तमिल जनता द्वारा मनाये जानेवाले पर्व पोंगल के दौरान पूरे राज्य में उत्सव का माहौल रहता है। सांड़ को काबू करने का खेल जो जल्लिकुट्टी नाम से लोकप्रिय है इस उत्सवधर्मिता का ही एक प्रमुख हिस्सा है और पोंगल के ठीक बाद ही राज्य भर में, खासकर ग्रामीण इलाकों में इसका धूमधाम से आयोजन किया जाता है। 2014 में पशु अधिकार संगठन ‘पेटा’ के याचिका पर निर्णय देते हुए उच्चतम न्यायालय ने ‘पशु निर्दयता निवारण अधिनियम, 1960’ के हवाले से इस खेल को प्रतिबन्धित कर दिया था। जल्लिकुट्टी आन्दोलन इसी प्रतिबन्ध के ख़िलाफ़ विरोध के तौर पर और इसे सांस्कृतिक पहचान व ऐतिहासिक विरासत के संरक्षण का प्रतीक बना कर शुरू हुआ। परन्तु जल्दी ही यह स्पष्ट हो गया कि यह आन्दोलन महज जल्लिकुट्टी पर रोक हटाने की माँग को लेकर नहीं था बल्कि इसके मूल में मौजूदा पूँजी केन्द्रित राजनीतिक-आर्थिक संस्थाओं और जनविरोधी नीतियों के विरुद्ध अरसे से पीड़ित जनसमुदाय का खदबदाता असन्तोष था। अन्यथा आन्दोलन में वे लोग शामिल नहीं होते जिनका इस खेल से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं था,  इन आयोजनों में कभी उनकी न कोई भागीदारी रही और न ही वे इसके नियमित दर्शक ही रहे। पोंगल के दो दिनों बाद मदुराई जिले के अलंगनल्लूर गाँव में जो जल्लिकुट्टी के हर साल खूब धूम धड़ाके के आयोजन के लिये प्रसिद्ध है, वहाँ सबसे पहले विरोध की शुरुआत हुई और शीघ्र ही यह पूरे मदुराई, कोयम्बटूर, तिरुचिरापल्ली, सालेम, चेन्नई आदि जगहों पर फैल गया, लगभग समूचे राज्य को इसने आन्दोलित कर दिया। विरोध प्रदर्शन का मुख्य केन्द्र बना चेन्नई का मरीना तट । गौरतलब है कि आन्दोलन की मुख्य शक्ति थे आम छात्र-युवा, जिसमेंं आयीटी समेत हर क्षेत्र के छात्र और युवा भी शामिल थे, मेहनतकश वर्ग और स्त्रियाँ। साथ ही बैंककर्मी-बीमाकर्मी जैसे संगठित क्षेत्र से आनेवाली आबादी जो पिछले लम्बे समय से किसी सामाजिक-राजनीतिक प्रतिरोध आन्दोलन से अलग थलग रही है, वह भी इस आन्दोलन की हिस्सा बनी। अकेले मरीना तट पर लगभग 2 लाख लोगों की रोजाना उपस्थिति दर्ज की गयी थी। जनवरी अन्त तक यह संख्या बढ़कर बीस लाख तक जा पहुँची। खेल व सिने जगत के कुछ सितारों तथा उच्च मध्य वर्ग के अपेक्षाकृत एक जनवादी हिस्से का समर्थन मिलने के बावजूद यह आन्दोलन मुख्यतः आम लोगों का था जिनका प्रतिरोध सरकार की व्यापक जनविरोधी आर्थिक नीतियों, राजनीतिक निर्णयों के साथ ही सामाजिक वैषम्य और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के विरुद्ध  भी था। समग्रता में देखा जाए तो यह आन्दोलन वस्तुतः नवउदारवाद से उपजे खस्ताहाल वर्तमान और अनिश्चित भविष्य के प्रति आम तमिल समाज की आशंका और आक्रोश की अभिव्यक्ति थी। वास्तव में विगत 15-17 वर्षों में तमिलनाडु की आम जनता केन्द्र और राज्य सरकार की नीतियों और योजनाओं के ख़िलाफ़ पहले भी कई बार सड़कों पर उतरी और कई परियोजनाओं को खारिज किया। उसने साफ-साफ यह देखा कि इन योजनाओं का अमल किस प्रकार उसके जीवन, स्वास्थ्य और रोजगार को सीधे नकारात्मक रूप से प्रभावित कर रहा था और यह भी कि उसके हितों के प्रति दोनों सरकारें किस कदर बेपरवाह, तटस्थ बल्कि गैरसरोकारी रुख रखती हंै।

