‘पाप और विज्ञान’: 
पूँजीवादी अमेरिका और समाजवादी सोवियत संघ में नैतिक प्रश्नों के हल के प्रयासों का तुलनात्मक ब्यौरा

 आनन्द

क्या वेश्यावृत्ति, देह-व्यापार, गुप्तरोग, गर्भपात, व्यभिचार, तलाक, शराबखोरी जैसी सामाजिक बुराइयों का कोई मुकम्मिल समाधान मुमकिन है? आम तौर पर लोग इन सामाजिक बुराइयों को पाप कहते हैं और इनके लिए धार्मिक एवं आध्यात्मिक समाधानों पर ज़ोर देते हैं। कुछ लोग तो यहाँ तक दावा करते हैं कि ये समस्याएँ सनातन काल से चली आ रही हैं और आगे भी जारी रहेंगी। लेकिन बहुत कम लोग इस सच्चाई से वाकिफ़ हैं कि 1917 की महान रूसी क्रान्ति के बाद स्थापित मज़दूरों के राज्य सोवियत संघ ने न सिर्फ़ शोषणकारी उत्पादन सम्बन्धों में आमूलचूल परिवर्तन लाया था बल्कि तमाम सामाजिक-नैतिक बुराइयों की जड़ पर क्रान्तिकारी प्रहार करके इनको वैज्ञानिक तरीके से हल करते हुए मानव सभ्यता के इतिहास में एक शानदार नज़ीर पेश की थी। दुनिया के पहले मज़दूर राज्य की इस ऐतिहासिक उपलब्धि को आज साम्राज्यवादी कुत्सा-प्रचार की धूल और राख की मोटी परत के तले दबा दिया गया है। ऐसे में इन शानदार उपलब्धियों का तथ्यपरक ब्यौरा आमजन तक पहुँचाना आज क्रान्तिकारी आन्दोलन का एक अहम कार्यभार है। इस सन्दर्भ में कनाडा के वैज्ञानिक, लेखक और राजनीतिक कार्यकर्ता डाइसन कार्टर की किताब पाप और विज्ञान, जो ‘सिन एण्ड साइंस’ नाम से मूलतः अंग्रेज़ी में लिखी गयी थी, आज बेहद प्रासंगिक है।

1940 के दशक में लिखी गयी किताब ‘पाप और विज्ञान’ में डाइसन कार्टर ने सामाजिक नैतिकता से जुड़े प्रश्नों के हल की दिशा में पूँजीवादी अमेरिका और समाजवादी सोवियत संघ द्वारा अपनाये गये तरीकों एवं उनके परिणामों का शानदार ढंग से तुलनात्मक तथा तथ्यपरक ब्योरा प्रस्तुत किया है। इस पुस्तक की प्रस्तावना में महान गणितज्ञ और मार्क्सवादी इतिहासकार प्रो.डी.डी. कोसाम्बी लिखते हैं: “अभी हाल में, मौजूदा जमाने की दो एकदम अलग-अलग सभ्यताओं ने- जो अपने-अपने ढंग की आदर्श सभ्यताएँ हैं- इन बुराइयों को उखाड़ फेंकने के लिए कुछ तरीके अपनाये हैं। डाइसन कार्टर ने उनकी सच्ची और निष्पक्ष रिपोर्ट पेश की है। कोई इस बात से इंकार नहीं कर सकता कि अमेरिका में विज्ञान का महत्वपपूर्ण विकास हुआ है। पर कोई इस बात से भी इन्कार नहीं कर सकता कि वहीं पुलिसशक्ति का उससे भी ज़्यादा महत्वपूर्ण विकास हुआ है। अमेरिका के सभी धार्मिक दल ऐसे मसलों पर अपनी पूरी ताक़त जुटा देते हैं। फिर भी, वहाँ तलाकों की संख्या दुनिया भर में क़रीब-क़रीब सबसे ऊँची है। सुधार के राजनीतिक आन्दोलनों, पुलिस की विशेष कार्रवाइयों और गिरजाघरों में लगातार धर्मापदेश के बावजूद अमेरिका में गुप्त रोग, वेश्यावृत्ति और शराबखोरी अपनी-अपनी जगह पर ज्यों-की-त्यों बरकरार है। सोवियत रूस एक नयी समाज-व्यवस्था का पहला और सबसे बड़ा प्रतिनिधि है। वहाँ इस बात की पूरी गुंजाइश थी कि वर्तमान समाज की ये खौफ़नाक वसीयतें पूरे ज़ोर-शोर से भड़क उठें। क्रान्ति ने संगठित धर्म-व्यवस्था को ख़त्म कर दिया था। पहले के अधिकांश प्रतिबन्ध हटा दिये गये थे। वेश्या को अपराधी मानकर दण्ड नहीं दिया जाता था। तलाक़ बहुत आसान हो गया था। सरकार की ओर से सस्ती शराब का प्रबन्ध कर दिया गया था। इनके साथ-साथ क्रान्ति के बाद विदेशियों के आक्रमणों और उत्पादन की बढ़ती हुई दर से उत्पन्न कठिनाइयों के बारे में भी सोचिये। पूँजीवादी तर्क-पद्धति आपको इसी नतीजे पर पहुँचायेगी की अब वहाँ व्यभिचारों का खूब बोलबाला होगा। पर, हम देखते यह हैं कि सोवियत रूस में वेश्यावृत्ति एकदम ख़त्म हो गयी है। तलाक़ों की दर को घटाकर न्यूनतम स्तर पर ला दिया गया है। जो देश कभी किसानों और मजदूरों की नशेबाजी से बदनाम था, वहाँ अब शराबखोरी का क़रीब-क़रीब लोप हो चुका है।”

