आरक्षण की लड़ाई: एक अनार सौ बीमार

अरविन्द

हरियाणा में भी पिछले दिनों आरक्षण का मुद्दा एक बार फिर से गरमाया हुआ था। इसे लेकर फ़रवरी माह में जाटों की करीब दो सप्ताह तक शासन-प्रशासन और अन्य जात-बिरादरियों के साथ सींग फ़ँसाई होती रही। इस दौरान हुई हिंसा, आगजनी और तोडफ़ोड़ की घटनाओं ने पूरे हरियाणा को हिलाकर रख दिया। यही नहीं इस पूरे दौर में हरियाणा के समाज में जातिवाद की दुर्गन्ध एक बार फ़िर से वातावरण में छा गयी या कहें कि सतह पर आ गयी। आन्दोलन के शुरुआती दिनों से ही प्रशासन किंकर्त्तव्यविमूढ़ स्थिति में दिखाई दिया, प्रशासनिक लकवे की इस हालत में लम्पट तत्वों (तमाम जातियों के) को भी ‘खुलकर खेलने’ का यानी लूटपाट और उत्पात मचाने का पूरा-पूरा मौका मिला। एक-दूसरे समुदाय की दुकानों, धर्मशालाओं और घरों को लूटने और फूँकने के लिए निशाना बनाया गया। स्वयम्भू जातीय नेताओं की करतूतों का फल आम ग़रीब आबादी को भुगतना पड़ा। सामने वाले की नज़रों में अपराधी होने के लिए ‘अन्य जाति’ का होना ही पर्याप्त था और बन्द दुकानों के साइनबोर्डों को देख-देख कर लूटने और फूँकने हेतु चुना जा रहा था। तमाम जातियों के छुटभैय्ये नेताओं ने इस पूरे दौर में अपनी ‘नेतृत्व क्षमता’ का बखूबी परिचय दिया! जाहिरा तौर पर कुल मिलाकर इस जातीय हिंसा में जाट आबादी को अपने आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक पहुँच और संख्याबल के कारण इक्कीस पड़ना ही था लेकिन नुकसान सभी का ही हुआ है। तोड़फ़ोड़-आगजनी और लूटपाट के कारण निजी और सार्वजनिक सम्पत्ति का नुकसान तो हुआ ही इसके अलावा 32 लोगों की मौत हुई और 200 से ज्यादा लोग घायल हो गये। परन्तु सबसे खतरनाक चीज हुई 35 बिरादरी बनाम 1 बिरादरी के नाम पर मेहनतकश आम जनता का पार्थक्य। कुछ तो पहले ही स्थिति कोई बेहतर नहीं थी अब तो आपसी फ़ूट और भी गहरा गयी है अब पहले वाली स्थिति को ही पुनः बहाल होने में लम्बा वक्त लग सकता है।

Jat-Reservationहरियाणा में एक चीज़ और ध्यातव्य है कि यहाँ लोगों का गुस्सा सरकारी मशीनरी और व्यवस्था के ख़िलाफ़ भी खूब निकला। लोगों के द्वारा सड़क और रेल तो रोकी ही गयी इसके साथ-साथ नेताओं की कोठियों पर हमले किये गये, काफ़ी जगहों पर थानों को फ़ूँक दिया गया, परिवहन की बसों को आग लगा दी गयी, टोल टैक्स प्लाजों को जला दिया गया और तो और सोनीपत के पास मुनक नामक जगह पर राजधानी में जाने वाली नहर के पानी को भी रोक दिया गया जिससे पानी के लिए दिल्ली में हाहाकार मच गया। बेशक इन चीजों को उचित नहीं ठहराया जा सकता और न ही इनकी तरफ़दारी किसी भी रूप में जायज़ है लेकिन यह बात भी नहीं भूलनी चाहिए कि इस पूरे घटनाक्रम की ज़िम्मेदारी से शासन-सत्ता भी बच नहीं सकते। हरियाणा की भाजपा सरकार की स्थिति भी चुनावी वायदों को पूरा करने में वही ‘ढाक के तीन पात’ वाली रही है। नौकरी देना तो दूर उल्टा कई भर्तियों को रद्द ही कर दिया गया। 2,852 कम्प्यूटर शिक्षा से जुड़े अध्यापकों और सहायकों को पक्का नहीं किया गया, 9,455 जे.बी.