यूरोज़ोन का सम्प्रभु ऋण संकट
साम्राज्यवाद का निकट आता असंभाव्यता बिन्दु

शिशिर

यूरोप के संकट पर हम ‘आह्वान’ के पिछले कुछ अंकों में लिखते रहे हैं। यह लेख लिखे जाने के समय जिन सम्भावनाओं का हम पहले के लेखों में जिक्र कर चुके हैं, वे वास्तविकता में तब्दील होती नज़र आ रही हैं। यूनान और इटली में सरकारें गिर गयीं हैं। स्पेन की हालत भी कोई बेहतर नहीं दिखती। जो संकट यूरोप की सबसे कमज़ोर अर्थव्यवस्थाओं से शुरू हुआ था, वह अब कुछ दिग्गज अर्थव्यवस्थाओं को अपनी चपेट में ले चुका है। स्पेन और इटली को (इंग्लैण्ड को छोड़कर, क्योंकि उसकी अर्थव्यवस्था का रिश्ता यूरोप की अर्थव्यवस्था से उतना अधिक नहीं है, जितना कि अमेरिकी धुरी से है) जर्मनी और फ्रांस के बाद यूरोप की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था माना जाता है। यूरोपीय संघ के कुल सकल घरेलू उत्पाद का 17 प्रतिशत इटली की अर्थव्यवस्था से आता है। ऐसे में यदि इटली की अर्थव्यवस्था दीवालिया होती है, तो यह निश्चित तौर पर यूरोज़ोन को ख़तरे में डाल देगा। और इस ख़तरे के हक़ीक़त में तब्दील हो जाने की अच्छी-ख़ासी सम्भावना है!

मौजूदा संकट का प्राक् इतिहास

मौजूदा संकट को चन्द पंक्तियों में समझाया जा सकता है। वास्तव में, यह संकट अमेरिका में 2007 में शुरू हुए सबप्राइम संकट का ही एक विस्तार है। सबप्राइम संकट के दौरान अमेरिका के तमाम वित्तीय संस्थानों ने ख़राब आर्थिक स्थिति वाले लोगों को, आम तौर पर घर ख़रीदने के लिए, ऋण दिये और उन ख़राब ऋणों को अच्छे और माध्यमिक ऋणों के साथ मिलाकर एक नया वित्तीय माल या उपकरण बनाया जिसे कोलेटरल डेट ऑब्लिगेशन कहा गया। फिर इन पैकेजों को पूरे विश्व के अन्य बैंकों और वित्तीय संस्थानों को बेचा गया ताकि ऋण के साथ जुड़ा जोखिम साझा किया जा सके। इन्हें ख़रीदने वाले बैंकों को नहीं पता था कि इन पैकेजों में ख़राब ऋण भी शामिल हैं। उन्होंने इसे बेझिझक ख़रीदा। यह सब करने के पीछे अमेरिका के वित्तीय संस्थानों की एक मजबूरी थी – पूँजी की प्रचुरता। इस वित्तीय पूँजी के अम्बार को अगर संचरण (सर्कुलेशन) में न उतारा जाता तो ये संस्थान बरबाद हो जाते। नतीजतन, अमेरिकी सरकार ने नारा दिया कि वह एक क्रान्तिकारी काम कर रही है; यानी, अमेरिकी समाज के ग़रीब लोगों तक वह ऋण की पहुँच बना रही है! लेकिन इसके पीछे सच्चाई यह थी कि इन ऋणों पर चलायमान ब्याज़ दरें लगायी गयीं थीं; यानी, ऐसी ब्याज़ दरें जिन्हें बैंक व वित्तीय संस्थान अपनी ज़रूरतों के मुताबिक बढ़ा सकते थे। इस प्रकार जब भी अमेरिकी केन्द्रीय बैंक फेडरल रिज़र्व बैंकों को दिये जाने वाले ऋण पर ब्याज़ दरों में वृद्धि करता, तब-तब इन चलायमान ब्याज़ वाले ऋणों के ब्याज़ को ये वित्तीय संस्थान बढ़ा देते; और 2007 में ये ब्याज़ दरें 30 प्रतिशत तक पहुँचने लगीं। नतीजतन, आम निम्न मध्यवर्गीय अमेरिकी के लिए ब्याज़ दर चुकाना भी मुश्किल हो गया। उसके घर का सपना चकनाचूर हो गया, जिसे बैंक ने ज़ब्त कर लिया। लेकिन यही प्रक्रिया बहुत बड़े पैमाने पर हुई और बड़ी संख्या में लोगों ने ऋण के मूलधन तो दूर, उसके ब्याज़ की अदायगी में भी असमर्थता जाहिर कर दी। नतीजतन, वे बैंक और वित्तीय संस्थान संकट में आ गये जिन्होंने सबप्राइम ऋण दिया था।