ये परिणाम, जो बड़े विचित्र और असंगत प्रतीत होते हैं, सोवियत रूस में वैज्ञानिक अनुसन्धान के द्वारा इन समस्याओं की जड़ों का पता लगाकर ही प्राप्त किये गये थे। पूँजीवादी देशों में पुलिस वाला जिस सवाल को उठाने की हिम्मत नहीं कर सकता, पादरी जिस सवाल को उठा नहीं सकता, वैज्ञानिक जिस सवाल को उठाता ही नहीं, वह यह है – आखि़र इन बुराइयों की जड़ क्या है? सोवियत रूस का उत्तर है कि कुछ वर्ग इन बुराइयों से बेशुमार मुनाफ़े कमाते हैं, इसलिए ये मौजूद हैं। इस तरह सामाजिक बुराइयों से मुनाफ़ा कमाना, सामाजिक बुराइयों से लाभ उठाना, जनता के बहुसंख्यक भाग के आम शोषण का ही नतीजा है। इससे जनता का बहुत बड़ा भाग इनकी तरफ झुकता है। इसीलिए, ये फैलती हैं। जनता के आम शोषण का अन्त होने से ही, सोवियत रूस में इनके मूल कारणों का भी अन्त हुआ है। जो इनसे मुनाफ़ा कमाते थे उनको कड़ा दण्ड दिया गया, उन लोगों को नहीं जो इनके शिकार हुए थे; अर्थात् चकले चलाने वालों को, वेश्याओं को नहीं; गैर-क़ानूनी शराब बनाने वालों को, शराब पीने वालों को नहीं। साथ ही, सोवियत रूस में काम पाने का अधिकार हर नागरिक का अधिकार बना दिया गया। हरेक के लिए अच्छा रहन-सहन मुमकिन बना दिया गया। नयी आज़ादी का असर आसानी से दिखायी देने लगा। क़ानून, पार्टी के प्रचार और जनता की वैज्ञानिक शिक्षा का सहारा लेना सरल बन गया। जनता को पूरी तरह शिक्षित बनाने का प्रबन्ध किया गया। सस्ती व अच्छी पठन सामग्री का प्रबन्ध किया गया। सभी के लिए सुन्दर संगीत, अच्छे से अच्छे सिनेमा, संस्कृति-पार्कों और खेलकूद के मैदानों द्वारा मनोरंजन और थकान मिटाने के भिन्न-भिन्न साधनों की व्यवस्था कर दी गयी। पहले की सभी बुराइयाँ छू-मन्तर हो गयीं क्योंकि अब उनके टिकने की कोई वजह नहीं रह गयी थी। मनुष्य का जीवन पहली बार रहने लायक सुखमय जीवन बना। जीवन से कतराने और भागने की अब कोई ज़रूरत नहीं रह गयी।