न्यूट्रिनो परियोजना को याद करें। सरकार ने अपनी गलतबयानी से लोगों में जानबूझकर भ्रम पैदा करने की कोशिश की और असलियत को साजिशाने ढंग से छुपाने का काम किया। उसने लोगों को आश्वस्त किया कि इसके अन्तर्गत इस्तेमाल होनेवाला रेडियोएक्टिव कचरा  बन्द और सुरक्षित घेरे में होने की वजह से नुकसान पहुँचाने की स्थिति में नहीं है। परन्तु यह अधूरा सच था। वास्तव में उसमें 10 प्रतिशत कचरा ऐसा था जो ज्यादा शक्तिशाली और अधिक दूरी तक विकिरण के चलते ज्यादा हानिकारक था। विशेषकर इसके डेल्टा क्षेत्र में लागू होने की सम्भावना के चलते यह स्थानीय लोगों और मछुआरों के जीवन और रोजगार के लिये एक बड़ा खतरा होता। जाहिर है, इस खतरे के ख़िलाफ़ जनान्दोलन हुए। इसी प्रकार कावेरी नदी की घाटी के कोयला सघन इलाके से मिथेन गैसे निकालने की योजना का अमल स्थानीय जनता की सेहत और जिन्दगी को जोखिम में डाल सकता था लेकिन सरकार ने इसे राज्य की उन्नति के लिये ज़रूरी बताया और सुरक्षा के सम्यक उपाय की जिम्मेदारी उठाने की ज़रूरत नहीं समझी। उस समय भी सरकारी मक्कारी के ख़िलाफ़ लोगों का गुस्सा भड़क उठा था। जब सरकार ने समुद्री यातायात बढ़ाने की योजना ली तब भी उसका जाहिरातौर पर यही रुख था और यही हो सकता था। उसनेे मन्नार खाड़ी और इन्नोर बन्दरगाह में समुद्री पर्यावरण और तेल रिसाव के खतरे और स्थानीय लोगों खासकर मछुआरों के हितों की सचेतन अनदेखी की। गौरतलब है कि समुद्र के सतह पर फैले तेल के चलते उस क्षेत्र में मछलियों का मरना अभी जारी है और जल जीवन खात्मे की ओर अग्रसर है। कहा जा सकता है यह सारी योजनाएँ राज्य के विकास के लिये थीं। परन्तु योजनाएँ लागू करने के साथ सरकारों ने लोगों के जीवन और उनकी बुनियादी भौतिक ज़रूरतों को सुरक्षात्मक उपायों से महफूज रखने की जगह उल्टे खतरे की जद में पहुँचा दिया। इससे लोगों के सामने यह तो स्पष्ट हो गया है कि विकास की ढपोरशंखी स्कीमों का मकसद आम जन का हित नहीं, हालाँकि राजनीतिक और वर्गीय चेतना के अभाव में सामान्यतः वे यह नहीं देख पाते कि विकास की ऐसी परियोजनाएँ पूँजी और मुनाफा वृद्धि की राह को सुगम बनानेवाली सरकार के चतुर प्रबन्धन का अंग है। कुडनकुलम परमाणु ऊर्जा संयंत्र की योजना में भी यही बात देखी जा सकती है। यह देश की जनता के हित में नहीं बल्कि रूसी और भारतीय पूँजी यानी देशी-विदेशी पूँजी के हितों के प्रति समर्पित थी। स्पष्ट था कि इसके लिये कृषि प्रधान क्षेत्र की उपजाऊ जमीन का अधिग्रहण किया जाता, उसके रिएक्टरों के लिये सिंचाई हेतु उपयोगी नहरों से पानी लिया जाता और आम गरीब किसानों को उनके जीवन-यापन के साधनों से वंचित कर दिया जाता। रिएक्टर के लिये पानी की स्वतंत्र व्यवस्था के सरकारी वायदे पर लोगों को भरोसा नहीं था और न ही सुरक्षात्मक उपायों के अमल की किसी गारण्टी के प्रति ही। इसके ख़िलाफ़ उभरे जनप्रतिरोध को सरकार ने निर्ममता पूर्वक दबाया। यही नहीं आन्दोलन में शामिल लोगों पर देशद्रोह का मुकदमा दायर