टी. अध्यापकों को नियुक्ति पत्र नहीं दिया गया, 8,857 हरियाणा पुलिस के जवानों की भर्ती को रद्द कर दिया गया और करीब 16,000 अतिथि अध्यापकों के मसले पर कहाँ तो भाजपा के दिग्गज लैटर हेड पर लिखित में वायदा लिए हुए घूम रहे थे और कहाँ अब इस मामले पर ‘कान तक नहीं हिला रहे हैं’ और पिछले दिनों तो अपनी माँगों पर लड़ रहे अतिथि अध्यापकों और अध्यापिकाओं को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा भी गया। बेरोज़गारों को दिये जाने वाले 6,000 रुपये (12वीं पास को) और 9,000 रुपये (बी.ए. पास को) के बेरोज़गारी भत्ते के मुद्दे पर भी भाजपा ने ‘एक चुप सौ सुख’ वाली नीति ही अपना रखी है। दूसरी ओर 35 बिरादरी बनाम 1 बिरादरी के मुद्दे पर भाजपा के नेताओं ने जनता को खूब बाँटने का काम किया। राजकुमार सैनी तो ओ.बी.सी. ब्रिगेड खड़ी करने तक की बात कर रहे थे जो उनके अनुसार तथाकथित जाट आन्दोलनकारियों से सड़क पर लोहा लेती, भाजपा के तमाम छुटभैय्ये तथाकथित 35 बिरादरी की मीटिंगों में सरे आम जाटों के ख़िलाफ़ लोगों को भड़काते हुए भी देखे गये, इसके अलावा भाजपा के ही कुछ जाट जाति से आने वाले नेता-मंत्री भी जाट आरक्षण के समर्थन में गाहे-बगाहे बयानबाजी करते रहते थे क्योंकि रोज़गार के संकट काल में यह मुद्दा ‘सुषेण वैद्य’ बनकर आया है। इसमें कोई शक नहीं है कि आरक्षण की आग के पीछे वोट बैंक की राजनीति भी काम कर रही थी जिसका कि विपक्षी पर्टियों को सीधे-सीधे चुनावी फायदा होने की उम्मीद थी किन्तु स्वयं भाजपा भी हिंसा और लूटपट के ताण्डव के लिए सीधे तौर पर ज़िम्मेदार है। यदि हरियाणा के समाज में जाट और गैरजाट के बीच ध्रुवीयकरण होता है तो इसका फायदा भाजपा उठाने के चक्कर में है ताकि सदा के लिए हरियाणा के समाज में अपने वोट बैंक को पक्का कर सके। जनसंख्या के लिहाज से जाट हरियाणा की आबादी का करीब 29 प्रतिशत हैं और वोटों के लिहाज़ से करीब 25 फीसदी हिस्सा इनका है। इस प्रकार से  भाजपा को लगता है कि गैर जाट उसकी चुनावी नैया के अच्छे खेवनहार हो सकते हैं और कुछ जाट नेताओं के कारण थोड़ी-बहुत वोट तो इनकी भी आ ही सकती हैं। धार्मिक पहचान के आधार पर बँटवारे का संघ और भाजपा का हरियाणा का अनुभव कोई बेहतर नहीं रहा है क्योंकि 90 के दशक में राममन्दिर निर्माण के मुद्दे पर हरियाणा की आबादी करीब-करीब उदासीन ही रही थी और वह भी खासकर ग्रामीण आबादी। अब हमारे वर्ग चेतना से हीन समाज में लोगों को जाति के आधार पर बाँटना भी कहाँ मुश्किल काम है। और इस खेल में तो भाजपा को महारत हासिल है ही। धर्म और जाति के नाम पर लोगों को लड़ाना संघ परिवार का पुराना शगल रहा है।

एक तो वोटों की फसल काटने के लिए और दूसरा आम मेहनतकश जनता की वर्ग चेतना की धार को भोथरी करने के लिए धर्म, जाति, क्षेत्र, रंग, नस्ल आदि का इस्तेमाल एक आजमाया हुआ नुस्खा है। यदि हरियाणा का ही उदाहरण लें तो यह बात एकदम साफ हो जाती है। जाट आरक्षण की बात नहीं करें तो हरियाणा के तमाम पर्टियों के जाट नेता और खापों के स्वयम्भू चौधरी खुद को बेरोज़गार पाते हैं और राजकुमार सैनी जैसों की ओबीसी वोटबैंक की दुकानदारी तो कायम ही अन्य जातियों के प्रति गाली-गलोज़ की एक विशिष्ट शैली अपनाने के कारण है। तमाम जातियों के इन ठेकेदारों में से किसी को भी मौजूदा मुनाफ़ा केन्द्रित पूँजीवादी व्यवस्था पर तो सवाल उठाना नहीं है क्योंकि इन्होंने यदि ऐसा कर दिया तो फिर इन्हें कौन पूछेगा? सरकारों के द्वारा जब शिक्षा को महँगा किया जाता है व इसे आम जनता की पहुँच से लगातार दूर किया जाता है और जब सार्वजनिक क्षेत्र (‘पब्लिक सेक्टर’) की नौकरियों में कटौती करके हर चीज़ का ठेकाकरण किया जाता है तब जातीय ठेकेदार चूं तक नहीं करते! ‘रोज़गार ही नहीं होंगे तो आरक्षण मिल भी जायेगा तो होगा क्या?’ यह छोटी सी और सीधी-सच्ची बात भूल से भी यदि इनके मुँह से निकल गयी तो इन सभी की प्रासंगिकता ही ख़त्म हो जायेगी इस बात को ये घाघ भलीभाँति जानते हैं।

आरक्षण को लेकर हुआ इस तरह का हिंसा और सरफ़ुटव्वल का बवाल कोई पहली बार नहीं हुआ। जनवरी माह के अन्तिम दिनों में आन्ध्रप्रदेश के कापु समुदाय के लोग भी आरक्षण के लिए खासा हिंसक आन्दोलन कर चुके हैं। अगस्त 2015 में गुजरात में पटेल समुदाय के लोग भी आरक्षण के मुद्दे पर सड़कों पर थे और इस दौरान भी खूब उत्पात मचा। राजस्थान के गुज्जर भी आरक्षण की ‘लड़ाई’ में अपने ‘हाथ आज़मा चुके हैं’। आरक्षण के उक्त तमाम आन्दोलनों (जातीय आरक्षण हासिल करने की उक्त हिंसक कार्रवाइयों के लिए आन्दोलन शब्द के इस्तेमाल पर आपत्ति भी हो सकती है जो कि कतई जायज़ भी है!) में एक चीज जो आम तौर पर दिखाई देती है वह यह है कि ये तमाम जातीय समूह पिछड़ा वर्ग और अन्य पिछड़ा वर्ग के तहत शिक्षा और खासकर रोज़गार के मामलों में अवसरों की बढ़ोत्तरी के लिए एड़ी-चोटी तक का जोर लगाये हुए थे। एक बात और जो कि गौरतलब है वह यह है कि इनमें से अधिकतर जातियाँ ज़मीन के मालिक किसानों की जातियाँ रहीं हैं। सम्पूर्णता में अन्य जातियों के साथ तुलना में इनका आर्थिक-सामाजिक रुतबा और राजनीतिक पहुँच खासी मजबूत रही है और ज़मीन को लेकर दलित जातियों के साथ इनके झगड़ों-टण्टों में इनकी स्थिति आम तौर पर उत्पीड़क की ही रही है। लेकिन सिर्फ़ जातीय आधार पर तुलना करके काम नहीं चल सकता क्योंकि अगर जातियों की भीतरी संरचना पर थोड़ा भी गौर किया जाये तो पता चलेगा कि जाति कोई एकाश्मी चीज़ नहीं है बल्कि इसके अन्दर भी अमीरी-गरीबी है, शोषक और शोषित हैं। हर जाति में थोड़े से लोगों का भविष्य तो सुरक्षित है लेकिन बहुसंख्यक आबादी के हालात बेहद ख़स्ता हैं। आज के रोज़गार विहीन विकास के दौर में सरकारें खुल्लम-खुल्ला ‘पूँजीपतियों की प्रबन्धनकारिणी समिति’ होने का अपना किरदार बखूबी निभा रहीं हैं। तमाम जातियों की बहुसंख्यक आबादी सस्ती शिक्षा और रोजगार से महरूम है तथा गरीबी, भुखमरी, कुपोषण से आजिज़ है। ऐसे में व्यवस्था का भला इसी बात में है कि लोग उस पर सवाल न उठायें और आपस में ही उलझे रहें व एक-दूसरे को ही दुश्मन मानते रहें, तमाम जातीय ठेकेदार आरक्षण जैसे मुद्दों को लगातार हवा देकर व्यवस्था की चौकसी ही कर रहे हैं। बहरहाल हम अपनी चर्चा में आरक्षण के लिए हरियाणा में हुए जाट आन्दोलन के विभिन्न पहलुओं पर बात करेंगे और कुछ आम निष्कर्षों तक पहुँचने का प्रयास करेंगे।