पुस्तक के पहले अध्याय ‘विक्ट्री  गर्ल और समाजीकृत महिलाएँ’ में कार्टर अमेरिका के एक अन्तरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त डॉक्टर थॉमस पैरन द्वारा 1936 में लिखे एक प्रसिद्ध लेख का हवाला देते हैं जिसमें उन्होंने अमेरिकी समाज में तेज़ी से फैल रहे गुप्त रोगों के प्रति आगाह किया था। इस लेख के बाद अमेरिका में गुप्त रोगों एवं व्यभिचार को ख़त्म करने की एक मुहिम छेड़ी गई थी जिसमें सरकार, फौजी अफसरों, सामाजिक कार्यकर्ताओं एवं धर्मगुरुओं ने अपने-अपने तरीके से इन समस्याओं का समाधान करने का दावा किया था। परन्तु् ये समस्याएँ कम होने की बजाय बढ़ती ही गईं। इसी अध्याय में कार्टर लॉर्ड तथा लेडी पैस्फील्ड (बियेट्रिस एवं सिडनी वैब) तथा क्वण्टिन रेनोल्ड्स और दर्जनों दूसरे चिकित्सा विशेषज्ञों और अन्य निष्पक्ष प्रेक्षकों का हवाला देते हुए बताते हैं कि सोवियत रूस – जहाँ क्रान्ति के पहले व्यभिचार और अनैतिकता का बोलबाला था – में सामाजिक अनैतिकता की सभी गम्भीर समस्याएँ क्रान्ति के बाद बीस वर्षों के भीतर ही आश्चर्यजनक सफलता के साथ हल कर ली गई थीं। इन बीस वर्षों में कितने ही ऐसे औद्योगिक नगर और विशाल बन्दरगाह बनाये गये जहाँ अनैतिकता को बड़ी तो क्या एक छोटी समस्या के रूप में भी पनपने का मौका नहीं मिला। लाल सेना दुनिया की पहली ऐसी बड़ी सेना थी जो वेश्यावृत्ति से मुक्त थी। एक दिलचस्प प्रसंग का ज़िक्र करते हुए कार्टर बताते हैं कि एक बार उन्हें सोवियत संघ के चन्द युवाओं से बातें करने का मौका मिला तो उन्हों ने पूछा कि वेश्यावृत्ति, व्यभिचार, गुप्त रोग, नौजवानों में दुराचारी प्रवृत्तियों और शराबखोरी आदि को सोवियत सरकार ने कैसे दूर किया था। इस पर उन युवाओं ने कहा कि इन समस्याओं को सोवियत रूस में बहुत पहले हल कर लिया गया था, कम से कम दस बरस पहले। तब हम लोग बच्चे थे। हमें इतना तो याद आता है कि हमारे चाचा-ताऊ इस सम्बन्ध में बनाये गये नियमों पर बड़ी गरमागरम बातें किया करते थे। पर उनका विवरण हमें याद नहीं। हम लोगों के लिए तो यह एक गुज़रे जमाने की बात बन चुकी है।

