क्यों संघर्षरत हैं हम एफ़.टी.आई.आई. के लिए?
दिल्ली संवाददाता
विहान सांस्कृतिक मंच और दिशा छात्र संगठन ने पुणे के एफटीआईआई के संघर्षरत छात्रों के साथ दिल्ली स्थित हिंदी भवन पर 6 अगस्त को बातचीत का एक सत्र आयोजित किया। इस सत्र में एफटीआईआई के संघर्षरत छात्रों के साथ साथ देश भर से बुद्धिजीवियों, प्रगतिशील कलाकारों, नाटककारों, डाक्यूमेंट्री फिल्म निर्माताओं से लेकर छात्र युवा आबादी ने भी शिरकत की। ‘हम क्यों संघर्षरत है एफटीआईआई के लिए?’ के विषय पर इस बातचीत में एफटीआईआई के छात्र विकास उर्स, साक्षी गुलाटी और पू्र्व छात्र किसलय व प्रतीक वत्स ने वक्ताओं के रूप में हिस्सा लिया। एफटीआईआई के छात्रों के साथ-साथ इस बातचीत में तमाम प्रगतिशील कलाकारों, साहित्यकारों, डाक्यूमेंट्री फिल्म निर्माताओं, बुद्धिजीवियों जैसे विवान सुंदरम, आनंद स्वरुप वर्मा, पंकज बिष्ट, रामशरण जोशी, नीलाभ, रमणी ने शिरकत की।
पुणे के फिल्म एण्ड टेलीविजन इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया के छात्र यह रिपोर्ट लिखे जाने तक 67 दिनों से गजेन्द्र चौहान के चेयरमैन और अनघा घैसास, नरेन्द्र पाठक, राहुल सोलहापुरकर जैसे व्यक्तियों के एफटीआईआई की सोसाइटी में नियुक्त किये जाने के बाद से हड़ताल पर बैठे है। भगवाकरण की घृणित राजनीति के तहत जिस तरह से मोदी सरकार शिक्षा संस्थानों, कला और साहित्य केन्द्रों को अपना निशाना बना रही है उसके खिलाफ़ एफटीआईआई के छात्रों का संघर्ष एक मिसाल है जिसने भगवाकरण के इस मुद्दे को आम जनता में बातचीत और बहस का मुद्दा बना दिया है। चाहे वह अम्बेडकर पेरियार स्टडी सर्किल पर लगाया प्रतिबन्ध हो, इंडियन नेशनल साइंस कांग्रेस, आई.सी.एच.आर. के अध्यक्ष के पद पर सुदर्शन राव जैसे व्यक्ति की नियुक्ति या पॉण्डीचेरी विश्वविद्यालय का मुद्दा हो फ़ासीवादी किसी भी शिक्षा संस्थान या कला के केंद्र को अपना निशाना बनाने से चूक नहीं रहे हैं। एफटीआईआई के छात्रों के संघर्ष को तोड़ने और कमज़ोर करने के लिए संघी उनके खिलाफ़ तमाम तरह की अफवाहों को हवा देने में लगे हुए है। जिस तरह मोदी सरकार षड्यंत्रकारी तरीके से अफवाहों को हवा देकर कभी हड़ताल पर बैठे छात्रों को नक्सली, हिन्दू-विरोधी, देशद्रोही होने की उपाधियों से नवाज़ कर तो कभी उनके खि़लाफ़ फर्जी एफआईआर दर्ज करवा अपनी भगवाकरण की इस मुहिम से आम जनता का ध्यान भटकाना चाहती है उससे यह साफ़ हो जाता है कि संघ की विचारधारा को विस्तारित करने के लिए यह सरकार किस हद तक जा सकती है। एफटीआईआई के छात्र विकास उर्स ने कहा कि इस हड़ताल ने उनके विश्व दृष्टिकोण को विस्तारित किया है, यह हड़ताल एफटीआईआई के छात्रों के लिए एक सीखने का तर्जुबा रहा है जिसके ज़रिये उन्हें अपनी कक्षाओं से भी कही ज्यादा ज्ञान मिला। विकास ने आगे कहा कि एफटीआईआई एक अकेला ऐसा कला और शिक्षा का संस्थान नहीं है जहाँ सरकार अपने राजनीतिक हित को साधने के लिए भगवाकरण की नीति लागू कर रही है। अम्बेडकर-पेरियार स्टडी सर्किल से लेकर, सी.