किया गया। जापान के फुकुशिमा परमाणु संयंत्र की घटना से कुडनकुलमवासियों की आशंका फिर से प्रबल हो उठी थी और 2012 में सरकार को पुनः एक बार जनता के जबरदस्त विरोध का सामना करना पड़ा, लेकिन सरकार ने इस बार भी दमन का सहारा लिया और उसकी मीडिया ने आन्दोलनकारियों पर घिनौने और झूठे आरोप लगाये। देखा जाये तो लोगों की शंका निर्मूल नहीं थी क्योंकि परमाणु संयंत्र को दो बार आपात के चलते बन्द कर देना पड़ा था लेकिन सरकार इसपर भी लीपापोती करती रही। गेल और ओएनजीसी पाइपलाइन योजना शुरू करने के पहले भी इससे प्रभावित लोगों के राहत के लिये सरकार द्वारा कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया था। सरकारों के इस रवैये से और इन योजनाओं के विनाशकारी प्रभाव के मद्देनजर लोगों का गुस्सा धीरे धीरे सींझता रहा। इसे फट पड़ना ही था।तमिल जनता ने यह भी देखा था कि राज्य और केन्द्र सरकारें राज्य और देश के स्तर पर ही नहीं अन्तरराष्ट्रीय मोर्चे पर भी उसके हितों की संरक्षक नहीं थीं। श्रीलंका के गृहयुद्ध के दौरान वहाँ बसी तमिल आबादी के भंयकर दमन-उत्पीड़न के प्रति सरकार की तात्कालिक नीति को याद कर लेना यहाँ  समीचीन होगा। इसी परिप्रेक्ष्य में उभरा 2008 और 2013 का आन्दोलन अभी भी लोगों की स्मृतियों से ओझल नहीं हुआ है। सरकार की निष्क्रियता, उपेक्षापूर्ण रवैया और संरक्षणविरोधी नीतियांे का ऐसा ही दंश तमिल मछुआरों को भी झेलना पड़ा है। श्रीलंका और तमिलनाडु राज्य के बीच पाक जलडमरूमध्य के इलाके में मछली पकड़ने को लेकर दोनांे देशांे के मछुआरों के बीच आये दिन झड़प होती है जिससे उनका रोजगार बुरी तरह प्रभावित होता है परन्तु बहुधा कई कई एमओयू पर हस्ताक्षर करनेवाली भारत सरकार ने श्रीलंका के साथ आपसी समझौते से स्थानीय मछुआरों के सीमा क्षेत्रों के बँटवारेे में कतई दिलचस्पी लेने की ज़रूरत नहीं समझी। हालाँकि यह  भी सच है कि पूँजीवादी देशों के बीच इस प्रकार के समझौते अमल के धरातल पर कई कई व्यवधानों के बीच हिचकोले खाते रहते हैं और यथास्थिति लगभग बरकरार ही रहती है। जाहिर है रोजी रोटी पर लगातार मँडराते इस संकट से राज्य के बहुलांश मछुआरे भी बदहाली में जीते हैं। यह यूँ ही नहीं था कि जल्लिकुट्टी आन्दोलन में मुछुआरों की भारी तादाद अपने सहयोग समर्थन के साथ शामिल थी। देखा जाये तो इस प्रकार नीतियांे और फैसलों का एक सिलसिला है जिसने तमिलनाडु की जनता को बार बार उद्वेलित किया है और अब भाजपा के शासनकाल में और भी ज्यादा मुखर रूप में ये सामने आ रही है।इस रोशनी में स्पष्ट है कि आम लोगों का आक्रोश सबसे अधिक भाजपा और देश के मौजूदा मुखिया नरेन्द्र मोदी को लेकर था। मोदी आम लोगों के जीवन स्थितियों की बेहतरी, मेहनतकशों के हित में नीति निर्माण, रोजगार सृजन आदि यानी समग्र विकास के वायदों की झड़ी लगाकर सत्ता पर काबिज हुए। उनके लोकलुभावन वायदों व जुमलेबाजियों का सिलसिला उसके बाद भी जारी रहा परन्तु हकीकत ठीक इसके उलट थी। प्राकृतिक संसाधनों की बेशुमार लूट के दरवाजे और चौड़े कर दिये गये। जनविरोधी नियमों और अधिनियमों, अध्यादेशों और