अमरीकी चुनाव और ट्रम्प परिघटना
सनी
नवम्बर 2016 में अमरीका में राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव होने वाले हैं। यह चुनाव दुनिया भर के अखबारों व टीवी चैनलों की टी.आर.पी. बढ़ा रहा है। विभिन्न अखबारों, प्राइम टाइम शो, टॉक शो में इस चुनाव के प्रत्याशियों और परिणामों पर चर्चाएँ हो रही है। डोनाल्ड ट्रम्प के मूर्खतापूर्ण बयान, बर्नी सैण्डर्स की खोखली आशाएँ और हिलेरी की ‘व्यावहारिक’ दलीलों के बीच होने वाली बहसों के कारण यह चुनाव लगातार ही आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है। इस चुनाव ने राजनीतिक पटल पर उन विचारधाराओं को सामने ला खड़ा किया है जो अमरीका की राजनीति में अभी तक सतह के नीचे थीं । एक तरफ जहाँ ट्रम्प ने कट्टर कंजर्वेटिव से भी आगे बढ़ते हुए अपने प्रचार और राजनीति में जो रुख दिखाया है उससे यह सवाल पैदा हुआ है कि क्या ट्रम्प फ़ासीवादी है? इस सवाल का जवाब नहीं है, और इसका हम लेख में मूल्यांकन करेंगे। वहीं दूसरी तरफ सामाजिक जनवादी बर्नी सैण्डर्स की राजनीति का भी उभार हो रहा है। हिलेरी क्लिंटन एक क्लासिकल डेमोक्रेट उम्मीदवार की तरह इन दोनों के बीच दिखायी पड़ती हैं – एक कंजरवेटिव डेमोक्रेट। हालाँकि इस चुनाव के प्रत्याशी के तौर पर डेमोक्रेटिक पद से हिलेरी क्लिंटन और रिपब्लिकन पद से ट्रम्प का आना लगभग तय हो गया है परन्तु हमारे लेख का मकसद इस चुनाव के विजेता और उसके वोटों के बारे में आँकड़ेबाजी करना नहीं है। हमारा मकसद इस चुनाव के ज़रिये मौजूदा दौर को समझना है और अमरीका के राजनीतिक पटल पर मौजूद ताकतों का मूल्यांकन करना है। चुनाव के परिणामों में जाये बिना हम अपनी बात आगे जारी रखते हैं। यह मूल्यांकन इसलिए भी ज़रूरी है कि इस चुनाव में डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा फैलाये जा रहे नस्लवाद, मुस्लिम विरोध, शरणार्थियों के ख़िलाफ़ नस्लीय व धार्मिक द्वेष से लेकर अमरीका को फिर से महान बनाने के नारों को ज़बरदस्त समर्थन मिल रहा है। ट्रम्प के चुनावी प्रचार को अमरीका के टुटपुंजिया वर्ग और श्वेत वाईट कॅालर मज़दूरों के एक हिस्से ने ज़बरदस्त भावना के साथ फैलाया है। वैसे ट्रम्प के झूठ और द्वेष में हिटलर और मोदी की झलक मिलती है और अमरीकी टुटपुँजिया वर्ग की सक्रियता अकारण नहीं है। आज के दौर में दुनिया भर में धुर दक्षिणपन्थी और फ़ासीवादी राजनीति का उभार हो रहा है और अमरीका भी इसका अपवाद नहीं है। यहाँ के चुनावों में भी यह चीज़ प्रतिबिम्बित हो रही है।
अमरीका में राष्ट्रपति चुनाव की प्रक्रिया
अमरीका में राष्ट्रपति चुनाव अप्रत्यक्ष तरीके से होते हैं। मतलब यह कि चुनाव में जनता; पहले चुनाव समूह (इलेक्शन कॉलेज) में अपने प्रतिनिधियों को चुनती है और ये ही बाद में राष्ट्रपति का चुनाव करते हैं। इस चुनाव से पहले पार्टियाँ प्राथमिक चुनाव में अपने राष्ट्रपति प्रत्याशी को चुनती हैं। यह प्रक्रिया लगभग छः महीने तक चलती है। यहीं पर प्रत्याशी को प्रतिनिधियों (डेलीगेट्स) का समर्थन चाहिए होता है। डोनाल्ड ट्रम्प और हिलेरी क्लिंटन प्राथमिक चुनाव में अभी से ही अन्य