हरियाणा के इतिहास में (यानी 1 नवम्बर 1966 से जबसे हरियाणा राजनीतिक रूप से अस्तित्वमान है) इतने बड़े पैमाने पर हिंसा और जातीय विद्वेष पहले कभी नहीं हुआ। अब चूँकि प्रतीतिगत धरातल पर मामला शान्त हुआ लग रहा है तो इस पूरे प्रकरण को लेकर एक-दूसरे समुदाय पर घोर जातीय नज़रिये से आरोप-प्रत्यारोप लगने शुरू हो चुके हैं। गैर जाट इसके लिए केवल जाटों को जिम्मेदार ठहराने पर तुले हैं और उनकी तुलना राक्षसों तक से की जा रही है वहीं जाट इसे अपने प्रति राजनीतिक साजिश करार दे रहे हैं और अन्य पर आरोप लगा रहे हैं कि हिंसा असल में जाटों के नाम पर अन्य जातियों के लोगों ने की है। चुनावी पार्टियों के नेता और जातियों के चौधरी तो एक-दूसरे को दोष देने और तू नंगा-तू नंगा के खेल में लगे ही हैं। बुद्धिजीवियों की भी अलग-अलग राय प्रकट हो रही हैं, कुछ इसे कृषि संकट से उपजी समस्या बता रहे हैं, कुछ का कहना है कि इसके लिए जातीय राजनीति ज़िम्मेदार है और कुछ इतने हतप्रभ रह गये हैं कि अभी तक उक्त घटना (‘दुर्घटना’) से स्वयं उबर ही नहीं पाये हैं और जातीय भाईचारे (!?) की मानवतावादी दलीलें दिये जा रहे हैं। इनमें से कुछ तो ‘हाय भाईचारा खत्म हो गया!!’ तक भी चले गये हैं। इस पूरे प्रकरण पर मुख्य अन्तरविरोध को पकड़ने और समस्या की मूल जड़ तक कम ही लोगों का ध्यान जा रहा है। इस सबके बीच पूँजीवादी व्यवस्था और जाति को वोट बैंक के लिए इस्तेमाल करने की गलीज पूँजीवादी राजनीति दामन पर चन्द दागों को लेकर साफ़ बच निकलती प्रतीत हो रही हैं। हरियाणा का रोहतक शहर हिंसा का सबसे प्रमुख केन्द्र रहा था लेकिन यह भी ज्ञात होना चाहिये की यहाँ कहने के लिए वर्ग आधारित राजनीति करने वाली और मज़दूर-किसान व आम आबादी की हितैषी बनने वाली एकाधिक संसदीय वामपन्थी पर्टियों के बड़े-बड़े कार्यालय भी हैं जो कि लम्बे समय से यहाँ ‘कार्यरत’ हैं। एक पार्टी अपनी सबसे बड़ी मज़दूर ट्रेड यूनियन होने का दम भरती है और दूसरी खुद को देश की एक मात्रा  कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी पार्टी बताती है लेकिन लोगों को वर्ग सचेत बनाने की बजाय लगता है इन्होंने अपना पूरा ध्यान चुनावी चेतना पैदा करने में ही खर्च कर दिया और खेद की बात है कि इस मामले में भी ये संसदीय; लाल मिर्ची खाने वाले तोते कोई ‘मैदान नहीं मार पाये’।

आज पूरे देश के स्तर पर उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों को बढ़ावा दिया जा रहा है। संसदीय वाम पर्टियों समेत सभी चुनावी पर्टियों की इन नीतियों में पूरी सहमति है, विरोध की नौटंकी केवल विपक्ष में बैठकर ही की जाती है। ऐसे हालात में रोज़गार बढ़ना तो दूर उल्टा 2 प्रतिशत की दर से घट ही रहे हैं। इस स्थिति को रोज़गार विहीन विकास की संज्ञा से नवाजा जा रहा है। 2013 के श्रम और रोजगार मंत्रालय के ही एक आँकड़ों के मुताबिक देश में 15-24, 18-29 और 15-29 साल के युवाओं के बीच बेरोजगारी की अनुमानित दर क्रमशः 18.1, 13.0 और 13.3 थी। वहीं 15-29 साल के स्नातक (‘बी.ए. पास’) युवाओं के बेरोज़गारी के आँकड़े और भी भयावह थे जो ग्रामीण क्षेत्रें में 36.4 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रें में 26.5 प्रतिशत अनुमानित किये गये थे।  