अखबार
इतने सारे,
इतने सारे पेड़ों को काटते हैं लगातार
इतने सारे कारखानों में
इतने सारे मजदूरों की श्रमशक्ति को निचोड़कर
तैयार करते हैं इतना सारा कागज
जिनपर दिन-रात चलते छापाखाने
छापते हैं इतना सारा झूठ
रोज सुबह इतने सारे दिमागों में उड़ेल देने के लिए।
इतने सारे पेड़ कटते हैं
झूठ की खातिर।
इतनी सारी मशीनें चलती हैं
झूठ की खातिर।
इतने सारे लोग खटते हैं महज जिन्दा रहने के लिए
झूठ की खातिर
ताकि लोग पेड़ बन जायें,
ताकि लोग मशीनों के कल पुर्जे बन जायें,
ताकि लोग, जो चल रहा है उसे
शाश्वत सत्य की तरह स्वीकार कर लें।
लेकिन लोग हैं कि सोचने की आदत
छोड़ नहीं पाते
और शाश्वत सत्य का मिथक
टूटता रहता है बार-बार
और वर्चस्व को कभी नहीं मिल पाता है अमरत्व।
कविता कृष्णपल्लवी
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-अक्टूबर 2015
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