Eurozone-Debt-Crisis

लेकिन यह महज़ शुरुआत थी क्योंकि इन बैंकों ने पूरी दुनिया में तमाम बैंकों और वित्तीय संस्थानों को कोलेटरल डेट ऑब्लिगेशन पैकेज बेचकर, यह ख़तरनाक वित्तीय कचरा पूरी दुनिया में फैला दिया था। अन्त में जो होना था वही हुआ। जैसे ही अमेरिका में ऋण दीवालियापन तेज़ी से बढ़ा, वैसे ही तमाम बैंक और वित्तीय संस्थान दीवालिया होने लगे। अब चूँकि वित्तीय पूँजी की हुकूमत के इस दौर में उद्योग, अवसंरचना, सरकारी ख़र्च आदि में होने वाला निवेश भी वित्तीय पूँजी के नियन्त्रण में रहता है, इसलिए वित्तीय बाज़ार का यह संकट देखते-देखते तथाकथित ‘वास्तविक अर्थव्यवस्था’ तक फैल गया और एक पूर्णरूपेण आर्थिक संकट बन गया। अमेरिका और यूरोप के बैंकों के तबाह होने पर निश्चित तौर पर सरकार इन्हें बचाने आती और वह आयी भी। अमेरिका से लेकर यूरोप तक जनता के ख़जाने से सरकारों ने कई खरब डॉलर के बेल आउट पैकेज देकर बाज़ार में फिर से तरलता को पम्प किया और इन बैंकों को बचाया। कोई नौसिखुआ भी बता सकता है कि सट्टेबाज़ और जुआघर व्यवस्था में यह पैसा भी जुए और सट्टेबाज़ी में ही लगना था। इससे संकट दूर होना तो दूर की बात थी, संकट को और बढ़ना ही था। वास्तव में, यूरोज़ोन का संकट इसी दूसरे चरण की अभिव्यक्ति है जिसमें संकट राज्य और वास्तविक अर्थव्यवस्था तक पहुँच चुका है।

मौजूदा संकट काक्या’, ‘क्योंऔरकब’—संक्षेप में

यूरोप में अभी जो हो रहा है, उसका क्रम कुछ ऐसा हैः पहले बैंक तबाह हुए; फिर बैंकों को बचाने के लिए उन्हें सरकारों ने बेल आउट पैकेज दिये; इन पैकेजों के कारण सरकारी ख़जाने को भारी बोझ उठाना पड़ा; इस घाटे से निपटने के लिए सरकारों के पास आम तौर पर तीन रास्ते होते हैं, अगर अर्थव्यवस्था की हालत अच्छी हो; इन तीनों रास्तों की बात हम आगे करेंगे, लेकिन फिलहाल इतना बताना पर्याप्त होगा कि यूरोप की अपेक्षाकृत कमज़ोर अर्थव्यवस्थाओं के पास ये तीनों ही रास्ते नहीं थे। कम-से-कम यूरोज़ोन के भीतर रहते हुए तो नहीं ही थे। इसीलिए पहले अपने आपको वैश्विक वित्तीय बाज़ार के संकट के रूप में शुरू हुए साम्राज्यवादी संकट ने इस बार सम्प्रभु ऋण संकट के रूप में अपने आपको पेश किया है, और इस भूकम्प का केन्द्र इस बार यूरोज़ोन है।

