‘भारत माता की जय’, अन्धराष्ट्रवाद और अभिव्यक्ति की आज़ादी की बहस से परे सत्ता के दमन की चपेट में – छत्तीसगढ़ की जनता!

सिमरन

13 जून 2016 को बस्तर स्थित गोमपड गाँव में छत्तीसगढ़ पुलिस ने एक मुठभेड़ में मदकम हिड़मे नामक महिला को माओवादी आतंकी बताकर मार गिराने का दावा किया। छत्तीसगढ़ पुलिस का कहना है कि 13 जून 2016 को 25-30 माओवादियों ने गोमपड और गोरवा गाँव के बीच उनपर गोलीबारी की जिसके बाद सुरक्षाकर्मियों द्वारा की गयी जवाबी फायरिंग में मदकम हिड़मे की मृत्यु हो गयी जबकि बाकी माओवादी भाग निकलने में कामयाब हो गये। सोशल मीडिया पर मृत हिड़मे की तस्वीरों ने एक बार फिर थोड़े समय के लिए ही सही छत्तीसगढ़ में राज्य द्वारा हो रहे बर्बर दमन को उघाड़  दिया। हिड़मे की माँ और गाँव वालों का आरोप है कि पुलिस ने 12 जून को हिड़मे को उसके घर के पास से अगवा कर, उसकी हत्या करने के पश्चात उसका मृत, नग्न, उत्पीड़न के निशानों से भरा शरीर प्लास्टिक की शीट में लपेटकर उसके घर पहुँचा दिया। हिड़मे की माँ का यह भी कहना है कि उसकी हत्या से पहले उसके साथ बलात्कार भी किया गया। वहीं अपनी बहादुरी का ढोल पीट रही पुलिस काली माओवादी वर्दी में मृत हिड़मे की तस्वीरों से उसके माओवादी होने का दावा कर रही है। मगर एक नज़र उस फोटो पर डालते ही भानुमती के पिटारे की तरह पुसिस का “सच” बिखर जाता है और कई सवाल उठ खड़े होते हैं, जानलेवा मुठभेड़ के बावजूद हिड़मे की वर्दी एकदम साफ़ सुथरी थी, उसके शरीर में कई गोलियाँ लगने के बावजूद वर्दी में गोली लगने के कोई सुराख़ नहीं थे, उसके हाथ में पकड़ी राइफल भी माओवादियों द्वारा इस्तेमाल किये जाने वालें हथियारों में से नहीं थी। पर हिड़मे के साथ हुई घटना छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के लिए कोई नयी बात नहीं है ।

