एफ.टी.आई.आई. के छात्रों का संघर्ष: लड़ाई अभी जारी है!

सिमरन

7 जनवरी 2016 को जब एफ.टी.आई.आई. के विवादित अध्यक्ष गजेन्द्र चौहान को कैम्पस पहुँचना था तो उनके स्वागत की तैयारियों में कोई खलल न आये इसके लिए एक रात पहले पुणे के शिवाजी नगर थाने ने एफ.टी.आई.आई. के 17 छात्रों (जिन्हें कोर्ट से ज़मानत मिली हुई है) के ख़िलाफ़ नामजद नोटिस निकाल कर उन्हें आगाह किया कि अगर वे किसी भी तरह का विरोध प्रदर्शन करते हैं तो उनकी ज़मानत रद्द कर दी जायेगी। 139 दिनों की हड़ताल के दौरान छात्रों ने एफ.टी.आई.आई. की दीवारों को नारों और भित्ती चित्रों से अपने प्रतिरोध के रंग में रंग दिया था। मगर चौहान और बाकी भगवा ब्रिगेड के स्वागत के लिए इन दीवारों पर भी एफ.टी.आई.आई. के प्रशासन द्वारा पुताई करवा दी गयी। फ़ासीवादी दीवार पर बने क्रान्तिकारी चित्रों और नारों से भी किस कदर डरते हैं यह बात इस कदम से समझी जा सकती है। मगर पुलिस और प्रशासन की धमकियों के बावजूद भी एफ.टी.आई.आई. के छात्रों ने अपने शान्तिपू्र्ण विरोध प्रदर्शन का आयोजन किया जिसके बाद पुलिस ने छात्रों पर बर्बर लाठीचार्ज कर 40 छात्रों को गिरफ्तार कर लिया। आश्चर्य की बात है कि एक कैम्पस में किसी व्यक्ति के आने के लिए उसी कैंपस में रहने वाले और उस कैम्पस में पढ़ने वाले छात्रों को ही वहाँ से निकालकर थाने में भर दिया जाता है। जब तक गजेन्द्र चौहान एफ.टी.आई.आई. में बैठक में थे तब तक एफ.टी.आई.आई. को पुलिस छावनी में तब्दील कर दिया गया था ताकि किसी भी प्रकार का कोई विरोध प्रदर्शन न किया जा सके।

मोदी के सत्ता में आने के बाद शिक्षण संस्थानों का घेट्टोकरण और पुलिस की बढ़ती मौजूदगी एक आम मंज़र बन गया है। विश्वविद्यालय और शिक्षण संस्थान, जहाँ छात्र अभिव्यक्ति की आज़ादी के असल मायने समझते हैं आज वहीं अभिव्यक्ति के हर माध्यम पर पाबन्दी लगायी जा रही है; फिर चाहे वो पुणे का एफ.टी.आई.आई. हो या दिल्ली विश्वविद्यालय। ठीक इसी अभिव्यक्ति और कलात्मक अभिव्यक्ति की आज़ादी पर ख़तरा होने की चिन्ता को जताते हुए छात्रों ने संघ के करीबी और प्रतिभा के नाम पर बेहद रिक्त चेहरे गजेन्द्र चौहान की नियुक्ति पर अपना विरोध जताया था। तब चौहान साहब का कहना था कि वह अपनी विचारधारा गेट के बाहर छोड़कर आयेंगे मगर उन्होंने पहली बार एफ.टी.आई.आई. आने के साथ ही यह ज़ाहिर कर दिया कि वह किसी भी तरह का विरोध नहीं सहेंगे। बहरहाल, छात्रों ने इस सब के बावजूद भी अपनी लड़ाई को जारी रखने का प्रण लिया है। बेशक 139 दिनों तक चली शानदार हड़ताल को वापस ले लिया गया है मगर फासीवाद के ख़िलाफ़ संघर्ष कर रहे ये छात्र अपनी लड़ाई को पूरे जोश के साथ लड़ रहे हैं। ग़ौर करने की बात यह है कि तमाम धमकियों, निष्कासन के नोटिसों, पुलिस द्वारा मारपीट, गिरफ्तार किये जाने, कोर्ट केसों के बावजूद एफ.टी.आई.आई. के छात्रों ने सूचना एवं प्रसार मंत्रालय से कोई समझौता नहीं किया।