यूरोपीय देशों, विशेषकर यूनान, पुर्तगाल, स्पेन और इटली, की सरकारों ने बैंकों को दिये गये बेलआउट पैकेज से हुए घाटों से निपटने के लिए ऋण लेना शुरू किया। ये ऋण सरकारी बॉण्डों के रूप में लिये जाते हैं। सरकारें अपना बॉण्ड वित्तीय बाज़ार में उतारती हैं; उन्हें बैंक, वित्तीय संस्थान और बड़े वित्तीय निवेशक ख़रीदते हैं; इस बॉण्ड पर सरकार नियमित तौर पर ब्याज़ का भुगतान करती है और उनकी अवधि पूरी हो जाने के बाद मूलधन का भुगतान कर देती हैं। इस बार भी यूनान, इटली और स्पेन की सरकारों ने यही किया। लेकिन संकट के दौर में इन बॉण्डों के लिए वित्तीय बाज़ार में ज़्यादा ख़रीदार नहीं मौजूद थे; कारण यह था कि संकट के शुरू होने के बाद, और बेलआउट पैकेजों के दिये जाने के बाद से सरकारों ने अपने नियमित ख़र्चों को पूरा करने के लिए इतना ऋण ले लिया था कि कई देशों में यह ऋण सकल घरेलू उत्पाद के 100 प्रतिशत से भी ज़्यादा हो गया था। नतीजा यह हुआ कि इन सरकारों के सामने एक भयंकर संकट उपस्थित हो गया है। विशेष तौर पर, यूनान की सरकार के पास तो अगले महीने अपने कर्मचारियों को तनख्वाहें देने और अपने सेवानिवृत्त लोगों को पेंशन तक देने के लिए धन नहीं है। और जब केन्द्रीय यूरोपीय बैंक, अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष आदि से भी पर्याप्त सहायता न मिली तो यूनान के भूतपूर्व प्रधानमन्त्री पापैण्डरू ने इस मसले पर जनमत संग्रह कराने का एलान कर दिया कि यूनान यूरोज़ोन में रहे या न रहे। कारण यह है कि इस संकट से अस्थायी तौर पर निपटने का एक रास्ता था मौद्रिक सुधार का। इसका अर्थ यह था कि यूनान का केन्द्रीय सरकारी बैंक और अधिक मुद्रा छापता, मुद्रास्फीति होती और कुछ समय के लिए बढ़ी हुई बेरोज़गारी और महँगाई के साथ संकट को कुछ समय के लिए टाला जा सकता था। लेकिन यूरोज़ोन में रहते हुए यह सम्भव नहीं था क्योंकि यूरोज़ोन एक ही मुद्रा यूरो का उपयोग करता है और कोई भी एक सदस्य देश अपने स्तर पर इसका मूल्य घटाने या बढ़ाने का फैसला नहीं ले सकता है। यह यूरोपीय मौद्रिक संघ और यूरोपीय केन्द्रीय बैंक के द्वारा तय किया जाता है। बताने की आवश्यकता नहीं है कि इन मंचों पर फ्रांस और विशेष रूप से जर्मनी के अनुसार नीतियाँ निर्धारित होती हैं। और जर्मनी और फ्रांस ने यूनानी संकट का बोझ अपनी अर्थव्यवस्था पर डालने से साफ़ इंकार कर दिया, हालाँकि यह संकट उन्हीं की नवउदारीकरण की नीतियों के दबाव के कारण पैदा हुआ था। लेकिन यूनानी प्रधानमन्त्री को जनमत संग्रह कराने से रोक दिया गया क्योंकि जर्मनी यूरोपीय संघ को भंग नहीं होने देना चाहता। वह उसके भीतर अपना और गहरा वर्चस्व कायम करना चाहता है और फिर यूरोज़ोन के जरिये अमेरिकी वर्चस्व के साथ प्रतिस्पर्द्धा करना चाहता है। फिलहाल, वह सफल हो गया है। पापैण्डरू ने इस्तीफ़ा दे दिया है और आर्थिक संकट की स्थिति से निपटने के लिए सभी दलों की साझा सरकार बनी है जिसका नेता एक तकनोशाह नवउदारवादी पापाडिमॉस को चुना गया है। इस नयी साझा सरकार ने जर्मनी के कहे पर और अधिक “किफायतशारी” की नीतियाँ लागू करने का वायदा किया है। जाहिर है कि पूँजीवादी सरकारें किफायत हमेशा जनता पर होने वाले ख़र्चों में करती हैं, बैंकों और कारपोरेशनों को दी जाने वाली छूटों और बेल आउट पैकेज में नहीं! लेकिन अभी इस नयी गठबन्धन सरकार का रास्ता बहुत मुश्किल दिख रहा है। कारण यह है कि सरकारी ख़र्चों में कटौती के फलस्वरूप बढ़ती बेरोज़गारी, ग़रीबी, महँगाई, शिक्षा सुविधाओं और सामाजिक सुरक्षा में कमी के कारण यूनानी जनता पहले ही बार-बार सड़कों पर उतर रही है। ऐसे में, आने वाला समय ही बतायेगा कि यूरोज़ोन कितने समय तक टिक सकता है।

एक सम्भावना यह भी है कि इस संकट की स्थिति में निम्न मध्य वर्ग और आम मध्य वर्ग के बीच अन्धराष्ट्रवाद, प्रवासियों, यहूदियों व अन्य अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफ़रत भड़का कर और संकट का जिम्मेदार मज़दूरों और कामगारों को मिलने वाली सामाजिक सुरक्षा, “ऊँची” मज़दूरी, और सुविधाओं को बताकर कोई धुर-दक्षिणपंथी दल सत्ता पर कब्ज़ा कर ले। हालाँकि, हंगरी यूरोपीय संघ का सदस्य नहीं है लेकिन आर्थिक संकट का असर वहाँ भी इतना ही विकराल था, और वहाँ यही हुआ है। एक नवनात्सी दल इस समय चुनावों के जरिये सत्ता में आ गया है। फिनलैण्ड में भी ऐसी सम्भावना बनती नज़र आ रही है। इसलिए यूरोज़ोन का संकट तमाम यूरोपीय देशों में दक्षिणपंथ के उभार का कारण भी बन सकता है।

मौजूदा संकट के निहितार्थ

बहरहाल, यूरोज़ोन के संकट के विश्लेषण पर वापस लौटते हैं। मौजूदा यूरोपीय संकट ने कुछ बातें एकदम स्पष्ट कर दी हैं। पहली बात तो यह कि भूमण्डलीकरण के इस दौर में सरकारी बॉण्डों के भी सुरक्षित होने की कोई गारण्टी नहीं ली जा सकती है। यूनानी सरकार के बॉण्डों के साथ यही हुआ है। इनकी विश्वस्नीयता बाज़ार में बेहद घट गयी जिसके कारण इनमें कोई भी निवेश नहीं करना चाहता है। यूनानी सरकार के कभी भी दीवालिया घोषित हो जाने के ख़तरे हैं। लेकिन सट्टेबाज़ों के लिए तो हर स्थिति ही एक अवसर होता है। सट्टेबाज़ इस पर भी दाँव लगा रहे हैं कि यूनान कब दीवालिया होता है! इस स्थिति के कारण की चर्चा हम ऊपर कर आये हैं। इस सम्प्रभु संकट की एक ख़ास बात यह है कि सारा ऋण एक ऐसी मुद्रा में है जो किसी एक देश की मुद्रा नहीं है बल्कि कई देशों के एक समूह की मुद्रा है।