madkam hidmeवहीं छत्तीसगढ़ से कई किलोमीटर दूर देश की राजधानी दिल्ली में पिछले कई महीनों से अन्धराष्ट्रवाद और “भारत माता की जय”, “गौ माता” का शोर मचा हुआ है जिसके नीचे छत्तीसगढ़ में मानवाधिकारों के नंगे हनन और आदिवासियों पर किये जा रहे अत्याचारों की आवाज़ दब जाती है। भारत के मौजूदा हालात की तुलना आज कल बौद्धिक गालियारों में आपातकाल (‘इमरजेंसी’) के दौर से की जा रही है पर बस्तर, दन्तेवाड़ा, बीजापुर और छत्तीसगढ़ के तमाम क्षेत्रों के लिए तो आपातकाल कभी ख़त्म ही नहीं हुआ! बन्दूक की नोक के नीचे ज़िन्दगी जीने को मजबूर आज़ाद भारत के ये वो नागरिक हैं जिनको न तो कोई जनवादी अधिकार हासिल है न मानवाधिकार। ‘सी.एस.पी.एस.ए.’ (‘छत्तीसगढ़ स्पेशल पब्लिक सिक्यूरिटी एक्ट 2005’) के नाम पर पुलिस किसी भी व्यक्ति को माओवादी होने या उनके समर्थक होने के शक की बिनाह पर गिरफ़्तार कर सकती है और जेल में डाल सकती है। छत्तीसगढ़ किसी युद्धक्षेत्र से किसी मामले में अलग नहीं है। ‘डिजिटल इण्डिया’, ‘स्किल इण्डिया’ की हकीकत यह है कि छत्तीसगढ़ की बहुसंख्यक आबादी बिना बिज़ली के अपना जीवन जी रही है, स्कूलों को सीआरपीएफ कैम्पों में तब्दील किया जा चुका है और चिकित्सा के स्तर का अन्दाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि हर साल बारिश के मौसम में हैजा और डायरिया फैलने के कारण कई सौ लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है। फर्जी मुठभेड़ों में मासूम गाँव वालों की हत्या कर उन्हें माओवादी घोषित कर दिया जाता है, महिलाओं के साथ जघन्य अपराध किये जाते है, गाँव के गाँव तबाह कर वहाँ रहने वालों को विस्थापित कर शरणार्थी कैम्पों में धकेल दिया जाता है और ऐसे निर्मम क्रूर अपराध अंजाम दिए जाते है जिन्हें सुन कर किसी की भी रूह काँप उठे। लेकिन ऐसी कोई भी घटना राष्ट्रीय बहस का मुद्दा नहीं बनती, हाँ जो बात की जाती है वो है नक्सलवादियों के जड़ से खात्मे के लिए कड़े से कड़े कदम उठाने की जिनसे “राष्ट्र” को बहुत खतरा है! मगर एक सवाल जिसका जवाब न तो टी.वी. पर गला फाड़-फाड़ कर चिल्लाने वाले ‘न्यूज़ एंकर’ देते हैं और न ही खुद को छाती पीट-पीट कर भारत माता के सपूत कहने वाले देशभक्त नेतागण देते हैं वह यह है कि आखिर जिस राष्ट्र को इन सभी “राष्ट्रविरोधी” ताकतों से बचाने की बात वो कर रहे हैं उस ‘राष्ट्र’ की परिभाषा क्या है? क्या उस राष्ट्र में छत्तीसगढ़ की जनता शामिल है? क्या कश्मीर की जनता की आवाज़ का कुछ अर्थ है? क्या उत्तर-पूर्व की जनता के हक़ अधिकार उस “राष्ट्र” के लिए कोई मतलब रखते हैं? क्या देश बिना उसमें रहने वाले लोगों के कागज़ पर बना कोई नक्शा है? छत्तीसगढ़, कश्मीर, उत्तर-पूर्व  और अन्य जगहों पर जिन महिलाओं के साथ बलात्कार किये जाते हैं उनकी पीड़ा और आवाज़ इस आततायी राष्ट्र में कहाँ हैं? क्या उनमें इन ‘देशभक्तों’ को भारत माता नहीं दिखती? इस पूरी बहस से ये सब सवाल गायब रहते हैं, बस जो सुनने या देखने को मिलते हैं वे हैं जुमले और अफवाहें! हर दिन एक नया छद्म शत्रु गढ़कर हमारे सामने पेश कर दिया जाता है। अपनी बदहाल ज़िन्दगी, महँगाई, बेरोज़गारी, भुखमरी, कुपोषण, बिमारियों- इन सब परेशानियों से त्रस्त जनता की मुश्किलें हल करने के बजाय उनका ध्यान इन मुद्दों के मूल कारणों से भटकाने और उनके गुस्से को शान्त करने के लिए उनके सामने एक छद्म शत्रु खड़ा कर दिया जाता है । मगर राज्य द्वारा प्रायोजित अत्याचारों और आतंक के बारे में एक शब्द नहीं कहा जाता। पुलिस और सेना को गौ माता का दर्जा दे दिया जाता है जिनके ख़िलाफ़ एक शब्द भी सुनना गवारा नहीं समझा जाता।

सोनी सोरी पर तेजाब हमला

सोनी सोरी पर तेजाब हमला

छत्तीसगढ़ के विवाद के अध्ययन से एक बात को बहुत अच्छे से समझा जा सकता है कि पूँजीवादी राज्यसत्ता पूँजीवाद की ख़िदमत में हमेशा नतमस्तक रहती है। छत्तीसगढ़ का विवाद सिर्फ नक्सलियों और सरकार के बीच की लड़ाई नहीं है बल्कि पूँजीवाद द्वारा प्राकृतिक संसाधनों की लूट की अन्धी हवस का नतीजा है जिसमें सबसे ज़्यादा नुकसान वहाँ रहने वाले आदिवासियों को पहुँचा है। उनसे न केवल उनके घर, उनकी ज़मीन छीनी गयी बल्कि इंसानों की तरह ज़िन्दगी जीने का हक़ भी छीन लिया गया। आज फासीवादी उभार के दौर में जहाँ पूरे देश में सत्ता मेहनतकशों और आम जनता पर कहर बरपा रही है वहाँ पहले से ही युद्धक्षेत्र बने छत्तीसगढ़ में उसने और भी क्रूर और निर्मम रूप अख्तियार कर लिया है। छत्तीसगढ़ में राज्य द्वारा प्रायोजित दमन का यह दूसरा चक्र है जो पहले चक्र के मुकाबले पूँजीवाद की आज की ज़रूरतों को देखते हुए अधिक प्रचण्ड है। इसका अन्दाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि अब सरकार अपने ही नागरिक इलाकों पर वायु सेना द्वारा बमबारी करवाने की तैयारी कर रही है। छत्तीसगढ़ के ऐसे इलाके जिन्हें माओवादियों का गढ़ माना जाता है उन्हें “मुक्त क्षेत्र” (जनता और माओवादियों दोंनो से मुक्त ताकि बड़ी कम्पनियाँ वहाँ खनन करवा सकें) बनाने के लिए अब ज़ायनवादी इज़रायल के जहाजों का इस्तेमाल किये जाने की योजना है।