देश में एक-एक भर्ती के पीछे हजारों की भीड़ होती है। पिछले दिनों की उत्तर प्रदेश की घटना से बेरोज़गारी के आलम का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है जब चपरासी के कुल 368 पदों के लिए 23 लाख से भी अधिक आवेदन पहुँचे हुए थे, और अब यह भी हैरानी की बात नहीं होनी चाहिए कि उक्त आवेदनों में से ‘बी.ए.’, ‘एम.ए.’, ‘एम-फ़िल.’, ‘इन्जीनियरिंग’ और ‘पी.एच.डी.’ तक किये हुए नौजवान भी बड़ी संख्या में थे। हरियाणा की अगर बात की जाये तो यहाँ बेरोज़गारी में भयंकर बढ़ोत्तरी हुई है। 1966 में हरियाणा के रोज़गार दफ्तर में 36,522 लोगों के नाम दर्ज थे जबकि 2009 में यह आँकड़ा बढ़कर 9,60,145 हो गया। यह बात भी सहज ही समझी जा सकती है कि इन रोज़गार कार्यालयों (असल में बेरोजगार कार्यालयों) में वास्तविक संख्या से बेहद कम ही लोग नाम दर्ज कराते हैं क्योंकि उन्हें भली प्रकार से इस बात का पता है कि इससे कुछ होने-जाने वाला नहीं है।

रोज़गार हासिल करने की आपाधापी के बीच आरक्षण जैसे मुद्दे तनाव को बढ़ाने में ‘आग में घी का काम’ करते हैं। अपेक्षाकृत कम अंक (‘मैरिट’) के बावजूद भी जब किसी आरक्षित अभ्यर्थी को नौकरी मिल जाती है तो दूसरों को लगता है कि उनके रोज़गार छीनने वाले इसी श्रेणी के उम्मीदवार या विशिष्ट जातियों से आने वाले लोग ही हैं तथा आरक्षित श्रेणी वालों को लगता है कि आरक्षण के लिए कमर कसे हुए लोग दरअसल उनके रोज़गार पर डाका डालने के लिए ही कमर कसे हुए हैं। यह कोई नहीं सोच पाता कि बेरोज़गारी के असल कारण क्या हैं। जातियाँ एक दूसरे के ख़िलाफ़ दुश्मन के तौर पर खड़ी कर दी जाती हैं। मध्ययुगीन मूल्य-मान्यताओं, घोर जातिवादी नज़रिये के कारण यह भी कोई नहीं सोच पाता कि कितने पद तो आरक्षित श्रेणियों के बीच के भी खाली पड़े रह जाते हैं क्योंकि दलित और पिछड़ी जातियों का बड़ा हिस्सा शिक्षा और रोज़गार की दौड़ में पहले ही पिछड़ चुका होता है। 2007-08 के ही एक आँकड़े के अनुसार कुल युवा आबादी में से केवल 7 फ़ीसदी ही उच्च शिक्षा तक पहुँच पाते हैं और अब तो पिछले कई वर्षों में तकनीकी और प्रबन्धन की पढ़ाई के प्रति बढ़े (या बढ़ाये गये क्योंकि अब देशी-विदेशी पूँजीपतियों को सस्ते में कुशल श्रमिक चाहियें) रुझान ने उक्त स्थिति में और भी नकारात्मक प्रभाव डाला होगा। दूसरी ओर पारम्परिक तौर पर कृषि से जुड़ी जातियों की बड़ी आबादी की कृषि के प्रति स्थिति साँप-छछुन्दर वाली हो गयी है। ये खेती को छोड़ें तो सामने बेरोज़गारी का दानव और करें तो भी गुजारा नहीं। 2005-06 की कृषि गणना के अनुसार ही हरियाणा में 67 प्रतिशत भूमि मालिकों के पास 2 हेक्टेयर से कम भूमि थी और 47-67 प्रतिशत के पास तो एक हेक्टेयर से भी कम कृषि भूमि थी। पशुपालन पर आश्रित लोगों की अर्थव्यवस्था भी सामूहिक चारागाहों के खत्म होते जाने के कारण संकट में है। कुल मिलाकर छोटे पैमाने की कृषि और पशुपालन दोनों ही घाटे का सौदा हो चुके हैं। आज के दौर में द्रुत गति से छोटी हो रही जोत और संसाधनों में हो रही सिकुड़न किसान जातियों की इस बड़ी आबादी में असुरक्षा व अनिश्चितता को लगातार बढ़ावा देती हैं। मुद्दे से थोड़ा भटकते हुए एक बिन्दु पर और बात कर लेते हैं। यहाँ लड़कियों के प्रति पारम्परिक रूप से हिकारत का नज़रिया अपनाया जाता रहा है और कन्या भ्रूण हत्या के मामले में हरियाणा के हालात भयंकर हैं दूसरी और पूँजीवादी मानसिकता ने पिछड़ी मूल्य-मान्यताओं को बढ़ावा दिया है। हरियाणा में कन्या भ्रूण हत्या आम है और विषम लिंगानुपात के आँकड़े भयावह हैं। 