मजदूर विरोधी श्रम कानूनों के सिलसिले से मजदूर अधिकारों के अपहरण में तेजी आयी। नियोक्ताओं के हाथों में मनमानेपन का डण्डा आ गया। रोजगार सृजन तो दूर आयीटी जैसे फलने फूलनेवाले उद्योगों तक में मजदूरों और पेशेवरों की संख्या में कटौती की गति तेज तो हुई ही, आला दर्जे के कार्यकारी अधिकारियों पर भी गाज गिरने की नौबत आ गयी। राज्य में श्रम अनौपचारीकरण की तेज वृद्धि के चलते शहरी मजदूरों के केवल 27 प्रतिशत हिस्से को ही नियमित मजदूरी हासिल थी, शेष ठेके पर काम करनेवाले और कैजुअल मजदूरों के सिर पर बेरोजगारी की तलवार हमेशा लटकी रहती। ग्रामीण इलाकों की और भी बुरी स्थिति थी। छोटी और निम्न मध्यम खेती पहले ही तबाही के कगार पर थी उस पर सूखे की मार से फसल बिल्कुल बर्बाद हो गयी और छोटे और गरीब किसान कंगाल हो गये। इस मानव त्रासदी के प्रति शासन-प्रशासन की घनघोर अवहेलना और राहत के नाम पर आर्थिक मदद के पाखण्ड ने उन्हें आत्महत्या करने पर मजबूर कर दिया। कावेरी डेल्टा क्षेत्र के उजड़ गये मजदूरों को काम की तलाश में अन्य राज्यों की खाक छाननी पड़ी इनमें सबसे ज्यादा दयनीय स्थिति दलित मजदूरों की थी। इन हत्यारी नीतियों ने छात्रों के लिये भी भविष्य के दरवाजे बन्द कर उन्हें अनिश्चय की गलियों में भटकने के लिये छोड़ दिया। विश्वविद्यालयों में कैम्पस प्लेसमेण्ट पर मन्दी का ग्रहण लग चुका था। राज्य में लगभग 14 प्रतिशत स्नातकोत्तर छात्र बेरोजगार थे। आयी टी और आयी आयी टी छात्रों के साथ ही राष्ट्रीय पात्रता प्रवेश परीक्षा (एनईईटी) जैसी नीतियों के कारण चिकित्सा-शास्त्र अध्ययन के इच्छुक उन छात्रों के लिये भी अधिक अवसर सुलभ नहीं रह गये थे जिन्होंने सीबीएससी से पढ़ाई नहीं की थी लिहाजा छात्रों में भी केन्द्र सरकार के प्रति गुस्सा बढ़ रहा था। आम आबादी का हर हिस्सा संकट झेल रहा था। जबकि इसी बीच नवम्बर 2016 में मोदी ने 500 और 1000 के नोट को अचानक परिचलन से बाहर करने का ऐलान कर दिया जिसे चार घण्टे बाद ही प्रभावी हो जाना था, ऐलान के चार घण्टे बाद 500 और 1000 के नोटों का बाजार मूल्य शून्य हो जाता। यह ऐसे समय हुआ जब शीतकालीन फसल की बोआयी की तैयारी चल रही थी। तमिलनाडु में अक्टूबर से लेकर जनवरी तक की शीतकालीन अवधि साम्बा धान की फसल के लिये सबसे मुफीद है। राज्य पहले से ही पानी के संकट से जूझ रहा था। मानसून में वहाँ 40 से 60 प्रतिशत तक बारिश कम हुई थी। लगभग सभी 32 जिले सूखे के चपेट में आ चुके थे। लिहाजा जिन सीमान्त और निम्नमध्यम किसानों ने 2-3 एकड़ जमीन पट्टे पर लिया था वे इस नोट बन्दी के चलते सबसे पहले तबाह हुए। उनमें से जो थोडे़ बहुत सिंचाई कर चुके थे वे खाद और यूरिया खरीदने की स्थिति में नहीं थे, उन्हें सहकारी बैंकों से भी ऋण नहीं मिल सका क्यों कि नोटबन्दी के दौरान कोआपरेटिव बैंकों को किसी प्रकार के लेनदेन से नियमतः बाहर रखा गया था। ऐसी स्थिति में सूखे के लिये घोषित सरकारी राहत राशि उनकी पहुँच से बाहर रह गयी और यूरिया और डीजल पर मिलनेवाली सब्सिडी भी उनके किसी काम न आ सका। उनकी फसल बर्बाद हो गयी। कर्ज के बोझ तले दबे