‘बुराई के लिए पीले टिकट की व्यवस्था’ नामक अध्याय में क्रान्ति से पहले ज़ारशाही के शासन में रूस में महिलाओं की दयनीय स्थिति का वर्णन करते हुए कार्टर बताते हैं कि उस दौर में रूस में हर नागरिक को रजिस्ट्रेशन और शिनाख़्त सम्बन्धी एक प्रमाणपत्र रखना होता था जिसे आमतौर पर पासपोर्ट कहते थे जिससे ज़ारशाही पुलिस को नागरिकों पर निगरानी करने में आसानी होती थी। वेश्या का पेशा करने वाली औरतों को एक विशेष किस्म का पीले रंग का कार्ड अपने पास रखना होता था जिसकी वजह से इसे ‘पीले टिकट की व्यवस्था’ कहा जाता था। इस अपमानजनक व्यवस्था का सबसे भयानक पहलू यह था कि एक बार पीला टिकट ले लेने वाली महिला जीवन भर के लिए इस बुराई के भँवरजाल में फँस जाती थी। ज़ारशाही के अफ़सर किसी भी महिला का नागरिक टिकट लेकर उसे पीला टिकट दे देने की तैयारी में रहते थे। अधिकांश मुहल्लों में पीले टिकट वाली औरतों को किन्हीं  ख़ास घरों में रहना पड़ता था। इन घरों को सरकारी तौर पर ‘व्यभिचार के अड्डे’ कहा जाता था। वेश्यावृत्ति के पेशे में लगी महिलाओं को अपने नाम के आगे ‘वेश्या’ लगाना होता था। इस प्रकार कोई औरत यदि कुछ दिनों के लिए ग़रीबी की वजह से मजबूर होकर अनैतिकता के गढ्ढे में लुढ़क पड़ती थी तो पुलिस और बदनाम ‘पीले टिकट की व्यवस्था’ यह सुनिश्चित करती थी कि वह उससे कभी भी बाहर न निकल पाये। आधिकारिक तौर पर इस अपमानजनक व्यवस्था का उद्देश्य यह बताया जाता था कि इससे अनैतिकता पर रोक लगेगी। परन्तु इस सरकारी ढकोसले की असलियत किसी से छिपी न थी। वास्तव में इसकी वजह से रूसी समाज में व्यभिचार बढ़ता ही जा रहा था। तोल्सतोय के उपन्यास ‘रिसरेक्शन’ (पुनरुत्थान) में भी एक ऐसी ही नारी का हृदय विदारक चित्रण किया है जो व्यभिचार के जाल में फँस जाती है।

‘बन्धनरहित प्रेम और वैज्ञानिक नैतिकता’ नामक अध्याय में डाइसन कार्टर क्रान्ति के बाद रूसी समाज में प्रेम के प्रश्न पर चली बहस का रोचक ब्यौरा देते हैं। ज़ारकालीन रूस में महिलाओं के उत्पीड़न का प्रतीक ‘पीले कार्ड की व्यवस्था’ को क्रान्ति के तुरन्त बाद ख़त्म कर दिया गया। सभी महिलाओं को नागरिकता का हक़ मिला। परन्तु क्रान्ति ने जिस स्वतंत्रता को जन्म दिया था उसके मायने अनेक रूसियों ने निरपेक्ष रूप से ‘बन्धनरहित’ प्रेम के रूप में निकाले। उनका कहना था कि व्यभिचार को समाप्त करने का एकमात्र उपाय है यौन-सम्बन्धी तमाम प्रतिबन्धों को ख़त्म कर निरपेक्षतः मुक्त यौन सम्बन्धों  की छूट देना। परन्तु लेनिन के नेतृत्व वाली क्रान्तिकारी सोवियत सत्ता ने ऐसे बन्धनरहित प्रेम की सोच का पुरज़ोर विरोध किया और स्वस्थ शारीरिक और मानसिक विकास के लिए युवाओं को वैज्ञानिक नैतिकता से लैस विचारों को आत्मसात करने, खेलकूद, बहुमुखी बौद्धिक क्रियाओं, अध्ययन, खोजबीन इत्यादि पर ज़ोर दिया। सोवियत सरकार का लक्ष्य न सिर्फ़ मनुष्य के दिन-प्रतिदिन के जीवन को बदलना था, बल्कि मनुष्य के स्वभाव को भी बदलना था। यह लक्ष्य मॉस्को स्पोर्ट्स क्लब के इस नारे में प्रकट होता हैः ‘हम मानव समाज का पुनर्संगठन न सिर्फ़ आर्थिक आधार पर कर रहे हैं बल्कि मनुष्य जाति को  ही वैज्ञानिक सिद्धान्तों के सहारे सत्पथ पर ला रहे हैं।’