90 के दशक से पहले भी बिन ब्याहे युवा हरियाणा के ग्रामीण समाज में मिल जाते थे किन्तु अब तो गाँव-गाँव में ये थोक के भाव दिखते हैं। अब रोज़गार के संकट ने इस स्थिति को और भी विभत्स बना दिया है। क्योंकि खेती-बाड़ी का काम तो गुजारे लायक अब रहा नहीं और बिना रोज़गार या काम-काज़ के शादी की अभिलाषा ही आकाश कुसुम को निहारने जैसी है। अब स्थिति यह है कि शादी के लिए लड़कियाँ दूसरे राज्यों से खरीदकर लायी जा रही हैं और यह काम भी जिनकी कुछ औकात है वे ही कर सकते हैं। इस प्रकार से घर-घर में बेरोज़गार युवा बैठे हैं जो रोज़गार पाने की चाहत में किसी भी हद तक गुजर जाने के लिए तैयार रहते हैं, और वक्त बेवक्त हदों से गुजर भी जाते हैं। क्योंकि पूँजीवाद की चकाचौंध भरी दुनिया में ऊँचे ख्वाब तो ये भी देखते ही हैं। और पक्का रोज़गार इन्हें अपने सपनों को पूरा करने का एक आधार प्रतीत होता है और आरक्षण का न होना एक रूकावट।

जातियों के आपसी संघर्ष के पलीते को चिंगारी देने का काम करते हैं तमाम वोटों के व्यापारी। बेरोज़गारी के इन भयानक हालात में जातियों का रहनुमा बनने वाला न तो कोई चुनावी नेता और न ही कोई खाप का चौधरी अपने मुखारविन्द से बेरोज़गारी के ख़िलाफ़ व सरकारों की नीतियों के विरोध में कोई बोल-वचन निकालता है और न ही इन हालात से उनके निजी जीवन में कोई फ़र्क पड़ता है क्योंकि अधिकतर के पास या तो बेशुमार दौलत है या फिर बेशुमार ज़मीन-ज़ायदाद और बहुतों के पास तो दोनों ही हैं! इनमें से अधिकतर के सपूत (बहुत बार कपूत) या तो विदेशों में पढ़ाई करते हैं या फ़िर वोट की राजनीति में ही अपने भाग्य को आजमाते हैं जहाँ पढ़ाई की कोई ज़रूरत ही नहीं है या फिर सुरक्षित भविष्य के साथ ढंग से व्यवस्थित हैं। आरक्षण के लिए होने वाले जातीय संघर्षों में दो तरह के लोग बड़ी ही आसानी से देखे जा सकते हैं; एक तो कीमती गाड़ियों का इस्तेमाल करने वाले और एशो-आराम की ज़िन्दगी जीने वाले बड़े-बड़े पग्गड़धारी और सफ़ेदपोश तथा दूसरी तरफ ट्रैक्टर-ट्रालियों में फ़रसों, गण्डासों,, डण्डों और जातीय नफ़रत की आग से लैस ग़रीब किसान आबादी जिसका एक हिस्सा लगातार बढ़ रही बेरोज़गारी और ग़रीबी के संकट के चलते लम्पट भी हो चुका होता है और जिसे इसी शिद्दत के साथ सपना (एक तथाकथित हरियाणवी लोक गायिका जिसने फ़िल्मीं धुनों पर नाच-कूद कर फूहड़ता और अश्लीलता फैलाने के नये कीर्तिमान स्थापित किये हैं) के कार्यक्रमों में भी देखा जा सकता है। इस प्रकार आरक्षण के टुकड़ों पर लड़ने के लिए और एक-दूसरे का खून बहाने के लिए रह जाते हैं तो तमाम जातियों के मेहनतकश लोग। स्थिति जब जातीय हिंसा का रूप ले चुकी होती है तो आरक्षण का मुद्दा पीछे हो जाता है और चौधर का और एक दूसरे को नीचा दिखाने का मसला आगे आ जाता है, लड़ने वाले बहुत से लोगों को तो यह तक नहीं पता होता कि असल में उनकी ‘माँग भी क्या है?’