ftii 212 जून 2015 को शुरू हुआ पुणे के फिल्म एण्ड टेलीविजन इंस्टिट्यूट ऑफ इण्डिया (भारत फिल्म और टेलीविजन संस्थान) के छात्रों का संघर्ष 139 दिन लम्बी चली हड़ताल के ख़त्म होने के बावजूद आज भी जारी है। 139 दिनों तक चली इस हड़ताल के दौरान देश भर के छात्रों, कलाकारों, बुद्धिजीवियों, फिल्मकारों, मज़दूर कार्यकर्ताओं और आम जनता ने खुलकर एफ.टी.आई.आई. के छात्रों की हड़ताल का समर्थन किया। 24 फिल्मकारों ने अपने राष्ट्रीय पुरस्कार वापिस किये जिनमें एफ.टी.आई.आई. के पूर्व अध्यक्ष सईद अख़्तर मिर्ज़ा, ‘जाने भी दो यारो’ फिल्म बनाने वाले कुंदन शाह, संजय काक आदि जैसे फिल्मकार शामिल थे। बार-बार सरकार के सामने अपनी माँगों को रखने और उनसे उन्हें संज्ञान में लेते हुए उनकी सुनवाई करने की अपीलों के बावजूद भी मोदी की फ़ासीवादी सरकार ने अभिव्यक्ति की आज़ादी को कुचलते हुए इस पूरे मामले पर चुप्पी साधे रखी। नरेन्द्र दाभोलकर, गोविन्द पानसरे और कलबुर्गी जैसे बुद्धिजीवियों की हत्या, दादरी में अख़लाक की हत्या, देश में बढ़ रहे फासीवादी आक्रमण और संघी गुण्डों की मनमर्ज़ी की पृष्ठभूमि में एफ.टी.आई.आई.के छात्रों के संघर्ष को संघ के भगवाकरण और हिन्दुत्व के मुद्दे से अलग करके नहीं देखा जा सकता है। एफ.टी.आई.आई. की स्वायत्तता पर हमला देश के शिक्षण संस्थानों और कला के केन्द्रों के भगवाकरण के फ़ासीवादी एजेण्डे का ही हिस्सा है। गजेन्द्र चौहान, अनघा घैसास, राहुल सोलपुरकर, नरेन्द्र पाठक, शैलेश गुप्ता जैसे लोगों की एफ.टी.आई.आई. सोसाइटी में नियुक्ति की खबर के बाद 12 जून को शुरू हुई हड़ताल ने देश के सभी छात्रों को भगवाकरण की इस मुहिम के ख़िलाफ़ एकजुट कर दिया। हड़ताल के शुरुआती दिनों में संघियों ने एफ.टी.आई.आई. के छात्रों को देशद्रोही, माओवादी, नक्सली होने की उपाधियों से नवाज़ा मगर संघियों की हर साज़िश हड़ताल को तोड़ने में नाकामयाब रही। जब निष्कासित कर दिये जाने की धमकियों से भी छात्रों की एकता नहीं टूटी तो उन्हें डराने धमकाने के लिए संस्थान के डायरेक्टर प्रशान्त पथराबे ने पुलिस में एफआईआर दर्ज करवाकर आधी रात को हिटलर की छापामार रेड की तर्ज पर छात्रों को गिरफ्तार करवाया। 17 अगस्त को पुलिस ने साज़िशाना तरीके से देर रात एफ.टी.आई.आई. कैम्पस में घुसकर हड़ताल में सक्रिय छात्रों में से 5 को गिरफ्तार किया और 17 अन्य छात्रों के ख़िलाफ़ भी एफआईआर दर्ज की। छात्रों की माँग बेहद सीधी थी कि सरकार नियुक्ति की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाये और भारत के सबसे प्रतिष्ठित संस्थान के अध्यक्ष पद पर नियुक्ति किये जाने के मापदण्डों को सार्वजनिक करे। मगर भाजपा सरकार जो किसी भी तरह की तार्किकता से सख़्त परहेज़ रखती है उसने बेधड़क और निहायत बेशर्मी से गजेन्द्र चौहान जैसे व्यक्ति को अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठा दिया।