‘पूँजीवाद ने प्रेम को सम्मानपूर्ण स्थान दिया’ नामक अध्याय में कार्टर मानव सभ्यता के विकास के दौरान स्त्री और पुरुष के बीच सम्बन्धों  में आये बदलावों पर सोवियत वैज्ञानिकों के ऐतिहासिक भौतिकवादी दृष्टिकोण का विस्तारपूर्वक बयान करते हैं। इस दृष्टिकोण के अनुसार सामाजिक नैतिकता कोई स्थिर चीज नहीं है, बल्कि उत्पादन प्रणाली में परिवर्तन के साथ ही साथ नैतिक मूल्यों  और मान्यताओं में भी परवर्तन होता है। मिसाल के लिए सामन्ती युग में यह कल्पना करना भी मुश्किल था कि प्रेम के आधार पर विवाह करना नैतिक रूप से सही है। पूँजीवाद ने पहली बार स्त्रियों को प्रेम करने की आज़ादी दी और प्रेम पर आधारित विवाह को सामाजिक नैतिकता का आधार बनाया। लेकिन यह भी सच है कि स्त्री प्रेम करने के लिए पुरुषों के समान ही स्वतंत्र हो इसके लिए सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक रूप से उसे पुरुषों के समान स्वतंत्र होना ज़रूरी है। परन्तु यह समानता पूँजीवाद के दायरे में मुमकिन ही नहीं है। आज के पूँजीवादी युग में स्त्री आर्थिक बेड़ियों से जकड़ी हुई है। इन बेड़ियों से छुटकारा पाये बग़ैर वह वास्तविक रूप से स्वतंत्र नहीं हो सकती और प्रेम करने का वास्तविक अधिकार उसे नहीं हासिल हो सकता है।

‘अनूठा प्रश्न-पत्र’ नामक अध्याय में कार्टर बताते हैं कि किस प्रकार रूसी जनता के जीवन के पुनर्निर्माण का कार्य लेनिन और उनके अनुयाइयों ने रूसी पुरुष से नहीं, रूसी स्त्री के जीवन से शुरू किया। सोवियत वैज्ञानिकों ने यह मत पेश किया कि मानव जाति को सुधार सकना तब तक असम्भव है जब तक पुरुष और स्त्री के बीच असमानता मौजूद है। सोवियत सरकार ने इस असमानता को दूर करने के लिए क्रान्ति के फौरन बाद बीसियों ऐसे कानून एवं नियम बनाये जिनसे स्त्रियों की आर्थिक एवं राजनीतिक स्वाधीनता की गारण्टी हुई। औरतों को वोट देने के अधिकार जिन देशों में सबसे पहले दिया गया उनमें सोवियत रूस एक था। यही नहीं ‘समान काम के लिए समान वेतन’ और मज़दूर स्त्रियों के लिए शिशुशाला बनाने जैसे अधिकारों को गारण्टी की गयी। परन्तु रूसी क्रान्ति के तुरन्त बाद विदेशी आक्रमणकारियों के खि़लाफ़ लम्बी लड़ाई के फलस्वरूप पैदा हुए देश के आन्तरिक संकट से पनपी अव्यवस्था, बेरोज़गारी आदि की वजह से व्यभिचार की समस्या ने विकराल रूप ले लिया था। इसके मद्देनज़र 1923 में सोवियत वैज्ञानिकों ने दुराचार के खि़लाफ़ हमला बोलते हुए एक प्रश्न-पत्र छपवाया जिसे गुप्त तरीके से हज़ारों औरतों एवं लड़कियों के बीच घुमाया गया। इस प्रश्न-पत्र का उद्देश्य यह पता लगाना था कि किन परिस्थितियों में स्त्री अपना शरीर बेचने के लिए तैयार हो जाती है। औसत आदमी को सबसे ज़्यादा चौंका देने वाली बात यह थी कि आम तौर से पेशेवर अनैतिक महिलाओं की संख्या और दूसरी तमाम महिलाओं की संख्या में कोई ख़ास अन्तर नहीं था। विवाहित और अविवाहित दोनों ही तरह की बेशुमार महिलाओं ने बताया कि किन्हीं ख़ास परिस्थितियों में सभी ने एक न एक मौके पर प्रेम-भावना से परे, दूसरे स्वार्थों के कारण, अनुचित इन्द्रिय-भोग किया था। कुछ ने अपने उत्तरों में बताया कि उन्होंने कई बार व्यभिचार को ही अपनी रोटी का ज़रिया बनाया था हालाँकि उनपर ‘वेश्या’ का दाग़ न लगने पाया था। जिन महिलाओं ने माना कि व्यभिचार को ही उन्हों ने अपने जीवन का आधार बनाया था उनमें से अधिकांश ने यही कहा कि ईमानदारी से कमाया पैसा उनके और उन पर निर्भर लोगों के लिए बहुत कम था, इसलिए उन्हें व्यभिचार को अपना सम्बल बनाना पड़ा।