प्रतिद्वन्द्वियों से काफ़ी आगे निकल गये हैं और यह लगभग तय है कि ये दोनों ही राष्ट्रपति पद के मुख्य दावेदार होंगे। नवम्बर 2016 में होने वाले चुनाव के लिए यह पूरा साल ही ज़बरदस्त उठापटक वाला साल रहने वाला है। सबसे ज़्यादा उठापटक रिपब्लिकन धड़े में हो रही है जहाँ डोनाल्ड ट्रम्प ने अप्रत्याशित तरीके से राजनीतिक पटल पर अपनी जगह बनायी है। इसे तमाम राजनीतिक समीक्षक समझने में असमर्थ रहे हैं। डोनाल्ड ट्रम्प कौन है? डोनाल्ड ट्रम्प अमरीका के बड़े पूँजीपतियों में से है जिसकी पूँजी रीयल एस्टेट, शेयर बाज़ार से लेकर कई उत्पादों में लगी है। यह बात भी गौर करने लायक है कि ट्रम्प ने अपने चुनाव प्रचार के लिए ही 360 लाख डॉलर लोन पर दिये हैं! जी हाँ खर्च नहीं किये हैं बल्कि लोन पर दिये हैं और ये इसे चुनाव के बाद वसूलेगा! ट्रम्प ने अपने चुनाव में एक सफल अरबपति, सीधी बात करने वाले और एक सख्त नेता की छवि पेश की है जिसे टुटपुँजिया वर्ग काफ़ी पसन्द कर रहा है। ट्रम्प हद दर्जे की मूर्खतापूर्ण बातें करने के बाद भी होंठों को ऐंठ कर अपनी अहंकारपूर्ण भाव-भंगिमा बनाये रखता है। इसकी पूरी राजनीति इस दम्भ के प्रदर्शन पर टिकी है न कि चुनाव के लिए ज़रूरी आर्थिक व सामरिक नीतियों के बारे में ‘तार्किक सोच पर’। ट्रम्प के जुमले भी लोगों में एक अजीब किस्म का उन्मादी उत्साह पैदा कर रहे हैं चाहे वह चीन से अमरीकी कम्पनियों को वापस लाने से पैदा होने वाले रोज़गार की बात हो (जो कि महज़ एक जुमला है!), जिन देशों से अमरीका का ट्रेड डेफिसिट है उनसे आयात माल पर कर लगाकर यह पैसा वसूलने की बात हो, मेक्सिको और अमरीका के बीच एक बड़े दरवाजे वाली बड़ी दीवार खड़ी करने की बात हो या मुसलमानों को अमरीका में आने से रोकने और जो मौजूद हैं उन्हें पंजीकृत करवाने की बात हो। यह गौरतलब है कि ट्रम्प के मुद्दे ग़रीब आबादी के भी एक हिस्से में एक उन्मादपूर्ण आशा पैदा कर रहे हैं। कहा जाये तो टुटपुँजिया वर्ग को उनका ‘‘नायक’’ मिल गया है। ट्रम्प ने भी पैक्स अमरीका को याद करते हुए अमरीका को फिर से महान बनाने की कसम को अपने प्रचार का मुख्य बिन्दु बनाया है।
इस पूरे दृश्य का भारत के लोकसभा के चुनाव के परिदृश्य से मिलान करके देखें तो हमें मोदी के प्रचार तंत्र और ट्रम्प के प्रचार तंत्र में अच्छी-खासी समानता मिलती है। जहाँ भारत में संघियों के पास व्यवस्था के संकट से निकलने के लिए अतीतकाल का सुनहरा ‘राम राज्य’ है तो ट्रम्प ने अमरीका के सुनहरे काल को याद किया है! जब अमरीका दुनिया की सबसे बड़ी शक्ति था। ट्रम्प के अनुसार आज अमरीका तीसरी दुनिया का देश बन चुका है! मुद्दों की जगह जुमले और चुस्त प्रचार मशीनरी के ज़रिये एक सम्मोहनकारी असर पैदा करने में भी दोनों में समानता है जैसे ‘ट्रम्प फॉर विक्ट्री’ और हम सुन चुके हैं ‘अबकी बार मोदी सरकार’। हालाँकि यह बात आज हर चुनाव प्रचार के लिए लागू होती है। ट्रम्प की आर्थिक नीतियों में जुमलों के अलावा कुछ नहीं है; पर फिर भी इनपर नज़र डाल लेते हैं।