एफ.टी.आई.आई. की पूरी हड़ताल में कई ऐसे घटनाक्रम हुए जिनको देख कर समझा जा सकता है कि अपने भगवा एजेण्डे को अमली जामा पहनाने के लिए किस तरह सरकार ने हर तिकड़म लगायी। 17 अगस्त को 5 छात्रों की गिरफ्तारी के बाद सूचना एवं प्रसार विभाग ने रजिस्ट्रार फॉर न्यूजपेपर्स ऑफ इण्डिया एस.एम. ख़ान की अध्यक्षता में एक 3 सदस्य कमिटी का गठन किया जिसका काम था एफ.टी.आई.आई. के ज़मीनी हालातों का ब्यौरा दर्ज करना। पथराबे साहब की पुलिस शिकायत और सूचना एवं प्रसार विभाग की इस कमिटी के गठन की ‘टाइमिंग’ काफी कुछ बयान कर देती है। कमिटी की रिपोर्ट में संसाधनों की कमी होने की बात को सिरे से ख़ारिज करते हुए यह लिखा गया कि छात्रों और शिक्षकों की मिलीभगत से हर साल डिप्लोमे समय से पूरे नहीं हो पाते और इसकी ज़िम्मेदारी छात्रों की है। उस मंत्रालय द्वारा गठित कमिटी से और उम्मीद भी क्या लगायी जा सकती थी जो ‘मीटिंगों’ के दौर पर दौर आयोजित कर एक ही राग अलाप रही थी कि नियुक्तियों पर कोई बात करने की गुंजाइश नहीं है। अपनी माँगों की सुनवाई न होने की सूरत में छात्रों ने 10 सितम्बर से भूख हड़ताल पर बैठने का फैसला लिया। 18 दिन तक चली भूख हड़ताल के बाद सूचना एवं प्रसार विभाग ने एक बार फिर छात्रों से बातचीत की पेशकश स्वीकार की। दिल्ली और मुंबई में हुई 8 औपचारिक ‘मीटिंगों’ के बाद भी कोई परिणाम नहीं निकला। एक लोकतंत्र में किस तरह हिटलर की फ़रमानशाही लागू की जाती है वो इन मुलाकातों से साबित हो गया। पहले से तय फैसलों को लागू करने और छात्रों के आक्रोश को शान्त करने के लिए इस तरह के तमाशे सरकारें हमेशा से करती आयी हैं। 20 अक्टूबर को हुई राज्यवर्धन सिंह राठौर के साथ हुई अन्तिम ‘मीटिंग’ के साथ यह साफ हो चुका था कि सरकार संघ द्वारा नियुक्‍त किये गए चौहान के नाम को वापस नहीं लेगी। लेकिन अपने उसूलों से कोई समझौता न करते हुए एफ.टी.आई.आई. के छात्रों ने सरकार द्वारा प्रस्तावित किसी समझौते को स्वीकार नहीं किया और यह साफ कर दिया कि भले हड़ताल खत्म हो जाये मगर सरकार के इस पफ़ासीवादी एजेण्डे के ख़िलाफ़ उनकी लड़ाई तो बस अभी शुरू हुई है।

एफ.टी.आई.आई. के पूरे आन्दोलन के दौरान छात्रों ने विरोध को अभिव्यक्‍त करने के अपने नये-नये माध्यमों से आम जनता को भी अपनी लड़ाई से जोड़ा और साथ ही देश भर में हो रहे फ़ासीवादी हमलों-चाहे वो कलबुर्गी की हत्या हो या दादरी हत्याकाण्ड हो या फिर देश के अन्य कॉलेजों-विश्वविद्यालयों में हो रहे ऑक्युपाई यूजीसी जैसे छात्र आन्दोलन हों, सब में शिरकत कर अपनी लड़ाई को फ़ासीवाद के ख़िलाफ़ संयुक्‍त लड़ाई से जोड़ा और यही कारण भी रहा है कि एफ.टी.आई.आई. के छात्रों के संघर्ष को व्यापक आम जनता का समर्थन मिला जिसके चलते उनकी हड़ताल इतने लम्बे समय तक सरकार पर दबाव बनाने में कामयाब रही। एफ.टी.आई.आई. के छात्रों के विरोध से सरकार इस कदर डरी हुई थी कि नवम्बर 2015 में गोवा में हुए अन्तरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में एफ.टी.आई.आई. के छात्रों के हिस्सा लेने पर ही प्रतिबन्ध लगा दिया। हालाँकि यह प्रतिबन्ध औपचारिक तरीके से नहीं लगाया गया मगर हर साल छात्रों द्वारा बनायी गयी फिल्में दिखाने के एक पूरे भाग को फेस्टिवल से हटा दिया गया और साथ ही एफ.टी.आई.आई. से किसी भी छात्र के प्रतिनिधि के रूप में हिस्सा लेने की अर्ज़ी भी नामंजूर कर दी गयी। लेकिन इस सब के बावजूद भी एफ.टी.आई.आई. के दो छात्रों ने फिल्म फेस्टिवल के उद्घाटन समारोह में जेटली और मोदी सरकार के ख़िलाफ़ नारेबाज़ी की, जिसके बाद पुलिस ने तुरन्त उन्हें हिरासत में ले लिया। भारत सरकार आम जनता के पैसे से गोवा में एक भव्य फिल्म फेस्टिवल का आयोजन करती है जिसमें से वो फिल्म और कला की पढ़ाई करने वाले छात्रों को ही हिस्सा लेने से मना कर देती है ताकि विश्व के सामने भारत की छवि ख़राब न हो, ताकि ‘स्किल इण्डिया’, ‘डिजिटल इण्डिया’ जैसे जुमले उछालने में मोदी जी की हँसी न उड़ायी जाये। फिल्म फेस्टिवल में हिस्सा लेने से रोके जाने का विरोध करते हुए छात्रों ने गोवा में ही 2 दिवसीय समानान्तर फिल्म फेस्टिवल का आयोजन किया जिसमे उन्होंने देश और दुनिया की उम्दा फिल्मों की स्क्रीनिंग की। एफ.टी.आई.आई. के छात्रों द्वारा आयोजित इस फिल्म फेस्टिवल में सईद अख़्तर मिर्जा, धिर्तीमान चटर्जी जैसे कलाकारों ने हिस्सा लिया। गोवा में भी विरोध को अभिव्यक्‍त करने के लिए छात्रों ने नये-नये तरीकों का सहारा लिया; कभी ‘आर्ट इंस्टॉलेशन’ कर, कभी प्रश्न चिन्ह लगे गुब्बारों को अन्तरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल के स्थल के बाहर पेड़ों से बाँधकर, या आम जनता से सिनेमा के ताबूत पर फूल अर्पित करवा उन्हें यह बताना कि किस तरह सरकार फिल्मों को अपने प्रचार का साधन बनाने के लिए एफ.टी.आई.आई. की स्वायत्तता को ख़त्म करना चाहती है।