दूसरी ख़ास बात यह है कि सरकारें बड़े बैंकों और वित्तीय संस्थानों के कर्ज़ तले दबी हुई हैं। सरकारी बॉण्डों पहले दो प्रचलित धारणाओं के कारण विश्वस्नीय माने जाते थे। एक कारण यह था कि सरकारें कभी भी कराधान प्रणाली के जरिये संसाधन जुटा सकती हैं; दूसरा कारण यह था कि जब भी वे कराधान में परिवर्तन कर संसाधन जुटाने में अक्षम होती हैं, तो वे अपने केन्द्रीय बैंकों से मुद्रास्फीति को बढ़ाने और अधिक मुद्रा छापने के लिए कह सकती हैं। इसलिए बैंक, वित्तीय संस्थान और निवेशक सरकारी बॉण्डों में बेझिझक निवेश करते थे। उन्हें लगता था कि इस पर नियमित रूप से ब्याज़ आता रहेगा और बॉण्ड के परिपक्व हो जाने के बाद भुगतान भी पक्का है।

लेकिन यूरोज़ोन के मौजूदा संकट के दौरान ये दोनों भी धारणाएँ भ्रामक सिद्ध हुईं। इसके कई कारण थे। पहला कारण यह था कि संकटग्रस्त देशों की सरकारें धनिक वर्ग पर कर बढ़ाने की जुर्रत नहीं कर सकती थीं वरना जिस परिघटना को पूँजीवादी अर्थशास्त्रीटैक्स रिवोल्टया कर विद्रोह कहते हैं, वह घटित होती। यानी, पूँजीपति वर्ग इस संकट का एक पैसा भी बोझ उठाने को तैयार नहीं है। उसके मुनाफ़े की दरें अति-उत्पादन के संकट और वैश्विक वित्तीय संकट के कारण पहले ही नीचे गिर रही हैं। ऐसे में, वह कर बढ़ाये जाने पर अपनी प्रतिस्पर्द्धात्मकता खो देता और पूँजीवादी व्यवस्था यह बर्दाश्त नहीं कर सकती है। इसलिए ऊपर के 10 प्रतिशत धनिक वर्गों पर कर का बोझ बढ़ाया नहीं जा सकता था। इसके बाद आते हैं उच्च मध्य वर्ग के अलग-अलग संस्तर जो कि भूमण्डलीकरण के दौर में पूँजीवादी राजसत्ता का प्रमुख सामाजिक अवलम्ब हैं। उन्हें भी नाराज़ करने का ख़तरा नहीं उठाया जा सकता। नतीजतन, सुई आकर रुकती है आम ग़रीब मेहनतकश आबादी पर। लेकिन यूनान के मामले में यह भी सम्भव नहीं था। क्योंकि आम मेहनतकश आबादी पर पूँजीवादी संकट का बोझ पहले ही इस हद तक डाला जा चुका था कि वह सड़कों पर थी। अगर इसके बाद और अधिक बोझ उस पर डाला जाता तो वह बग़ावत के रास्ते पर जा सकती थी। कम-से-कम तुरन्त ऐसा कर पाना सम्भव नहीं था। ऐसा करने के लिए पहले राष्ट्रवाद, देशभक्ति और राष्ट्रीय सुरक्षा आदि को लेकर पूँजीवादी प्रचार अभियान चलता जिसमें कि आम ग़रीब मेहनतकश आबादी को अलग-थलग कर बाकी 30 फीसदी आबादी को दक्षिणपंथ की ओर मोड़ा जाता; मज़दूर आन्दोलन को तोड़ने के लिए तरह-तरह के विचारधारात्मक और राजनीतिक उपकरणों का इस्तेमाल किया जाता और उसमें फूट डाली जाती और फिर किसी सर्वसत्तावादी फासीवादी सरकार के फ्कड़े कदमोंय् द्वारा यह कार्यभार पूरा किया जा सकता था। शायद यूनानी शासक वर्ग ने अभी इसी चीज़ के लिए एक मोहलत ली है। इस तरह साफ़ है कि यूनानी शासक वर्ग तुरन्त किसी भी वर्ग पर कर का बोझ बढ़ाकर अपनी आमदनी को नहीं बढ़ा सकता था।