ट्रम्प के चुनाव प्रचार के अनुसार वह विदेशों में मौजूद अमरीका की कम्पनियों को वापस लायेगा जिससे कि अमरीका में लोगों को नौकरी मिल सके और वहाँ विकास हो। ट्रम्प के अनुसार उन देशों को जिनका अमरीका के साथ ट्रेड डेफिसिट है वे अमरीका के कर्जदार हैं इसलिए इन देशों से आयात किये गये माल पर भारी कर लगाने होंगे। सरकार के निवेश को कम करने के साथ ट्रम्प ने तमात करों को कम करने की बात कही है (जिससे मुख्यतः कॉरपोरेट घरानों के ही कर कम होंगे)। वह अमरीका की सैन्य ताकत बढ़ायेगा जिससे अमरीका किसी भी विदेशी ताकत और प्रवासियों से न डरे हालाँकि सैन्य निवेश में अमरीका सैन्य बजट के देशों की सूची में अपने से पीछे मौजूद 25 देशों के बराबर निवेश करता है! दरअसल राष्ट्रवाद और नफ़रत की चाशनी में डुबोकर पेश किये गये ये मुद्दे टुटपुँजिया वर्ग को और अमरीका के बर्बाद श्वेत मज़दूरों को गुदगुदाते रहे हैं। वे यह सोचे बिना ही कि तमाम वायदों में से वही लागू होंगे जो बड़ी पूँजी के पक्ष में होंगे खासे उत्साहित हो रहे हैं। रिपब्लिकन पार्टी का धड़ा हमेशा से ही वाल स्ट्रीट, बड़े कॉर्पोरेट घरानों और मिलिट्री-इण्डस्ट्री ढाँचे की सेवा में लगा रहता है और डोनाल्ड ट्रम्प की नीतियाँ भी मूलतः यही हैं। रिपब्लिकन पार्टी की नीतियाँ हमेशा से ही मज़दूर विरोधी, पर्यावरण विरोधी और नस्लीय रही हैं। लोगों के जनवादी अधिकार भी इनके निशाने पर होते हैं। ट्रम्प इन नीतियों को नंगे तौर पर मुसलमान विरोध, प्रवासी विरोध करते हुए अमरीका से मैन्युफैक्चरिंग कम्पनियों के विदेश चले जाने को मुद्दा बना रहा है। अगर इन बातों को जोड़ कर हम इस सवाल को पूछें कि क्या ट्रम्प को हम फ़ासीवादी कह सकते हैं? हमें लगता है कि इस निष्कर्ष पर पहुँचना गलत होगा। फ़ासीवाद फ़ासीवादी विचारधारा के आसपास खड़ा एक जनउभार होता है जो कि फ़ासीवादी काडर आधारित संगठन के दम पर खड़ा होता है। अमरीका में आज ऐसी स्थिति नहीं है। निश्चित तौर पर आज एक चुनावी लहर है जिसमें निम्न मध्य वर्ग उद्वेलित हो रहा है परन्तु यह कोई सामाजिक आन्दोलन नहीं है। परन्तु जो बात सोचने वाली है वह यह है कि ऐसी स्थिति जल्द ही आ सकती है। आज ट्रम्प का उभार यह बात साफ़ कर रहा है कि अमरीका की राजनीतिक ज़मीन फ़ासीवाद के लिए उपजाऊ हो रही है। ट्रम्प का उभार इस बात का ही संकेतक है।
दरअसल अगर हमें ट्रम्प की इस राजनीति को समझना है तो हमें ट्रम्प के दर्शन और व्यवहार को ध्यान में रखकर ट्रम्प के उभार को समझना होगा। यह व्यवहारवादी दर्शन की सबसे दक्षिणपन्थी अभिव्यक्ति है। वैसे मुसोलिनी का फ़ासीवाद भी व्यवहारवादी दर्शन से ही प्रेरणा लेता था। व्यवहारवाद के अनुसार सत्य इस्तेमाल से ही पैदा होता है। किसी भी वस्तु के पीछे नियम होने का खण्डन करते हुए व्यवहारवाद किसी भी किस्म की ज़रूरत के अनुसार पद्धति को लागू करना सही समझता है। यह मूलतः सिद्धान्त की जगह कार्यवाही को बुनियादी मानता है। ट्रम्प भी व्यवहारवादी है। अपने को आम नेताओं से अलग व ‘‘जो चल जाये’’, किसी भी बात से 180 डिग्री पैंतरा बदलने वाले व्यक्तित्व के रूप में स्थापित कर रहा है। ट्रम्प की राजनीति धुर दक्षिणपन्थी व्यवहारवादी राजनीति है जो आज विश्व भर में वित्तीय पूँजी की ज़रूरत है। साथ ही यह अमरीका की राजनीतिक ज़मीन में फ़ासीवाद के लिए उपजाऊ हो रही ज़मीन का संकेतक है। दरअसल फ़ासीवाद और दक्षिणपन्थी उभार आर्थिक संकट के कारण पैदा होता है। अगर कोई कहे कि आज 1930 सरीखा संकट मौजूद नहीं है इसलिए फ़ासीवाद नहीं आ सकता तो यह यांत्रिकता का शिकार होना होगा। 