किसानों के पास आत्महत्या करने के सिवाय और कोई चारा न रहा। ग्रामीण इलाकों में एटीएम के काम न करने के कारण कृषि सम्बन्धी गतिविधियांे में बाधा पड़ने से भी संकट बढ़ा। अन्ततः जहाँ कहीं धान की फसल तैयार भी हो गयी थी वहाँ वह पैसे की कमी से मिलों तक नहीं पहुँच पाई। नवम्बर से लेकर जनवरी मध्य तक जब जल्लिकुट्टी आन्दोनल की शुरुआत हुई तबतक लगभग 100 से अधिक किसान आत्महत्या कर चुके थे। नोटबन्दी ने किसानों ही नहीं छात्रों के लिये भी मुश्किलें पैदा कीं। नवम्बर से जनवरी के बीच राज्य और केन्द्र स्तर पर आयोजित कई प्रतियोगी परीक्षाओं में वे शामिल नहीं हो सके और न ही आगामी परीक्षाओं के लिये शुल्क भरना उनके लिये सम्भव हो पाया। समाधान की दिशा में न तो मोदी सरकार और न ही राज्य सरकार की ओर से कोई फौरी प्रयास किया गया। उल्टे नकद के जमा व निकासी को लेकर केन्द्र सरकार के नियम आये दिन बदलते रहे। जाहिर है छात्रों, युवाओं, मजदूरों, मछुआरों और किसानों सहित व्यापक जनसमुदाय को मोदी सरकार के ख़िलाफ़ जल्लिकुट्टी आन्दोलन के तहत लामबन्द करने में नोटबन्दी एक महत्वपूर्ण कारक बना। लोगों के गुस्से की एक और वजह कावेरी जल विवाद में केन्द्र और राज्य सरकारों की भूमिका को लेकर भी था। न्यायाधिकरण पंचाट के अनुसार कर्नाटक सरकार द्वारा सालभर मे 192 हजार मिलियन क्यूबिक फीट पानी तमिलनाडु को देय है। लेकिन उच्चतम न्यायालय के दिशा निर्देश के बावजूद कर्नाटक की भाजपा सरकार ने अपने जलाशयों से कावेरी नदी में पानी नहीं छोड़ा। स्थिति तब भयंकर हो गयी जब इसकी वजह से 93.47 हजार मिलियन क्यूबिक फीट पानी की क्षमता वाले तमिलनाडु के मेत्तूर बाँध में महज 9.90 हजार मिलियन क्यूबिक फीट पानी ही शेष रह गया था। परन्तु न्यायाधिकरण पंचाट को लेकर कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु द्वारा जब अपील दाखिल की गयी और कर्नाटक की शेट्टर सरकार ने कावेरी प्रबन्धन बोर्ड बनाने पर अपनी सहमति दी तो केन्द्र की मोदी सरकार ने इसमें कोई दिलचस्पी नहीं ली। उल्टे अपने बेतुके तर्क से उसने यह कहते हुए उसे अस्वीकार कर दिया कि उच्चतम न्यायालय के पास न्यायाधिकरण के पंचाट के पुनरीक्षण करने का अधिकार ही नहीं होता। पंचाट को लागू करने के मामले में केन्द्र और राज्य दोनों सरकारों का यह रवैया तमिल जनता को नागवार गुजरा। ओ पन्नीरसेल्वम की तत्कालीन सरकार से भी उसे कोई उम्मीद नहीं थी। उसके सामने यह प्रत्यक्ष था कि राज्य के जलाशयों, नदियाँ, नालों व सिचाई नहरों के सूखने के बावजूद सरकार ने कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया था। जबकि पोंगल उत्सव के समय लबालब भरी रहनेवाली कल्यानी नहर भी पूरी तरह सूख चुकी था। यहाँ  तक कि नहरों  में उगे घास और खर पतवार की सफाई की कोई पूर्वयोजना भी सरकार द्वारा नहीं ली गयी थी। जब तमिलनाडु सिंचाई ही नहीं पीने के पानी के संकट से भी जूझ रहा था, किसान आत्महत्यायें कर रहे थे तब नरेन्द्र मोदी खास तौर पर कहा जाये तो बड़ी उत्कण्ठा के साथ अपनी नायकत्व की छवि फिर से पानेे और आम तौर पर बैंकों की संकटग्रस्त स्थिति से उबारने का ख्यालीपुलाव लेकर नोटबन्दी का खेल खेलने में लगे हुए थे। समझा जा सकता है कि जल्लिकट्टू आन्दोलन में मोदी के ख़िलाफ़ भड़का गुस्सा अनायास ही नहीं था।