दूसरा रास्ता, मौद्रिक समायोजन का हो सकता था लेकिन वह भी यूरोज़ोन के नियमों के चलते और एक साझा मुद्रा होने के कारण सम्भव नहीं था। चूँकि मुद्रा अवमूल्यन और मुद्रास्फीति के निर्णय यूरोपीय मौद्रिक संघ लेता है इसलिए सरकारों को जब ऋण की आवश्यकता होती है तो वे निजी निवेशकों, बैंकों और वित्तीय संस्थानों के “खुले बाज़ार” की ओर मुड़ते हैं। और इस समय यूनान को ऋण देने के लिए कोई तैयार नहीं था; या फिर इतने अधिक ब्याज़ पर दे रहा था कि उसका बोझ यूनान की अर्थव्यवस्था उठा ही नहीं सकती थी। इसका कारण हम पहले ही बता चुके हैं। संकट के दौर में यूरोप की कमज़ोर अर्थव्यवस्थाओं पर विदेशी ऋण इतना बढ़ चुका है कि उनके दीवालिया होने के कयास लगाये जा रहे हैं। ऐसे में वित्तीय ऋण बाज़ार में उनकी विश्वस्नीयता नीचे गिर गयी है और कोई भी निवेशक इन देशों की सरकारों के बॉण्ड में निवेश नहीं कर सकता। हालाँकि, ये वही निवेशक, वित्तीय संस्थान और बैंक हैं जिन्हें यूरोपीय देशों की सरकारों ने जनता के पैसे से बेल-आउट पैकेज देकर संकट के समय बचाया था। इन सरकारों के लिए बैंकों, वित्तीय संस्थानों और वित्तीय निवेशकों को दीवालिया होने से बचाना मजबूरी थी। क्योंकि आज की पूरी विश्व आर्थिक व्यवस्था वित्तीय पूँजी के अधीन है। अगर इन बैंकों को बेल आउट और स्टिम्युलस पैकेज देकर सरकारें नहीं बचातीं तो पूरी की पूरी पूँजीवादी अर्थव्यवस्था ही धराशायी हो जाती।

संशोधनवादी और सुधारवादी नीमहक़ीमों के कीन्सवादी नुस्ख़े और उनकी दरिद्रता

मनोविश्लेषण के नियमों के अनुसार किसी बात को जानने और उसपर विश्वास करने के बीच एक गहरा प़फ़र्क होता है। मिसाल के तौर पर, हो सकता है कि आप कुछ जानते हों, लेकिन आप उस पर विश्वास नहीं करते हों! या आप किसी बात पर विश्वास करते हों, लेकिन उसे जानते न हों! जैक्स लकाँ ने इस बात को दिलचस्प तरीक़े से समझाया है। यही बात संशोधनवादियों के साथ भी लागू होती है। वे जानते हैं कि कीन्सवादी नुस्ख़े पूँजीवाद को अन्ततः नहीं बचा पाएँगे, लेकिन वे पूँजीवाद के अन्त में विश्वास नहीं करते!

संशोधनवादी, सुधारवादी, और कीन्सवादी अर्थशास्त्री जैसे कि जयति घोष, सी-पी- चन्द्रशेखर, प्रभात पटनायक आदि कहते हैं कि अगर इन वित्तीय संस्थानों और बैंकों को बचाने की बजाय सरकार अपने सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों को बढ़ाती, वास्तविक अर्थव्यवस्था में निवेश करती तो इससे बेरोज़गारी कम होती, लोगों की क्रय क्षमता बढ़ती, अर्थव्यवस्था में विकास होता, अल्प-उपभोग का संकट ख़त्म होता और आर्थिक संकट से निजात मिल जाती। ये अर्थशास्त्री वास्तव में वही पुराना हॉब्सनवादी अल्प-उपभोगवादी, सुधारवादी और कीन्सियाई सुझाव दे रहे हैं जिसे बहुत पहले तार्किक तौर पर रद्द किया जा चुका है।

इस तर्क की सबसे बड़ा दीवालियापन यह है कि यह वित्तीय पूँजी की तानाशाही को पूँजीवाद का एक विचलन मानते हैं, नियम नहीं। ये पूँजीवाद के ऐतिहासिक विकास की चारित्रिक विशिष्टताओं को भूल जाते हैं। आज जो एकाधिकारी वित्तीय पूँजी समूची अर्थव्यवस्था पर अपनी जकड़ बनाकर बैठी है, वह पूँजीवाद की नैसर्गिक गति से पैदा हुई है। आज जब कुछ लोग अमेरिका में नारा देते हैं कि ‘मेन स्ट्रीट को बचाओ, वॉल स्ट्रीट को नहीं!’ तो वे यह भूल जाते हैं कि मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर वॉल स्ट्रीट (वित्तीय पूँजी की सत्ता) को बचाये बिना मेन स्ट्रीट (आम जनता) को बचा पाना सम्भव ही नहीं है! इसलिए पूँजीवादी सरकारों के लिए बैंकों और वित्तीय संस्थानों को बचाना और उनकी सेवा करना, उनका विचलन नहीं बल्कि उनका बाध्यकारी नियम है! और यूरोपीय सरकारों ने भी यही किया। पूँजीवादी लूट यहाँ किस तरह से हो रही है, वह बिल्कुल साफ़ है। पहले सरकार दीवालिया हो रहे बैंकों को बचाती है और अरबों डॉलर सरकारी ख़जाने से जनता पर बोझ डालते हुए उन्हें देती है। जब सरकार स्वयं इन बेल आउट पैकेजों के कारण दीवालिया होने की कगार पर पहुँच जाती है, और फिर उन्हीं बैंकों से ऊँची ब्याज़ दरों पर उसी पैसे से क़र्ज़ माँगती है, जो स्वयं उसने इन बैंकों को दिया था, तो ये बैंक इंकार कर देते हैं! वे कहते हैं कि सरकार के बॉण्ड की कोई विश्वस्नीयता इस संकट के दौर में नहीं रही! जबकि यह संकट वास्तव में उनका संकट है जो उन्होंने सरकार के सिर डाल दिया! उल्टा ये बैंक सरकार के सामने शर्त रखते हैं कि अगर वह सार्वजनिक ख़र्चों (यानी, आम जनता के शिक्षा, चिकित्सा, सामाजिक सुरक्षा, आवास, रोज़गार आदि पर होने वाला खर्च) में कटौती करे और नवउदारवादी नीतियों को लागू करे तो वे बेहद ऊँची दरों पर कुछ कर्ज़ दे सकते हैं! यानी, वित्तीय पूँजी की तानाशाही के इस दौर में उसके हर संकट का बोझ जनता पर डाल दिया जाता है, लेकिन जब सरकारें दीवालिया होती हैं और जनता को मज़दूरी और तनख्वाहें देने तक के लिए उनके पास पैसा नहीं होता, तो वित्तीय पूँजी कर्ज़ देने से इंकार कर देती है!