1970 के दशक से पूरा विश्व एक मन्द-मन्द मन्दी का शिकार है बल्कि जो 2008 के बाद से और अधिक गहरा गयी है। आज साम्राज्यवाद ढाँचागत संकट का शिकार है और इसके गर्भ से पैदा होने वाला फ़ासीवाद पहले सरीखा नहीं होगा बल्कि ढाँचागत ही होगा। आज यदि अमरीका के पूँजीपति वर्ग को आकस्मिक तौर पर भयंकर संकट का सामना नहीं करना पड़ रहा है परन्तु 2015 की आखि़री तिमाही में आर्थिक वृद्धि दर मात्रा 0.7 प्रतिशत ही रही थी और लगातार पूँजीपतियों के सामने मुनाफ़े की दर के घटने का संकट मौजूद है। इस संकट से उबरने के लिए वे ऐसे किसी भी शासक को चुन सकते हैं जो उन्हीं की बिरादरी का हो और नंगे तौर पर पूँजीपरस्त नीतियों को लागू कर सके। यह बात नहीं है कि केवल टुटपुँजिया वर्ग में ही बरबादी के कारण छटपटाहट है बल्कि पूँजीपति वर्ग भी मन्दी के चलते बन्द गली में आकर खड़ा हो गया है। अपने-अपने कारणों से ये दोनों ही ट्रम्प का समर्थन कर रहे हैं। 2008 के अमरीकी सबप्राईम संकट की वजह से लाखों लोग बेरोज़गार हुए। ओबामा के द्वारा तमाम ढोल पीटने के बाद भी इस (ग्रेट रिसेशन) महामन्दी के कारण जनता का बड़ा हिस्सा गरीबी, बेरोज़गारी और भुखमरी में समा गया और यही कारण है कि इस हिस्से में भी ज़बरदस्त गुस्सा है। फिलहाल अमरीका में ज़मीनी स्तर पर कोई गम्भीर फ़ासीवादी संगठन सक्रिय नहीं हैं। हालाँकि ओथ कीपेर्स संगठन ऐसा ही संगठन है जो सेना, पुलिस और नौकरशाही के बीच काम कर रहा है और इसके द्वारा चलाये जा रहे पैट्रियोटिक मूवमेण्ट में आम आबादी का छोटा हिस्सा भी सक्रिय है। ट्रम्प जैसे नेता और ओथ कीपेर्स सरीखे संगठनों में आज भले ही उस तरह का सम्पर्क न हो परन्तु ये दोनों धाराएँ आपस में मिल सकती हैं। डोनाल्ड ट्रम्प चुनाव में जीते या न जीते अमरीका में दक्षिणपन्थी उभार का खतरा बना रहेगा। इसे रोकने का रास्ता हाथ पर हाथ रखकर बैठने से या चुनाव के परिणामों का इन्तजार करना नहीं है बल्कि क्रान्तिकारी जन-गोलबन्दी ही है।
बर्नी सैण्डर्स की सुधारवादी राजनीति
अमरीका के आर्थिक संकट ने बर्नी सैण्डर्स की राजनीति को भी फलने-फूलने का मौका दिया है। यह दरअसल डोनाल्ड ट्रम्प का राजनीति के आईने में विपरीत प्रतीत होता है परन्तु यह क्लासिकीय उदारवादी पूँजीपति वर्ग का प्रतिनिधि है। जहाँ डोनाल्ड ट्रम्प समस्याओं को मिथ्या शत्रु पर थोप रहा है वहीं बर्नी सैन्डर्स बताता है कि पूँजीवाद के कारण पैदा हुई बीमारियों को पूँजीवाद ही खत्म करेगा और यह इलाज ख़रामा-ख़रामा चुनाव के रास्ते से हमें करना होगा! दुनिया में जगह-जगह सामाजिक जनवादियों और सुधारवादियों का उभार हो रहा है जो जनता को धोखा देकर सत्ता में पहुँच रहे हैं। ग्रीस में सीरिजा और स्पेन में पौदेमास के उभार के बाद इंग्लैंड में कोर्बिन का उभार हुआ है। यह विश्व स्तरीय