छत्तीसगढ़ में हाल में घटित हो रही घटनाओं को फासीवादी उभार से जोड़ कर न देखना एक बहुत बड़ी भूल होगी। छत्तीसगढ़ बहुमूल्य खनिजों से भरपूर है। ‘डायेलेक्टिकल एन्थ्रोपोल’ नामक अनुसन्धान पत्रिका में छपे एक लेख के मुताबिक अकेले दन्तेवाड़ा में ही 2009 में 80 बिलियन अमरीकी डॉलर के कच्चे लोहे के भण्डार हैं। छत्तीसगढ़ में टाटा स्टील और एस्सार स्टील (जिसके राजनितिक-आर्थिक घोटाले का खुलासा अभी हाल ही में सामने आया है) सरीखे बड़े पूँजीपति घरानों की गिद्ध जैसी नज़र पिछले कई दशकों से वहाँ हो रहे नरसंहार के लिए ज़िम्मेदार है। टाटा स्टील ने छत्तीसगढ़ की सरकार के साथ कई करारनामे किये हैं। एस्सार भी खनिजों की लूट और आदिवासियों के उत्पीड़न के लिए कम ज़िम्मेदार नहीं है। पूँजीपतियों के लिए आदिवासी कीड़े-मकोड़ों की तरह हैं जिन्हें वहाँ से खदेड़ने के लिए वो कोई भी कीमत चुकाने को तैयार हैं ताकि वे बेरोक-टोक खनिजों की लूट से मुनाफ़ा पीट सकें और पूँजीवाद की गाड़ी की मन्द होती गति को बढ़ा सकें।

‘सलवा जुडूम’, ‘ऑपरेशन ग्रीन हण्ट’ यह सब उन अलग-अलग हथकण्डों के नाम है जिनकी आड़ में माओवादियों का खात्मा करने की बात कहते हुए सुनियोजित तरीके से आदिवासियों को उनके गाँवों से विस्थापित कर अपने ही देश में शरणार्थियों की तरह शिविरों में भर दिया गया है। ‘आई.डी.पी. कैम्प’ (‘इण्टरनली डिसप्लेस्ड पीपल कैम्प’) यातना शिविरों से अलग नहीं हैं। ऐसा इसीलिए किया जाता है ताकि बेरोक-टोक खनन का काम किया जा सके। ‘सी.आर.पी.एफ.’ के जवानों के पहरे में जीना आतंक में जीने के सामान है। इन कैम्पों से निकलना जेल से भागने जैसा मुश्किल है, अगर कोई इन कैम्पों से निकल बाहर चला भी जाता है तो उसे माओवादी करार देकर मार दिया जाता है । बन्दूक की नोक पर आदिवासियों की ज़मीनें कौड़ियों के मोल हथियाने में जहाँ पूँजीपति कामयाब नहीं होते वहाँ पूरे के पूरे गाँव माओवादियों के गढ़ कहकर फूँक दिये जाते हैं। यह मामला बदस्तूर कई दशकों से जारी है फिर चाहे कांग्रेस की सरकार हो या भाजपा की। 2010 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सम्पादकों के एक समूह को सम्बोधित करते हुए कहा था कि “नक्सलवादी इलाके भारत के खनिजों की सम्पदा के रिज़र्व है… अगर हम इस देश के खनिज संसाधनों का लाभ नहीं उठा पाये तो इस देश के विकास पर बुरा असर पड़ेगा ।” मगर प्रधानमंत्री जी यह बताना भूल गये कि वे किस के विकास की बात फ़रमा रहे थे। बहरहाल यह तो साफ़ है कि वे छत्तीसगढ़ के लोगों के विकास की बात तो बिल्कुल नहीं कर रहे थे। छत्तीसगढ़ में विकास के नाम पर सड़कें मौजूद हैं और वो भी सिर्फ़ इसलिए ताकि खदानों से निकाला गया खनिज फैक्टरियों तक पहुँचाया जा सके।