आज के समय किसानों-मजदूरों और आम मेहनतकश जनता को वर्गीय आधार पर भाईचारा स्थापित करने की ज़रूरत पर संजीदगी के साथ सोचना होगा क्योंकि यही आज हमारे अस्तित्व की शर्त भी है। आपसी जूतम-पैजार को छोड़कर अपने मुश्तरका दुश्मन को पहचानना ही होगा। रोज़गार के मसले को लेकर हम ज़रा भी दिमाग पर जोर डालें तो बड़ी आसानी से निचोड़ तक पहुँच सकते हैं यानी सभी को रोजगार देने के लिए तीन चीजों की आवश्यकता होती है- 1-) काम करने वाले हाथ, 2-) विकास की सम्भावनाएँ 3-) प्राकृतिक संसाधन। इन तीनों चीज़ों का ही हमारे यहाँ पर कोई टोटा नहीं है। काम करने वाले हाथों की कोई कमी नहीं है; करोड़ों लोग बेरोज़गार हैं जिनमें पढ़े-लिखों की भी भारी संख्या है। विकास की सम्भावनाओं की यदि बात की जाये तो देश की आज़ादी के करीब 69 साल बाद भी लोग बुनियादी ज़रूरतों तक से महरूम हैं जिन्हें पूरा करने का वायदा हर चुनाव में देश की जनता से तमाम चुनावी पार्टियों के धन्धेबाज करते हैं और मानवीय जीवन को सुन्दर बनाने की कोई सीमा थोड़े ही होती है! न ही हमारी इस शस्य श्यामला, खनिजों से भरपूर और सदानीरा जीवनदायिनी नदियों से युक्त धरती पर प्राकृतिक संसाधनों की ही कमी है। रोज़गार के मसले पर आपस में एक-दूसरे का सिर फ़ोड़ने की बजाय एकजुट होकर सरकारों के सामने अपनी माँगों पर मुक्का ठोंके जाने की ज़रूरत है।

हमारे देश का संविधान जब ‘जीने के अधिकार’ की बात करता है। यह हमें सरकारों से पूछने का हक़ है कि बिना रोज़गार की गारण्टी दिये ‘जीने के इस अधिकार’ का क्या मतलब है? क्या बिना पक्के रोज़गार के यह महज़ एक जुमला नहीं है? और हम जो अप्रत्यक्ष कर देते हैं जोकि पूरे बजट का करीब 90 फीसदी होता है; वह हमसे शिक्षा-रोज़गार-चिकित्सा और तमाम मूलभूत सुविधाएँ प्रदान करने के नाम पर ही लिया जाता है; तब क्या हमें सरकारों पर इन चीज़ों के लिए दबाव नहीं बनाना चाहिए? और क्या सरकारों का काम केवल पूँजीपतियों की चाकरी करना ही होता है? जनता को मूलभूत सुविधाएँ भी न दे सकने पर ऐसी सरकारों का औचित्य ही क्या है? जाति और धर्म के नाम पर आपसी सिरफुटौव्वल करने की बजाय इन सवालों पर गहराई से सोचे जाने की आवश्यकता है। आज सरकारें सीधे तौर पर बड़े-बड़े धान्नासेठों की सेवा में ही काम करती हैं और लोगों को धर्म, जाति, रंग, नस्ल आदि के नाम पर बाँट दिया जाता है। पिछले तीन सालों के दौरान पूँजीपतियों का 1 लाख 14 हजार करोड़ रुपया माफ़ कर दिया गया लेकिन सूखे और कर्ज की मार झेल रहे किसानों को क्या मिला? आत्महत्याएँ और बर्बादी? हर चीज पैदा करने वाले मज़दूरों को अपने हक-अधिकार माँगने या उनके लिए आवाज़ ऊठाने पर क्या मिलता है? लाठी और गोली। और फिर भी हम अपने हकों के लिए जागरूक हुए बिना आपसी झगड़ों-टण्टों में ही अपनी ताकत बरबाद करने पर लगे रहते हैं! इस तरह के तमाम झगड़ों और हिंसा की वारदातों से मेहनतकश जनता को कुछ मिलना तो दूर उल्टा उससे छिन ज़रूर जाता है।