अनूठे प्रश्न-पत्र की बात को आगे बढ़ाते हुए औरतों के क्रय-विक्रय के खि़लाफ़ संघर्ष नामक अध्याय में इस प्रश्न पर चर्चा करते हुए कि औरतें व्यभिचार को अपनी जीविका का आधार क्यों बनाती हैं, कार्टर बताते हैं कि इसका कारण दरिद्रता और आर्थिक कठिनाइयाँ तो थी हीं, लेकिन सोवियत प्रश्न-पत्र में दिये गये उत्तरों में रूसी महिलाओं ने ज़ोरदार शब्दों में यह भी कहा कि व्यभिचार के व्यापार का शिकार केवल वे ही महिलाएँ बनीं जिन्हें लम्बे-चौड़े मुनाफ़े कमा रहे व्यभिचार के ठेकेदारों ने जानबूझ कर फुसलाया था। इस मुनाफ़े का बेहद छोटा हिस्सा ही औरतों तक पहुँचता था। प्रश्न-पत्र के उत्तर में ज़्यादातर महिलाओं ने यह भी कहा कि यदि अच्छे काम मिलने की उन्हें ज़रा-सी भी उम्मीद हुई तो अपना नैतिक सुधार कर सकने की उन्हें आशा बँध जायेगी। बहुतों ने कहा कि वे अपने बच्चों के बड़े होने से पहले ही इस पेशे को छोड़ना चाहती हैं ताकि उन्हें यह सुनकर शर्मिन्दा न होना पड़े कि ‘तू फलाँ बदचलन औरत का बेटा है।’ इस प्रश्न-पत्र के उत्तरों में यह बात भी सामने आयी कि बहुत थोड़ी ही लड़कियाँ ऐसी होती हैं जो अपनी ज़रूरत से ज़्यादा तीव्र कामेच्छा को बुझाने के लिए व्यभिचार का सहारा लेती हैं। रूसी महिलाओं ने स्वीकार किया कि इस तरह के जीवन से इन्द्रिय-भोग के प्रति घृणा ही पैदा होती है। इसमें मानसिक संतोष नहीं मिलता। प्रश्न-पत्र के उत्तरों के आधार पर सोवियत वैज्ञानिक इस नतीजे पर पहुँचे कि अधिकांश वेश्याएँ सामान्य स्वभाव की होती हैं। रूस की औरतों ने ज़ोर देते हुए कहाः ‘हमें अच्छा  काम दो, हम अपने को सुधार लेंगे।’

अनूठे प्रश्न-पत्र के उत्तरों से निष्कर्ष निकालते हुए सोवियत राज्य ने व्यभिचार के ख़िलाफ़ संघर्ष छेड़ने का फैसला किया। परन्तु सोवियत अधिकारियों ने यह भी तय किया कि इस संघर्ष को वेश्या-विरोधी आन्दोलन का रूप न दिया जाय। संगठित-व्यभिचार को सोवियत रूस में एक सामाजिक दोष माना गया और इसका कारण औरतों की ग़रीबी और इसके व्यापार से आने वाली रक़म को माना गया। व्यभिचार के खि़लाफ़ संघर्ष के तहत इससे मुनाफ़ा कमाने वालों के ख़ात्मे के लिए सख़्ती बरतने के लिए आदेश दिये गये और साथ ही अनैतिक महिलाओं के खि़लाफ़ कार्रवाई करने के ज़ारशाही क़ानून द्वारा अदालतों और पुलिस को दिये गये अधिकार रद्द कर दिये गये। रोज़गार में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए विशेष प्रयास किये गए और किसी भी परिस्थिति में उनकी छँटनी करने वालों के खि़लाफ़ सख़्ती बरतने का फैसला किया गया। साथ ही इन्द्रिय-रोगों और वेश्यावृत्ति के ख़तरे के खि़लाफ़ आम जनता को जागरूक करके उनमें यह भावना पैदा की गयी कि अपने नये जनतंत्र में हम इन ख़राबियों को निकाल फेकेंगे। व्यभिचार से मुनाफ़ा कमाने वालों पर नकेल कसने के लिए एक नागरिक सेना (मिलीशिया) का भी गठन किया गया जिसका काम व्यभिचार के अड्डों का पता लगाना था। साथ ही इस सेना और जनता को यह भी चेतावनी दी गयी कि वे खुद अनैतिकता में लिप्त महिलाओं के खि़लाफ़ कोई सख़्ती न बरतें। उन्हें ऐसी किसी महिला का नाम और पता लेने का अधिकार नहीं था।