दलित, पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियाँ संयुक्त रूप से तमिलनाडु की बहुसंख्यक आबादी है। उनके भीतर पैठी पेरियार द्रविण आन्दोलन की विरासत उन्हें ब्राहमणवादी विचारधारा के ख़िलाफ़ सक्रिय रखती है। इसलिये राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ का हिन्दुत्ववादी राष्ट्रवाद का एजेण्डा जब उसके राजनीतिक चेहरे मोदी के प्रत्यक्ष-प्रछन्न सहयोग समर्थन से लागू होने लगा तो राज्य की बहुसंख्यक जनता जो हिन्दुत्वाद को सर्वणवाद से जोड़कर देखती है और दलित विरोधी मानती है उसने अपनी पहचान, परम्परा और संस्कृति पर इसे हमले के तौर पर देखा। 2014 में सर्वोच्च अदालत द्वारा सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक बने जल्लिकुट्टी पर लागू प्रतिबन्ध से लोगों की यह आशंका और भी बढ़ गयी और उन्हें अपनी राष्ट्रीयता पर खतरा मँडराता नजर आया। इस रोक ने  भाजपा और मोदी सरकार के ख़िलाफ़ उनके गुस्से को हवा दी। यह गुस्सा तब और भड़क उठा जब मोदी और पन्नीरसेल्वम सरकार ने इस पूरे मामले में एक दूसरे पर आरोप मढ़ते हुए लोगों से फरेब किया और झूठ बोला। जनवरी 2016 में जब तमिलनाडु विधानसभा चुनाव आसन्न थे और केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा स्थानीय पार्टी केएमडीके के साथ गठबन्धन कर चुनावी वैतरणी पार करने के जुगाड़ में थी तब मोदी सरकार ने जल्लिकट्टू पर लगे रोक को अधिसूचना के जरिये मन्सूख करने में जरा भी देर नहीं लगायी। हालाँकि पेटा संगठन की चुनौती पर अदालत ने केन्द्रीय अधिसूचना पर कालान्तर से स्टे लगा दिया था। परन्तु पूँजीपतियों के हित में बिना विलम्ब अध्यादेश लानेवाली इसी मोदी सरकार ने बाद में राज्य सरकार के प्रस्ताव के बावजूद अध्यादेश लाने से इस बहाने इंकार कर दिया था कि मामला अदालत के अधीन (सबज्यूडिस) है। परन्तु तमिल जनता ने यह देखा था कि भाजपा सरकार ने किस प्रकार जाट आन्दोलनकारियों को सन्तुष्ट करने के लिये अदालती निर्णय के बाद भी अध्यादेश का सहारा लिया था। वह यह भी समझ चुकी थी कि तमिलनाडु में चुनाव बीत चुके थे और जनवरी 2017 में अध्यादेश के जरिये उसेे सन्तुष्ट करने की मोदी को कोई ज़रूरत नहीं थी। द्रमुक और अन्नाद्रमुक का रुख भी इससे अलग नहीं था। जनता के दबाव में आखिरकार 21 जनवरी को पन्नीरसेल्वम सरकार ने सांस्कृतिक इतिहास का हवाला देकर राष्ट्रपति और केन्द्र के अनुमोदन से पशु निर्दयता प्रतिबन्ध अधिनियम, 1960 के राज्य संशोधित अध्यादेश के जरिये जल्लिकट्टू के प्रतिबन्ध पर एक साल के लिये रोक लगाया। परन्तु लोगों का गुस्सा कम न हुआ उनका यह कहना था कि सरकार ने जानबूझकर मामले को लटकाये रखा। ठीक यही निर्णय वह पहले भी ले सकती थी। विरोधस्वरूप उन्होंने अलंगनल्लूर गाँव में पन्नीरसेल्वेम को खेल का उद्घाटन नहीं करने दिया और न ही वहाँ इस खेल को आयोजित किया गया। यह सच है कि आन्दोलन में शामिल लोगों में पेटा विरोधी भी थे। उनका तर्क था कि पशुओं के प्रति क्रूरता पेटा को केवल आम लोगों के इस खेल में ही क्यों दिखायी दी। घुड़दौड़ के खेल में घोड़ों के प्रति निर्दयता का सवाल क्या इसलिये कभी नहीं उठा कि वह अमीरों का खेल रहा है। परन्तु विशेष बात यह है कि पेटा विरोधी केवल 10 प्रतिशत ही थे। 