दिल्ली विश्वविद्यालय के सेंट स्टीफ़ेंस कॉलेज में एक शोध छात्रा के साथ हुए यौन शोषण के खिलाफ़ विरोध-प्रदर्शन
दिल्ली विशवविद्यालय के नामचीन कॉलेजों में शुमार सेंट स्टीफेंस कॉलेज में रसायन विज्ञान विभाग की शोध छात्रा के साथ उसके गाइड सतीश कुमार द्वारा यौन शोषण की घटना सामने आई है। इस पूरी घटना का खुलासा काफ़ी बाद में हुआ जब उस पीड़ित छात्रा ने पुलिस में प्राथमिकी दर्ज़ करायी। इसके पहले लगभग 2 सालों से छात्र यौन प्रताड़ना की शिकार रही थी। छात्रा ने दिसम्बर में ही इस बाबत कॉलेज के प्रिंसिपल वाल्सन थम्पू को इसके बारे में बताया तो वहाँ के प्रिंसिपल ने इस ख़बर को दबाने की कोशिश की। फिर कुछ न होता देख छात्रा को मजबूर होकर पुलिस व मीडिया की ओर रुख़ करना पड़ा। ग़ौरतलब है कि विश्वविद्यालय व काम करने की जगहों पर स्त्रियों के साथ घटने वाली यह कोई पहली घटना नहीं है। इससे पहले भी तरुण तेजपाल प्रकरण, ग्रीनपीस एक्टिविस्ट यौन उत्पीड़न मामला और सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश द्वारा यौन उत्पीड़न जैसी कई घटनाएँ सामने आती रही हैं। यह घटना भी कुलीन बौद्धिक तबकों के मानस में गहराई से पैठे सांस्कृतिक पतन और बौद्धिक लबादे में ढके पुरुष स्वामित्ववाद को बेनक़ाब करती है। दिशा छात्र संगठन ने गत 24 जून को इसके खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया जहाँ इस घटना की कड़ी शब्दों में निन्दा करते हुए यह माँग की गयी की इस घटना की निष्पक्ष व त्वरित जाँच हो व दोषी शिक्षक के प्रति कड़े कदम उठाये जायें। प्रदर्शन में कई इन्साफ पसन्द छात्र व शिक्षक भी शामिल थे। इसी कड़ी में 3 जुलाई को सेंट स्टीफेंस कॉलेज गेट के सामने हुए संयुक्त विरोध प्रदर्शन में भी ‘दिशा’ ने हिस्सेदारी की व अपना विरोध दर्ज़ कराया।
ग़ौरतलब है कि सेण्ट स्टीफेंस कॉलेज के प्रिंसिपल थम्पू तमाम तरीकों से आरोपी को बचा रहे हैं। कॉलेज के तमाम तथाकथित प्रगतिशील लोग भी मसले पर चुप्पी साधे बैठे हैं। कुछ ने तो पीड़ित छात्र के ही चरित्र को प्रश्नों के दायरे में लाने का प्रयास किया है। ऐसे स्त्री-विरोधी कदमों को छात्रों को एकजुट होकर विरोध करना चाहिए। दिशा छात्र संगठन के प्रतिनिधियों ने पूछा कि “स्त्री सुरक्षा” के नाम पर कॉलेज प्रशासन व कुछ शिक्षक गण हॉस्टलों में छात्राओं पर तरह-तरह की पाबन्दियाँ लगाते हैं। रात में आने का वक़्त आठ बजे कर दिया जाता है, नाइट आउट व लेट नाइट की आज्ञा देने पर रोक लगा दी जाती है। लेकिन वास्तव में तो प्रशासन और कॉलेज के भीतर ही छात्रओं का यौन-उत्पीड़न हो रहा है। यह दिखाता है कि स्त्री सुरक्षा के नाम पर छात्राओं पर तरह-तरह की रोक लगायी जाती है, जबकि उनका उत्पीड़न कॉलेजों, विभागों आदि की भीतर ही किया जाता है। छात्रों-छात्राओं को मिलकर विश्वविद्यालय में इस माहौल के ख़िलाफ़ एक लम्बा संघर्ष छेड़ना होगा।
इन सब के बावजूद हमें यह भी जान लेना होगा कि दोषी को तुरन्त सज़ा दिलवाने की माँग भर कर देने से इस तरह की घटनाएँ रुकने वाली नहीं हैं। इसके लिए हमें समझना होगा कि यह पूरी मानवद्रोही पूँजीवादी व्यवस्था स्त्री विरोधी होती है जो औरत को एक माल के रूप में पेश करती है। सिर्फ विश्वविद्यालय परिसर की चौहद्दियों के भीतर ही नहीं बल्कि इस संघर्ष को समाज के उन तबको की स्त्रियों के रोज़मर्रा के संघर्षो के साथ जोड़ना होगा जो रात दिन उत्पादन के कार्यों में लगी हुई हैं और इस तरह की घटनाओं का आये दिन शिकार होती है। इस समस्या का समाधान तब तक नहीं हो सकता जब तक इसे पूरी व्यवस्था के सवाल से जोड़कर न देखा जाये।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-अक्टूबर 2015
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