सोवियत सरकार द्वारा व्यभिचार के अड्डों को ध्वस्त करने की मुहिम छेड़े जाने से घबराये ठेकेदारों और वेश्यागृहों के मालिकों ने अदालत का दरवाज़ा खटखटाना शुरू कर दिया। वे सोवियत अख़बारों में पत्र भेजकर यह कहने लगे कि सोवियत सरकार वेश्याओं को पनाह देकर और भोले-भाले मालिकों को दण्ड देकर घोर पाप कर रही है। किन्तु सोवियत अधिकारियों ने उनकी चीख-पुकार का उत्तर सेना की ओर से और भी कड़ी कार्रवाई से दिया। ठेकेदारों ने यह दलील देनी शुरू की कि वेश्याओं को अपना पेशा ज़ारी रखने का हक़ है। अधिकारियों ने प्रश्न-पत्र का ज़िक्र करते हुए कहा कि औरतों ने व्यभिचार को मजबूरी की हालत में अपनाया है और समाज का यह कर्तव्य है कि वह उन्हें अच्छे काम देकर व्यभिचार से मुक्त करे।

व्यभिचार के अड्डे चलाने वालों पर हमले के बाद सोवियत सरकार ने अगला हमला वेश्याओं के ‘ग्राहकों’ पर किया। इस हमले का सूत्रवाक्य  थाः ‘अगर किसी व्यक्ति के लिए औरतों के ठेके चलाना अपराध है तो औरतों के शरीर को कुछ समय के लिए ख़रीदना और उनके आत्म-सम्मान को भंग करना भी उतना ही बड़ा अपराध है।’ इस हमले के तहत एक आश्चर्यजनक कानून पास किया गया जिसमें यह प्रावधान था कि व्यभिचार के अड्डे पर छापा मारते समय अधिकारी वहाँ उपस्थित सभी लोगों के नाम, पते और नौकरी करने के स्थान दर्ज़ कर लें। ‘ग्राहकों’ को गिरफ्ऱतार करने की बजाय अगले दिन बाजार में एक नियत स्थान पर एक लम्बे तख्ते पर इन लोगों के नाम और पते टाँग दिये जाते थे। इस तख़्ते पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा रहता थाः ‘औरतों के शरीर खरीदने वाले’। इसके अलावा अनैतिकता के अपराधी पर मुक़दमे का एक नाटक भी तैयार किया गया जो जनता के बीच बहुत लोकप्रिय हुआ।

‘पाप और विज्ञान’ के अन्त के अध्यायों में डाइसन कार्टर व्यभिचार के अलावा अन्य समस्याओं मसलन शराबखोरी एवं बच्चों से जुड़ी समस्याओं को हल करने की दिशा में सोवियत संघ में उठाये गये क़दमों का ब्योरा देते हुए बताते हैं कि इन क़दमों से उस समाज में शराबखोरी के साथ ही साथ अपराधों की संख्या में ज़बर्दस्त कमी देखने को मिली।

आज जब सोवियत संघ के महान समाजवादी प्रयोग की तमाम उपलब्धियों पर कीचड़ फेंकने के लिए साम्राज्यवादियों के टुकड़खोर बुद्धिजीवी कलमें घसीट रहे हैं, ऐसे में डाइसन कार्टर की यह किताब उन सभी लोगों को अवश्य पढ़नी चाहिए जो मानव सभ्यता के इतिहास की इस शानदार प्रेरणादायी प्रयोग का वस्तुगत मूल्यांकन करने की इच्छा रखते हैं।

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मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-अक्‍टूबर 2015

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