जब जनता के धन से दिये गये बेलआउट पैकेजों द्वारा निजी सम्पत्ति की रक्षा कर ली गयी तो सरकारों पर वित्तीय संस्थानों ने दबाव बनाया कि वे सार्वजनिक ख़र्चों में कटौती करें। सार्वजनिक ख़र्चों में कटौती रोज़गार घटाती है, उपभोग में कमी लाती है और कुल वृद्धि को कम करती है। नतीजतन, सरकारी आमदनी और नीचे आती है। फिर सरकार नये ऋणदाताओं को खोजती है और उनसे ऋण लेती है। नये ऋणदाता भी सार्वजनिक ख़र्चों में और अधिक कटौती की शर्त पर और बेहद ऊँची दरों पर कर्ज़ देते हैं। और फिर यही कुचक्र चलता जाता है, जब तक कि सार्वजनिक ख़र्चों में कटौती कर जनता पर संकट का बोझ बढ़ाते जाना राजनीतिक तौर पर असम्भव हो जाता है। यूनान में यही हुआ है, जहाँ सरकार अगले महीने की तनख्वाहें और पेंशन देने के लिए भी कर्ज़ की गरज़दार है!

विश्व पूँजीवाद ने यूरोज़ोन के संकट से निपटने के लिए क्या किया, यानी, ‘ऑब्सेसिव कम्पल्सिव डिसॉर्डर

एक और मनोवैज्ञानिक रोग होता हैः ऑब्सेसिव कम्पल्सिव डिसॉर्डर। इसमें मरीज़ जानता है कि वह जो कर रहा है वह बेकार है, लेकिन फिर भी वह इसे करता है क्योंकि उसके मन में आदत और फितरत की एक गाँठ है जो उसे ऐसा करने को मजबूर करती है। विश्व पूँजीवाद ने पहले के सबप्राइम संकट के दौर की तरह एक बार फिर दिखलाया है कि उसे यह रोग गम्भीरता से जकड़े हुए है!

इस संकट के फ्समाधानय् के तौर पर पूँजीवादी आर्थिक एजेंसियों ने जो कदम उठाये हैं वे भी लाजवाब हैं! काप़फ़ी बातचीत के बाद बैंक यूनान से अपनी कुछ लेनदारियों को छोड़ने के लिए तैयार हो गये हैं। लेकिन इसके बदले में उन्होंने शर्त रखी है कि यूनानी सरकार जो नये बॉण्ड जारी करेगी उस पर वह 8 प्रतिशत ब्याज़ देगी और संकट के अस्थायी तौर पर दूर हो जाने के बाद अतिरिक्त वार्षिक शुल्क इन बैंकों को देगी! इस तरह वित्तीय पूँजी ने एक ऐसा फ्समाधानय् निकाला है जिससे कि उसका मुनाप़फ़ा और भी ज़्यादा बढ़े। ऊँची ब्याज़ दरों को चुकाने के लिए यूनानी जनता को अच्छी तरह निचोड़ने के लिए वित्तीय पूँजी ने संकट से उबारने के नाम पर नया रास्ता निकाला है। जहाँ तक संकट के समाधान की बात है, तो हर कोई जानता है कि इससे संकट दूर नहीं होगा बल्कि और ज़्यादा बढ़ेगा और इस बार राजनीतिक ताैर पर ज़्यादा विध्वंसात्मक होगा। अगर यह षड़यन्त्र सफल होता है, जिसकी सम्भावना ज़्यादा है, तो यूनानी नागरिकों की औसत आमदनी में 14 से 20 प्रतिशत तक की गिरावट आयेगी।