एफ.टी.आई.आई. के पूरे आन्दोलन ने एक बार फिर से यह साबित कर दिया है कि भारत के युवा, यहाँ के कलाकार फ़ासीवादियों को उनके मंसूबों में कामयाब नहीं होने देंगे। जिस कला का इस्तेमाल कर यह फ़ासीवादी अपनी साम्प्रदायिक राजनीति का प्रचार-प्रसार करना चाहते हैं उसमें वह कभी कामयाब नहीं हो पायेंगे। मोदी सरकार भी हिटलर की सरकार की तरह फिल्मों के महत्व को बखूबी समझती है। शायद पहलाज निहलानी ने भी हिटलर की ज़िन्दगी पर बनी लेनी रिफेन्सटाल (नात्सी फिल्मकार) की फिल्म ‘ट्रायम्फ ऑफ विल’ की तर्ज़ पर ही ‘मेरा देश महान’ वीडियो बनाया जिसमे मोदी के सत्ता में आने के बाद भारत में हुए विकास का बखान किया गया है। यह बात अलग है कि इस पूरी वीडियो में जितनी भी विकास या प्रगति की तस्वीरें हैं वे सभी फ्रांस, अमरीका, दुबई, मॉस्को, जापान आदि की हैं! भारत के इन चड्डीधारी फ़ासीवादियों के ख़िलाफ़ आज कलाकार, साहित्यकार, फिल्मकार सभी एकजुट हो रहे हैं, एफ.टी.आई.आई. के छात्रों का संघर्ष उसी एकजुटता का प्रमाण है। छात्रों का कहना है कि भले ही हड़ताल खत्म हो गयी हो मगर अब हम इस हड़ताल के पूरे राजनीतिक-वैचारिक अनुभव के साथ वापस अपनी कक्षाओं में लौटेंगे और अपने सबसे ताकतवर हथियार कला और फिल्मों के माध्यम से अपने संघर्ष को जारी रखते हुए आम जनता के संघर्षों में हिस्सेदारी करेंगे।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,नवम्‍बर 2015-फरवरी 2016

'आह्वान' की सदस्‍यता लें!

 

ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीआर्डर के लिए पताः बी-100, मुकुन्द विहार, करावल नगर, दिल्ली बैंक खाते का विवरणः प्रति – muktikami chhatron ka aahwan Bank of Baroda, Badli New Delhi Saving Account 21360100010629 IFSC Code: BARB0TRDBAD

आर्थिक सहयोग भी करें!

 

दोस्तों, “आह्वान” सारे देश में चल रहे वैकल्पिक मीडिया के प्रयासों की एक कड़ी है। हम सत्ता प्रतिष्ठानों, फ़ण्डिंग एजेंसियों, पूँजीवादी घरानों एवं चुनावी राजनीतिक दलों से किसी भी रूप में आर्थिक सहयोग लेना घोर अनर्थकारी मानते हैं। हमारी दृढ़ मान्यता है कि जनता का वैकल्पिक मीडिया सिर्फ जन संसाधनों के बूते खड़ा किया जाना चाहिए। एक लम्बे समय से बिना किसी किस्म का समझौता किये “आह्वान” सतत प्रचारित-प्रकाशित हो रही है। आपको मालूम हो कि विगत कई अंकों से पत्रिका आर्थिक संकट का सामना कर रही है। ऐसे में “आह्वान” अपने तमाम पाठकों, सहयोगियों से सहयोग की अपेक्षा करती है। हम आप सभी सहयोगियों, शुभचिन्तकों से अपील करते हैं कि वे अपनी ओर से अधिकतम सम्भव आर्थिक सहयोग भेजकर परिवर्तन के इस हथियार को मज़बूती प्रदान करें। सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग करने के लिए नीचे दिये गए Donate बटन पर क्लिक करें।