90 प्रतिशत हिस्सा उन लोगों का था जो नवउदारवादी नीतियों से तबाह और बर्बाद हो रहे थे और जनवादी अधिकारों के अपहरण की आशंका से त्रस्त थे। स्पष्ट था कि यह आन्दोलन जैसा कि प्रचारित किया गया था केवल अपने पारम्परिक खेल को बचाये रखने के लिये ही नहीं था अन्यथा उनका नारा सिर्फ जल्लिकटू पर रोक हटाने की माँग तक ही अपचयित होकर रह जाता परन्तु आन्दोलन के उनके नारे और उनकी माँगंे पानी के संकट, किसानों की आत्महत्या, कारपोरेट घरानों के हस्तक्षेप व प्राकृतिक संसाधनों की लूट के ख़िलाफ़ और पेप्सी व कोक जैसे कारखानों की बन्दी, बेरोजगारी, गरीबी, आमदनी में गैरबराबरी और मन्दी से जन्मे संकटों से जुड़ी हुई थीं। जनान्दोलनों पर बहुधा उग्रता और हिंसा के आरोप लगते रहे हैं। जल्लिकुट्टी आन्दोलन भी इन आरोपों से बरी नहीं था। परन्तु असलियत यह थी कि आन्दोलन की शुरुआत शान्तिपूर्ण ढ़ंग से हुई थी और तब तक यह अहिंसक तरीके से जारी भी रहा जब तक कि आन्दोलन स्थल पर पहुँची पुलिस ने लोगों को बलपूर्वक वहाँ से हटाना नहीं शुरू कर दिया। साफ था कि राज्य सरकार ने पुलिस की मदद से आन्दोलन को हिंसक बनाने का कुचक्र रचा ताकि उसे बदनाम करके आसानी से कुचला जा सके। सरकारें आन्दोलनांे से निपटने का अक्सर यही तरीका अपनाती रही हैं। सोशल मीडिया पर जारी वीडियो यह साबित करते हैं कि पुलिस ने मरीना तट पर एकत्र आन्दोलनकारियों पर खुद ही पथराव किया, वाहनों में आग लगाई और शान्तिपूर्ण तरीके से विरोध करते लोगों पर निर्ममता से डंडा चलाया, इसमें महिलाओं को भी नहीं बख्सा गया। जिन मछुआरों ने आन्दोलनरत युवाओं की किसी प्रकार की मदद की थी उनके घर जला दिये गये। राज्य के दमन के उपकरण के तौर पर पुलिस ने अपनी भूमिका सदा की भाँति बखूबी निभायी। उसने इस कार्रवाई को इतनी निर्ममता से अंजाम दिया था कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को राज्य और चेन्नई पुलिस कमिश्नर को नोटिस जारी करना पड़ा। हालाँकि मुख्यधारा की मीडिया ने इस पर चुप्पी साधे रखी। उल्टे शासन के पक्ष में वह हमेशा की तरह सहमति निर्माण करने में मुस्तैद रही। मोदी के ख़िलाफ़ लोगों में इस कदर गुस्सा भरा था कि उन्होंने न केवल मोदी के ख़िलाफ़ नारे लगाये बल्कि कई-कई बार मोदी के पुतले की शव यात्रा निकाली और उसका दहन करने से जब पुलिस ने उन्हें रोका तो उसे रेत में पटक पटक कर उन्होंने उसके चिथड़े चिथड़े कर दिये। परन्तु मोदी सरकार के ख़िलाफ़ तमिल लोगों के इस गुस्से को मीडिया ने बड़े साजिशाना ढंग से दबाया और जल्लिकुट्टी आन्दोलन को महज खेल की बहाली का मुद्दा बना दिया था।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,जुलाई-अगस्‍त 2017

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