इस पूरे संकट का तात्कालिक कारण, जैसा कि हम पहले ही बता आये हैं, यूरोप की कमज़ोर राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं पर संकट के दौर में बेल आउट पैकेज देकर वित्तीय निजी पूँजी की रक्षा करने चलते भारी कर्ज़ चढ़ना है। इन अर्थव्यवस्थाओं में यूनान एक तरह से कमज़ोर कड़ी थी। लेकिन यूनान की अर्थव्यवस्था डावाँडोल होने के साथ ही पूरी श्रृंखला में ही उथल-पुथल मच गयी है। इटली में आर्थिक संकट के कारण बर्लुस्कुनी की सरकार गिर चुकी है और स्पेन में भी हालात कुछ ऐसे ही बनते नज़र आ रहे हैं। अगर कुछ यूरोपीय देशों पर कर्ज़ के आँकड़े देखें तो हम पाते हैं कि फिनलैण्ड पर क़र्ज़ उसके राष्ट्रीय सकल घरेलू उत्पाद का 50 प्रतिशत है, जर्मनी के सकल घरेलू उत्पाद का 83 प्रतिशत, फ्रांस के सकल घरेलू उत्पाद का 87 प्रतिशत, पुर्तगाल के सकल घरेलू उत्पाद का 106 प्रतिशत, आयरलैण्ड के सकल घरेलू उत्पाद का 109 प्रतिशत, इटली के सकल घरेलू उत्पाद का 121 प्रतिशत, यूनान के सकल घरेलू उत्पाद का 166 प्रतिशत और स्पेन के सकल घरेलू उत्पाद का 67 प्रतिशत है। यूनान में संकट के चरम पर पहुँचने के बाद अब लोगों की निगाह इन अन्य देशों पर भी है। जर्मनी और फ्रांस के सामने ज़्यादा कर्ज़ के बावजूद संकट उतना गम्भीर नहीं है क्योंकि उनकी सरकारों की आर्थिक हालत मज़बूत होने के नाते वित्तीय बाज़ार में उनकी पर्याप्त विश्वस्नीयता है। लेकिन इटली और स्पेन के लिए संकट वास्तविक और गम्भीर है। विशेष तौर पर, इटली की हालत काप़फ़ी पतली है। इटली पर कर्ज़ उसके सकल घरेलू उत्पाद का 121 प्रतिशत है और उसे अपनी देनदारियों को निपटाने के लिए 650 अरब यूरो की आवश्यकता है। लेकिन ऋणदाता वित्तीय एजेंसियाँ और बैंक उसे भी ऋण देने के लिए तैयार नहीं है, जबकि इटली की सरकार ने बर्लुस्कुनी के समय में और नयी सरकार बनने के बाद भी, स्वयं ही सार्वजनिक ख़र्चों में भारी कटौती का एलान कर दिया था। ऐसे में इटली की अर्थव्यवस्था दीवालिया हो सकती है और वह यूरोज़ोन के लिए भयंकर होगा क्योंकि इटली की अर्थव्यवस्था एक बड़ी अर्थव्यवस्था है और यूरोज़ोन के कुल सकल घरेलू उत्पाद में उसका योगदान करीब 17 प्रतिशत है।

निष्कर्ष के स्थान पर

यूरोज़ोन का संकट आगे क्या मोड़ लेने वाला है, इसके बारे में ठीक-ठीक कुछ भी बता पाना मुश्किल है। लेकिन एक बात स्पष्ट है कि पूरा पूँजीवादी विश्व जिस भयंकर आर्थिक संकट के भँवर में फँस गया है, यह उसी की एक नयी अभिव्यक्ति है। यह संकट पूँजीवाद का अन्तकारी संकट है, जिसे किसी परिवर्तनकामी शक्ति की अनुपस्थिति में पूँजीवाद टालता रह सकता है। लेकिन यह उससे मुक्ति नहीं पा सकता। तमाम सुधारवादियों, संशोधनवादियों और सामाजिक जनवादियों के कीन्सियाई नुस्ख़ों और अल्प-उपभोगवादी हॉब्सनवादी तर्कों से भी इसका कोई भला नहीं होने वाला है। पूँजीवादी व्यवस्था और उसके नियन्ता कभी लम्बी दूरी का नहीं सोच सकते है। परस्पर गलाकाटू प्रतिस्पर्द्धा का जो खेल वह शुरू करते हैं, उसमें जंगल के नियम काम करते हैं। कोई भी देश सार्वजनिक ख़र्च बढ़ाकर और कल्याणकारी नीतियों को लम्बे समय तक अपना कर पूँजी की प्रतिस्पर्द्धात्मकता को ख़त्म नहीं कर सकता। पूँजी के लगातार फैलते जाने का नियम किसी भी किस्म के दीर्घकालिक विनियमन का निषेध करते हैं। इसलिए संकट के जानलेवा हो जाने पर कुछ समय के लिए कुछ आरज़ी कदम उठाये जा सकते हैं लेकिन व्यवस्थित और व्यवस्थागत तौर पर कल्याणकारी नीतियों का ख़र्च उठा पाने का दौर अब बीत चुका है। भूमण्डलीकरण के इस दौर में पूँजी गली के उस छोर पर पहुँच चुकी है, जहाँ से रास्ता बन्द है। इसके आगे का रास्ता पूँजीवाद के दायरे के भीतर सम्भव नहीं है।