2005 में नक्सलवादियों से लड़ने के लिए कांग्रेस के महेंद्र कर्मा ने सलवा जुडूम को जन्म दिया था। स्थानीय जनता का नक्सली आतंक के विरुद्ध विद्रोह का नकाब ओढ़े वास्तव में सलवा जुडूम आदिवासियों की ज़मीन हड़पने वाला माफ़िया था जिसे खुद सरकार ‘फण्ड’ कर रही थी। सलवा जुडूम में स्थानीय लोगों को पुलिस में नौकरी और बेहतर ज़िन्दगी देने के सपने दिखाकर अपने ही लोगों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल किया गया। सलवा जुडूम के सदस्यों को स्पेशल पुलिस ऑफिसर (‘एस.पी.ओ.’) कहा जाता था। जहाँ कांग्रेस के पी. चिदम्बरम ने ‘एस.पी.ओ.’ की तारीफ़ करते हुए भारत में जहाँ ज़रूरत हो वहाँ ऐसे समूहों के संगठन की पैरवी की वहीं भाजपा के रमण सिंह ने सलवा जुडूम को नक्सलवाद से मुक्ति के लिए ज़रूरी बताया। सलवा जुडूम गाँवों में घुसकर न सिर्फ़ आदिवासियों को अपनी ज़मीनें ‘स्टील कम्पनियों’ को बेच देने के लिए डराते-धमकाते थे बल्कि महिलाओं के साथ बलात्कार और लूट जैसे अपराधों को भी अंजाम देते थे। लेकिन राज्य और पुलिस की शह के कारण उनके ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की जाती थी। साल 2011 में भारत के उच्चतम न्यायालय ने सलवा जुडूम को गैर कानूनी और असंवैधानिक घोषित कर दिया। लेकिन इसके बावजूद छत्तीसगढ़ के हालात में कोई तब्दीली नहीं आई। 2009 में केंद्रीय गृह मंत्रालय ने 7 राज्यों (आन्ध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, बिहार, ओड़िसा, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल) की पुलिस और सेना की मदद से छत्तीसगढ़ में ‘ऑपरेशन ग्रीन हण्ट’ की शुरुआत की जिसके तहत नक्सली इलाकों में खोजी दस्ते भेज कर नक्सलियों का सफ़ाया किया जाना था। ‘ऑपरेशन ग्रीन हण्ट और ‘सी.एस.पी.एस.ए.’ के नाम पर हज़ारों मासूमों को मौत के घाट उतार दिया गया और उससे भी ज़्यादा को जेलों में भर कर यातनाएँ दी गयीं।