असल सवाल तो पूरी व्यवस्था में ही आमूलचूल बदलाव करके एक शोषण विहीन समाज के निर्माण का है। बेशक यह मंजिल दूर है तथा इस तक पहुँचने का रास्ता लम्बा है, व्यापक जनता की वर्गीय लामबन्दी की माँग करता है; युवाओं से साहस और कुर्बानी की माँग करता है लेकिन मेहनतकश जनता की मुक्ति इसी रास्ते से ही सम्भव है। अपनी इस लम्बी लड़ाई की तैयारी करते हुए भी हमें रोज़गार, शिक्षा, बिजली, पानी, दवा, ईलाज आदि जैसी समस्याओं को एकजुटता के साथ उठाना होगा और तभी दूरगामी संघर्ष के लिए हमारी एकता भी मजबूत होगी क्योंकि ये एक जाति या धर्म की नहीं बल्कि सभी की समस्याएँ हैं। हरियाणा प्रदेश और देश में भी जातिवाद की दीवारें न तो ‘भाईचारा टूट गया’ कहकर स्यापा करने से ढहेंगी और न ही 36 बिरादरी की एकता कायम करने की मानवतावादी-भावनात्मक अपीलों से इन जाति की दीवारों को कमजोर किया जा सकता है। तमाम जातियों के लोगों की एकता साझा मुद्दों के आधार पर ही कायम हो सकती है यह सीधी सी बात हमें गाँठ बाँध लेनी चाहिए। हरियाणा के इतिहास में जब भी लोग एकजुट होकर लड़े थे तो उनके मुद्दे भी साझा ही थे चाहे वह समय सल्तनत काल और मुगल काल का किसान विद्रोहों का समय रहा हो या फिर 1857 से लेकर 1947 तक औपनिवेशिक गुलामी के ख़िलाफ़ जनता का साझा संघर्ष रहा हो। ज़ाहिर सी बात है साझे संघर्षों के दौरों में ही जातीय बेड़ियाँ भी कमजोर होती हैं। 36 बिरादरियों का भाईचारा एक मिथक से अधिक कुछ नहीं है। असल में इन बिरादरियों में इतना ही भाईचारा और प्यार-प्रेम रहा होता तो वे 36 बिरादरी की बजाय एक ही बिरादरी नहीं होती? बेशक जातिवाद की मानसिकता को भी संघर्ष की प्रक्रिया में ही तोड़ा और कमजोर किया जा सकता है और आपसी मित्रतापूर्ण अन्तरविरोधों को भी आसानी से हल किया जा सकता है।

देश की तरह ही हरियाणा प्रदेश की जनता को भी यह बात समझनी होगी कि हर जाति में मुट्ठीभर ऐसी आबादी है जो किसी भी तरह की प्रत्यक्ष उत्पादन की कार्रवाई में भागीदारी नहीं करती और बहुसंख्या में ऐसी आबादी है जो अपनी खून-पसीने की मेहनत के बूते देश की हर सम्पदा का सृजन करती है। आज इसी मेहनतकश आबादी के बेटे-बेटियाँ ही बेरोज़गारी की मार झेल रहे हैं। शोषक जमात के हित तो मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था के साथ जुड़े हैं क्योंकि देश के तमाम संसाधनों पर इन्हीं का नियंत्रण है जबकि मेहनतकश आवाम को इस व्यवस्था में अपनी हड्डियाँ गलाने के बावजूद भी केवल बेरोज़गारी, ग़रीबी, मुफ़लिसी और कुपोषण ही नसीब होते हैं। 35 बिरादरी बनाम 1 बिरादरी के झगड़े में हमें नहीं पड़ना है क्योंकि असल में किसी भी समाज में दो ही बिरादरी होती हैं एक वह जो खुद श्रम करती है और अपनी श्रम शक्ति को बाज़ार की अन्धी ताकतों के हाथों बेचने पर मजबूर होती है और दूसरी वह जो दूसरों की मेहनत पर जोंक की तरह पलती है। आरक्षण जैसे तमाम मुद्दे हमारी एकता तोड़ने भर के लिए ही उभारे जाते हैं। ग़रीब और मेहनतकश आबादी को अपनी वर्गीय आधार पर एक-जुटता कायम करनी पड़ेगी। प्रगतिशील और क्रान्तिकारी छात्रा -युवा आबादी को अपनी ज़िम्मेदारी सम्हालनी पड़ेगी और आमूल व्यवस्था परिवर्तन के दूरगामी लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए व्यापक जनता को शिक्षा-रोज़गार के मसलों पर लामबद्ध करना पड़ेगा तभी हम समस्या के सही समाधान की तरफ बढ़ सकते हैं।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,मार्च-अप्रैल 2016

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