यूरोज़ोन के संकट ने दिखला दिया है कि ये आर्थिक संकट निकट भविष्य में दूर होने वाला नहीं है। इस संकट से तात्कालिक तौर पर निजात पाने के लिए उत्पादक शक्तियों का विनाश करना पूँजीवाद के चौधरियों के लिए तेज़ी से एक बाध्यता में तब्दील होता जा रहा है। आने वाले समय में अगर विश्व के किसी कोने में युद्ध की शुरुआत होती है तो यह ताज्जुब की बात नहीं होगी। साम्राज्यवाद का अर्थ है युद्ध। और भूमण्डलीकरण साम्राज्यवाद की अन्तिम मंजिल है, जहाँ यह अपने सबसे पतनशील और विध्वंसक रूप में मौजूद है। अपनी उत्तरजीविता के लिए उसे मानवता को युद्धों में झोंकना पड़े तो भी वह हिचकेगा नहीं। इराक युद्ध, अफगानिस्तान युद्ध, अरब में चल रहा मौजूदा साम्राज्यवादी हस्तक्षेप इसी सच्चाई की गवाही देते हैं। यूरोज़ोन का संकट पूरे साम्राज्यवादी विश्व के समीकरणों में बदलाव ला रहा है। चीन का एक बड़ी साम्राज्यवादी शक्ति के तौर पर उदय, नयी उभरती अर्थव्यवस्थाओं की ताक़त का बढ़ना, रूस का पुनरुत्थान, ये सभी कारक इसके लिए ज़िम्मेदार हैं और ये भी नये और बड़े पैमाने पर साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा शुरू होने की सम्भावना पैदा कर रहे हैं।

इस कुचक्र के आज़ादी का रास्ता सिर्फ और सिर्फ एक है – इस पूरी मानवद्रोही व्यवस्था के खि़लाफ़ मेहनतकशों का इंकलाब। यही आज चिन्ता पैदा करने वाला कारक है। साम्राज्यवाद के सन्तृप्ति बिन्दु पर पहुँचने के साथ दुनिया के अलग-अलग कोनों में जनता स्वतःस्फूर्त रूप से सड़कों पर उतर रही है और मुनाफ़ाखोर व्यवस्था की मुख़ालफ़त कर रही है। लेकिन क्रान्तिकारी नेतृत्व या तो बेहद कमज़ोर है या फिर अनुपस्थित है। ऐसे में, जनता के स्वतःस्फूर्त उभार ज्वार और भाटे की तरह उठते और शान्त करते रहेंगे। पूँजीवाद युद्धों को पैदा कर-करके, उत्पादक शक्तियों का विनाश कर-करके अपनी जड़ता की ताक़त से टिका रहेगा। लेकिन हम उम्मीद कर सकते हैं कि ऐसा अनन्त काल तक नहीं चलेगा। अपनी विचारधारात्मक और राजनीतिक कमियों पर क्रान्तिकारी सारी दुनिया में सोच रहे हैं और उन्हें दूर करने का प्रयास कर रहे हैं। आने वाले समय में पूँजीवाद के बढ़ते संकट के साथ यह प्रक्रिया भी तेज़ी से मुकाम पर पहुँचेगी। रोज़ा लक्ज़ेमबर्ग ने कहा था कि मानवता के समक्ष दो ही विकल्प हैं-समाजवाद या बर्बरता। आज कहा जा सकता है कि मानवता के समक्ष दो ही विकल्प हैं-समाजवाद या विनाश! और हमें मानवता की रचनात्मकता, विवेक और जीवट पर पूरा भरोसा है। हम निश्चय ही विनाश के विकल्प को नहीं चुनेंगे!

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, नवम्‍बर-दिसम्‍बर 2011

 

'आह्वान' की सदस्‍यता लें!

 

ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीआर्डर के लिए पताः बी-100, मुकुन्द विहार, करावल नगर, दिल्ली बैंक खाते का विवरणः प्रति – muktikami chhatron ka aahwan Bank of Baroda, Badli New Delhi Saving Account 21360100010629 IFSC Code: BARB0TRDBAD

आर्थिक सहयोग भी करें!

 

दोस्तों, “आह्वान” सारे देश में चल रहे वैकल्पिक मीडिया के प्रयासों की एक कड़ी है। हम सत्ता प्रतिष्ठानों, फ़ण्डिंग एजेंसियों, पूँजीवादी घरानों एवं चुनावी राजनीतिक दलों से किसी भी रूप में आर्थिक सहयोग लेना घोर अनर्थकारी मानते हैं। हमारी दृढ़ मान्यता है कि जनता का वैकल्पिक मीडिया सिर्फ जन संसाधनों के बूते खड़ा किया जाना चाहिए। एक लम्बे समय से बिना किसी किस्म का समझौता किये “आह्वान” सतत प्रचारित-प्रकाशित हो रही है। आपको मालूम हो कि विगत कई अंकों से पत्रिका आर्थिक संकट का सामना कर रही है। ऐसे में “आह्वान” अपने तमाम पाठकों, सहयोगियों से सहयोग की अपेक्षा करती है। हम आप सभी सहयोगियों, शुभचिन्तकों से अपील करते हैं कि वे अपनी ओर से अधिकतम सम्भव आर्थिक सहयोग भेजकर परिवर्तन के इस हथियार को मज़बूती प्रदान करें। सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग करने के लिए नीचे दिये गए Donate बटन पर क्लिक करें।