लेकिन आज के दमन के दूसरे चक्र में जहाँ मुख्यधारा का मीडिया अपने हकों के लिए सड़कों पर उतरी बेंगलुरु की कपड़ा मील की औरतों तक को राष्ट्र के विकास को अवरुद्ध करने का दोषी ठहरा देता है, लगातार बमबारी की तरह आम जनता में अन्धराष्ट्रभक्ति की भावना को हवा देते हुए हर ज़रूरी, अलबत्ता राज्य के लिए मुश्किल खड़ी कर देने वाले, सवालों को फ़र्जी देशभक्ति के पीछे छिपा देना चाहता है। यहाँ राज्य के लिए जनपक्षधर आवाज़ें उसकी सबसे बड़ी शत्रु हैं। छत्तीसगढ़ के दहशत के माहौल में कुछ ऐसी आवाजें भी है जिन्होंने बाकी दुनिया के सामने छत्तीसगढ़ में हो रहे खूनी खेल का पर्दाफाश करने की हिम्मत दिखयी। अनेक जनपक्षधर पत्रकारों ने छत्तीसगढ़ की असलियत को अपनी कलम से आवाज़ देने का काम किया। मगर सरकार को उनका ऐसा करना नागवार गुज़रा। 2015 में ही हिन्दी के दो पत्रकारों समारू नाग और सन्तोष यादव पर जुलाई और सितम्बर ‘सी.एस.पी.एस.ए.’ लगाकर गिरफ़्तार कर जगदलपुर जेल में डाल दिया गया। उनका गुनाह बस इतना था कि उन्होंने राज्य द्वारा जनता पर हो रहे अत्याचारों के बारे में लिखने की जुर्रत की। इससे पहले पत्रकार और शोधकर्ता बेला भाटिया और ‘बी.बी.सी.’ के अलोक पुतुल को भी पुलिस के दबाव और लगातार मिलती धमकियों के चलते छत्तीसगढ़ छोड़ना पड़ा था। ‘सामाजिक एकता मंच’ ने ऑनलाइन पत्रिका ‘स्क्रॉल’ के लिए छत्तीसगढ़ से लिखने वाली पत्रकार मालिनी सुब्रमनियम को भी छत्तीसगढ़ छोड़ने पर मजबूर कर दिया। नाम से कहीं धोखा खा जायें तो इसलिए बताते चलें ‘सामाजिक एकता मंच’ दरअसल सलवा जुडूम का ही एक “सौम्य” संस्करण है जो जनवादी हकों की लड़ाई के लिए आवाज़ उठाने वाले लोगों के ख़िलाफ़ काम करता है। अभी हाल ही में ‘जगदलपुर लीगल ऐड ग्रुप’ (‘जगलग’), जिसे शालिनी गेरा और ईशा खण्डेलवाल सहित कई और जनपक्षधर महिला वकीलों का एक समूह चला रहा था, को सामाजिक एकता मंच के आतंक के चलते बस्तर छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा। सामाजिक एकता मंच से जुड़े लोगों और पुलिस ने ‘जगलग’ दफ़्तर के मकान मालिक तक को जा कर धमकाया कि अगर उसने अपना मकान इन औरतों से खाली नहीं करवाया तो अंजाम बेहद बुरा होगा। ‘जगलग’ छत्तीसगढ़ के उन ग़रीब और प्रताड़ित नागरिकों को इन्साफ़  दिलाने का काम कर रहा था जिन्हें पुलिस ने बिना किसी ठोस सबूत के सालों तक जेल में बन्द रखा और उनके साथ मार-पीट की। अनपढ़ और गरीब आदिवासियों के लिए जो एक रौशनी की किरण यह महिलाएँ थीं वो भी इनसे छीन ली गयी। दन्तेवाड़ा में ‘वनवासी चेतना आश्रम’ चलाने वाले हिमांशु कुमार के आश्रम पर बुल्डोज़र चढ़ा दिया गया। ‘पी.यू.सी.एल.’ के डॉ. बिनायक सेन जिन्हें राजद्रोह के आरोप में 2007 में गिरफ़्तार किया गया था जो छत्तीसगढ़ की ग़रीब और शोषित जनता तक चिकित्सा पहुँचाने का काम कर रहे थे। किसी भी जनपक्षधर आवाज़ को दबाने की छत्तीसगढ़ राज्य की ‘मोडस ऑपरेण्डी’ बिल्कुल एक जैसी है या तो उन्हें धमकियों से डराओ, उनके मकान मालिकों को धमकाने से लेकर उनके घर पर पुलिसिया रेड जिसके बाद कुछ पर्चे ‘प्लाण्ट’ कर उन्हें माओवादी घोषित कर जेल में डाल दिया जाता है।

आदिवासी नेता सोनी सोरी के चेहरे पर तेजाबी पदार्थ द्वारा हमला कराया जाना भी हाल की ही घटना है। इन सब घटनाओं की फेहरिस्त इतनी लम्बी है कि इसके लिए कई रिपोर्टें लिखी जा सकती हैं। मगर अभी तमाम जनपक्षधर बुद्धिजीवियों, पत्रकारों, वकीलों पर हो रहे हमले उन्हें छत्तीसगढ़ से बाहर करने के मकसद से किये जा रहे हैं ताकि जो थोड़ी बहुत खबरें हम तक पहुँच पाती है वो भी बन्द हो जायें।

मगर अहम सवाल यह है कि राज्य के आतंक के बीच कब तक छत्तीसगढ़ की जनता को अपनी बलि देनी पड़ेगी। हिड़मे जैसे न जाने कितने आदिवासी हर रोज़ छत्तीसगढ़ में जान गँवा रहे हैं। छत्तीसगढ़ की जेलों में सालों साल बिना किसी ‘एफ.आई.आर.’ के बन्द आदिवासी जिस यातना का सामना हर रोज़ कर रहे है उसका हिसाब लगा पाना मुश्किल है। माओवादी होने के आरोप में गिराफ्तार जो आदिवासी जेल से 8 या 10 साल बाद छूट भी जाते हैं उनकी ज़िन्दगी का एक ऐसा हिस्सा लूट लिया जाता है जिसकी भरपाई कभी नहीं की जा सकती।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,मई-जून 2016

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