परिघटना ही है जिस कारण अमरीका में तमाम जन उभारों जैसे ‘ऑक्युपाई वॅाल स्ट्रीट’ आन्दोलन और ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ आन्दोलन को बर्नी सैण्डर्स सोख लेना चाहता है। और यह जनता के अन्दर की व्यवस्था विरोधी भावना को अपने सुधारवादी वायदों के ज़रिये इस्तेमाल कर रहा है। वास्तव में ये आन्दोलन अंततः दक्षिणपन्थी ताकतों को ही मजबूत करते हैं क्योंकि मन्दी के दौर में पूँजीपति वर्ग इनके द्वारा सुझाये कीन्सीय नुस्खे लागू करने में भी असमर्थ होता है। बर्नी सैण्डर्स के चुनावी मुद्दे मुख्यतः हैं- सभी को जीविकोपार्जन हेतु वेतन, एकीकृत-कर स्वास्थ्य योजना, सरकारी निवेश व बैंकों के ढाँचे को विकेन्द्रित करना। अगर ये माँगें कोई सरकार लागू करे तो शैल, एक्सन सरीखी पेट्रो कम्पनियों और सिलिकॉन वैली में बैठे धन कुबेरों को वह कत्तई रास नहीं आयेगी हालाँकि सभी सामाजिक जनवादी जानते हैं कि वायदा करने का मतलब उन्हें पूरा करना नहीं होता। खुद डेमोक्रेट पार्टी समर्थक अर्थशास्त्री भी सैण्डर्स से नाराज़ हैं क्योंकि उन्हें लगता है वे अव्यावहारिक हैं। पॉल क्रूगमेन के अनुसार, और यहाँ वे सही हैं कि ‘संस्थानों का क्रान्तिकारीकरण’, जो बर्नी के प्रचार का एक बड़ा जुमला है, एक शेखचिल्ली का सपना है व अव्यावहारिक है। यह बात सही है क्योंकि संस्थानों का क्रान्तिकारीकरण बिना क्रान्ति के सम्भव ही नहीं है! हिलेरी भी बर्नी की आलोचना यह कह कर करती हैं कि बर्नी की नीतियाँ अव्यावहारिक हैं और हमें फिलहाल वही माँग करनी चाहिए जो व्यावहारिक तौर पर मिल सके। वित्तीय पूँजी के मौजूदा मन्दी के दौर में कीन्सीय माँग चुनाव में पेश करना भी अखबारों में उसे क्रान्तिकारी घोषित करवाने के लिए काफ़ी है। न्यूयॉर्क में प्राइमरी चुनाव में हिलेरी क्लिंटन से हारने के बाद बर्नी चुनाव की दौड़ से लगभग बाहर हो गये हैं फिर भी आने वाले लम्बे समय तक इस राजनीतिक प्रवृति से अमरीकियों को जूझना होगा। वैसे अगर हिलेरी जीतती हैं तो यह भी हो सकता है कि बर्नी सैण्डर्स उनकी सरकार में मंत्री पद ग्रहण करें और हिलेरी की व्यावहारिक नीतियों को लागू करें! ये व्यावहारिक नीतियाँ क्या हैं? अमरीका में सरकार का जनसुविधाओं में निवेश कम करना, जनता के आन्दोलनों को कुचल देना, गन लॉबी का समर्थन करना और इज़रायल के साथ खूनी षडयंत्र बनाना और सीरिया, ईराक, अफ़गानिस्तान, फ़िलिस्तीन, उक्रेन से लेकर अफ्रीका के देशों में मासूमों का खून बहाकर अपने पूँजीपति आकाओं के लिए सिक्के ढालना, यही हैं अमरीकी सरकार के व्यावहारिक काम। इस व्यावहारिकता के मूल में पूँजीपतियों के मुनाफ़े की दर को बरकरार रखना है जो वैश्विक आर्थिक संकट के कारण सिकुड़ती जा रही है। शोषक अपने हिरावल चुन रहे हैं तो अमरीका की जनता के सामने भी अब यही विकल्प है कि वे व्यावहारिक हिलेरी और व्यवहारवादी फ़ासीवादी ट्रम्प के सत्ता में आने का इन्तजार करने की जगह क्रान्तिकारी विकल्प खड़ा करने की शुरुआत करे।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,मार्च-अप्रैल 2016
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