बी.एफ.सी, सी.एफ.एस.आई आदि भी इस सरकार के निशाने पर रह चुके हैं। विकास ने बताया कि किस तरह उनके संघर्ष को कुचलने के लिए उनके ख़िलाफ़ फर्जी एफआईआर दर्ज़ करवाई जा रही है और छात्रों पर दबाव बनाया जा रहा है कि वह अपनी हड़ताल खत्म कर दें। एफटीआईआई की साक्षी गुलाटी ने कहा कि हमारा संघर्ष इस देश के बाकी शिक्षा संस्थानों और कला के केन्द्रों पर हो रहे भगवाकरण के हमलों से कटा हुआ नहीं है बल्कि यह संघर्ष भी उसी बड़ी लड़ाई का हिस्सा है। एफटीआईआई के पूर्व छात्र किसलय ने कहा कि यह हड़ताल बहुत मायनों में खास है क्योंकि इस हड़ताल ने न केवल एफटीआईआई के छात्रों को एक ऐसा मौका दिया जहाँ वह अपने संस्थान से जुड़े मुद्दों के बारे में बात कर सके बल्कि देश की पूरी अवाम को भी उस से जोड़ सकें। एफटीआईआई के प्रतीक वत्स ने कहा कि सरकार में बैठे लोग हमें यह धमकी दे रहे हैं कि वे लोग हमें ‘राष्ट्रवाद’ का पाठ पढ़ाएँगे मगर उनके राष्ट्रवाद की परिभाषा क्या है यह अब एफटीआईआई के छात्र और देश की आम आबादी अच्छी तरह से समझ चुकी है। विवान सुंदरम ने कहा भाजपा सरकार अपनी पूरी शक्ति लगाकर कला और साहित्य के केन्द्रों पर अपनी वर्चस्व कायम कर उन्हें अपने फ़ासीवादी भगवाकरण के एजेंडे के प्रचार प्रसार के उपकरणों की तरह करना चाहती है। पंकज बिष्ट, रामशरण जोशी, आनंद स्वरुप वर्मा, नीलाभ ने अपनी बात रखते हुए कहा कि भाजपा सरकार इसी तरह फ़ासीवाद के नए संस्करण लाती रही है इनसे लड़ने के लिए हमें कला का इस्तेमाल ठीक वैसे करना चाहिए जिससे यह लोग सबसे ज़्यादा डरते हैं और वह है जनता को इनके फासिस्ट चेहरे से रूबरू करवा कर। सभी कलाकारों, साहित्यकारों, लेखकों, कवियों को एकजुट होकर इन फ़ासीवादी हमलों के खि़लाफ़ एक मोर्चा बनाकर संघर्ष करना होगा। बिगुल मज़दूर दस्ता की सदस्या शिवानी ने कहा की कला, शिक्षा और साहित्य के केन्द्रों पर मोदी सरकार के भगवाकरण की राजनीति का जवाब देने के लिए हमे कला का राजनीतिकरण करना होगा, हमे प्रगतिशील फिल्मों, नाटकों, गीतों का मंचन मज़दूर बस्तियों में कर उस व्यापक आबादी को अपने साथ जोड़ना होगा जो इस फासिस्ट सरकार के जुए तले पिस रही है तभी हम अपने शिक्षा संस्थानों की स्वायत्तता को बचाने में समर्थ हो पायेंगे ।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-अक्टूबर 2015
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